अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में हाल में सम्पन्न हिन्दी ब्लॉगर संगोष्ठी पर बहुत कुछ कहा सुना जा चुका है। कतिपय व्यक्तिगत कारणों से मैं वहाँ जा नहीं पाया जिसका मुझे हमेशा दु:ख रहेगा। प्रयाग के बाद वर्धा, उसके बाद? मुझे आशा है कि 'अ-सरकारी' प्रयास भी होंगे जिनमें कथित 'भूल, ग़लतियों, असफलताओं' से सबक लिया जाएगा और उत्तरोत्तर कड़ियाँ एक इतिहास का सृजन करेंगी। विश्वविद्यालय, आयोजकों और सभी जुड़े लोगों को सफल आयोजन हेतु मैं धन्यवाद देता हूँ और आशा करता हूँ कि आगे और अच्छे आयोजन होंगे। एक बात सबको याद दिलाऊँगा: जिस तरह धुएँ से अग्नि युक्त है उसी प्रकार सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। इस कारण सहज कर्म को त्यागना नहीं चाहिए। आयोजक इस आयोजन के लिए साधुवाद के पात्र हैं। इसलिए और भी कि उन्हों ने एक 'लीक ' दिखाई है , अब 'राजपथ' के शिल्पियों को कर्मप्रवृत्त होना चाहिए।
यह आलेख वहाँ न जा पाने की स्थिति में भेजा गया था। सोचा कि आप लोगों से साझा कर लूँ। एक नए ब्लॉगर के लिए और उसकी दृष्टि से ही इसे लिखा। अपरिपक्वता दिख सकती है लेकिन आशा है कि बातें विचारने को प्रेरित तो करेंगी ही। अस्तु ...
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क्या लिखें?
क्या लिखें?
मैं यह मानकर कह रहा हूँ कि आप क्यों की दुविधा से मुक्त होकर लिखने को तत्पर हैं। आप के भीतर की जो रचनात्मकता अब तक बन्द थी, वह सम्पादकों, प्रकाशकों, आलोचकों, खेमों आदि ढक्कनों से मुक्त हो एक अत्याधुनिक, सक्षम और उत्कृष्ट प्लेटफॉर्म ब्लॉग पर खुलने को है। स्वभावत: आप सोचेंगे कि क्या लिखें? मैं कहूँगा कि यह चयन का मामला है, कमी का नहीं। विषय बिखरे हुए हैं, आप को रुचि अनुसार चुनना है और चुनते या लिखते समय किसी भी तरह की घबराहट, पूर्वग्रह या दुविधा से मुक्त रहना है।
प्रात:काल नर्सों को हॉस्टल से लेकर अस्पताल जाती बस, कुत्ते को टहलाते और उससे अपनी धोती बचाते दादा जी, टूटे दाँत लिए स्कूल से चहकती लौटती कामवाली की गुड़िया, शाम को ठीक 5 बजे आप के दरवाजे पर रोज आकर खड़ी होती गाय, पार्क की बेंच पर अकेले मोबाइल पर देर तक रोज बात करती युवती, बीच गली में घंटे भर से गपियाते अति व्यस्त मित्र, चहारदीवारी पर कोने में चिपके युगल, माल में ग्राहकों का ऑनलाइन हिसाब करती परेशान मुस्कुराती युवती, सड़क के गड्ढे में किनारे अटका चिप्स का रैपर, बजरंग बली के मन्दिर के ठीक बाहर फेंका हुआ कंडोम .... अनंत सूची है। यदि आप प्रेम में हैं तो कहना ही क्या? अगर आप का बॉस खड़ूस है या मातहत बदतमीज है फिर तो यकीन मानिए आप की झोली कभी खाली नहीं रहेगी।
कहने का मतलब यह कि कुछ भी लिखिए और प्रयोग करने से न चूकिए। आत्मीयता महत्त्वपूर्ण है। बहुत बार आप को स्वयं नहीं पता होता कि आप की बोर्ड पर या कलम के साथ किस विषय पर कितने धारदार हो जाएँगे? इसलिए प्रयोग करने से न चूकिए। यहाँ आप स्वयं लेखक, सम्पादक, प्रकाशक हैं। प्रारम्भ में विवादास्पद विषयों पर लिखने से बचें लेकिन उन्हें टीपे रहें और नैतिकता, विधि, अन्यों के विचार आदि जुड़े पहलुओं पर जानकारी इकठ्ठी करते रहें और फिर लिखें।
नकारात्मक लेखन न करें। तात्कालिक प्रसिद्धि(?) तो मिलेगी लेकिन बहुत दिनों तक आप चल नहीं पाएँगे। ब्लॉग जगत में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब धूमकेतु की तरह नकारात्मक बातें करने वाले छा गए और उसी की तरह लुप्त हो गए। नकार की ऊर्जा क्षणजीवी होती है क्यों कि स्वभावत: वह प्रतिक्रिया से उपजती है। क्रिया के बिना प्रतिक्रिया हो ही नहीं सकती।
वह सब तो ठीक है लेकिन कैसे लिखें?
