पाठक मेरे!
हाँ मैंने पढ़ी है तुम्हारी हर टिप्पणी
अक्षर, अक्षर , मात्रा , मात्रा
मैंने उनमें लय ढूढ़ने के जतन किए हैं
अपने लिए सम्मान प्यार तिरस्कार सब ढूढ़ा है
पाया है।
वह बेचैनी भी ढूढ़ी है -
काश ! थोड़ा ऐसे लिख दिया होता
क्या बात होती !
कम्बख्त ने कबाड़ा कर दिया।
मैंने पाया है कई बार
स्तब्ध मौन - जब तुम बिना कुछ कहे चले गए।
वह स्पष्ट निन्दा बघार
मेरे स्वर व्यंजन - व्यंजन स्वाद।
सब सवादा है।....
पाठक मेरे !
मैं मानता हूँ
तुम भी पढ़ते होगे मुझे इसी तरह।
पाठक मेरे !
जवाब देंहटाएंमैं मानता हूँ
तुम भी पढ़ते होगे मुझे इसी तरह....
jee...hum to aapko bahut hi tanmayta se padhte hain...
achchi lagi aapki yeh post.....
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kal aapki tippani se main abhibhoot hoon.... kaise aap bina mile ...bina samjhe ....sab kuch samajh lete hain?
aapki tippani padh kar... aankh sach mein bhar aayi thi... aapne bilkul sahi kaha tha kal....
बिल्कुल,
जवाब देंहटाएंऐसे ही पढते हैं,
और आज,
मौन भी नही,
स्पष्ट निंदा बघार,
भी नही,
ज़ाहिर है,
पाठक हैं आपके।
.
जवाब देंहटाएं.
.
"मैंने पाया है कई बार
स्तब्ध मौन - जब तुम बिना कुछ कहे चले गए।
वह स्पष्ट निन्दा बघार
मेरे स्वर व्यंजन - व्यंजन स्वाद।
सब सवादा है।....
पाठक मेरे !
मैं मानता हूँ
तुम भी पढ़ते होगे मुझे इसी तरह। "
लेखक मेरे!
हाँ पढ़ता हूँ मैं तुम्हें
बेचैन होने के लिये
नींद खोने के लिये
छुपकर मुस्कराने के लिये
आंसू बहाने के लिये
इक नई बहस शुरू करने को
दुनिया बेहतर गढ़ने को
मिलता है जब यह सब मुझे
बिना कुछ कहे नहीं जाता मैं कभी
हाँ, पढ़ता हूँ मैं तुम्हें
एकदम तुम्हारी ही तरह...
जरूर पढते हैं , आपको भला न पढे .. टिप्पणी करना न करना अलग बात है !!
जवाब देंहटाएंवाह, यह भी खूब रही !
जवाब देंहटाएंपाठक जी को प्रणाम, वही है जो देता है उर्जा लिखने की और पात्र रचने का सामान भी. कामना है, मिलते रहें आपको पाठक.
जवाब देंहटाएंपाठक मेरे !
जवाब देंहटाएंमैं मानता हूँ
तुम भी पढ़ते होगे मुझे इसी तरह....
haN ! bilkul ! kyoNki aap bhi to ho Pathak Hamaare...
पाठक वंदन, जय हो।
जवाब देंहटाएं------------------
11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?
जी फिकर ना करें पढता रहूँगा... आप पढने को मजबूर तो करते ही रहते हैं...
जवाब देंहटाएंतो लीजिये एक और पाठक की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेखनी है आपकी और खूब चाव से पढ़े जाते हैं आप...और हाँ यह कविता भी सटीक लगी...
यह विनीत भाव ही तो उद्घोषणा करता है सृजन की विराटता की ।
जवाब देंहटाएंपहली ही पंक्ति, आत्मीय स्वीकार - केवल संबोधन नहीं है यह, विलयन है दो का ।
ब्लॉग-जगत निरखे इस स्वीकृति को -
"पाठक मेरे !
मैं मानता हूँ
तुम भी पढ़ते होगे मुझे इसी तरह।"
@ "मेरे स्वर व्यंजन - व्यंजन स्वाद",
इसे यूँ क्यों न लिख दिया भईया -
’मेरे स्वर-व्यंजन-व्यंजन-स्वाद’ ।
जरूर पढ़ता हूँ आपको। आगे भी पढ़ूँगा। स्वर - व्यंजन की बात पर एक बात कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ-
जवाब देंहटाएंशिक्षक (छात्रों से) - बच्चे बताओ स्वर और व्यंजन में क्या अन्तर है?
