घंटी बजी तो प्रकाश ने गेट की तरफ देखा। कामवाली इस समय? प्रिया घर पर नहीं थीं और बच्चे स्कूल गए थे। सामान्यत: ऐसी स्थिति में प्रिया कामवाली को बता कर जाती है ताकि उसके आने के बाद ही कामवाली काम करने आए, नहीं तो उल्टा पल्टा कर के चली जाती है। आज भूल गई क्या?
प्रकाश ने देखा, कामवाली मंजू सजी संवरी दिखी। साँवला रंग लेकिन चेहरे की कटिंग और नाटे से शरीर में गजब का अनुपात ! यौवन के पहले ही स्टेज में औरत बना दी गई थी इसलिए चेहरे पर अभी भी किशोरावस्था का लावण्य था। उसने अपने सिर को झटका - ये साला खुराफाती दिमाग भी!
प्रश्नवाचक निगाहों से मंजू को देखा तो बोली,"पड़ोस की भाभी के यहाँ बाद में जाना था सो सोचा यहाँ निपटाती चलूँ। भाभी नाहीं हैं का?.... कउनो बात नहीं।"
मंजू उसे रगड़ती सी गेट से भीतर आई। प्रकाश का मन जाने कैसा हो गया। चुपचाप ड्राइंग रूम में आ कर बासी पेपर पढ़ने लगा लेकिन मन रसोई में हो रही खुड़बुड़ में लगा रहा। मंजू बार बार आती रही जैसे कुछ कहना चाह रही हो। फिर उसने ऐसे ही बात छेड़ दी," का भैया, टी वी नाहीं देख रहे हो?"।
इस तरह उसने आज तक बात नहीं की थी। प्रकाश ने सिर उपर उठाया तो मंजू की निगाहों में अजीब सा निमंत्रण और बेचैनी दिखी। जाने क्या क्या सोच गया प्रकाश! उसे अब मंजू की नीयत पर शक होने लगा था।
"घर माँ घरनी ना हो तो बड़ा सूना लगत है।" पोंछा लगाती मंजू ने उसके पास आने पर बोला था।
प्रकाश ने नजर उठाई तो ब्लाउज से झाँकते यौवन चिह्न दिख गए।
सॉफ्ट सिडक्सन ! - प्रकाश के मन में तूफान मचलने लगा। किसी तरह उसने खुद को संभाला।
काम खत्म करने के बाद मंजू फिर पास आई," भइया ई पीसीओ कहाँ होगा?"। आँखों में फिर वही खामोश निमंत्रण। प्रकाश ने जैसे तैसे जवाब दिया," रोड पर किसी से पूछ लेना।"
"अच्छा, गेट बन्द कै लो।"
मंजू चली गई। गेट बन्द करते प्रकाश ने राहत की साँस ली। सीने में धौंकनी चल रही थी। कैसी औरत है! एक से संतोष नहीं इसे। प्रकाश को मन ही मन अपने नियंत्रण पर गर्व हो आया। घर में आ कर बैठा ही था कि फिर घंटी बजी।
बाहर आया तो मंजू खड़ी थी।
अब क्या हुआ? उसने सवालिया नज़रों से मंजू को देखा।
"देखे आए रहेन कि गेट ठीक से बन्द किए कि नहीं? आज कल चोर दिन माँ ही हाथ साफ कर देत हैं।"
प्रकाश मन ही मन भुनभुनाया," तुम भी तो दिन में ही मेरी सफाई करना चाहती हो।"
गेट बन्द कर लौटा ही था कि पीछे से आवाज आई," भइया!"। मंजू की आँखों में अनुरोध था !