वह सब तो ठीक है लेकिन कैसे लिखें?
विषय को कैसे अभिव्यक्त किया जाय? यहाँ कैसे से अर्थ गद्य, पद्य, चित्र, ऑडियो, वीडियो, फोटोग्रॉफ आदि या इनके कम्बिनेशन से है। हिन्दी ब्लॉगरी में साहित्य बनाम ब्लॉग विवाद का एक दौर था जहाँ साहित्य से अर्थ बनी बनाई, वाददूषित, खेमाई पृष्ठभूमि से आती गद्य, पद्य, उपन्यास, कहानी आदि से लगाया जाता था और ऐसे बहुत से ब्लॉगर थे/हैं जो ‘साहित्य’ को उतनी ही हेय दृष्टि से देखते थे जितनी हेय दृष्टि से ब्लॉगर दूसरे पक्ष द्वारा देखे जाते थे – ब्लॉग और इंटरनेट माने पोर्नोग्राफी और दोयम गुणवत्ता।
अभी मतभेद तो हैं लेकिन सक्रिय विवाद नहीं दिखता। साहित्य को अभिव्यक्ति मानें तो ब्लॉगरी एक विधा के रूप में बस इस मायने में अलग है कि यह मुक्त है। छपने पर बन्धन हैं लेकिन वैसे नहीं जैसे कागज पर छपने पर हैं। आप जैसे चाहें लिख सकते हैं। विकासमान प्रक्रिया है यह। ठीक वैसे ही जैसे वार्णिक छ्न्द-मात्रिक छन्द-मुक्त छ्न्द। गद्य-कथा-कहानी-नाटक-उपन्यास-रिपोर्ताज वगैरह वगैरह। सूक्ष्म अंतर यह है कि जहाँ विकास होने में पहले वर्षों लगते थे वहीं आप के भीतर, आप के ब्लॉग पर विकास होने में शायद कुछ महीने या सप्ताह ही लगें। शर्त यह है कि आप स्वयं उतने ही मुक्त रहें जितना मुक्त प्लेटफॉर्म है और प्रयोग करने से न हिचकिचाएँ। एक उदाहरण लें – मान लीजिए कुछ लिखते हुए आप ध्वस्त ट्विन टॉवर्स का जिक्र करते हैं और आप चाहते हैं कि पाठक वहीं उनके बारे में जान तो ले लेकिन आप विपर्यय से बचे रहें। ऐसे विजेट उपलब्ध हैं जो उस शब्द पर कर्सर ले जाते ही टॉवर्स का मयचित्र संक्षिप्त परिचय वहीं एक खिड़की में दिखा देंगे। जैसे ही कर्सर हटेगा आप वापस अपने विषय पर होंगे।
तो आप जैसे चाहें लिख सकते हैं। गद्य, पद्य, गीत, नाटक, नौटंकी, शेर, हल्की फुलकी तुकबन्दी, ऑडिय़ो, वीडिय़ो आदि। धीरे धीरे आप अपनी एक सुविधाजनक शैली विकसित कर लेंगे जिसके लिए जाने जाएँगे और स्पष्ट है आप के चाहने वाले भी बन जाएँगे।
भाषा कैसी हो?