एक छात्र - सर - स्वर मुँह से बाहर निकलता है और व्यंजन मुँह के अन्दर जाता है।
हा -हा - हा-
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
भैया !!
जवाब देंहटाएंपाठक तो हम भी हैं आपके!!!
बकिया तो सब माया!
पढ़ने के बाद...पढ़ लेने के बाद...जो कुछ सोच रहा था टिप्पणी में लिखने को, वो सब प्रवीण शाह जी लिख गये।
जवाब देंहटाएंहर लेखक की एक अदनी सी आकांक्षा...हम पाठकगण आपके साथ हैं कविवर!
एक ऐसे समाज में जो पिछले कुछ समय से पाठक विहीन लेखकों या कवि-श्रोता की परस्पर भूमिका बदल इकाइयों में ही शेष होता जा रहा है,पाठक को पीठासीन करना आह्लादित करता है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक अनियमित पाठक का जो कभी कभी लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता,विनम्र हस्तक्षेप मान सकते हैं.
इस रचना में न बोलने और चुप रहने दोनो के मायने बड़े गहरे हैं।
जवाब देंहटाएंkaise bhi hain paathak to hain na...tippani likhen na likhen..:)..number of hits bhi bahut bol deti hai..
जवाब देंहटाएंपढता हूँ मैं आपके पोस्ट में वर्णित एक पात्र बनकर !
जवाब देंहटाएंएक ज़माने के कवियों की याद आ रही है और इसी याद को आनंद वर्धन ओझा जी भी सजीव किये हुए हैं इन दिनों. फटकार के साहित्यिक तरीके भी देखिये कैसे कैसे होते हैं.
जवाब देंहटाएंहाँ पढ़ता हूँ मैं तुम्हें
जवाब देंहटाएंबेचैन होने के लिये
नींद खोने के लिये
छुपकर मुस्कराने के लिये
आंसू बहाने के लिये
इक नई बहस शुरू करने को
दुनिया बेहतर गढ़ने को
tiPpadi karne ko jhakjhorti kavita.
Leejiye Sahab, hamari bhi ek tippadi sahej leejiye.
Pathakon par likhi Tippadi ke liye
Tippadi Khenchu kavita ke liye Badhaiyan.
नो कमेंट्स !
जवाब देंहटाएंकाश ! थोड़ा ऐसे लिख दिया होता
जवाब देंहटाएंक्या बात होती !
कम्बख्त ने कबाड़ा कर दिया।
इसीलिए तो हमारे जैसे कई पाठक
स्तब्ध मौन - बिना कुछ कहे चले गए।...
जरूर पढते हैं , आपको भला न पढे .. टिप्पणी करना न करना अलग बात है !!
जवाब देंहटाएंsheekha - http://www.helloraipur.com/
achchi lagi aapki yeh post.....
जवाब देंहटाएंsheekha - http://www.helloraipur.com/
स्वप्न अनेकों.....
जवाब देंहटाएंकुछ अर्ध-निद्रा के,
कुछ अतृप्त इच्छाएँ....प्रसवरत!
दिवास्वप्न तैरते हुए.....
स्वप्न समुद्र
आलोडित,
ज्वार-
बिखरते हुए!
फेन बनती हुई-
गाज बैठ्ती हुई!
सर्प-गुंजलक
विष-वमन!
अंधकार-सर्वत्र
स्वप्न समुद्र
पुन: आलोडित!
और मैं-
अर्ध-निद्रित
अर्ध-जागृत!
पढ लिया जी पढ लिया :)
जवाब देंहटाएंकिसी पाठक को सम्बोधित यह पहली कविता है ।
जवाब देंहटाएंइतना बहुत है पाठक के इतराने के लिये! :)
जवाब देंहटाएंअपनी टिप्पणी दोहरा रहा हूं। कुछ जोड़ भी दूं।
जवाब देंहटाएंआपका कवि अधिक सजग और ईमानदार है। संवेदनाएं अपने आप में ईमानदार ही होती हैं।
और यही वह चीज़ है, जो आपका पाठक बनाए हुए है। लेखक मेरे।
आप कुछ भी ठेलिये.. पढ़ेंगे जरूर
जवाब देंहटाएंखाली पाठक मेरे......
जवाब देंहटाएंझाजी मेरे काहे नहीं कहे ...हमहूं तो पढते हैं न ...
जाईये कुट्टा ...