भोर के आसपास हूँ। ऊर्मि और मनु की कथा लिखने को जगा हूँ और अन्धेरे को बहुत घना पा रहा हूँ। कल इंडियन एक्सप्रेस में एक विद्वान का लेख पढ़ा जिसमें दूसरे देशों में हुए वृहद आयोजनों के दौरान घटित भ्रष्टाचारों पर जनता की उदासीनता की तुलना आम भारतीय जनता की जागरूकता से करते हुए यह आशावान भविष्यवाणी सी की गई थी कि अब एक नए युग का आरम्भ होगा। अर्थ के विलक्षण विशेषज्ञ से असहमत होते हुए मुझे अपनी लम्बी कविता का वह अंश याद आया जिसमें एक पीड़ित संसद भवन के मैले खम्भों को गन्ने के खौलते रस से सराबोर करने की बात करता है।
एक सर्जक के लिए अच्छाई की कल्पना और सृजन बहुत ऊँचे आदर्श हैं। न तो मैं तुलसीदास हूँ और न मक्सिम गोर्की। क्या करूँ? अन्धेरे मुझे बहुत स्याह दिखते हैं। एक परम्परा व्यास के महाभारत की भी तो है जिसमें प्रकाश के साथ स्वयं ईश्वर मानव रूप में चित्रित हुआ है। लेकिन अन्धेरा इतना सान्द्र होकर उभरा है कि अन्धे युग के पहले कुछ दिनों में ही स्वयं रचयिता कह उठता है - मैं दोनों हाथ उठा कर कहता हूँ पर कोई नहीं सुनता (उसे कहना था - किसी को कुछ नहीं दिखता)।
ईश्वर मर चुका है और समूची धरा सर्प यज्ञ के अनुष्ठान में लगी है। विष वमन करते, मृत्यु का प्रचार प्रसार करते सर्प जनमेजयों के यज्ञ में नहीं मरते। नहीं मरते! उनका यज्ञकुण्ड में दहन कल्पना ही तो है - अच्छी या बुरी? नहीं पता लेकिन अन्धेरे को इतना साफ साफ कह देना क्या प्रकाश पर प्रकाश डालने जैसा प्रभाव नहीं छोड़ता? प्रेम क्या है- क्या यह दिखाने के लिए घृणा का सृजन करना होगा? कौन करेगा? किसमें इतनी क्षमता है?
... व्यासदेव! आज इस भोर में यह क्षुद्र सर्जक प्रेमाख्यान नहीं लिख पाएगा। कुछ भी नहीं लिख पाएगा। छ्लकते उजालों के बीच रहते हुए भी अपने को एक कपाट में बन्द पा रहा है जिसके बाहर अन्धेरा ही अन्धेरा है। कल्पना, हाँ अन्धेरे की कल्पना ही कर रहा है - उन विपत्तियों को विस्तार देते हुए जिन्हें सामान्य कहा जा सकता है लेकिन जिनके विष उस जैसे करोड़ों आम व्यक्तियों को रोज मारते हैं और फिर भी उनकी आत्माएँ अमर रहती हैं। अपने भीतर के त्रास को पुन: प्रस्तुत कर रहा है क्यों कि उसे अमर अश्वत्थामाओं से घृणा है, घृणा है।... वह तरंगों से फेंकी एक मणि नहीं, किनारे के शैवाल सा है। वह ठहरा है और मझधार में संसृति जलनिधि की तरंगों का उद्दाम नर्तन है, चल रहा है। मणियाँ कैसे बनती हैं? उनमें प्रकाश कहाँ से आता है? ...
इस कहानी का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। पढ़ते पढ़ते अगर वास्तविक लगने लगे तो अपने ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि यह कभी वास्तविक न हो।
एक सर्जक के लिए अच्छाई की कल्पना और सृजन बहुत ऊँचे आदर्श हैं। न तो मैं तुलसीदास हूँ और न मक्सिम गोर्की। क्या करूँ? अन्धेरे मुझे बहुत स्याह दिखते हैं। एक परम्परा व्यास के महाभारत की भी तो है जिसमें प्रकाश के साथ स्वयं ईश्वर मानव रूप में चित्रित हुआ है। लेकिन अन्धेरा इतना सान्द्र होकर उभरा है कि अन्धे युग के पहले कुछ दिनों में ही स्वयं रचयिता कह उठता है - मैं दोनों हाथ उठा कर कहता हूँ पर कोई नहीं सुनता (उसे कहना था - किसी को कुछ नहीं दिखता)।
ईश्वर मर चुका है और समूची धरा सर्प यज्ञ के अनुष्ठान में लगी है। विष वमन करते, मृत्यु का प्रचार प्रसार करते सर्प जनमेजयों के यज्ञ में नहीं मरते। नहीं मरते! उनका यज्ञकुण्ड में दहन कल्पना ही तो है - अच्छी या बुरी? नहीं पता लेकिन अन्धेरे को इतना साफ साफ कह देना क्या प्रकाश पर प्रकाश डालने जैसा प्रभाव नहीं छोड़ता? प्रेम क्या है- क्या यह दिखाने के लिए घृणा का सृजन करना होगा? कौन करेगा? किसमें इतनी क्षमता है?