भाषा कैसी हो?
वैसी ही हो जैसे आप हैं। मतलब यह कि आप भाषा के जिस किस्म के साथ/में सुविधा के साथ लिख सकते हैं उसी में लिखें। ग्राम परिवेश पर मैला आँचल भी लिखा जा सकता है, राग दरबारी भी, गोदान भी और आधा गाँव भी। विषयवस्तु, काल और परिवेश से भी भाषा तय होगी। इसे ऐसे समझिए कि आप शहर में चल रहे नाट्य समारोह पर लिख रहे हैं या झुग्गियों की किसी आपसी लड़ाई पर या कोर्ट द्वारा सुनाए किसी फैसले पर – भाषा तदनुसार बदलेगी।
एक बात और है। आप बिन्दास लिखना चाहते हैं कि दूसरों की भाषा शैलियों से सीखना चाहते हैं? प्रयोग करना चाहते हैं या भाषा की परवाह किए बिना बस इस पर केन्द्रित रहना चाहते हैं कि बात ठीक से पहुँच जाय? यदि आप दूसरी श्रेणी के हैं तो सहज अनायास रचते रहिए, आप खाँटी ब्लॉगर हैं। आप के ब्लॉग पोस्ट ही आप की एक शैली/शैलियाँ विकसित कर देंगे।
लेकिन यदि आप सीखना चाहते हैं तो अध्ययन अपेक्षित है। ब्लॉग प्लेटफॉर्म पर भी बहुत से दिग्गज हैं और साहित्य क्षेत्र में भी। उन्हें पढ़िए और लिखते रहिए। इस मुद्दे पर अधिक टेंशन लेने की आवश्यकता नहीं है। भाषा सहज सम्वाद करती होनी चाहिए, बस।
यह भी समझ लें कि चाहे तत्सम प्रधान लिखें, उर्दू सिक्त लिखें, अंग्रेजी शब्दों को लेते हुए लिखें, चाहे जैसे लिखें; आप की बात समझने वाले, शैली सराहने वाले मिलेंगे। दुनिया बहुत बड़ी है और हिन्दी वाले करोड़ो हैं। आप भारत की प्रथम जनभाषा में लिख रहे हैं और इस कारण नियति आप के पक्ष में है।
टिप्पणियाँ, नामी बेनामी और मॉडरेशन
टिप्पणियाँ, नामी बेनामी और मॉडरेशन
हिन्दी ब्लॉगरी के ये बहुत रोचक पहलू हैं। संख्या कम है और इस कारण ब्लॉगरों का एक दूसरे को और दूसरे के मित्रों को भी जानना हिन्दी ब्लॉगरी को एक खास फ्लेवर देता है। एक एक कर देखते हैं।
(क) टिप्पणियाँ:
आप के ब्लॉग की पहुँच अधिक लोगों तक होने के लिए टिप्पणी का विकल्प खुला रखना आवश्यक नहीं है। लेकिन उससे मदद मिलेगी। निजी जिन्दगी में परेशाँ लोग ऐसा कुछ चाहते हैं जहाँ बतिया सकें या यूँ ही अपने मन लायक कुछ कह सकें। पढ़ने पर अच्छा लगे तो वाह वाह कर सकें, कुछ जोड़ सकें; कुछ ठीक न लगे तो अपना पक्ष रख सकें। बहुतायत ऐसे जन की ही है। कुछ विघ्नतोषी या बवाली भी पाए जाते हैं लेकिन वे तो हर जगह हैं, ब्लॉग प्लेटफार्म अछूता क्यों रहे? ऐसे लोगों की बेहूदी टिप्पणियों को आप आसानी से मिटा सकते हैं।
कई बार टिप्पणियाँ ऐसी भी आती हैं कि ब्लॉग लेख भी उनसे समृद्ध हो जाता है। कई बार ऐसी बहसें भी हो जाती हैं जिनसे कई आयामों पर प्रकाश पड़ता है।
