हमहूँ मुक्ति
हमहूँ बोध
हमहूँ मुक्तिबोध।
बोधुआ भी कर रहा
मुक्ति पर शोध
जो केहु टोके
करता है किरोध।
हमने कहा छोड़ आगे बढ़
हमने कहा छोड़ आगे बढ़
का मुक्तिबोध के बाद कोई नहीं हुआ
उठाया जिसने अभिव्यक्ति का खतरा ?
उसने देखा
हमने जारी रखा अपना फेंका,
अगर ये सच है कि मुक्तिबोध के बाद
अगर ये सच है कि मुक्तिबोध के बाद
तुम्हें कोई नहीं दीखता
तो उनके ही शब्दों में
भारी भयानक सच है।
खतरनाक है।
हिन्दी क्या इतनी बाँझ है?
अगर कोई हुआ है
तो ये जन्मदिन पर क्या हुआँ हुआँ है?
कोई जरूरी है कि किसी को सिरफ
जन्मदिन पर ही याद करो?
फर्ज अदायगी करो
और फिर भूल जाओ अगले साल तक !
बोधुआ रे!
बोधुआ रे!
सही कहूँ तो हमको मार्क्सवाद अस्तित्त्ववाद वादबाद
कछु नहीं बुझात है
बुझात है सिरफ कि कामायनी की आलोचना
दूर की कौड़ी है
उनकी सभी लम्बी कविताएँ एक सी लगत हैं
तुम तो उन्हें सबसे बड़ा विचारक बनाए बैठे हो !
हमको तो विजय साही जियादा सही लगत हैं
एतना जो सुना
निकाला बोधुआ ने जूता ..
हमने पकड़ा उसका हाथ
हमने पकड़ा उसका हाथ
समझाया
उन्हों ने गढ़ मठ तोड़ने की बात कही थी
है कि नहीं ?
उसने जूते की जुतारी भरी
खतरा टला जान हमने बात आगे करी
अब ये बताओ उनके नाम पर
तुम लोग काहे गढ़ मठ रचत हो ?
उसने बकास सा हमरी ओर देखा
हम खुश हुए अपनी झकास पर।
बात आगे बढ़ाई
देखो आँख खोल देखो
पाँच रुपए घंटा माँ
और एकाध सौ घंटा माँ
तुम नेट से जान जाओगे
कि दुनिया बहुते आगे जा चुकी है।
कि गढ़ मठ कुआँ बना
चेहरे पर मुर्दनी सजा
छापो तिलक लगा
राम राम मुक्ति मुक्ति जपत हैं।
हिन्दी मइया तकत हैं
हमका बोध कब होयगा
जे हाल है उस पर किरोध कब होयगा?
रुकी ग्रामोफोन की सुई
डीजे वीजे के जमाने में
मुक्तिबोध के सहारे लगे नौकरी हथियाने में ।
प्यार करो आदर करो
लेकिन उनके घेरे से बाहर चलो
हिन्दी अबहूँ दलिद्दर है
शोध के लिए कछु और चुनो
भूल गए क्या?
“ ... मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।“
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।“
बोधुआ ने हमरी ओर देखा
जूते को फेंका
चल दिया बड़बड़ाता,
”पागलों के मुँह क्या लगना ?
जूते मार कर भी क्या होगा?"
मैं गली में आगे चल दिया
एक और बोधुआ की तलाश में ...
हूँ; 'मुक्ति' का 'बोध' हो ना हो पर यायावरी यात्रा तो अनिवार्य है..कविता अच्छी लगी राव साहब..
जवाब देंहटाएंअच्छाल गा मन को!! यह सब पढ़वाते रहा करो!!
जवाब देंहटाएंचलता रहे ये बोध का सफर हमे सुन्दर रचना पढने को मिल जाये धन्यवाद्
जवाब देंहटाएं"हमहूँ मुक्ति
जवाब देंहटाएंहमहूँ बोध
हमहूँ मुक्तिबोध।
कौनो शक की बात नाहीं है. ब्रह्मराक्षस तो हमहूँ देख लिए हैं.
"कोई जरूरी है कि किसी को सिरफ
जन्मदिन पर ही याद करो?
फर्ज अदायगी करो
और फिर भूल जाओ अगले साल तक !"
मुझको डर लगता है कहीं मैं भी तो सफलता के चन्द्र की छाया में घुग्घू या सियार या भूत न कहीं बन जाऊँ। (~ मुक्तिबोध )
बोधुआ रे
जवाब देंहटाएं"सही कहूँ तो हमको मार्क्सवाद अस्तित्त्ववाद वादबाद
कछु नहीं बुझात है
बुझात है सिरफ कि कामायनी की आलोचना
दूर की कौड़ी है
उनकी सभी लम्बी कविताएँ एक सी लगत हैं
तुम तो उन्हें सबसे बड़ा विचारक बनाए बैठे हो !
हमको तो विजय साही जियादा सही लगत हैं "
काश की ये हर बोधुआ की समझ में आ जाता !