... व्यासदेव! आज इस भोर में यह क्षुद्र सर्जक प्रेमाख्यान नहीं लिख पाएगा। कुछ भी नहीं लिख पाएगा। छ्लकते उजालों के बीच रहते हुए भी अपने को एक कपाट में बन्द पा रहा है जिसके बाहर अन्धेरा ही अन्धेरा है। कल्पना, हाँ अन्धेरे की कल्पना ही कर रहा है - उन विपत्तियों को विस्तार देते हुए जिन्हें सामान्य कहा जा सकता है लेकिन जिनके विष उस जैसे करोड़ों आम व्यक्तियों को रोज मारते हैं और फिर भी उनकी आत्माएँ अमर रहती हैं। अपने भीतर के त्रास को पुन: प्रस्तुत कर रहा है क्यों कि उसे अमर अश्वत्थामाओं से घृणा है, घृणा है।... वह तरंगों से फेंकी एक मणि नहीं, किनारे के शैवाल सा है। वह ठहरा है और मझधार में संसृति जलनिधि की तरंगों का उद्दाम नर्तन है, चल रहा है। मणियाँ कैसे बनती हैं? उनमें प्रकाश कहाँ से आता है? ...
इस कहानी का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। पढ़ते पढ़ते अगर वास्तविक लगने लगे तो अपने ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि यह कभी वास्तविक न हो।
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(1)
मिडिल स्कूल के फील्ड में रानी का डंडा आने वाला था। गाँव भर जोशो खरोश में होश खो तैयार हो रहा था।सोनमतिया बेटी के केश सँवार रही थी। उसने बेटी को एक धौल लगाया,” मोछिउखरनी, कहेलीं कि साबुन नाहीं बा त रोज काँचे पानी से सलवार समीज धो देहलि करु। कैसन महकता। लोगवा का कही रे ?”
बेटी ने जवाब दिया,” माइ रे, तोर मोछि कहाँ बा जो उखरी?”
धत्त! कह कर सोनमतिया पहले हँसी और फिर नम हो गई आँखें पोंछने लगी। उसके मरद को मरे तीन साल होने को आ रहे थे।
लाला अपने दुआरे बहोरना के साथ गम्भीर विमर्श में व्यस्त थे। “रानी के डंटा के मतलब का ? आखिर ई आवता काहें हो?”
पछिमही बोली में बहोरना बोला,” लाला, सात समन्दर पार से कभी एक रानी हम पर राज करती रही। उहे अंग्रेज राज के अब के रानी डंटा भेजिस है। पहिले तो वो सब डंटा मार मार पीठ की खाल उधेड़ राज किए अब खेल खेल में उसकी याद दिला रहे हैं। राजदंड तो सुनै होगा। एक तरह से वही समझ लो। बड़ी इज्जत है उसकी। सुना है बड़े बड़े लोग लुगाई उसके साथ चल रहे हैं। सिक्योरिटी एक्दम टैट है।“
लाला बुदबुदाए,”बड़वार लोग मजा लेवे खातिर भी डंटे ले घूमेला।“
दोनों मिडिल स्कूल के फील्ड की ओर चल दिए। वहाँ लोगों का जुटान अभी शुरू हो रहा था। बहोरन को लगा कि एक हरमुनिया की कमी है नहीं तो अभी लौडस्कीपर पर बजती तो कितने लोग जुट जाते। फिर उसने खुद को कोसा, “अरे, हरमुनिया क्यों बजेगी? कोई नौटंकी थोड़े हो रही है?” मन के किसी कोने ने सरगोशी की – ये नौटंकी ही तो है। बात बढ़ाने की गरज से नए पीपल के नीचे लाला को ले पहुँचा जहाँ दो तीन और खड़े थे।
बहोरना बोला, "अरे, सुना है कि रानी के डंडा बहुत दिन से घूम रहा है, हम्में कौनो खबरे नाइँ!"
रजुआ ने खबर की अखर को आगे बढ़ाया,
"खबर का लंड होई! बिसवरिया से बिजली नपत्ता बा। टीवी चलते नैखे। रेडियो त घर घर बिगड़ल धइल बा।"
लाला कब चुप रहने वाले थे, बोल पड़े "अरे, आवेले - राति के एगारे बजे अउर बिहाने चारे बजे फुर्र! उहो रेगुलर नाहीं।"
"त लाला, दुन्नू परानी रतजग्गा करss जा।"
"हे बुरधुधुर, लोग का कही रे? सगर गाँव सुत्ता परि गे अउर लाला ललाइन जागल का करता? उहो ए उमिर में!"
