प्रात के पौने छ: से 6:53 हो गये - एक शब्द नहीं। एक एकांत। ठहराव और चिड़े की चायँ चों चपर चूँ - करूँ या न करूँ?
देव ने स्वयं को अपने हाथों से आनन्दित किया और स्खलित को नील नदी में फेंक दिया जिससे मानवों की उत्पत्ति हुई। इस वाक्य के पीछे जो ... थे उन्हें हटा दिया। उनमें कोई अर्थ नहीं। 6:59, छ: मिनटों में छ: वाक्य।
खाली सी नपुंसक उत्तेजना। टुल्लू चल रहा है। खुले नलके से सों सों स्वर। पानी नहीं है, हवा है, छींटे से कुछ आ रहे हैं। दोषी बख्शे नहीं जायेंगे। ये है बाम्बे मेरी जान! इसकी स्पिरिट को सलाम।
देवताओं में श्रेष्ठता को लेकर बहस - जो अपना वीर्य दूसरे के शरीर में पहले पहुँचा देगा वह श्रेष्ठ होगा। उसने इसको भ्रमित कर दिया। इसने उसकी मुठ्ठी को उसका छिद्र समझा और हाँफते हुये निकाल बैठा। हँसते हुये उसने द्रव को नील में प्रमाण के तौर पर स्थापित कर दिया और फिर इसका प्रिय काहू पत्ती सैंडविच बनाया जिसमें सॉस के स्थान पर अपना वीर्य छिड़क कर इसे खिला दिया। इस के शरीर में उसका वीर्य पहुँच गया। इस प्रकार उसकी विजय हुई।
यह मिथक नहीं सच है।
सच नहीं विक्षिप्ति है। छल है।
छल वह नीति है जिसमें नैतिकता का लेश भी नहीं होता।
छल वह नीति है जिसमें नैतिकता का लेश भी नहीं होता।
उस कौन है? इस कौन है? पहचानो। नाम लेना अंतर्राष्ट्रीय समस्यायें खड़ी कर देगा।
विक्षिप्त शब्द को कोष से निकाल दो।
हा, हा, हा - अंडकोषों से क्या निकालना? छोड़ दो।
दिस इज अ वे ऑफ लाइफ। जीवन चलता रहता है।
मुम्बई में रहते तो समझते।
रेलवे क्रॉसिंग के पास रहते तो समझते।
गाड़ी गाड़ी से टकराई और पूरी बारात बैकुंठ।
बैकुंठ नहीं कुंठा है। मुम्बई की क्या तुलना रोजमर्रा के एक्सिडेंटों से?
डियर! दिस इज अ वे ऑफ लाइफ। कोई नई बात नहीं।
नपुंसकता रोग नहीं, प्रवृत्ति है जो जीन में पाई जाती है। नपुंसकता कि आनन्द आनन्दम्?उदात्ततायें स्नेहक हैं। तरल चिकनाई। उत्तेजना है, घर्षण है और संख्यायें हैं - 14...28...61, 62, 68...चरम कब आयेगा? सुख!
पानी आया क्या? सों, सों...टुल्लू बन्द कर दे। मोटर जल जायेगी।
उत्तेजना समाप्त। जीवन चलता रहता है। यह मिस्र नहीं भारत है।
ढेर सारा स्खलन पुराणों में होता रहा। बचा ही नहीं, होगा क्या?
वाहियात बातें हैं। स्खलन के और भी तरीके हैं। हस्तमैथुन को छोड़।
पौरुष हॉर्मोन नहीं एक प्रवृत्ति है। आत्मरति में उसका चरम नहीं होता।
07:52, आज ऑफिस जल्दी निकलना है।
हूँ ......बहुत गुस्सा है न ! पर ...............शिखंडियों के सामने गुस्सा करके क्या कीजिएगा ?........नहीं नहीं ......गुस्से का स्खलन हो ही जाने दीजिये ......लोकतंत्र है.....इसके अतिरिक्त और उपाय भी क्या है .......