"क्या है?" प्रकाश खीझ गया।
"एगो फोन लगाय दो। मोबाइल तो है न तुम्हरे पास?" प्रकाश ने गेट नहीं खोला।
"अन्दर आने दो।"
गेट को खुद खोल मंजू भीतर आ गई थी। उसकी ओर देखते हुए उसने चोली में हाथ डाल कर एक कागज का टुकड़ा निकाला। एक बार फिर गोलाइयाँ दिख गईं। चाहते हुए भी प्रकाश नज़र हटा नहीं पाया। मंजू उससे सट कर खड़ी हो गई ,"ई नम्बर लगा दो। मोबाइल नहीं है का? घर माँ चलो।"
" नहीं नहीं तुम यहीं रहो मैं ले आता हूँ।"
मोबाइल ले कर प्रकाश बाहर आया तो हाँफ रहा था।
"का हुआ? तबियत नाहीं ठीक तो घर माँ चले चलो। वहीं से लगा देना।" फिर घर के भीतर जाने की कोशिश !
"नहीं मैं ठीक हूँ।"
प्रकाश ने मोबाइल पर नम्बर लगाया तो नम्बर मौजूद नहीं होने का सन्देश सुनाई दिया। दुबारा ज़ीरो लगा कर ट्राई किया तो भी वही सन्देश।
"नम्बर गलत है।"
"फिर लगाओ। इस पर बात होत है।" मंजू ने जोर दे कर कहा। प्रकाश ने नज़र उठाई तो उसे गेट पर पीठ अड़ा कर सीने से आँचल हटाए पाया। आँखों में फिर वही अनुरोध।
"नहीं लगता।"
"मुझे सुनाओ, क्या कहता है?"
मंजू सट गई।
"जाओ, पीसीओ से ट्राई कर लेना।"
आँखों में हसरत लिए मंजू बाहर गई और प्रकाश ने गेट बन्द किया। बेड रूम में आ कर हाँफता बिस्तर पर ढेर हो गया।
बाप रे !...
...उसे अपने पर फिर गर्व हो आया था।
....
एक हफ्ते के बाद प्रिया ने बताया," आज कामवाली बहुत रो रही थी। उसका मर्द बाहर रहता है। पिछले दो महीनों से कोई खबर नहीं है। मोबाइल नम्बर दिया था, वह भी नहीं लगता।"
उस समय प्रकाश बन्द गेट के पल्ले का सहारा लिए खड़ा था। उसे लगा कि गेट अचानक खुल गया है, भहरा कर वहीं गिर पड़ा।
_____________________________________
इस कहानी का पोडकास्ट श्री अनुराग शर्मा के स्वर में नीचे दिये लिंक पर उपलब्ध है: हिन्दयुग्म पर 'गेट'
प्रकाश ने देखा, कामवाली मंजू सजी संवरी दिखी। साँवला रंग लेकिन चेहरे की कटिंग और नाटे से शरीर में गजब का अनुपात ! यौवन के पहले ही स्टेज में औरत बना दी गई थी इसलिए चेहरे पर अभी भी किशोरावस्था का लावण्य था। उसने अपने सिर को झटका - ये साला खुराफाती दिमाग भी!
प्रश्नवाचक निगाहों से मंजू को देखा तो बोली,"पड़ोस की भाभी के यहाँ बाद में जाना था सो सोचा यहाँ निपटाती चलूँ। भाभी नाहीं हैं का?.... कउनो बात नहीं।"
मंजू उसे रगड़ती सी गेट से भीतर आई। प्रकाश का मन जाने कैसा हो गया। चुपचाप ड्राइंग रूम में आ कर बासी पेपर पढ़ने लगा लेकिन मन रसोई में हो रही खुड़बुड़ में लगा रहा। मंजू बार बार आती रही जैसे कुछ कहना चाह रही हो। फिर उसने ऐसे ही बात छेड़ दी," का भैया, टी वी नाहीं देख रहे हो?"।
इस तरह उसने आज तक बात नहीं की थी। प्रकाश ने सिर उपर उठाया तो मंजू की निगाहों में अजीब सा निमंत्रण और बेचैनी दिखी। जाने क्या क्या सोच गया प्रकाश! उसे अब मंजू की नीयत पर शक होने लगा था।
"घर माँ घरनी ना हो तो बड़ा सूना लगत है।" पोंछा लगाती मंजू ने उसके पास आने पर बोला था।