इस बात पर सब लोग पिहिक पिहिक हँसने लगे। लाला जारी रहे,
"वैसे ई बाति हम ललाइन से कहले रहलीं त ऊ कहली कि लनटेम बारि के बिजली अगोरले से का होई? राम जाने आई कि नाहीं। माटी के तेल जरी अलगे से। नज़र सेंकले के शौक बा त बैटरी के जोगाड़ करss"
रजुआ ने याद दिलाया कि बिधायक के यहाँ छोटा टी वी था जो ट्रैक्टर की बैटरी से चलता था। बहोरना ने याद पर वर्तमान का लवना लगाया," का रजुआ, जानते हुए भी अनजान बन रहै हो। मज़ा लेना कोई तुमसे सीखे। अरे लोन नाहीं जमा किए रहे सो बैंक वाले ट्रैक्टर खिंचवा ले गए।"
" हँ, बिधायक सोचलें कि वोहू के कर्ज़ा माफ हो जाई।"
बेचारे बिधायक का बस नाम ही विधायक। सो उसका सारा विधि विधान पब्लिक के उल्टा पुरान का अंग बन गया था।
"भाई, कल पुरजा के चीज में माफी नाहीं चलेले।
सरकारो बड़ी चँलाक हो गइल बा। कल-पुर्जा एहि से दिन रात बढ़ावतिया। अब बैंकवे में देख sss। कारड डार। बटन दबाव ss। कड़कड़ौवा नोट हाथे में। कुछ दिन के बादि कर्जा वसूलियो एहि तरे होई। कड़कड़ौवा नोट लेके मशीन में डारे के परी। कौनो माफी नाहीं। सरकार कही कि कल पुर्जा के बात में कउनो छूट नाहीं मिली।"
बात मजाक की थी लेकिन कई लोगों के दिलों में धुकधुकी होने लगी। मामला गम्भीर होते देख बहोरना ने शांति पाठ किया," अरे मशीन चलेगी तब न ss। बैंक में हमेशा तो खराब रहती है। खजांची बाबू खुदे नहीं चलने देंगे। बहाना एकदम टंच। बिजली नहीं रहती और बड़े जनरेटर का पुर्जा मिल नहीं रहा। मतलब कि कल पुर्जा की काट भी कल पुर्जे से। कर्जा माफी होती रहेगी, निश्चिंत रहें।"
लोगों की धुकधुकी फिर कच्ची लीक चलने लगी। अटकी साँसें सामान्य हो चलीं।
रानी के डंडे की बात सुन कर 'दिल्ली रिटर्न' रमपतिया अखबार वाले से भी नहीं रहा गया। लाठी ठेगते वह भी पहुँचा जहाँ की चौकड़ी अब दहाई हो रही थी। साँवला चेहरा काला पड़ गया था। देह के नाम पर ठठरी लेकिन आँखें बत्ती की तरह रोशन। देख के डर लगता था। उसे देख सब लोग दूरी बनाने लगे। उसने चर्चा का सूत्र पकड़ा," अखबार नहीं रहने से सूचनाएँ नहीं मिलतीं। मैं ठीक रहता तो अखबार से सूचना मिल गई होती। अब मोबाइल थोड़े रानी के डंडे के बारे में बताएगा!"
रमपतिया पिछले तीन महीने से बिस्तर पकड़े हुए है। ठीक था तो लक्ष्मीपुर टेसन से जाकर भोरहरे अखबार ले आता था। गाँव में दो तीन ग्राहक थे, बाकी कुछ गिने चुने लोग उधरिया एक दिन की बासी खबर पढ़ते थे, देश दुनिया की खबर से लेकर नरेगा के घपलों तक से वाकिफ रहते थे। सबसे बड़ी अचरज की बात यह थी कि क़स्बे गए लोग अखबार पढ़ आते थे लेकिन बस लोकल खबर। फ्रंट पेज की खबरें जब तक कोई विवेचित न करे, उनकी समझ में न आती थीं और न ही वे कोई रुचि ही रखते थे। पढ़ी हुई बातें भी छिपा कर रखी जातीं और ऐसी जुटानों में चटकारेदार मनोरंजन का सामान बनतीं।
ऐसे में रमपतिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका उसकी बीमारी के कारण समाप्त हो चली थी। गाँव में अब सहज हो चली उदासीनता के कारण उसका एक तरह से लुप्त हो जाना भी किसी को नहीं अखरता था।
रजुआ ने उसे कोंचा," त भैया कैसे बेराम परि गइल? टी बी हे का ??"
रमपतिया की बीमारी के बारे में तरह तरह की बातें गाँव में प्रचलन में थीं, बात साफ करने के लिए रजुआ ने मौके का फायदा उठाते हुए यह प्रश्न किया था।
रमपतिया की आँखों में गर्वीली चमक आई और खाँसते हुए उसने बताया,"मुझे एड्स हो गया है।"
रजुआ ने इस बीमारी के बारे में सुना भर था। जान बूझ कर बनाते हुए बोला," अँड़ास? ई कौन बेमारी हे?"
रमपतिया की खाँसी खामोश हो गई। उसने डाँटते से स्वर में जवाब दिया," अनपढ़ तो हो ही, कान भी खराब हो गए हैं क्या? एड्स कहा एड्स। बहुत भारी बीमारी है। एक्के दुक्के को ही होती है लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री से लेकर फिल्मी हिरोइनें तक फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करते हैं। भरी दुपहरी पोस्टर बना जुलूस निकालते हैं। जिसे कभी साक्षात न देख पाओ उसे इन जुलूसों में देख लो। बस बम्बई, दिल्ली जाने की ज़रूरत है। अँड़ास ! हुँह"
लोगों को भौंचक करने के बाद रमपतिया लाठी ठेगते चल दिया।
बीमारी का इतना घमंड ! लोगों के अचरज पर बहोरना ने मुलम्मा चढ़ा कर उसे सामान्य करने का प्रयास किया," ये बीमारी कई लोगों से देंहजी सम्बन्ध बनाने से होती है। हमको हमेशा शक था कि अखबार के बहाने ये भिंसारे क्या करने जाता है? सारी कमाई टेसन के बगल में उड़ा आता होगा। भिंसारे कुकर्म! छि:"
लोगों ने इशारे समझे और बहोरना की कल्पनाशक्ति पर शक करें कि शोर उठा," डंटा आ गइल! बेटहनी डंटा आ गइल!!"
लाला को हँसी आ गई,"बेटन बेटहनी हो गइल। ई रजुआ के खेला हे। सारे घूम घूम के कलिहें से बतावता।"
रानी का डंडा बड़ी शानदार कार से उतरा। उसे हाथ में लिए काला चश्मा लगाए जो नार निकली वह बिटिहनी थी की औरत? पता नहीं चल रहा था। लाला ने यह भी नोटिस किया कि वह थी तो देसवाली लेकिन अंग्रेजन सी दमक रही थी। ब्लाउज जैसा जो कुछ उसने पहन रखा था वह खतरनाक स्तर तक नीचे की ओर कटा हुआ था। लाला को सनसनी होने लगी लेकिन फिर ललाइन की सोचे तो सनसनी शांत हो गई। उन्हों ने बहोरना के कान में फुसफुसी की – गोरकी के देख! मस्त माल !!
