गुरुवार, 30 जून 2011

अपलाप (?)

"मृत्यु के बारे में सोचना पलायन है। अतार्किक भय की तार्किक परिणति।" 
"यह कहना सीमित दृष्टि का परिचायक है। तुमने यह मान लिया कि मृत्यु के बारे में सोचने वाला जीवन संघर्षों से घबराता है और यह भी कि वह भयभीत होता है।" 
"जब समय सीमित हो तो सार्थक काम करो। व्यर्थ की सोचें भटकाती हैं और सच की विकृत प्रस्तुति करती हैं। कोई आवश्यक नहीं कि दुबारा पहिये की खोज करो। जितना चिंतन उपलब्ध है, वह पर्याप्त है।"
"तो तुम यह बताना चाह रहे हो कि किसी एक निष्कर्षी चिन्तन मार्ग को पकड़ कर काम किया जाय और स्वयं को गँवा दिया जाय? तुम्हारी बात सम्मोहक है लेकिन तलहीन कुयें में कूदने के समान है।"
"उसके बिना कुछ नहीं हो सकता। कहीं जाना हो तो एक मार्ग तो पकड़ना ही पड़ेगा। तुम राह दर राह फुदकते हुये कहीं नहीं पहुँच सकते।" 
"तुमने मान लिया कि जहाँ जाना है वह एक है। बस वहीं गड़बड़ है। तुम्हारे मॉडल में गड़बड़ है। ऐसा क्यों नहीं सोचते कि राह दर राह फुदकते हुये ढेरों लोग यादृच्छ ही अस्थायी संतुलन बनाते बिगाड़ते रहते हैं और एक एक कर मरते जाते हैं। उनके स्थान पर दूसरे आते रहते हैं।" 
"फिर तो कोई बात ही नहीं रही। सब अनजान पर अनजाने छोड़ दो। खाओ, पिओ, जियो और मर जाओ! यह तो यथास्थिति समर्थक विकृति है।" 
"नहीं, यथास्थिति जैसा कुछ होता ही नहीं। मैं बस यह कहना चाह रहा हूँ कि एक तुम्हारे और तुमसे मिलते जुलते सोच प्रयासों को ही सारा सच नहीं कहा जा सकता।" 
"तुम हो किस ओर?" 
"मैं अपनी ओर हूँ।" 
"तुम्हें सिवाय कुचलने और नष्ट करने के और कोई उपाय नहीं!" 
"मृत्यु पर इसीलिये सोच रहा था। अंतिम सत्य जैसा कुछ नहीं होता और इसलिये तुम्हारा यह उपाय भी निरुपाय परिणति ही ले आयेगा। दु:ख यही है कि जीवन इतना आलोकित कभी नहीं रहा और न होगा कि अन्धेरे का स्थान ही न बचे। इस बहस को समाप्त करो और बस यह समझ लो कि अन्धेरा-प्रकाश या मृत्यु-जीवन एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं। एक की उपस्थिति दूसरे की अनुपस्थिति भी नहीं कही जा सकती।"
"कुछ नहीं और ...तुम्हारा कहना वृथा है और तुम सच में मृत्यु की पात्रता रखते हो।"       

9 टिप्‍पणियां:

  1. पढ़ते समय लगा कि जयशंकर-प्रसाद के किसी नाटक के पात्र का कथन पढ़ रही हूँ।

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  2. अपलाप में यह मार्ग मिलाप है।
    "जब समय सीमित हो तो सार्थक काम करो। व्यर्थ की सोचें भटकाती हैं और सच की विकृत प्रस्तुति करती हैं। कोई आवश्यक नहीं कि दुबारा पहिये की खोज करो। जितना चिंतन उपलब्ध है, वह पर्याप्त है।"

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  3. खाओ, पिओ, जियो और मर जाओ! .... अन्धेरा-प्रकाश या मृत्यु-जीवन एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं। एक की उपस्थिति दूसरे की अनुपस्थिति भी नहीं कही जा सकती।
    "जियो" का अर्थ हर इंसान के लिए अलग होता है - किसी के लिए खाना जीना है - किसी के लिए पीना - किसी के लिए मृत्यु और जीवन को जानना - तो किसी के लिए जीना जीवन है -
    - कितने ही लोग अपनी मृत्यु को नहीं मानते - हर कोई मरेगा - पर मेरी मृत्यु ?....
    .... मृत्यु की पात्रता ..... सिर्फ वही रख सकता है - जो जीवन की पात्रता रखता है - और हम सभी जी इसीलिए रहे हैं कि पात्रता रखते हैं | पृष्ठभूमि और दृश्य में विरोध हो - तभी दृश्य उजागर हो सकता है - नहीं तो पृष्ठभूमि और दृश्य आपस में घुल मिल जाते हैं - नज़र ना आकर भी दृश्य होता तो है ही ....

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  4. मृत्यु तो बिना पात्रता के ही आ जाती है, पात्रता तो जीवन जीने में होती है।

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  5. प्रसंग और संदर्भ का भी जिक्र जरुरी है ० यह पीस असम्बद्ध तो हो नहीं सकती ....

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  6. यह तो दार्शनिक पोस्ट बन गयी,आपकी इस पोस्ट से मुझे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के आचार्य श्री सी.एल त्रिपाठी जी की याद हो आयी जिनके चिंतन का यह नित्य-प्रति प्रिय विषय होता था.
    तार्किक पोस्ट,आभार.

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  7. जो सत्य हे वो तो सामने आयेगा ही इस लिये उस सत्य से कैसा डर? बहुत सुंदर विचार,

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  8. फिर फिर पढ़ा जा सकता है जिसे, फिर फिर समझा जा सकता है जिसे, ऐसा अपलाप हो तो कोई बुरी बात नहीं।

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