अपने ब्लॉगर सेटिंग में यह विकल्प अवश्य चालू रखें जिससे कि कोई भी टिप्पणी ब्लॉग के अलावा आप द्वारा निर्धारित एक ई मेल बॉक्स में भी आ जाय। इसका लाभ यह है कि भले टिप्पणी करने वाला ब्लॉग से मिटा दे या आप मिटा दें; सन्दर्भ के लिए वह टिप्पणी आप के पास हमेशा उपलब्ध रहेगी।
एक पक्ष यह भी है जहाँ ब्लॉग के संकलक प्लेटफॉर्मों द्वारा रेटिंग निर्धारण के लिए टिप्पणियों की संख्या का भी ध्यान रखा जाता है। अधिक टिप्पणियों वाले ब्लॉग पोस्ट अलग से दिखाए जाते हैं और एक चेन रिएक्शन की तरह अधिकाधिक लोग वहाँ पहुँचते हैं और टिप्पणी कर जाते हैं। अगर आप ऐसी राह पकड़ना चाहते हैं तो आप को भी दूसरों के यहाँ जाकर प्रतिदान करने पड़ेंगे। अगर समय है और उत्साह है तो कीजिए लेकिन याद रखिए ‘प्रसिद्धि की चाह भक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा होती है’। महत्त्वपूर्ण टिप्पणियों की संख्या या तात्कालिक रेटिंग नहीं, गुणवत्ता महत्वपूर्ण है और आप के ब्लॉग का अधिकाधिक लोगों तक पहुँचना है। अगर आप अच्छा लिखेंगे, काम लायक लिखेंगे तो भले धीमे हो, आप को लोग पहचानेंगे और आप की बात दूसरों तक भी पहुँचाएँगे।
स्वयं टिप्पणी करते हुए वस्तुनिष्ठता का ध्यान रखें। परिचित या घनिष्ठ ब्लॉगरों के यहाँ आप हास परिहास या चुटकी भी ले सकते हैं लेकिन वहाँ भी विषयकेन्द्रित रहें। प्रशंसा करना आसान है – आह, वाह, अद्भुत लिखे और चलते बने लेकिन आलोचना कठिन कर्म है। वीतरागी संत ब्लॉगिंग नहीं कर रहे। आलोचना पर पहली प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से क्रोध होती है। इसलिए विरुद्धवीणा बजाने के पहले सुर ताल पर पक्के हो लें और सभ्य भाषा में ईमानदारी के साथ अपनी बात कहें। प्रतिकार में दिए गए तर्कों के प्रति खुले रहें। ऐसा करने पर कई बार आलोच्य और आलोचक दोनों लाभांवित होते हैं। अधिक लम्बी और फलदायी बहस के लिए चुनिन्दा लोगों के साथ ई मेल पर बहस का विकल्प भी आजमाया जा सकता है। त्वरित प्लेटफार्म होने के कारण सामान्यत: एक पोस्ट बस एक या दो दिन ही बहस के लिए हॉट रहती है। हजारों लोग लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। पाठक केवल आप की एक पोस्ट पर बँधे रह कर सारा समय वहीं तो नहीं दे सकता।
(ख) नामी बेनामी
कायदे से वास्तविक मतलब यह कि जैसा असल जीवन में ब्लॉगर है, वैसा ही ब्लॉग प्लेटफार्म पर भी है। वही नाम, वही फोटो, वही परिचय आदि आदि। उसे ब्लॉग जगत के लोग जानते पहचानते हैं या प्रोफाइल में उसके द्वारा दिए गए सम्पर्क सूत्रों से तसदीक कर सकते हैं, मिल सकते हैं। इस हिसाब से ब्लॉग जगत में बहुत से नामी ऐसे हैं जो बेनामी ही कहे जा सकते हैं। वे स्वस्थ ब्लॉगरी की राह चलते हैं, प्रतिष्ठित हैं लेकिन आप उनसे साक्षात नहीं मिल सकते। व्यक्तिगत कारणों से वे गुमनाम बने रहना चाहते हैं। नाम तक कैसे कैसे! Ghost buster, उन्मुक्त, ab inconve.., Abyss_Garden आदि आदि।
