शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

केमिकल लोचा तुमसे ही है माँ! तुमसे ही।

साथ काम करने वाली युवतियाँ मुझे किसी पर चिल्लाता हुआ पाती हैं,
कृपा भरी दृष्टि से देखती हैं,
तो माँ! तुम्हारी उलाहना भरी आँखें दिखती हैं - ऐसा भी क्या? गला फाड़ने से कुछ नहीं होता।
वह प्यार भरी धमक, ठण्डा स्वर, बेंत से शब्द - लचीले, नहीं टूटने वाले।
समाधान की लीक, समझ की लीक - पुन: दिखने लगती है
जाने क्यों कुकर की बिगड़ी गास्केट पर फ्रिज का पानी डालते हाथ नज़र आते हैं!
    
खिचड़ी केश घिरी झुर्रियों में जब कोई अनजानी वत्सल मुस्कुराहट झलकती है
माँ! तुम दिखती हो।
सोचता हूँ जब किसी बछड़े या पिल्ले को देख ऐसे ही मुस्कुराता हूँ
तो तुम्हारे जीन ही होठों को तान रहे होते हैं
ऐसे क्षणों के पहले घटता भीतर का केमिकल लोचा तुमसे ही है माँ! तुमसे ही।

टी वी देखते हुए वहीं पर खाना खाने की ज़िद!
उलाहना देती, डाँटती पत्नी अखबार बिछा थाली रख जाती है।
दीन दुनिया भूल कर छत पर उपन्यास पढ़ते बिगड़ैल बच्चे को
अपने हाथों खाना खिलाती माँ! तुम ही तो हो यहाँ भी।
बस ऐसे ही खयाल आता है - कैसे ठीक करता बाहर के बिगड़ैलों को?
अगर नहीं पता होता कि हारे हुए घायल को सहारा देते सहलाते स्वर घर में हैं
तो क्या लड़ पड़ता अनर्थ करते अत्याचारियों से?
क्या लड़ पड़ता जो तुमने बिगाड़ा नहीं होता?
(जीत तो मैंने हमेशा छिपाया है। हिंसक आनन्द बाँटने में खुद को अक्षम पाया है।)

गए जमाने में ऐसा कभी नहीं हुआ जब टिफिन बॉक्स के लिए देर हुई हो
इस जमाने ऐसा कभी नहीं हुआ जब बच्चों की बस छूटी हो - तैयारी में देरी के कारण
अखबार पर नज़र गड़ाए, भारी भरकम फंडामेंटल पढ़ते
सोचता हूँ कभी कभी कि प्लानिंग इतनी साधारण सी और रोजमर्रा सी
कैसे हो सकती है?
माँ, तुम्हारे कितने रूप हैं!