जवाब देंहटाएंउपाय हो भी सकता है .......महल के सेवकों के स्खलन से उत्पन्न संतति के हाथों में सत्ता कैद हो गयी है ....मुक्ति का कोई उपाय खोजना होगा
यह कैसी खंडमनस्कता प्रभु ?
जवाब देंहटाएंमिथकीय सन्दर्भ प्राचीन मिस्र से लिये गये हैं।
जवाब देंहटाएंसंदर्भ कहीं के हो, वर्मान परिस्थिति मेंसटीक समा जाते हैं। विवशता स्खलित होती है।
जवाब देंहटाएंसंदर्भ कहीं के हो, वर्तमान परिस्थितिओं में सटीक समा जाते हैं। मानसिक विवशता शरीर से स्खलित होती है।
जवाब देंहटाएंगुस्सा !!!
जवाब देंहटाएंदिस इज अ वे ऑफ लाइफ। जीवन चलता रहता है।
जवाब देंहटाएंकुछ भी कहिये...... क्या यही सत्य नहीं है...... ?
यहाँ स्थित रचना को उदगार/टिप्पणी समझ लें...क्योंकि अभी तो दिन रात यही गूंजता है मनोमस्तिष्क में...
जवाब देंहटाएंhttp://samvednasansaar.blogspot.com/2011/07/blog-post.html
आपसे अपेक्षायें रहा करती हैं ! क्षमा करें 'रोष' का मान घटाती सी लगी आपकी यह पोस्ट !
जवाब देंहटाएंYour style is appreciable but content of this post ...?sorry
जवाब देंहटाएंअली जी, यह एक बहुत लम्बी कविता की ड्राफ्ट संक्षिप्ति है। इस समय इसे पढ़ते हुये जाने कितने अर्थ मुझे आभासित हो रहे हैं। रोंगटे खड़े होने जैसा अनुभव...विश्वास नहीं होता कि आज सुबह यूँ ही रौ में लिख गया!... एक दूसरी 'नरक के रस्ते' रच जायेगी अगर एक सप्ताह भी ऐसे रह गया। ...दुख है कि ऐसा होगा नहीं।
जवाब देंहटाएंआचार्य ..... आप कौन होते है " 'नरक के रस्ते' रचने वाले... वो तो पहले ही रचे जा चुके है..... बस उनकी विवेचना बाकी है... और रही अली सर कि बात ..... तो ये सत्य है कि अपेक्षाए आपसे बहुत है.... क्रोध तो निकलना ही चाहिए न.
जवाब देंहटाएंवह लम्बी नज़्मनुमा कविता कुछ यूँ -
जवाब देंहटाएंसुब्ह छ: से तनहा पौने सात ठहराव
चिड़ा चाँय चपर चूँ, करूँ न करूँ
किया फरिश्ते ने खुद को खुश
फेंका मर्दाना रिसाव नील दरूँ
पैदा हुये औ' चल पड़े इंसानी गुनहगार।
ठहरा हूँ देखता टोटी कि मोटर घरघार
सों सों, न, पानी नहीं छींटे हैं गुस्ताख
बख्शे नहीं जायेंगे तबाही के उस्ताद
ये है बाम्बे मेरी जान, इसकी स्पिरिट को सलाम।
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किसी से चैट के दौरान दिल के पिंजरे से भाग निकली। फिर क़ैद कर दिया है, कभी आज़ाद होगी...अभी तो जिन ग़मों का बयाना ले लिया है उन्हें ही निभाना है।
सुबह से तीन बार टिप्पणी लिखा और पब्लिश बटन दबाते ही सर्वर एरर।
जवाब देंहटाएंइस नोकिया की तो :)
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पहले कौन स्खलित जल पहुंचाये वाली बात दर्शन के स्तर पर बहुत रोचक है, आखिर वर्तमान काल में सभी राक्षसी प्रवृत्तियां भी तो विजयी भव के घोषवाक्य के साथ हर ओर अपनी स्खलित मानसिकता को पहले पहुंचाना चाहते हैं। कोई धर्म के नाम कोई तुष्टिकरण तो कोई प्रांतवाद के नाम अपना स्खलन लोगों के बीच भिन्न भिन्न माध्यमों से पहुंचा ही रहे हैं।
और हां, पोस्ट चकाचक है। कोई गड़बड़ नहीं है। यही बात अभी कोई नामी साहित्यकार लिख देता तो जय बोली जाती, गुणगान होता।
जवाब देंहटाएं??????
