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शनिवार, 24 नवंबर 2018

श्रीरामवनगमन एवं सरोजस्मृति


तेषां वचः सर्वगुणोपपन्नं,
प्रस्विन्नगात्रः प्रविषण्णरूपः। 
निशम्य राजा कृपणः सभार्यो, 
व्यवस्थितस्तं सुतमीक्षमाणः ॥ 
...
रथ पर आरूढ़ श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण वन को जा रहे हैं। दशरथ एवं कौशल्या देवी की पीछे से पुकार है, थमो सुमंत्र, थमो - तिष्ठ तिष्ठ। श्रीराम का आदेश है, भगाओ सुमंत्र सुमंत्र भगाओ, दु:ख को खींचना पापकर्म है - चिरं दुःखस्य पापिष्ठमिति, भगाओ - याहि याहि! - तिष्ठेति राजा चुक्रोश याहि याहीति राघवः
सुमंत्र विचित्र परिस्थिति में हैं एवं राम ! मुड़ मुड़ कर पीछे देखते हैं, पुन: पुन: आगे। वाल्मीकि जी लिखते हैं, रथ के पीछे भागती, रुकती, आगे पुत्र को देखती, पीछे मुड़ कर पति को देखती कौशल्‍या देवी की गति ऐसी थी मानों नृत्य कर रही हों - नृत्यन्तीमिव मातरम्। प्रिय पुत्र बहू एवं अनुज सहित नयनों से दूर हो रहा है, पति की स्थिति चिंताजनक है, दो दूर होते प्रियपात्रों के बीच कौशल्या की स्नेह से बँधी इस स्थिति हेतु तुम्हें यही उपमा सूझी आदि कवि!
दो विरोधी पुकारों के बीच सुमंत्र की स्थिति कैसी है? मानों दो चक्रों के अंतर में सु मंत्री का मन पड़ गया हो!   
तिष्ठेति राजा चुक्रोश याहि याहीति राघवः। 
सुमन्त्रस्य बभूवात्मा चक्रयोरिव चान्तरा ॥ 
रथ दूर हो गया। बिछड़न बेला का वह गतिशील बिम्ब ठहर गया, जिसे जाना था, चला गया। मंत्रियों ने कहा, जिनके लौटने की हमें इच्छा है, उनके पीछे दूर तक नहीं जाते - यमिच्छेत्पुनरायान्तं नैनं दूरमनुव्रजेत्
ऊपर का उपेन्‍द्रव्रजा छन्द उसी समय का है जब सहसा ही सब रुक जाता है, दु:ख जड़ीभूत हो जाता है कि मंत्रियों की वाणी सर्वगुणसम्पन्न है, मान जाओ तथा स्थिति वैसी हो जाती है कि हाथ मलते रह जाना होता है। रथ के पीछे भागते रहने से गात स्वेद से भीग गया है, दु:ख से भरा रूप विषण्ण है, समस्त अस्तित्त्व ही दु:खपूरित कृपण है तथा पुत्र को तकते राजा रानी के साथ ठगे से खड़े रह जाते हैं।
इस श्रांत दु:ख भरे क्षण को कवि 'ण' वर्ण के प्रयोगों द्वारा स्थिर कर देते हैं। देखें कि प्रत्येक चरण में ण है। तीन पंक्तियों का पूर्वार्द्ध भौतिक स्थिति है तो उत्तरार्द्ध प्रभाव की जिसमें 'ण' है, विषण्ण विविध :
वच: > गुण: 
प्रस्विन्न > विषण्ण 
निशम्य > कृपण: 
अंतिम पंक्ति में क्रम उलट जाता है, प्रभाव पहले है, कारक अनंतर - व्यवस्थित<सुतमीक्षमाण, पुत्र को देखते देखते ठहर गये ! सुर बढ़ा बढ़ा, एकाएक खींच लिया !
...
यह भारतीय काव्य का सौंदर्य है जिसमें वर्णगरिमा ध्यातव्य है। यह न अरबी मुगलई उर्दू में मिलेगा न उस 'मिजाज' वाले इसे समझ या सराह पायेंगे। आयातित संस्कृति आप को बड़े प्रेम से आप से ही काटती है।
'ण' की इस गरिमा को आधुनिक काव्य में देखना हो तो निराला की सरोज स्मृति पढ़ें। पुत्री की असमय मृत्यु के पश्चात उसका 'तर्पण' करता कवि पिता जाने क्या क्या उड़ेल देता है, दु;ख है, गहन दु:ख है किन्‍तु किसी महर्षि की भाँति उसे अभिव्यक्त करता है :
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!"  

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

राम की शक्तिपूजा - स्वर आयोजन, अंतिम भाग

दीपावली अमानिशा से जागरण का पर्व होती है। वर्षों से लम्बित पड़े स्वर आयोजन का प्रारम्भ करने को सोचा तो यह भी ध्यान में आया कि रात में जगना तो मुझसे हो नहीं पाता!

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा 2072 सूर्योदय के पहले, भोर में जाग कर निराला जी की इस अद्भुत कविता के अंतिम भाग का ध्वनि अंकन किया। निशा बीत चुकी थी इसलिये प्रारम्भ भी राघव के जागरण अर्थात 'निशि हुई विगत ...' से किया। सुनिये।

ध्वनि सम्पादन नहीं किया है। समर्थ जन नाम और सन्दर्भ दे कर संपादन प्रकाशन के लिये स्वतंत्र हैं।

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

'राम की शक्तिपूजा' - निराला : एक स्वर आयोजन की भूमिका


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वाचक का वक्तव्य:
'...भूमिका में मेरा अपना कुछ नहीं है। वाल्मीकि, चतुरसेन और नरेन्द्र कोहली के अध्ययन से रामकथा की जो समझ बनी, उसका अत्यल्प निराला की कालजयी रचना की पठन प्रस्तुति की भूमिका के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
समग्र तो 'लघु उपन्यास अग्निपरीक्षा' के कलेवर में कभी आयेगा। लिखित रूप नहीं दे रहा, यह तो सुनने के लिये है। ...वर्तमान में बंगलुरू में रहते श्री ललित कुमार का आभारी हूँ जिन्हों ने स्वयं पढ़ कर मुझे राह दिखाई कि जो भी करना है, कर डालूँ। ...स्वास्थ्य ठीक नहीं है। ज्वर की थकान  के कारण मेरा साधारण स्वर और दोषपूर्ण हो गया है लेकिन संतोष है कि आरम्भ कर दिया...यह वर्षों से बेचैन निज कामना को शांत करने का एक आयोजन है।'
                                               - गिरिजेश राव   

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जहँ जहँ चरन पड़े राघव के
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बुधवार, 29 सितंबर 2010

राम की शक्तिपूजा... चुने हुए अंश



..आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
. .है अमानिशा, उगलता गगन घन-अन्धकार;
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार;
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल;
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय;
जो नहीं हुआ है आज तक हृदय रिपुदम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,

. .सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
..फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत, -
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;

.. उद्वेग हो उठा शक्ति-खोल सागर अपार,
...शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाह,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत -वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मध मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम-पूजन-प्रताप तेज:प्रसार;
...रावण? रावण - लम्पट, खल कल्मष-गताचार,

...अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेज: प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, - समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, - हुआ उर में ज्यों विषम घाव,

...आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त;
शक्ति की करो मौलिक कल्पना; करो पूजन,

... "मात:, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मात: समझा इंगित;
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

...सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगत : नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;
हैं नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़ मुकुट-वन्ध;
सुन पड़ता सिंहनाद रण-कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;

...संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर;
...हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;

... जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

...काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय -
...देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।

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रचयिता - महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'