प्रकाश ने नजर उठाई तो ब्लाउज से झाँकते यौवन चिह्न दिख गए।
सॉफ्ट सिडक्सन ! - प्रकाश के मन में तूफान मचलने लगा। किसी तरह उसने खुद को संभाला।
काम खत्म करने के बाद मंजू फिर पास आई," भइया ई पीसीओ कहाँ होगा?"। आँखों में फिर वही खामोश निमंत्रण। प्रकाश ने जैसे तैसे जवाब दिया," रोड पर किसी से पूछ लेना।"
"अच्छा, गेट बन्द कै लो।"
मंजू चली गई। गेट बन्द करते प्रकाश ने राहत की साँस ली। सीने में धौंकनी चल रही थी। कैसी औरत है! एक से संतोष नहीं इसे। प्रकाश को मन ही मन अपने नियंत्रण पर गर्व हो आया। घर में आ कर बैठा ही था कि फिर घंटी बजी।
बाहर आया तो मंजू खड़ी थी।
अब क्या हुआ? उसने सवालिया नज़रों से मंजू को देखा।
"देखे आए रहेन कि गेट ठीक से बन्द किए कि नहीं? आज कल चोर दिन माँ ही हाथ साफ कर देत हैं।"
प्रकाश मन ही मन भुनभुनाया," तुम भी तो दिन में ही मेरी सफाई करना चाहती हो।"
गेट बन्द कर लौटा ही था कि पीछे से आवाज आई," भइया!"। मंजू की आँखों में अनुरोध था !
"क्या है?" प्रकाश खीझ गया।
"एगो फोन लगाय दो। मोबाइल तो है न तुम्हरे पास?" प्रकाश ने गेट नहीं खोला।
"अन्दर आने दो।"
गेट को खुद खोल मंजू भीतर आ गई थी। उसकी ओर देखते हुए उसने चोली में हाथ डाल कर एक कागज का टुकड़ा निकाला। एक बार फिर गोलाइयाँ दिख गईं। चाहते हुए भी प्रकाश नज़र हटा नहीं पाया। मंजू उससे सट कर खड़ी हो गई ,"ई नम्बर लगा दो। मोबाइल नहीं है का? घर माँ चलो।"
" नहीं नहीं तुम यहीं रहो मैं ले आता हूँ।"
मोबाइल ले कर प्रकाश बाहर आया तो हाँफ रहा था।
"का हुआ? तबियत नाहीं ठीक तो घर माँ चले चलो। वहीं से लगा देना।" फिर घर के भीतर जाने की कोशिश !
"नहीं मैं ठीक हूँ।"
प्रकाश ने मोबाइल पर नम्बर लगाया तो नम्बर मौजूद नहीं होने का सन्देश सुनाई दिया। दुबारा ज़ीरो लगा कर ट्राई किया तो भी वही सन्देश।
"नम्बर गलत है।"
"फिर लगाओ। इस पर बात होत है।" मंजू ने जोर दे कर कहा। प्रकाश ने नज़र उठाई तो उसे गेट पर पीठ अड़ा कर सीने से आँचल हटाए पाया। आँखों में फिर वही अनुरोध।
"नहीं लगता।"
"मुझे सुनाओ, क्या कहता है?"
मंजू सट गई।
"जाओ, पीसीओ से ट्राई कर लेना।"
आँखों में हसरत लिए मंजू बाहर गई और प्रकाश ने गेट बन्द किया। बेड रूम में आ कर हाँफता बिस्तर पर ढेर हो गया।
बाप रे !...
...उसे अपने पर फिर गर्व हो आया था।
....
एक हफ्ते के बाद प्रिया ने बताया," आज कामवाली बहुत रो रही थी। उसका मर्द बाहर रहता है। पिछले दो महीनों से कोई खबर नहीं है। मोबाइल नम्बर दिया था, वह भी नहीं लगता।"
उस समय प्रकाश बन्द गेट के पल्ले का सहारा लिए खड़ा था। उसे लगा कि गेट अचानक खुल गया है, भहरा कर वहीं गिर पड़ा।
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इस कहानी का पोडकास्ट श्री अनुराग शर्मा के स्वर में नीचे दिये लिंक पर उपलब्ध है: हिन्दयुग्म पर 'गेट'
मानव मन की कमजोरी उजागर करती बहुत शशक्त कहानी...वाह...बहुत बधाई आपको...