कहते हैं, मुक्तिबोध छायावादी कवि थे, पर मुझे तो छायायें कभी दिखी नहीं ( हो सकता है कि मेरे पास दृष्टि न हो . कितनी सीधी चीर देने वाली कविता हैं मुक्तिबोध की. इसे देखो,
जवाब देंहटाएंआंधी के झूले पर झूलो
आग बबूला बन कर फूलो
कुरबानी करने को झूमो
लाल सबेरे का मूँह चूमो
ऐ इन्सानों ओस न चाटो
अपने हाथों पर्वत काटो
पथ की नदियाँ खींच निकालो
जीवन पीकर प्यास बुझालो
रोटी तुमको राम न देगा
वेद तुम्हारा काम न देगा
जो रोटी का युद्ध करेगा
वह रोटी को आप वरेगा ।
इसे पढकर, मैंने एक कविता रची थी, कुछ इस तरह,
जब पत्थर बनाया सकते हैं तजमहल
फिर तुम तो तुम हो....
श्रद्धांजलि..
मुक्तिबोध... इसके आगे कुछ भी कहने की आवाक्श्यकता नहीं... वैसे कभी कभार बीडी फूंकने का दिल करता है
जवाब देंहटाएं'अब ये बताओ उनके नाम पर
जवाब देंहटाएंतुम लोग काहे गढ़ मठ रचत हो ?' ये असली बात.
हम तो इसे पढ़कर ‘बोध’ से ही ‘मुक्ति’ का अनुभव कर रहे हैं। लगता है किसी अन्जान इलाके में आ गये। जय हिन्द!
जवाब देंहटाएंमुला ई मुक्तिबोध को याद करने वाले कछु गड़बड़ कर रहे हैं का? :D
संधर्ष और विचारशून्य, सुविधा परस्त और जड़ मध्यम वर्ग को आपने इस कविता के माध्यम से जिस तरह दुत्कार-फटकार की है वह सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंअपन लोग बुध्द से मुक्तिबोध तक सबको निपटा देते हैं , किसी का बुत बनाकर किसी को अगरबत्ती जलाकर बाकी को जन्म दिवस पर स्तुति पाठ करके ।
जवाब देंहटाएंजब सस्ते में निपट लेते हैं तो लफडे में काहे पडें ।
''बोधुआ'' सही कैरेक्टर चुना है आपने अपनी बात कहने के लिए |
जवाब देंहटाएंकवि को कविता में चित्रित करना अच्छा लगा |
धन्यवाद् ... ...
हर प्रकार के बोध से मुक्ति ...यानि आधुनिक मुक्ति बोध ...
जवाब देंहटाएंहमारी तुच्छ बुद्धि तो इतना ही समझती है ...!!
"बोधुआ ने हमरी ओर देखा
जवाब देंहटाएंजूते को फेंका
चल दिया बड़बड़ाता,
”पागलों के मुँह क्या लगना ?
जूते मार कर भी क्या होगा?""
वाह ! यह ठीक है ।
भई बढिया लिखा है कल देखता हूँ फुर्सत से ।अभी तीन दिन " मुक्तिबोध स्मृति फिल्म उत्सव " के आयोजन मे व्यस्तता है ।
जवाब देंहटाएं।
nirala andaj laga apka...muktibodh ko yad karne-karwane ka...
जवाब देंहटाएं"का मुक्तिबोध के बाद कोर्ई नहीं हुआ
जवाब देंहटाएंउठाया जिसने अभिव्यक्ति का खतरा "
पढ़कर सोचने लगा कि "गिरिजेश राव" को इतने दिनों बाद क्यों जाना मैंने?
मुक्तिबोध को पढने के बाद /दिन सार्थक हो गया ...बधाई
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध के ही शब्दों में।
जवाब देंहटाएं‘तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है बंधु?’
साफ़-साफ़ कहो।
कुछ इशारे बेहतर हैं।
कुछ अबोधगम्य हैं। पर उलझा से।
मुक्तिबोध के यहां दुरूहता तो है, पर उलझन नहीं।
मुक्तिबोध को याद करना, इसी तरह की यात्रा है शायद।
शुक्रिया।
ई बोधूओ के नाहीं छोडे भैया.....
जवाब देंहटाएंबहुते निम्म्न लिखे हैं.......
साधुवाद!
"हमहूँ मुक्ति
जवाब देंहटाएंहमहूँ बोध
हमहूँ मुक्तिबोध।
क्या बात है......बहुत सुन्दर रचना हम तक पहुँचाने का धन्यवाद
यह हुआ मुक्तकंठ से मुक्तिबोध को बोधमुक्त करने का षड्यंत्र ! यह सहय नहीं है मुक्त बोध के अनुयायियों को !
जवाब देंहटाएंस्वप्न अनेकों.....
जवाब देंहटाएंकुछ अर्ध-निद्रा के,
कुछ अतृप्त इच्छाएँ....प्रसवरत!
दिवास्वप्न तैरते हुए.....
स्वप्न समुद्र
आलोडित,
ज्वार-
बिखरते हुए!
फेन बनती हुई-
गाज बैठ्ती हुई!
सर्प-गुंजलक
विष-वमन!
अंधकार-सर्वत्र
स्वप्न समुद्र
पुन: आलोडित!
और मैं-
अर्ध-निद्रित
अर्ध-जागृत!