कुछ दिनों पहले सृजनशील गिरिजेश पर लोककथा और कहानी की मिश्रित प्रतीकात्मक शैली में इसे लिखा था। आज के दिन पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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यायावर को उसकी माँ ने गीत सहेजने का काम सौंपा। उसकी माँ चाहती थी कि वह सहेजे गये गीतों को सुनता, सुनाता भी रहे ताकि दिन ब दिन बोझिल होती हवाओं में हल्की मीठी सरगोशियाँ बनी रहें। जब से उसने होश सँभाला यही करता आ रहा है। खेतों के गीत, बालगृहों के गीत, जेल कोठरियों के गीत, निर्माण स्थलों के गीत, ऑफिस के गीत, कॉफी मशीन के गीत, टॉयलेट के गीत, मीटिंग के गीत, रसोई के गीत... वह हर प्रकार के गीत सहेजता है।
पेट पालंने को वह कुछ भी कर लेता है। उसकी भोली सूरत देख कोई भी उसे काम दे देता है। कई बार मन से बेगारी भी कर लेता है। फाइल में उलझी कोई क्लर्क या बच्चों के फीस का हिसाब देखता कोई शिक्षक हो, जब उचट कर सिगरेट पीने या यूँ ही राउंड लेने चले जाते हैं तो वह बैठ कर लगन से फाइल में, हिसाब में कुछ कुछ कर देता है। वे लौट कर आते हैं तो सब कुछ ठीक पाते हैं। उसे उस समय उनकी गुनगुनाहटों को सहेजने में बहुत आनन्द आता है।
उसके साथ उससे लगन लगाये छाया भी चलती रहती है। उसकी मीठी, तीखी, बेस्वाद हर तरह की बकबक उसे आह्लादित करती है तो कभी खिझाती भी है।
कुछ वर्षों पहले क्या हुआ कि एक दिन उसे लगा कि जब उसे एकांत की आवश्यकता होती तो वह मिलता ही नहीं था। घरों, ऑफिसों, विद्यालयों आदि में हर जगह दिन में भी बिजली के प्रकाश में काम करने की प्रथा बढ़ने के साथ साथ उसे एकान्त और कम मिलने लगा। छाया किसी और को दिखती नहीं लेकिन उसके साथ बनी रहती। एक दिन तपती दुपहर में जब वह किसी किसान के खेतों में पानी दे रहा था तो छाया हवाओं को बुला बुला उनसे बतिया रही थी। उसे उस समय एकांत की आवश्यकता थी लेकिन छाया मानने को तैयार ही नहीं थी। वह उसे भगा भी नहीं सकता था। सूरज दादा की कड़ी पहरेदारी थी।
उसने सिर इधर उधर घुमाया तो पाया कि माँ की गोद में जाने कितने ही वृक्ष एक जगह बने रह कर भी ढेरों काम करते रहते थे। उनकी परछाइयाँ कभी सिमट कर पत्तों से अटखेलियाँ करने लगतीं तो कभी बहुत दूर जा कर घास झाड़ियों में बैठे फतिंगों से बतियाने लगतीं। उसे समझ में आया कि सूरज दादा ने उन्हें अपने सिर चढ़ा रखा था। उहँ, मुझे क्या? उसने सोचा और फिर उसे ध्यान आया कि अगर वह किसी वृक्ष की परछाईं से मित्रता जोड़ ले तो छाया मारे ईर्ष्या के पास न फटके। लेकिन मित्रता होगी तो बात भी होगी और फिर वही एकांत की कमी! कुछ समझ में न आया तो उसने सूरज दादा को गोहराया।
सूरज दादा ने उसकी समस्या सुनी और धीमे धीमे हँसने लगे। बोले - स्थावरों की परछाइयाँ किसी मनुष्य़ से मित्रता नहीं करतीं, बात चीत भी बहुत दूर की बात है। हाँ, स्थावरों के साथ बैठने में एकांत का सुख मिल सकता है। लेकिन उनके साथ के लिये तुम्हें धरोहर रखनी पड़ेगी।
उसने पूछा - लेकिन मेरी छाया तो अलग ही है। वह तो मेरा दिमाग खाती रहती है।
सूरज दादा बोले - मनुष्यों के लिये अलग नियम बनाये गये हैं।
उसने उलझन में कहा - ऐसा क्या! क्यों?