कार के साथ इतनी गाड़ियाँ की पूछो मत – जीप पर पुलिस वाले। अम्बेसडर से उतरे तोंदू लोग। कई मोटरसाइकिलों पर लखेरे और एक बड़ी सी वैन में ऊपर छाता ताने टी वी वाले। इंतजाम एकदम पोख्ता था।
गाँव के कुत्ते इकठ्ठे हो जोर जोर से भोंकते इधर उधर भागने लगे और लोग घेर कर तमाशा देखने लगे । रजुआ बेटहनी डंटा ली हुई बिटिहनी को घूरे जा रहा था। बहोरना ने सब छोड़ डंडे पर ध्यान केन्द्रित किया। बे सूल साल का डंडा - न किसी को मार सको, न डरवा सको और न पड़रू हाँक सको ! ऊपर से डिजायन बना उसे भी जनाना बना दिए थे। ठीक है, आदमी हाँकने के लिए डंटा अउर तरह का होना चाहिए। उसे भैया जी और उनके आदमियों की अनुपस्थिति पर भी आश्चर्य हो रहा था। होगी कोई बात, सोचते हुए उसने सिर झटक दिया।
एकाएक गोरकी ने डंडे को ऊपर किया और कुछ हे हू जैसा बोला। ब्लाउज ऊपर को खिसकी तो छातियाँ उभर आईं। सनसनाया रजुआ फिलिम की तरह की गोरकी को देखे कि डंडे को ? आँखें फट गई थीं।
भरे दिन में भी लैट जला कर कैमरा चलवा एक फिटर्रा मनई जोर जोर से चिल्लाने लगा,” अभूतपूर्व है! अभूतपूर्व है यह नज़ारा!! इंसान के भाईचारे की भावना को लिए यह बेटन पहली बार किसी गाँव में आया है। देखिए गाँव वालों को, कितने खुश हैं ! सच है भाईचारे की भावना अमीरी गरीबी, गाँव शहर, जाति पाति , धर्म मज़हब कुछ नहीं देखती। हमें उम्मीद है कि इस बार के खेलों से वह घटित होगा जो कभी नहीं हुआ।“
कैमरा बन्द करवा कर उसने पसीना पोंछना शुरू किया,”शिट ! ये उमस, धूल धक्कड़।“
जिस समय फील्ड में यह सब होना शुरू हुआ था, उसके कुछ पहले यशवंत प्रधान के यहाँ दो तीन लोग आग बबूले हो रहे थे। पांड़े बोला,” ई कौन कायदा ? डंटा परधान के इहाँ न आई ?”
यशवंत पढ़े लिखे युवा थे। उन्हें फील्ड पर जाने में कोई उज्र नहीं था लेकिन कचोट यह थी कि कुँवर बाबा ने डंडे के आने की खबर उन्हें एडवांस में नहीं बताई। मैडम आती हैं तो कितनी अच्छी व्यवस्था कराई जाती है ! इस बार कोई इंतजाम नहीं कर पाए। हाथ मलते घूम घूम सोच रहे थे, टीवी पर आने का मौका विचल गया !
पाँड़े ने समाधान दिया।
“भैया हो ! टट्टर ले के जातनी। सबके इहें ले आवतनी।“ मौन सहमति पा कर पाँड़े ने ट्रैक्टर ट्रॉली स्टार्ट किया और भैया जी के दसियो कार्यकर्ता उस पर सवार हो फील्ड की ओर चल दिए।
टी वी वालों ने समेटना शुरू कर दिया था और गाँव वाले ? ग़जबे निराश थे। इतने का ही इत्ता सारा हल्ला था! सब तैयारी धरी ही रह गई – न खेल, न तमाशा, न भाषण। औरतें रजुआ को कोस रही थीं कि भैया जी का ट्रैक्टर आ पहुँचा। पाँड़े सीधा गोरकी के पास पहुँचा और डंडे को करीब करीब छीनने लगा। फिटर्रे मनई ने फौरन कैमरे वाले को इशारा किया और जोर जोर से अभी शुरू ही किया था,” कुछ असामाजिक तत्त्व ...” धप्प! एक कार्यकर्ता ने कैमरे के लेंस पर गमछा पहना दिया। दूसरे ने फिटर्रे का हाथ जोर से दबा कर चुप रहने की शिक्षा सेकंडों में दे दी। तीन कार्यकर्ता दारोगा जी से बातें करने लगे।
गाँव वाले तो लहालोट! अब मज़ा आई!! पाँड़े ने गोरकी को कहा,” कारे में नाहीं, टाली पर चले के परी हो रानी! पूरा जुलूस निकली, गाँव भर घूमी। ऐसहे कैसे चलि जैबू? ”। जाने पाँड़े की वज्र पकड़ का प्रभाव था कि ‘रानी’ नाम का कि ‘रानी’ सम्बोधन का – गोरकी ट्रॉली में सवार होने के प्रयास करने लगी। रानी का डंडा पाँड़े के हाथ में था। रजुआ और बहोरना गोरकी को ट्रॉली पर सवार कराने के बहाने जिस्म की नरमी का अन्दाजा ले रहे थे। बाकी कार्यकर्ताओं ने टीवी वालों को और साथ में आए साहब लोगों को भी ट्रॉली पर चढ़ा दिया। पाँड़े ने जोर से नारा लगाया,” बोल रानी के डंटा के ...!”