ब्लॉग जगत में जब ‘बेनामी’ की बात होती है तो उसके निशाने पर यह लोग नहीं होते, सामान्यत: वे विघ्नतोषी और दुष्ट प्रकृति के लोग होते हैं जो अपनी कुंठा, धर्मान्धता आदि बेनाम टिप्पणियों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। फिर किसी भी पोस्ट पर हो रही बहस का लीक से उतरना तय हो जाता है। लिखने वाले और गम्भीर पाठकों को जो कष्ट होता है वह तो है ही। चूँकि बेनामी विकल्प से कोई भी टिप्पणी कर सकता है, कई बार नाम वाले ब्लॉगर भी अपनी खुन्नुस निकालने के लिए यह काम करते हैं। यह बुराई समाज की अन्य बुराइयों की तरह ही है।
प्रश्न यह है कि बेनामी टिप्पणी का विकल्प खुला रखा जाय या नहीं? खुला रखना ही ठीक है। कोई भी दुष्ट फर्जी नाम से ब्लॉगर प्रोफाइल बना कर अपने काम को अंजाम दे सकता है फिर उन आम पाठकों को जो कि ब्लॉगर नहीं हैं या प्रोफाइल नहीं बनाना चाहते, टिप्पणी करने से क्यों रोका जाय? अगर आप टिप्पणी का विकल्प खुला रखे हैं तो समय समय पर आप को अपने ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को देखना भी होगा और सफाई भी वैसे ही करनी पड़ेगी जैसे कि आप घर में करते रहते हैं। आप अवांछित टिप्पणियों को मिटा सकते हैं लेकिन उस हानि का क्या जो उस तरह की टिप्पणी ने उतनी देर आप की पोस्ट पर रह कर कर दी? बहुत बार दो तीन टिप्पणीकार आप के ब्लॉग को निजी लड़ाई का आखाड़ा बना देते हैं। अगर आप उस दौरान अपने काम में कहीं और व्यस्त रहे तो हो गया कल्याण!
इससे बचने के कई तरीके हैं:
(1) आप गुमनाम ब्लॉगर प्रोफाइल बनाएँ और बेफिक्र रहें, रह सकें तो।
(2) आप भी नंगे हो जायँ। कोई कुछ भी धमाल मचाता रहे आप को कोई फर्क ही न पड़े। लेकिन इसमें कभी कभार क़ानूनी मामलों में फँसने का खतरा है। ब्लॉग लेख ही नहीं, उस पर आई टिप्पणियों की जवाबदेही भी ब्लॉगर की बनती है। किसी ने यदि राष्ट्रविरोधी टिप्पणी कर दी तो आप भी गुनहगार होंगे।
(3) कविताओं, कहानियों, ग़जल, गणित के पाठ आदि पर ऐसे विवाद नहीं होते। विवाद सामान्यत: समकालीन ज्वलंत विषयों पर लिखे गए लेखों पर ही होते हैं। आप विवादास्पद या ज्वलंत विषयों पर लिखें ही नहीं। कोई आवश्यक है क्या कि सभी लोग हवन करें?
(4) मॉडरेशन। टिप्पणियाँ बिना आप की अनुमति/सहमति के न छपें। यह एक रोचक विकल्प है। इसे ऊपर बताए उस विकल्प के प्रकाश में भी देखना होगा जिसमें टिप्पणियों के ई मेल पर भी आ जाने वाले अतिरिक्त विकल्प को सक्रिय रखने को कहा गया है।
मॉडरेशन कब ?