जवाब देंहटाएंनीरज
bahut hi sashakt aur achchi lagi aapki yeh kahani........
जवाब देंहटाएंbadhai........
बेहद सशक्त रचना. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
टुच्ची पुरुष मानसिकता -आईना दिखाती कहानी ! गिरिजेश अगर यह पहली कहानी है आपकी
जवाब देंहटाएंतो अंतिम कैसी होगी ? कुछ इस कहानी ने और कुछ कहानीकार के रूप में आपके भविष्य
के उधेड़बुन में डिस्टर्ब हो गया हूँ - आलस के बाद की यह अंगडाई मुबारक हो !!
सशक्त रचना.
जवाब देंहटाएंसब की अपनी कुण्ठायें हैं, अपने भय। सब अपनी पोजीशन कवर करते हैं।
जवाब देंहटाएंमैं प्रकाश को भी गलत नहीं कहूंगा और मंजू को भी!
श्रेष्ठतम कहानी वह होनी चाहिए जो कुछ द्वैध भावों /सूक्ष्म सकेतों को अनावृत ही छोड़ दे !
जवाब देंहटाएंऔर यह इस कहानी में भी सायास या अनायास /जाने या अनजाने हो गया है -
पुरुष दृष्टि ही अनिवार्यतः क्यों दोषित ठहराई जाय !
सच में, प्रकाश बहुत बहादुर टाइप आत्मा लगते हैं। इतना संयम और अनुशासन श्लाघ्य है।
जवाब देंहटाएंलेकिन मंजू की व्यथा का क्या कहें? बेचारी...।
क्या बात है! पहली बार पढ़ा। अपने आप को आलसी क्यों कहते हो बेहद सशक्त रचना। बधाई
जवाब देंहटाएंसागर की कविता के बाद आपकी कहानी पढ़ी ...ब्लॉग जगत में ऐसे बेलौसपने की बेहद जरुरत है जो नंगी उधडी सचाइयों को वैसे ही उधेड़कर दिखाए जैसी वे है ...आदमी की नज़र ऐसी ही है.....ओर ऐसी ही रहेगी......
जवाब देंहटाएंइस कहानी ने जिस तरह मेरे भीतर एप्रोच किया उसे स्टाप वाच में पीछे छूटते जाते लम्हों का मादक बयां कह सकता हूँ. एक घटना को सूक्ष्म विवरणों से सजा कर टाइम फ्रेम के साथ न्याय करना बड़ा ही दुष्कर कार्य है पर आपने बखूबी किया है. बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ पर आपकी कसावट में मेरे शब्द भी बंध गए हैं. सुंदर ही नहीं पूर्ण कहानी... बधाई !
जवाब देंहटाएंसुंदर कहानी...
जवाब देंहटाएंमानव मन के अंतर्द्वन्दों का बहुत सही निरुपण किया है आपने। लेकिन यह जरूर कहना चाहूँगा कि इसे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो ज्यादा बिंब मिलेंगे, बजाय नैतिकता के चश्मे के..
एक लचर रचना जिसे कितने ही लोगों ने कितनी ही बार कितनी ही तरह लिखा है. अपनी ओरिजिनलिटी बनाये रखे.
जवाब देंहटाएंआपकी पूर्व की रचनाओं से तो कैसी भी तुलना संभव नहीं.
कुछ भी गलत नहीं,ख़ास कर कुछ टिप्पणियों के आलोक में इस कहानी को फिर फिर पढता हूँ तो..