“जय!” गगनभेदी समवेत स्वरों में मंगलकामना लिए अभिवादन गूँजा। प्रजा धन्य हो उठी । जुलूस चल पड़ा। दारोगा जी की गाड़ी सबसे पीछे एस्कॉर्ट की तरह लग गई। लाला से बहोरना बोला,” ये है गँवई स्वागत! रानी का डंडा भी याद रखेगा। हम तो कहे कि दुर्गाधसान के टैम से भी बढ़िया है नज़ारा !आरकेस्ट्रा के कमी रही सो गोरकी पूरी किए दे रही है।”
(2)
गोरकी असल में एक भूतपूर्व एथलीट थी जिसका खेल जगत में योगदान भारत की फुटबाल टीम से कम नहीं था। घटित के तेज बहाव से निज़ात पाकर उसने अपने को ट्रैक्टर की चाल पर लुढ़कता पाया। संतुलन के लिए उसे कभी पाँड़े तो कभी रजुआ की देह का सहारा लेना पड़ रहा था। रजुआ मन ही मन भैया जी को गरियाए जा रहा था – कौन ज़रूरत रहे चिक्कन सड़क बनववले के ? सड़क खराब होती तो हचका जोर होता और सहारा देने के बहाने जाने कितनी बार गोरकी को अँकवार में ले चुका होता! ड्राइवर ने गेयर बदला और एक्सीलेटर चाँपा। पुराने आयशर के इंजन ने रेस लगाई – फट, फट , फट , फट .......... फट, फट,फट...... । डांस के प्रोग्राम के बारे में सोचता पाँड़े चिल्लाया,”बहानचो, अजुए सब कलाकारी देखइबे? एकदम सिलो चलाउ।“ सहारा लेती गोरकी ने कुछ संतुलन पाया तो आखिरी मदद के तौर मोबाइल निकाला हालाँकि उसे उम्मीद कम ही थी। पाँड़े ने देखा तो फिस्स से हँस दिया और अपनी जान में गोरकी को समझ आए उस तरह से बोला,”मैडम जी, इहाँ इसका नेटवरक नहीं चलेगा। बात करने के लिए उँचास छत पर जाए के परी...”। पाँड़े ने अपना चमचमाता चाइना मोबाइल निकाला तो गोरकी दंग रह गई। पाँड़े ने फुल वाल्यूम में गाना लगाया – “चोरबजारी दो नयनों की ...“
नाचsss रानी! अरे नाचsss!! गोरकी को यह आदमी अट्रैक्टिव लगने लगा था । भरी भींड़, सरकारी अधिकारी, पुलिस – इन सबके बीच पाँड़े द्वारा अपहरण कमाल प्रभावकारी था ही। यह सोच कि – लेट हैव फन, गोरकी ने पहला ठुमका लगाया तो भींड़ पगला उठी। पाँड़े के इशारे से ट्रैक्टर बन्द हो गया और रजुआ, बहोरना, पाँड़े, गोरकी ट्रॉली पर अजीबोग़रीब बेताल ताल हीन नाच में जुट हो गए।
लाला ने सफारी सूट पहने एक अधिकारी के सामने ठुमकना शुरू किया तो एक कार्यकर्ता ने अधिकारी का हाथ पकड़ उसे नचाना शुरू कर दिया। समाँ बँध गया। ट्रॉली पर गीत की धुन पर नाचते लोग तो नीचे जमीन पर तोंद लड़ाते लाला, अधिकारी, कार्यकर्ता ... पाँड़े के हाथ में रानी का डंडा रह रह ऊँचा उछ्ल रहा था। सोनमतिया की माई गुलगुल हो हँसे जा रही थी। बाकी औरतें लीन थीं – धन धन रानी !
(3)
ट्रैक्टर पहुँचने में देर होता जान भैया जी ने ह्विस्की का एक घूँट निगला और लखटकिया मोटरसाइकिल पर सवार हो चले। सड़क का काम खत्म होने के तुरंत बाद बड़े शौक से यह मोटरसाइकिल दिल्ली से मँगाए थे और उसे बहुत कम ही निकालते थे। रास्ते में ही जो नज़ारा दिखा उसकी कल्पना उन्हें भी नहीं थी।
पाँड़े होनहार था। उससे सतर्क भी रहना पड़ेगा। ऐसे पालतू कटहे बनने में देर नहीं लगाते।
मोटरसाइकिल को ट्रॉली के बगल में खड़ी कर भैया जी दहाड़े,”बन्द कीजिए यह भड़ैती।“ नाच को ब्रेक लग गया। पाँड़े सकपका कर नीचे उतर कर रानी का डंडा उनके हाथ में देने लगा। गोरकी तो ऑ स्ट्रक! अभी तक जिसे हीरो समझ रही थी वह तो प्यादा निकला! ये कौन आया? स्मार्टी। थंडरबर्ड बाइक ! वाव !!
रानी के डंडे को हाथ में ले उस पर उपेक्षा की एक दृष्टि डाल भैया जी अधिकारी सम्बोधन मुद्रा में आ गए,”इतने पावन अवसर पर आप लोगों को मसखरी सूझ रही है? भारत के किसी गाँव में पहली बार यह .. यह .... आया है। शर्म कीजिए आप लोग। इज़्ज़त बख्शने के बजाय नौटंकी? इंस्पेक्टर साहब ! अच्छा हुआ कि आप एस्कार्ट में हैं नहीं तो ये लोग तो इसका, इसका ... पीछे से लाला फुसफुसाए- बेटन... हाँ, बेटन की बेइज्जती ही कर डालते! चलिए आप लोग। वहाँ बेटन का विधि विधान से स्वागत होगा।” बाइक स्टार्ट करते भैया जी ने लाला पर कृतज्ञ दृष्टि डाली। रानी के डंडे को डंडा कहना पड़ता ! कितनी बेशर्मी होती !! लाला ने बचा लिया। उन्हें नाम भूल कैसे गया था?
