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तिब्बत – क्षेपक
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स्वास्थ्यक्रिस मुल्लिन लिखते है कि सामान्य प्रे़क्षक को भी यह स्पष्ट हो जाता है कि तिब्बत में स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर बाकी चीन की तुलना में बहुत गिरा हुआ है। चीनियों ने बहुत कम तिब्बतियो को चिकित्सा कर्म में प्रशिक्षित किया है और दावा त्सेरिंग(पहले के भाग में वर्णित) ने पाया कि ‘समाजवादी’ तिब्बत में सामान्य जन को चिकित्सा सुविधाओं के लिये भुगतान करना पड़ता है।
1979 में दलाई लामा द्वारा तिब्बत भेजे गये पहले प्रतिनिधिमंडल के स्वागत को केन्द्रीय मठ परिसर में तिब्बतियों की भारी भीड़ उमड़ी |
विपन्न(पाँवों में जूते तक नहीं) डॉक्टरों को अत्यल्प प्रशिक्षण मिला था और दूसरे प्रतिनिधिमंडल के साथ गये दुभाषिये को दोषपूर्ण निदान और ग़लत दवाओं के कारण बहुत भयानक तौर पर झेलना पड़ा। मिलती जुलती परिस्थितियों में बहुत से तिब्बतियों की मृत्यु हो गई और दूसरे कई अन्धपन के शिकार हुये। जब दूसरे सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल ने तिब्बत का दौरा किया तो अस्पतालों में तिब्बती मुख्य रूप से रीढ़ के रोगों और गुर्दे की समस्याओं से ग्रसित पाये गये जिसका कारण सम्भवत: भयानक ठंड में बिना पर्याप्त कपड़ों के कई घंटों तक लगातार कठिन श्रमपूर्ण काम करना था (तिब्बत में कपड़े बहुत महँगे हैं और बहुत से तिब्बतियों को चकती या थगली लगे कपड़ों से काम चलाना पड़ता है)। 1979 के पहले तक बहुतेरे तिब्बतियों को सप्ताह के सातो दिन काम करना पड़ता था और इसके कुप्रभाव से तिब्बतियों के सामान्य स्वास्थ्य में गिरावट हुई होगी। हाल में तिब्बत गये दूसरे यात्रियों ने पाया कि भयानक पिटाई के परिणाम स्वरूप प्राय: लोग आंशिक रूप से बहरे हो गये थे, साथ ही बहुत से तिब्बतियों के मुँह में ,जिनमें युवा भी सम्मिलित हैं, या तो दाँत नहीं थे या न के बराबर बचे थे जिसका प्रधान कारण भयानक अकालों के दौरान घटित शरीर में विटामिन की कमी थी।
यह तथ्य भी दहलाने वाला है कि बहुत से तिब्बती अपने जीवन के अधिकांश भाग में लगभग स्थायी आतंक की स्थिति में लगातार रहने के कारण स्नायु तंत्र की गड़बड़ियों से ग्रसित हैं। उन्हें यह भय लगा रहता है कि कभी भी उनके घरों की तलाशी ली जा सकती है (जैसा कि तिब्बत में प्राय: होता है।) या उन्हें बन्दी बनाया जा सकता है, यातना दी जा सकती है या हत्या की जा सकती है। तिब्बतियों में स्नायु तंत्र की गड़बड़ियों की बारम्बारता एक बलिष्ठ और हँसोड़ जाति की उनकी पुरानी पहचान के ठीक उलट बैठती है।
खाद्य उत्पादन और उसका बँटवारा
मई 1980 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के महासचिव हु याओ बैंग ने वादा किया कि तीन वर्षों के भीतर तिब्बती अर्थव्यवस्था को ‘1959 पूर्व के स्तर’ तक लाया जायेगा – इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था को चीनियों के समूचे तिब्बत में अपने प्रभाव का विस्तार करने के पहले के स्तर तक लाना था। वह बयान इस मायने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था कि उससे तिब्बत में चीनी नीतियों की सम्पूर्ण विफलता पर प्रकाश पड़ता था। वादा पूरा नहीं किया गया और ऐसे संकेत हैं कि तिब्बती पुन: खाद्य पदार्थों की कमी झेल रहे हैं। प्रयोग के प्रारम्भिक दिनों में कम्यून तंत्र तबाही के स्तर तक विफल रहा। हाल की कुछ सफलताओं के कारण उत्पादकता बढ़ी है लेकिन तिब्बती ,अगर कभी अवसर आया तो भी, शायद ही इससे लाभान्वित होते हैं।