जवाब देंहटाएंपुरुष के अंतर्द्वंद्व उसकी पूर्व नियोजित नैतिक विजय के कारण उसे टुच्चे पन में बदलने नहीं देते,अलबत्ता मंजू के आवेग पाठक को समझने पड़ते हैं क्योंकि कहानी पुरुष के नज़रिए को सामने लाती है.मैं कहूँगा कि कथा एक आम नौकरीपेशा भारतीय मर्द के सनातन रक्षात्मक रवैये को उसके कुछ कंटूर्स के साथ बेहतरीन स्पर्श देती है.थोडा और 'ईमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्र'वाला भाव विस्तार पता तो मज़ा दुगना रहता.
बधाई,फिल्लम अभी ख़तम नहीं हुई है :)
अगली के इंतज़ार में.
gazab
जवाब देंहटाएंआपका सृजनात्मक कौशल हर पंक्ति में झांकता दिखाई देता है।
जवाब देंहटाएंका भैया, मतलब कुछ नहीं छोडोगे ! झाडे रहिये. हमको तो आजे पता चला कि इस विधा के भी खिलाडी हैं आप. खोलते रहिये पोटली.
जवाब देंहटाएं@ पंकज जी की टिप्पणी - " एक लचर रचना जिसे कितने ही लोगों ने कितनी ही बार कितनी ही तरह लिखा है. अपनी ओरिजिनलिटी बनाये रखे.
जवाब देंहटाएंआपकी पूर्व की रचनाओं से तो कैसी भी तुलना संभव नहीं."
________________
पहले थोड़ी पृष्ठभूमि। आज एलर्जी से पस्त पड़ा हुआ था। श्रीमती जी सासु जी के साथ मार्केटिंग गई हुई थीं। बड़ी साली (सढ़ुवाइन) का आज जन्मदिन था, वह भी आई हुई थीं। जाहिर था बच्चे भी मौसी के साथ मौज मस्ती में बाहर थे। मैं घर में अकेला। प्रशंसा, प्रशंसा ... मत्त, मस्त (अरविन्द जी की पोस्ट का सन्दर्भ लें)। सोचा कि अपनी बहुत दिनों की तमन्ना पूरी करूँ - आज तक कहानी नहीं लिखा था (लंठई वाली सीरीज तो कथा है।) क्यों न लिख डालूँ?
दिमाग घुमाया तो एक स्थिति बनती दिखी -कामवाली आने वाली थी। वह और मैं - घर में अकेले रहने वाले थे। शैतानी दिमाग चल पड़ा और पहली कहानी ने जन्म लिया। ... ऐसी परिस्थितियाँ ओरिजिनल नहीं होतीं। इस मामले में ओरिजिनलटी की ग़ैर मौजूदगी वाली आप की बात पूरी सच है। रचना किसी को अच्छी लग सकती है तो किसी को लचर - यह भी सही है। जाने कितने शैतानी दिमागों ने इन पर लिखा होगा - लिहाजा विषय ओरिजिनल नहीं है, यह भी सच है।
लेकिन मेरी रचना ओरिजिनल है - यह भी एकदम सच है। एक ही विषय परिस्थिति को लेकर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। ओरिजिनलटी इससे बिल्कुल नहीं समाप्त हो जाती कि वर्ण्य विषय पर दूसरे कितनी ही बार कितनी ही तरह से लिख चुके हैं। प्रश्न यह है कि क्या विषयगत संवेदना में कुछ नया जुड़ पाया? मेरा मत है कि हाँ। गेट, पीसीओ और मोबाइल नम्बर के न लगने के प्रतीक को समझिए। नया है। ओरिजिनल है।(मेरी समझ से। किसी ने यह भी लिख मारा हो तो संयोगों की बलिहारी - संगीता जी, आज गत्यात्मक ज्योतिष बहुत याद आ रहा है।)
और भी बहुत कुछ है जिसकी तरफ अरविन्द जी ने इशारा किया है। मेरी पीठ ठोंकिए - बच्चे का पहला प्रयास था। अपेक्षाएँ रखिए लेकिन उत्साहवर्धन करिए - उंतालिस साल के बच्चे का।:)