जुलूस चुपचाप चल पड़ा। घर के बगल से गुजरा तो रमपतिया भी लाठी ठेगता पीछे पीछे चल पड़ा। मार गई फसल लिए कोई किसान खलिहान जा रहा था क्या?
(4)
भैया जी ने लव मैरेज किया था। दिल्ली की सरदारन जब दुलहिन होकर आई थी तो लड्डू तो बाद में बँटे, प्रायश्चित स्वरूप गाय का गुह मूत पहले ग्रहण करना पड़ा। जाति बिरादरी से बाहर करने के बजाय इसी पाँड़े के बाप ने यह रास्ता निकाला था। वक़्त के साथ दुलहिन ने अपने को ऐसा बदला कि लोग बाग सन्न हो गए। साड़ी पहने आधा सिर ढके जब दुलहिन तुलसी चौरा पर पयकरमा करती थीं तो लगता जैसे सछात देवी हों ! घर बाहर सब सँभालती दुलहिन आदमी जन की ‘दुलहिन भैया’ हो गई। आज कोठी के रजदुआरे पर दुलहिन आरती थाल सजाए खड़ी थीं।
भैया जी मोटरसाइकिल पर आते सबसे आगे दिखे पीछे टट्टर टाली पर गोरकी समेत सभी लोग। अगल बगल मोटरसाइकिलें, टाली के पीछे कारें और सबसे पीछे टीवी वाले। उनकी महतारी ने देखा तो उन्हें लगा कि टी वी वाले किशन कन्हैया महभारत में रथ दौड़ा रहे हों! जेवनार फेवनार भाखने लगीं।
दुलहिन ने बुदबुदाते हुए रानी के डण्डे की आरती उतारने को दीप बालना ही चाहा कि भैया जी ने रोक दिया। पाँड़े को इशारा मिला और तुरत फुरत टी वी वाले कैमरा सैमरा तान कर तैयार हो गए। भैया जी ने फिटर्रे के कान में फुसफुसी की – लाइव और रिकार्डिंग दोनों । उसने सहमति में सिर हिलाया ही था कि दो अधिकारी आ कर भैया जी के आगे गिड़गिड़ाने लगे,”सर ! अब तक ठीक था लेकिन टेलीकास्ट हुआ तो ग़जब हो जाएगा। हम कहीं के न रहेंगे।“
भैया जी ने प्रेमिल स्वर में कृपा की वर्षा की,” अगर टेलीकास्ट नहीं हुआ तो आप लोग यहीं के हो के रह जाएँगे।“
शांति छा गई।
भैया जी डण्डे को लिए थंडरबर्ड पर सवार हो गए। बगल में गोरकी ओठ निपोरे आ सटी। दुलहिन ने दीप जला डण्डे को तिलक लगाया और आरती उतारने लगीं। पुरोहित जी ने स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया,” स्वस्ति नो इन्द्रो ..स्वस्ति नो पूषा...”।
फिटर्रे मनई ने माइक ले गद्गगद स्वरों में जोर जोर से रोदन सा पाठ शुरू किया,”दिव्य है यह दृश्य! ऐसा भारत के गाँव में ही सम्भव है। इतनी सरलता, इतनी आत्मीयता, इतना प्रेम और कहीं देखने को नहीं मिला। मैं भाव विह्वल हो रहा हूँ। राष्ट्रकवि की पंक्तियाँ याद आ रही हैं – अहो ! ग्राम्य जीवन ..... “
सबसे पीछे खड़ा रमपतिया आँखें पोछता बुदबुदाया,”अब बस अखबार में ही आस है।“
सारे तमाशे का अंत जब शंख ध्वनि से हुआ तो वापस लौटते तमाशबीनों में रमपतिया दूर सबसे आगे हो गया। ढलते सूरज के कारण लाठी ठेगते रमपतिया का साया राह पर कुछ अधिक ही लम्बा लग रहा था। सरकारी गाड़ियों ने लौटने में जो तेजी दिखाई वैसी तेजी अगर आज़ादी के बाद काम करने में दिखाई गई होती तो आज ....
हाइवे पर पहुँच कर अम्बेसडरों में मोबाइल पर बिन पूछे जाने किन किनको सफाई दी जा रही थी। जो चुप थे वे ट्रांसफर और सस्पेंसन से बचने की राह जोह रहे थे। गोरकी ने राह में उछ्लते छौने को देख ड्राइवर को कोंचा,” इट वाज ए रियल फन!” और आँख मार कर हँसते हुए गोद में पड़े बेटन को सहलाने लगी। भैया जी ...