सूरज दादा ने उत्तर दिया - अपनी माँ से पूछना।
सूरज दादा की बात मान कर यायावर ने स्थावर परछाइयों के साथ के लिये धरोहर जमा कर दिया। सूरज दादा ने इसके लिये ढेर सारे श्रम सीकर लिये। जब वह पसीना बहा रहा था तो उसकी छाया ने मना किया। न मानने पर रूठ कर उसने उस समय हवाओं को बुलाना और उनसे बातें करना भी छोड़ दिया। यायावर को और आसानी हो गई।
तबसे यायावर को जब भी एकांत की आवश्यकता होती है, वह वृक्षों की ओर भागता है। जब वह उनकी परछाइयों के साथ बैठता है तो छाया कुड़बुड़ाती हुई परछाइयों के किनारे बैठ उसे अगोरती रहती है। जब वह लौटता है तो उसे खूब कोसती है लेकिन वह तो तरो ताज़ा हो चुका होता है। उसे कोई अंतर नहीं पड़ता। वह आनन्द भरा कोई गीत गुनगुनाने लगता है और छाया मुग्ध हो जाती है।
इधर कुछ दिनों से वृक्ष कम दिखने लगे हैं। यायावर ने उनके बारे में चिंतित बातें सुनी हैं - खेतों में, बालगृहों में, जेल कोठरियों में, निर्माण स्थलों में, ऑफिस में, कॉफी मशीन पर, टॉयलेट में, मीटिंग में, रसोई में - हर स्थान पर वृक्षों के कम होते जाने की चिंता है। काँच बन्द ठंडे सम्मेलन कक्षों में ढेर सारे उपाय हैं। कुछ कहते हैं कि जब से हरे रंग से पुताई होने लगी है, हालत सुधरने लगी है। कुछ इसे बकवास बताते हैं और उन्हें माफिया तक कह डालते हैं।
यायावर को अपने एकांत और परछाइयों की चिंता है। उसने पाया है कि अब उसकी छाया कुछ अधिक ही गहरी होने लगी है।
यायावर को चिंता है क्यों कि गीत कम होने लगे हैं।
उसकी चिंता गहरी है क्यों कि सूरज दादा और माँ दोनों ने उसके प्रश्नों का उत्तर देना छोड़ दिया है। उसे रह रह सूरज दादा की यह बात याद आती रहती है - मनुष्यों के लिये अलग नियम बनाये गये हैं। उसे इस बात का अर्थ अब अबूझ हो चला है।
गीतों का सहेजना भी कम हो गया है और वह सबसे उनकी चिंताओं, वृक्षों और परछाइयों के बारे में पूछता रहता है लेकिन जब दादा और माँ को भी चुप रहना पड़े तो दूसरे क्या कह सकते हैं?
यायावर को चिंता है। उसे अपनी धरोहर की चिंता है।
पर्यावरण दिवस को सार्थक करता चिंतन -एक गीत बेहद एकांत की निजता का भी होता है -अक्सर युगल!
जवाब देंहटाएंउसका जिक्र जानबूझकर भूल गए या अनजाने
पहले धरती को सागर में डुबाया था - हिरण्याक्ष ने - जिससे बचाने वराहावतार आये थे - अब क्या हम संभलेंगे समय रहते - या ध्रुव क्षेत्रों की पिघलती बर्फ में फिर डूब जायेगी धरती ?
जवाब देंहटाएंसबसे कठिन प्रश्न तो यही है कि कैसे सहेजे अपने धरोहरो को? श्रुति-स्मृति परम्परा लगभग खत्म है और ।।।।
जवाब देंहटाएंमौनम् सर्वार्थ साधनम् अनुपयुक्त और अनुपयोगी साबित हो चुका है और कुछ भी बोलने पर तूफ़ान् उठ जाता है।
स्थावरों की परछाइयाँ किसी मनुष्य़ से मित्रता नहीं करतीं, बात चीत भी बहुत दूर की बात है - हाँ कभी कभी लड़ाई करने जरूर बैठ जाती है... वो भी एकांत को देखकर
जवाब देंहटाएंपेड़ के नीचे बैठने से लगता है कि अपनो के साथ बैठे हैं हम।
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