एक बात और- इस कहानी के बारे में सिद्धार्थ को बताया था (खराब आदत है - कुछ ब्लॉगर्स को मैं बहुत तंग करता हूँ -जैसे अरविन्द जी, सिद्धार्थ, राजीव ओझा जी, अजय झा। अन्ना को तो बहुत तंग करता था, शायद इसी लिए नाराज हो गए, बात तक करना बन्द कर दिए:( )। शाम को पढ़ने के बाद सिद्धार्थ ने फोन किया। बताया कि उनकी श्रीमती जी इसे कहानी नहीं - मेरे साथ घटित सा बता रही हैं ( रिश्ता है - भवई और जेठ का, कभी कभी ठिठोली सी भी हो जाती है, गाँव वाले जानें तो हाय हाय करें।) उनका संकेत भहरा कर गिरने की ओर था। सीधे प्रश्न किया गया कि क्या मंजू अभी भी घर में काम करती है? इसका क्या जवाब दूँ? एक तरफ नॉन-ओरिजिनल वाली बात और एक तरफ ऐसी कशिश कि पढ़ने वाला घटित सा समझता है! ब्लॉगरी त्वरित सम्प्रेषण है। हिन्दी बेल्ट के सहज पारिवारिक वातावरण से जुड़ कर यह कुछ नया कर दिखाता है। निहायत व्यक्तिगत भी और सामूहिक भी। साहित्य रचना के पुराने तरीकों में यह बात नहीं मिलती।
पूर्व की रचनाओं के बारे में भी कभी रेणु, कभी प्रेमचन्द तो कभी श्रीलाल शुक्ल का नाम लिया गया। मैं धन्य हुआ कि एक निहायत ही असाहित्यिक होते जा रहे समाज में मैं ऐसा कुछ दे पा रहा हूँ जो इन विभूतियों की याद दिला रहा है। आप को पहले की वे रचनाएँ ओरिजिनल लगती होंगी। है न कमाल की बात! इस द्वैधा के कारण ही आज तक मैंने अपनी ऐसी रचनाएँ प्रकाशन के लिए नहीं भेजीं। क्या पता कल को कोई बोल दे - अरे बाउ तो राग दरबारी का फलाना चरित्र है ! ...
... सब स्वीकार है। आनन्द आया कि वाह वाह, उत्तम, बढ़िया, श्रेष्ठ.. जैसी टिप्पणियों वाले हिन्दी ब्लॉग जगत में एक और खरी बेलौस बात कहने वाला बढ़ा। हिन्दी ब्लॉगिंग को इसकी बहुत आवश्यकता है। मेरा पूरा प्रयास रहेगा कि आप की अपेक्षाओं पर खरा उतरूँ। जिससे स्नेह होता है, उसको ही डाँटा जाता है। मैं आप की टिप्पणी को इसी रूप में ले रहा हूँ। यही क्या कम है कि इतना बढ़िया लेक्चर आप की टिप्पणी के कारण ही निकल
आया। ;) 'गेट' की जय हो। अगली कहानी धुरन्धर 100 प्रतिशत ओरिजिनल होगी।
हुक्म दिए थे सो हाजिर हो गये ...हुक्म नहीं मिलता तो बजाते तो हईये हैं ....आज एक नया गेट खुलते देखा । मुझे पता लगा कि पहली कहानी है तो जाहिर है कि फ़िर ...गेट ....से बढिया और क्या ...और जब गेट ने हा पूरा मानव मनोविज्ञान खींच डाला तो ...अभी तो भवन , उपवन सब बाकी हैं ही । धुरंधर ...लंठ ...आलसी ...सब प्रतिमान हैं ..आप पूजनीये हैं मेरे लिए..किन किन कारणो से ये मैं क्या कहूं .....आप खुदे जाने ॥
जवाब देंहटाएंTheek Hai, aisi galat fahmiyaan ho jati bade bade sharon mein.
जवाब देंहटाएंसुप्रवाह शिल्प, बगैर किसी भाषाई जादूगरी के उवाची गयी एक सशक्त कथा!
जवाब देंहटाएंकथ्य भले ही पुराना रहा हो, प्रस्तुती में नयापन है!