(क) अगर आप प्रसिद्ध हस्ती हैं और आम जन के विचार जानना तो चाहते हैं लेकिन असुविधाजनक बातों से बचना चाहते हैं। प्रसिद्धि ईर्ष्या, निन्दा, कुप्रचार, द्वेष, अवांछित हस्तक्षेप आदि वस्त्र पहन कर आती है। जितनी सुन्दर प्रसिद्धि, उतने ही विविध वस्त्र।
(ख) अगर आप अपने को ‘बड़ी हस्ती’ समझते हैं और भाव क़ायम रखना चाहते हैं।
(ग) आप वास्तव में शत्रुग्रस्त हैं।
(घ) आप नहीं चाहते कि आप के ब्लॉग पर कोई बहस ऐसी हो जो अवांछित हो, पटरी से उतर जाय और आप के अलावा औरों को भी संकट में डाल दे।
(ङ) आप केवल विषय सम्बन्धित टिप्पणियाँ ही चाहते हैं और प्रचार, स्पैम वगैरह से बचना चाहते हैं।
मॉडरेशन के अवांछित प्रभाव
(क) किसी ज्वलंत विषय पर सही बहस तब तक नहीं हो सकती जब तक आप लगातार बैठ कर टिप्पणियों को मॉडरेट न करते रहें। मॉडरेशन की दशा में बहस अड्डेबाजी न होकर ऐसा ग्रुप डिस्कशन रह जाती है जो बॉस द्वारा अनुशासित है और बीच बीच में आप के कान आँख बन्द कर दिए जाते हैं। तुर्रा यह कि आप की बात खत्म होती है और वे बातें आप के सामने लिख कर रख दी जाती हैं जो अपनी बात कहने के पहले आप ने देखी सुनी ही नहीं। तब तक बात इतनी आगे जा चुकी होती है कि पीछे लौटा ही नहीं जाता।
(ख) आप पाठकों को भाई छाप गुंडा लगने लगते हैं भले ही कितने ही भले क्यों न हों।
(ग) पाठक असहज और अपने को आप की दृष्टि में अविश्वसनीय सा अनुभव करने लगता है।
(घ) बहस के बीच में कहीं आप का नेट कनेक्शन बिगड़ गया तो या तो किसी और के यहाँ/ढाबे पर जाइए या सैकड़ो योजन दूर से भी पाठकों की गालियाँ पाइए।
तो एक विकल्प यह भी है कि टिप्पणियों का विकल्प बन्द रखिए और अपनी ई मेल आइ डी पब्लिक कर दीजिए। जिसे बहुत इच्छा होगी वह अपनी बात आप तक पहुँचा देगा। अब विश्राम लेता हूँ।
यह आलेख ब्लॉगिंग की किसी भी कार्यशाला में पाठ्य सामग्री के रूप में वितरित किये जाने लायक है। वर्धा संगोष्ठी की तमाम उपलब्धियों में यह भी शामिल है। आपको इस आलेख के लिए कोटिशः धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख। जो मैने एक वर्ष में ब्लॉगिंग से सीखा उसका निचोड़।..काश यह शुरू में ही मिल जाता....सही कहा सिद्धार्थ जी ने..किसी भी कार्यशाला में पाठ्य सामग्री के रूप में वितरित किये जाने योग्य।
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग की पुस्तक का अनिवार्य अध्याय।
जवाब देंहटाएंब्लॉगर्स के लिए बहुत ही लाभदायक आलेख ...!
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय -क्या यह आचार संहिता नहीं ?
जवाब देंहटाएंफिर कैसे कहा जाता है कि इस विधा की आचार संहिता नहीं बन सकती
मैंने भी एक राईट अप भेजा था -आपसे प्रेरित हूँ अब !