जवाब देंहटाएं!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
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जवाब देंहटाएं........
pranam
स्खलन? चरम स्थिति अभी आ गयी? अभी तो बहुत कुछ बाकी है।
जवाब देंहटाएंइतने पर ही...
@ सतीश जी -२ ,
जवाब देंहटाएंवास्ते नामी साहित्यकार ,
मतलब ये कि आप गिरिजेश जी को नामचीन नहीं मानते ? पर हमने तो ऐसा ही सोच कर कथन किया :)
वास्ते चकाचक पोस्ट कोई गडबड नहीं ,
हस्तमैथुन ,वीर्य ,स्खलन ,एकल अथवा एकाधिक पक्षों के चरम आनंद , जीवन और सृजन के प्रतीक हैं ! इनसे केवल और केवल प्रेम की अनुभूति होती है इसलिए विनाश / क्षय / मृत्यु / घृणा /रोष के प्रकटीकरण के बिम्ब बतौर इनका इस्तेमाल आपको चकाचक क्यों लगा यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय है ! जबकि इन्हीं सन्दर्भों में आपने स्वयं अपने ब्लॉग में अपने क्रोध / रोष / घृणा / निराशा / क्षोभ को अभिव्यक्त करने के लिए 'धारदार अपशब्दों' के बिम्ब प्रयुक्त किये थे , जोकि खटके इसलिए नहीं क्योंकि वे कंटेंट की प्रकृति के सर्वाधिक अनुकूल थे !
आपसे अपनी बात कहते हुए सोच रहा हूं कि क्या हस्तमैथुन को वर्चुअल बलात्कार तुल्य (अपराध सदृश्य) मानकर भी घृणा के प्रतीक बतौर उसका इस्तेमाल इस जगह पर किया जा सकता है ? या फिर पौरुषहीनता और शीघ्रस्खलन के उपचार (विकल्प) बतौर सहज सतत उपलब्ध नियोग की मौजूदगी के मद्देनज़र इस प्रविष्टि के साथ कोई न्याय किया जा सकता था ?
गिरिजेश जी के द्वारा प्रयोग में लाये गये ये प्रतीक वाकई में बहुत सशक्त हैं किन्तु पूर्वोक्त सन्दर्भ इनके लिए उपयुक्त नहीं है !
उम्मीद है कि मैं आपसे अपनी बात कह पाया होउंगा !