(5)
घर पहुँचते पहुँचते रमपतिया की तबियत खराब हो गई। खाँसी को किसी तरह काबू कर वह लेटा तो जो आँख लगी वह अधराति खुली। बाहर आया और अचानक दिन का देखा सुना नए नए अर्थ ले उसके दिमाग में घुमड़ने लगा। जब गाँव में यह हाल है तो शहरों में क्या होगा? निज़ाम, प्यादे, खिलाड़ी, समूची सरकारी मशीनरी, प्राइवेट पूँजीपति सभी बेटन बेटन ... उसने गिना। अखबार पढ़े हुए तीन महीने छ: दिन हो गए थे। करिखही रात को घूरते हुए तय किया कि आज अखबार लाएगा, पढ़ेगा और पढ़ाएगा। साइकिल तो अब चलने चलाने से रही। पैदल ही लक्ष्मीपुर स्टेशन को चल पड़ा। गाड़ी आने तक तो पहुँच ही जाएगा।
टेसन पर चाय पानी की तैयारी में जुटे मिसिर की दुकान पर ताजे और पुराने अखबारों को पढ़ कर वह तरो ताज़ा हो गया। मिसिर के बहुत रोकने पर भी वह अखबार हाथ में लिए गाँव को वापस हो लिया। आसमान में घनी बदरी छाई हुई थी। सुबह सुबह बला की उमस थी।
(6)
रजुआ ने घर घर घूम रमपतिया का सन्देशा पहुँचा दिया और दस बजते बजते एक छोटी भीड़ उसके दरवाजे पर इकठ्ठी हो गई। चौकी पर लेटे लेटे ही रमपतिया ने कहना शुरू किया,” अंत आ पहुँचा है। आप सब से भेंट करना था और अपना फर्ज अदा करना था सो बुला लिया। बड़ छोट सब माफ कर दें। महीनों के बाद आप को अखबार सुनाना अच्छा लगेगा। इस बार खबर नहीं, खबर का अर्क बाटूँगा। कल जो रानी का डण्डा आया था वह साधारण नहीं था। गए ज़माने की रानी, सात समन्दर पार की अब की रानी, अपने देश की रानी और इस प्रदेश की रानी और उनके निज़ाम ....” खाँसी आई तो मुँह से खून निकल पड़ा... रुक कर पोंछते हुए उसने पूरा किया ,”सब एक ही थैले के चट्टे बट्टे। डंडे की माया सभत्तर है। यह डंडा मन्दिर में शीश नवाता है और लाइन में लगे लोगों की जेबें भी साफ करता है। कॉमनवेल्थ का प्रतीक है यह। कॉमन माने सबका और वेल्थ माने धन – सबका धन। घूम घूम कर खेल खेल में सन्देश फैला रहा है। धन तो सबका है। चाहे यहाँ रहे या वहाँ, क्या फर्क पड़ता है? बहोरना की जेब का हजार और बाहर देश के खाते में हजार करोड़ सब बराबर हैं। सबके हैं – इधर उधर से क्या? बिधायक का टट्टर, लाला का लोन, सोनमतिया की माँ का पेंशन, गन्ने का पेमेंट ... यह सब छोटी बाते हैं। या तो मिलते नहीं, जो मिलें तो हजार बन्दिशें ! सरकार की माली हालत दुरुश्त है। बाहर साख मज़बूत हुई है। हम अब धनी कहाने लगे हैं। देखिए न, नरेगा के नाम पर सरकार आप सबकी दारू बोटी का जुगाड़ भी तो कर रही है!मालिक लोग खाते खाते कुत्तों के आगे भी तो फेंक देते हैं ! है कि नहीं? ” रुक कर उसने पानी पिया और मुँह से आते खून को फिर पोंछ दिया।
“स्कूल में बँटते खाने को किसी ने चखा कभी? पढ़ाई लिखाई फैलाने के लिए रानी ने जो धन यहाँ भेजा था उससे लोगो ने एसी, टीवी और जाने क्या क्या खरीद डाले! 2400 करोड़ रूपए के भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ है। रानी के प्रधानमंत्री ने तो कह दिया है कि इस बार अनुदान में भारी कटौती होगी। भारत के धनी लोग ग़रीबों की मदद करें। ...ग़रीबों की मदद में उसने यहाँ डण्डा भेज दिया है। पूरा देश पगलाया स्वागत में जमींदोज हो रहा है और उधर दिल्ली खुदी पड़ी है। उसके गड्ढों में रोज करोड़ो डाले जा रहे हैं। गड्ढे हैं कि भर ही नहीं रहे। जिन ताल पोखरों की गहराई बढ़ा कर, बन्धा बना कर आप लोग गुलगुल हैं, उनमें पानी कहाँ से आएगा? इसके लिए पैसा आ कहाँ से रहा है? कभी सोचा? .... कौन यहाँ ग़रीब नहीं है? धनिक भी बिखरे पड़े हैं - अफरात लेकिन उनसे मदद मिलेगी आप को?” उसकी आँखों की चमक दुगुनी हो चली थी जैसे भभकता दिया बुझने की तैयारी में हो!