कथा के बाद की आपकी टिप्पणी भी दिलचस्प है। ...और ये अगर सचमुच कहानी में पहला प्रयास है, तो अद्भुत है।
प्रकाश se ek tho kaam theek se nahi hota hai. Aalsi kahin ka kambukht.
जवाब देंहटाएंBechari मंजू kahan kahan Bhatki hogi number lagane ke liye.
akelepan me apni hi kmjori ko ujagar karti bina lag lpet liye huye ak sshakt kahani .
जवाब देंहटाएंटिप्पणी नहीं, डिग कर रहा हूँ ।
जवाब देंहटाएंकहानी भी पढी, पंकज जी की टिप्पणी भी और आपका जवाब भी.
जवाब देंहटाएंप्रिय
जवाब देंहटाएंएक पुरानी कथा है जिसमें कहा गया है कि मित्रों को कुम्हार की तरह होना चाहिये. कुम्हार को घडा बनाते देखा है ? कितना पीटता है चाक से उतारे बरतन को जिससे उसे घडे का आकार दे सके. लेकिन इस कथा का असली हिस्सा कुछ और है, देखा है, जब कुम्हार बरतन को बाहर से एक हाथ से पीटता है तब उसका दूसरा हाथ कहाँ होता है ? बरतन के अंदर, सहारा देते हुये. कुम्हार उसे पीटेगा नहीं तो वह घडा नहीं बनेगा और सहारा नहीं देगा तो वह टूट जायेगा.
तुमने स्वयम को बच्चा कहा, बच्चा न सही अनुज तो हो ही. मेरी टिप्पणी थोडी कटु जरुर थी पर मेरा प्रोत्साहन उत्साहवर्धन हमेशा तुम्हारे साथ है. कुम्हार की तरह मेरा दायित्व है कि मैं कोशिश करूं कि तुम्हें आकार मिले ( यद्यपि मैं नहीं जानता कि मैं इस योग्य हूँ कि नहीं).
जब मैंने ओरिजनलिटी की बात की तो मेरा भाव था विषय की मौलिकता, कथन की मौलिकता और शैली की मौलिकता. अन्यथा न लें, मुझे कुछ कमी लगी जो प्रकट कर दी या कि तुम्हारी पूर्व की रचनाओं ने अपेक्षायें बढा दी हैं.
तुमने नॉन-ओरिजिनल और घटी सी का जिक्र किया है, सभी संबन्धित लोगों से क्षमा के साथ कहुंगा कि वह कशिश नहीं चुलह थी, उसे रचनात्मकता के संदर्भ में न देखे.
स्नेह.
स्यान्नास्ति
जवाब देंहटाएंस्याद् अस्ति न नास्ति च अस्ति
स्याद् अवक्तव्य
स्याद् अस्ति च अवक्तव्यश्च
स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्च
स्याद् अस्ति च नास्ति च अस्ति।
सामान्यतः कविता और कहानी से अपनापन नहीं दिखा पाता हूँ , पर आपकी कहानी ने बाँध कर रखा ......... जाहिर कुछ तो इसमें है ?
जवाब देंहटाएंहम सब के अन्दर कभी ना कभी मंजू और प्रकाश के घर किये हुए हैं?
मानव मन की कमजोरी को कितनी गहराई से नापा है अपने....... एक दिन मैंने भी एक एकांतवास किया था ......... दूसरे दिन पोस्ट निकली "दो पैग - शांति और प्रभु दर्शन".......
जवाब देंहटाएंअच्छे साहित्य में साहितियिक समझ और शब्द होने चाहिए..... जो आप में भरपूर हैं... मैं ये दावे के साथ कह सकता हूं.....
एक बार लगा कि अब साहित्य हल्का हो रहा है "ब्लाउज से झाँकते यौवन चिह्न"
जवाब देंहटाएंआखिर में प्रकाश गिरा तो बात संभल गई।
कई बार पाठक का पूर्वाग्रह भी कहानी को ले डूबता है। मैं सोच कुछ और रहा होउं और उस प्रवाह में नहीं आ पाउं जिसमें आप ले जाना चाहते हैं, तो गड़बड़ हो सकती है.. :)