अली जी,
जवाब देंहटाएंजहां तक नामी साहित्यकार की बात है वह मोटे तौर पर पब्लिश्ड लेखकों से है, उन तमाम लेखको से है जो कि उंची उंची रॉयल्टी लेते हैं और अपने गिरिजेश जी अभी लाइन में हैं :)
हां, यदि निजी तौर अब तक पढ़े गये गिरिजेश से आपका तात्पर्य है तो इस बारे में मैं कुछ नहीं कहूंगा, यह एक दूसरे के भान और अपेक्षाओं का मामला है।
जहां तक वीर्य स्खलन और वो जो तमाम बातें आपने कही हैं कि ये जीवन के चरम आनंद का प्रतीक है, सृजन का प्रतीक है तो इससे मैं पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखता। यदि ये केवल जीवन के सृजन, चरम आनंद के लिये ही केन्द्रित होता तो फिर इससे जुड़ी बाकी विकृतियां जैसे कि बलात्कार, देह व्यापार, छेड़छाड़ भी उसी कोटि की होनी चाहिये थीं लेकिन नहीं। इन बातों को हम सामाजिक विकृतियों के रूप में देखते हैं और उसी तरह उनसे दूरी बनाते हैं।
अब यहां लेखकीय दृष्टि से देखें तो गिरिजेश जी ने उसी विकृति को प्रतीक के तौर पर अभिव्यक्त किया है और प्रतीक केवल शुचित ही उपयोग हों यह भी लेखकीय दृष्टि से ठीक नहीं। प्रतीक तो आखिर प्रतीक है, विकृत भी हो सकता है, सर्वमान्य भी। उसे परिस्थितियों और भावों के आधार पर समय असमय लेखन में लाना सही है और यही गिरिजेश जी ने किया है। ( कृपया इस खुलेपन को फुटपाथी, सस्ते किताबों से न जोड़ें क्योंकि वहां भी खुलेपन के नाम पर काफी कुछ लिखा जाता है, उद्देश्य दूसरा होता है)
@ सतीश जी ,
जवाब देंहटाएंवास्ते आपकी आंशिक नाइत्तफाकी ,
मैंने कहा ना कि हस्तमैथुन को वर्चुअल बलात्कार मान भी लूं तो ? मै तो स्पेस दे रहा हूं उन सवालों को जिन्हें आप छेड़छाड़ ,देह व्यापार कह रहे हैं पर गिरिजेश जी ने इनमे से किसी भी 'विकृति प्रतीक' का उपयोग अपनी पोस्ट में किया क्या ?
उपयोग में लाये जाने वाले प्रतीकों की शुचिता अशुचिता के सन्दर्भ में मैंने कोई सवाल खड़े नहीं किये मैंने केवल सन्दर्भ से उनकी अनुकूलता का मुद्दा उठाया था जिसका परिपालन आपने खुद अपनी पोस्ट में किया !
@ खुलेपन के नाम पर ,
गिरिजेश जी के लेखन को मैं फुटपाथी सस्तेपन से जोडूंगा यह आशंका आपको क्यों हुई :)
अली जी,
जवाब देंहटाएंमैं स्पेसिफिक नहीं होना चाहता किंतु आपने पूछा है कि गिरिजेश जी ने उन प्रतीकों का उपयोग किया क्या ? तो इन पंक्तियों को देखिये जिसमें कोलाजीय अंदाज में लिखा है कि - मुठ्ठी को उसका छिद्र समझा और हाँफते हुये.....।
रही बात पोस्ट की अनूकूलता या प्रतिकूलता की, तो मुझे यह पोस्ट अनूकूल लग रही है। और जहां तक मैं समझता हूँ 'उघटापुराण' इसी तरह लिखना चाहिये, वरना तो हम वरक में लिपटी, चाशनी में सनी अभिव्यक्तियों को पढ़ने के आदि हो चुके है। संभवत: यही कारण है कि इस तरह का लेखन अनूकूलता और प्रतिकूलता के छल्ले में खड़ा नज़र आता है।
बाकी तो अपनी-अपनी समझ। इसके आगे मैं कुछ नहीं कहना चाहता।
@ सतीश जी ,
जवाब देंहटाएंतो क्या मुट्ठी का छिद्र विकृति का प्रतीक है ? :)
[ तर्क स्वरुप उत्तर भारत में प्रचलित कुछ चुटकुले याद हो आये है कभी आपसे व्यक्तिगत चर्चा / भेंट हुई तो सुनाउंगा ज़रूर ]
चाशनी लगे लेखन का कोई आग्रह नहीं है अपना और ना ही आदत ! बाकी आपका यह कहना सही है कि अपनी अपनी समझ...जिसके आगे कुछ कहना भी नहीं चाहिए !
चर्चा के लिए शुक्रिया !
सार्थक पोस्ट, सार्थक बहस...
जवाब देंहटाएंओह...
मुझे तो बहुत पसंद आया लेख ;-)
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