अधिकांश तिब्बतियों को भुगतान मुद्रा रूप में न कर अन्न दे कर किया जाता है। उन्हें एक राशन कार्ड दिया जाता है जिस पर उन्हें मिलने वाले अन्न की मात्रा वर्णित रहती है और इस अन्न से ही उन्हें अपने जीवन की अधिकांश आवश्यकताओं का क्रय करना होता है। किसी श्रमिक को मिलने वाले अन्न की मात्रा उसके कार्य प्रदर्शन पर निर्भर करती है और उसके ‘वर्क प्वाइंट’ कार्ड पर रिकॉर्ड किये जाते हैं। सामान्यत: अन्न को तिमाही किस्तों में दिया जाता है जब कि वर्क प्वाइंट प्रत्येक कार्यदिवस के अंत में दिये जाते हैं। इस तंत्र के फलस्वरूप वृद्ध और अशक्त प्राय: भूखे रह जाते हैं और लोग बिना कभी यह जाने कि उन्हें या उनके परिवारों को खाद्य पदार्थ और अन्य आवश्यकताओं को खरीदने भर को अन्न मिलेगा या नहीं, अंतहीन दोषदर्शी प्रतिबन्धों के दायरे में खटते रहते हैं।
साम्यवादी चीन के शासन में तिब्बत में बाल मज़दूरी |
सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडलों ने लोगों को खेतों में प्रात: 6 बजे से शाम 8 बजे तक काम करते देखा जिनमें से कुछ बहुत कम आयु के बच्चे भी थे जिनके हाथ छिल हुये थे और उनमें गाँठें पड़ गई थीं। ऐसे बहुत से बच्चों को अपने परिवार की आवश्यकता पूर्ति लायक वर्क प्वाइंट अर्जित करने हेतु काम करना पड़ता है और कोई भी आश्चर्य में पड़ सकता है कि ये बच्चे पढ़ते लिखते क्या होंगे! दूसरे प्रतिनिधिमंडल को भोजन की तलाश में देहातों में घूमते बच्चे भी मिले। उनके माँ बाप इस लायक नहीं बचे थे कि उन्हें खिला पिला सकें और उन्हें घर छोड़ कर जाने को कह दिया गया था।
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(#) वर्ष 1983-4
कम्युनिस्ट चीन ने तिब्बत की भूमि और संसाधनों पर बलात कब्ज़ा किया है, उनके जन-जीवन और संस्कृति का विनाश किया है, उनकी स्वतंत्रता, सम्पत्ति, ज्ञान और मानव-अधिकार हरे हैं। तिब्बतियों के साथ मानवमात्र को कम्युनिस्ट चीन के पैशाचिक कुकृत्यों का विरोध करना ज़रूरी है।
जवाब देंहटाएंराष्ट्र, राष्ट्रवाद जैसी धारणाओं का कम्युनिस्ट घोर विरोध करते रहे हैं। उनके अनुसार फासिस्ट मनोवृत्ति इन्हीं से उपजती है या ये उसके अनिवार्य तत्त्व/कारक होते हैं।
जवाब देंहटाएंकम्युनिस्ट चीन नागरिकों से 'राष्ट्रप्रेम कर' वसूलता है। जाने उसका 'राष्ट्र' क्या बला है? 'उस राष्ट्र' और 'इस राष्ट्र' में क्या अंतर है?
या
विचारधारा सिर्फ सत्ता में आने, मंतव्य पर पर्दा डालने और बाद में कुकर्मों को छिपाने/जायज ठहराने का अस्त्र भर है? फासीवाद और साम्यवाद में अंतर क्या रहा?
सही है! कम्युनिज़्म दरअसल पूंजीवाद और फ़ासीवाद का निकृष्टतम स्वरूप है।
जवाब देंहटाएंइतनी यातना कि नाजी कैम्पों की याद आ जाए मगर इतने बड़े स्तर पर -और संगठित /नियोजित रूप से !
जवाब देंहटाएंऔर हाल के वर्षों में ..विश्वास नहीं होता मगर एक नग्न सत्य भी !
हँसती खेलती संस्कृति को सन्न कर के रख दिया। पड़ोसी का निर्धारण भी भगवान सोच समझ कर करते काश।
जवाब देंहटाएंयह श्रंखला जारी रहे,एक कठोर सच से रूबरू हो रहे हैं हम लोग,आभार
जवाब देंहटाएंआवाक हूँ। विश्व के मानवाधिकार संगठन क्या कर रहे हैं?
जवाब देंहटाएंतिब्बत पर लेख की शृंखला जारी है... कहीं का कहीं ह्रदय को झंझोरती है ........ कचोटती है.... ३ साल पहले धर्मशाला गया था. और काफी नज़दीक से शानार्थियों को देखने का मौका मिला.... ह्रदय में गहरे जख्म लिए मुस्कुराते हुए ....
जवाब देंहटाएंखूबसूरती..... बेंतिहान .... पर कहते है न इंसान को ज्यादा खूबसूरत नहीं होना चाहिए..... जमाने की नज़र लग जाती है.
और ऐसी लगी नज़र की ... पता नहीं कितनी पीदियाँ इसको भुगतेंगी.
बाकि
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…
आवाक हूँ। विश्व के मानवाधिकार संगठन क्या कर रहे हैं?
भैया शक्ति का रुतबा चलता था चलता है और चलता रहेगा....... आज चीन एक महाशक्ति है... दुनिया के पञ्च मिल बैठ कर बातें कर सकते है पर एक जाबर के उपर कोई कानून नहीं लगा सकते ... आप इस बात को अपने मोहल्ले से देख लें.
ह्रदय विदारक....
जवाब देंहटाएंकहाँ हैं मानवाधिकारी ??
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