“... माया से निकलिए। डंडे की मार को समझिए। दिल्ली तो फिर सज सँवर जाएगी, नौटंकी भी खत्म हो जाएगी। लेकिन डण्डे के झंडाबरदारों ने आप की जो हालत हमेशा के लिए गढ़ कर फाइलों में रख दी है, उसका क्या ? ....” चुप हुआ और मुँह खुल गया।
अखबार के पन्ने हवा से इधर उधर उड़ने लगे। रमपतिया ने हिचकी ली, उसका मुँह और खुल गया। पास खड़े लोगों ने देखा खुले गले में खून का भभका उपराया और फिर भीतर चला गया। बात बेबात दाँत चियारने वालों की तरह उसकी बतीसी उभर आई। आँखों की चमक आसमान ताकती रह गई और सिर अकड़ गया जैसे किसी भदेस मजाक पर मज़ा लेते आदमी को फ्रेम कर दिया गया हो। भैया जी के कार्यकर्ता ने उसके चेहरे पर अपना गमछा डाल दिया। गुमुन्द बदरी से टपाटप बूँदे गिरने लगी थीं।
दूर राजधानी में तीखी धूप में ही अचानक बारिश शुरू हो गई। गोरकी ने रानी के डंडे को भीगने से बचाने के लिए रंग बिरंगी छतरी तान काला चश्मा चढ़ाया और दूरस्थ कैमरे के लिए बेपरवा पोज देने में व्यस्त हो गई।
... मुँह में गमछा ठूँसे भीगता बहोरना सोचे जा रहा था,”इस देश को एड्स हो गया है। जुलूस निकलते रहेंगे कभी बैनरों के साथ और कभी डंडे के साथ। बीमारी वैसी की वैसी रहेगी। ... भगवान रमपतिया जैसी मौत किसी को न दे।“ (समाप्त)
एक बार फिर पढ़ा.... कल से टीवी पर ससुरे दिखाए जा रहे हैं कि रानी का डंडा आ रहा है....ये रानी का डंडा खेलगांव जा रहा है....अब यहां पहुंचा...ये रानी का डंडा इंडिया गेट पहुचा ....पीछे पीछे बाइक पर रिपोर्टर अपने बगल की बाइक पर बैठी रिपोर्टरनी से माइक के जरिए बतिया रहा है....कैसा लग रहा है....टीं टां टूं टूं....तब फिर एक बार यह पोस्ट याद आ गई थी।
जवाब देंहटाएंकम्बख्तों को इतनी खुशी मिल रही थी एक डंडा पा लेने पर कि क्या कहूं।
हो सकता है कि जब अगली बार ये रिपोर्टर या रिपोर्टरनी कहीं किसी चैनल में इंटरव्यू देने जांय तो अपने प्रोफाइल में लिखे - Done Exclusive coverage of Queens Baten.
वैसे अगर रिपोर्टर और रिपोर्टरनी कवरेज से पहले अगर यही पोस्ट पढ लिए होते तो संभव है बहाना बना कर घर ही रूक जाते कि यार आज मूड नहीं हो रहा इसके कवरेज का :)
शायद भारतीय मानसिकता डंडे को ढोने की आदि हो चुकी है। इतनी जल्दी यह मानसिकता जाने से रही।
” बोल रानी के डंटा के ...!” “जय!”
जवाब देंहटाएंबिलकुल सटीक !
गुलामी के छह दशक पुराने इस खेल का नाम बदलने पर विचार होना चाहिए| अंग्रेज रानियों का डंडा गुलाम देशों के अब भी पिछवाड़े में गुदगुदी कर रहा है | कामन वेल्थ है क्या ?>>>>गुलामी और नौकरशाही ही तो ?
आओ शाही बैण्ड बजायें,
जवाब देंहटाएंआओ बन्दनवार सजायें,
खुशियों में डूबे उतरायें,
आओ तुमको सैर करायें--
उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
(बाबा नागार्जुन)
यह तो नयी नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
जवाब देंहटाएंएक बात कह दूं मलका, थोडी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेडो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की !
(बाबा नागार्जुन)
भारत में गंभीर चुनौतिया हैं। ......युद्धरत नक्सली हैं। .......आतंकवाद है। ........अशात पूर्वोत्तर है| .......आख दिखाता चीन है| ...............आतंक निर्यातक पाकिस्तान है| .........ध्वस्त अर्थव्यवस्था है|..........अनियंत्रित महंगाई है, बावजूद इसके मुख्य चिंता का केंद्र राष्ट्रमंडल खेल हैं।
जवाब देंहटाएं"पहिले तो वो सब डंटा मार मार पीठ की खाल उधेड़ राज किए अब खेल खेल में उसकी याद दिला रहे हैं। "
जवाब देंहटाएंलेकिन रानी ने हमारी नब्ज़ पहचान ली है हम बस डंडे के बिना जी नही सकते। आज तो कमाल कर दिया आपकी पोस्ट ने देखा डंडे का कमाल--- हा हा हा । शुभकामनायें
ऐसा मत कहिये कि इसका वास्तविकता से कोई रिश्ता नहीं है. ऐसा कहिये की वास्तविकता के अलग-अलग फ्रेम्स को जोड़कर तैयार की गयी है. वास्तविकता के उसी किसी फ्रेम में बैठकर. अगर कोई फ्रेम वास्तविक ना लगे तो इसका मतलब है कि आप उसी फ्रेम में बैठे हैं जिससे कि आपको वो कुछ और ही लग रहा है. वहाँ से हट कर पुनः देखिये वास्तविकता दिखेगी.
जवाब देंहटाएंअंधकार भाव की सांध्रता बड़ा देता है। योगी और भोगी, दोनो के लिये ही अंधकार उपयोगी माना गया है। विवशता तब होती है जब हमारे मन में अन्तर्विरोध होता है।
जवाब देंहटाएंजय हो....
जवाब देंहटाएंभारतभाग्य विधाता.......
जय जय जय हो.......
इसी का गायन रुदन समान हृदय में चल रहा है.
कृपया यहाँ पढ़ें
जवाब देंहटाएंवो कहते नहीं तो क्या हुआ......
रानी का डंडा सकुशल परिक्रमोंपरांत वापस हो लिया है और अब सात बजे उसी का रंगारंग भव्य समारोह देखकर भारत को आलोकित मान लूँगा -अवसादों से क्या फायदा !
जवाब देंहटाएंहमारे लिये तो ’ताऊ का सोंटा’ लाख बेहतर है इस रानी के डंडे से।
जवाब देंहटाएं@ सतीश पंचम जी:
घर में मरते माँ-बाप को भी छोड़कर जायेंगे कवरिंग करने चैनल वाले, क्योंकि जानते हैं कि सांसे तो निश्चित हैं।