हम तो हाथ जोड़े, आँख बंद (खोले-खोले :)
जवाब देंहटाएंबस पढ़ते चले गए... मंद मंद मुस्कराते-सोचते कि इस लेख को पढ़ कर या तो वर्धा के बच्चे खाँटी ब्लॉगर बनते या फिर एक नंबरी बदमाश ब्लॉगर..... क्योंकि सारा कुछ तो खोल कर रख दिया है कि कब-कब और कहां-कहां कैसे लिखा और फिर मिटाया जा सकता है...कौन बेनामी हो सकता है....कौन सुनामी बन सकता है :)
इस पोस्ट ने समयाभाव में भी विवश कर दिया टीपने के लिए !
जवाब देंहटाएंअसली आचार्य तो आप ही हैं ! क्यों नहीं १- ब्लॉग-हेतु , २- ब्लॉग-प्रयोजन , ३- ब्लॉग-लक्षण , ४- ब्लॉग-दोष ( ऐसे ही गुण भी ) , ५- ब्लॉग-आत्मा , ६- ब्लॉग-मुद्रा ( जिसमें एचरी-खेचरी से लेकर विविध योनि-मुद्राएँ भी आ जायेंगी ) , ७- ब्लॉग-समय ( पत्रा बाँचू जीव सहयोग करेंगे ही ) ८-ब्लॉग-रस , ९-ब्लॉग-महिमा ( ब्लॉग आल्हा गायक मिल ही जायेंगे ) १०- ब्लॉग-रीति ११- ब्लॉग-नीति १२- ब्लॉग-रूढ़ि ,,,,,,,,,,,आदि आदि पे नहीं लिखते ?? आप तो सीरीज-कर्मी हैं ( सिरिंज-कर्मी भी ) , आप से बेहतर सलटायेगा !!
खैर .. आनंद आ गया , जिसकी पूर्ति में आप ही समर्थ हैं , ऊ हियाँ मिला !
आपकी चिंताओं को देखा , कमोबेश अपन की भी ये ही हैं ! आश्वस्त हूँ आप सुधीजन टिके रहे तो अपन भी टिकाव के शिकार बने रहेंगे ! बाकी तो रेलम-पेल मूर्ख-प्रलाप जहां तहां चल रहा है जिसे भ्रमित - बुद्धि नर नारी 'बहस' की संज्ञा दिए बैठे हैं | ब्लॉग-मंच पर पाखाना-भूमि और भोजन-भूमि में फर्क करना मुश्किल हो गया है ! जन मन दोनों को स्वादिष्ट मानने लगा है ! तर्क चांप दो तो आ जायेंगे व्यक्तिगत चरित्र हनन पर ! वर्धा सन्दर्भ पर केन्द्रित करूँ स्वयं को तो यह पोस्ट नैनू मार्का है , दिखावबाजी बुर्का-मार्का से अलग ! !
पोस्ट माननीय है , अभी निकलना है दो-तीन दिन के लिए बाहर , फिर आकर देखूंगा ! पुरनका फ़ार्म होता तो एक यही अवसरे ( यही मैटरे च ) एक प्रति-पोस्ट भी चांप देता ! :) | आभार !!
बहुत दिन बाद एक बेहद उपयोगी लेख पढ़ा आपका आभार गिरिजेश भाई !
जवाब देंहटाएं"आलोचना पर पहली प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से क्रोध होती है " अक्षरश सत्य है , आपके इस ब्लाग से बहुत कुछ सीखने को मिला ...और अपने लिए अपनाने का प्रयत्न भी करूंगा !
सादर !
:)
जवाब देंहटाएंहम और मेरे जैसे कई ब्लोग्गर २-३ साल से आप लोगों के इर्दगिर्द चक्कर लगा रहे है.
जवाब देंहटाएंऔर मुद्दत बाद कोई ऐसा लेख मिला है .... बहुत कुछ सिखने के लिए ... अगर इच्छा है तो..
और एक कसोटी भी मिली है .... हम और हमारा ब्लॉग कहाँ ठहरता है.
बाकि अमेन्द्र नाथ जी की टिप्पणी भी कई अर्थ देती है............
जय राम जी की.
विचारणीय..मनन करने योग्य!
जवाब देंहटाएंसीरियस ब्लॉगर्स के लिये वाकई संग्रहणीय पोस्ट।
जवाब देंहटाएंहम जैसों के लिये भूलने वाली कक्षा भी कभी लगाई जाये:)
1-जिस तरह धुएँ से अग्नि युक्त है उसी प्रकार सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। इस कारण सहज कर्म को त्यागना नहीं चाहिए।
जवाब देंहटाएं2-स्वभावत: आप सोचेंगे कि क्या लिखें? मैं कहूँगा कि यह चयन का मामला है, कमी का नहीं। विषय बिखरे हुए हैं, आप को रुचि अनुसार चुनना है
3-कुछ भी लिखिए और प्रयोग करने से न चूकिए।
4-भाषा सहज सम्वाद करती होनी चाहिए, बस।
5-आलोचना पर पहली प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से क्रोध होती है। इसलिए विरुद्धवीणा बजाने के पहले सुर ताल पर पक्के हो लें और सभ्य भाषा में ईमानदारी के साथ अपनी बात कहें। प्रतिकार में दिए गए तर्कों के प्रति खुले रहें।
अपने बारे में इन बिन्दुओं पर आपकी स्पष्ट राय जानना चाहूंगा?
अगली कड़ी कब ?
...लग रहा है कि अभी भी आपकी कक्षा में प्रवेश लेना पडेगा ?
जवाब देंहटाएं"बहुत सुन्दर आलेख" कहकर रह जाऊँ तो इस पोस्ट के साथ न्याय नहीं होगा। यह श्रंखला जारी रहे - जो बातें छूट गयी हैं उनका ज़िक्र आगे आता रहे तो और भी अच्छा हो। पढकर संत कबीर याद आ गये, पता नहीं क्यों - मन चंगा तो कठौती में गंगा ...
जवाब देंहटाएं[बात बहकने से पहले बता दूं कि यहाँ बात मन की हो रही है काठ या उससे बने पदार्थों की नहीं]
मन चंगा तो कठौती में गंगा ... [संत रविदास]
जवाब देंहटाएंभूल-सुधार के अवसर के लिये धन्यवाद!
बुजुर्गों, आचार्य जी और माट्साब लोगों!
जवाब देंहटाएंकहीं आप लोग मेरी खिंचाई तो नहीं कर रहे? ;) यह लेख नए ब्लॉगरों के लिए लिखा गया था, पुराने पापियों के लिए नहीं।
बुजुर्गों, आचार्य जी और माट्साब लोगों से जवाब मांगा गया है तो फिर अपन चुप ही रहते हैं!
जवाब देंहटाएंpatniya-manniya-cha-anukarniya.....
जवाब देंहटाएंpranam.
बहुत उपयोगी आलेख है नये पुराने सब के लिये। धन्यचाद।
जवाब देंहटाएंबुड्ढा कहीं मैं तो नहीं .....??
जवाब देंहटाएंसिद्धार्ज जी से सहमत। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
जवाब देंहटाएंपक्षियों का प्रवास-१
बहुत ही सुंदर.
जवाब देंहटाएंhttp://sudhirraghav.blogspot.com/
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट वाकई उपयोगी है। नए पुराने सभी ब्लागरों के लिए। बधाई।
जवाब देंहटाएंभाई गिरिजेश जी आपने सतीश पंचम जी की पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में होशियारी वस्ताद की बात कही है। वे हमारे ब्लाग गुलमोहर पर भी पधारे थे। हमने (शैतान बालक की तरह) कुछ सवाल जवाब उनसे किए हैं। पर वे उनका जवाब देने नहीं लौटे। आपको मिलें तो उन्हें याद दिलाइएगा।