शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

छ: साँस वर्ष


जब मैं मृत्यु के छ्न्द गढ़ रहा होता हूँ तो तुम पास होती हो। कानों में जीवन की फुसफुसाहट करते नहीं, यह बताते कि मात्राओं और गणों में संगति नहीं। तुम जानती हो कि मैं बहुत पहले ही मर चुका हूँ और अब किसी विज्ञान गल्प के जीवित शव सरीखा स्वयं को ढोये जा रहा हूँ। उसमें तुम कितनी हो?
इतना निर्वयक्तिक कभी नहीं रहा कि प्रेम करूँ और अधूरी(पूरी नहीं कहा मैंने)  बात कर पाऊँ। संयोगों की प्रकाश झंझा स्मृतियाँ हैं जिनसे आँखें नहीं चौंधियातीं, वाणी मूक होती है। संयोग इतने लम्बे भी होते हैं? वर्षों लम्बे?? अरबों वर्षों पुरानी धरती पर खरबों वर्ष पुराने प्रकाश कण आते हैं, पहचाने जाते हैं और ज्ञान के पन्ने काले होते जाते हैं। चन्द संयोगों की उनके सामने क्या बिसात? फिर भी दो अंकों की वर्ष गणना में सिमटे मन श्मशान में छ: वर्ष बहुत मायने रखते हैं, तब और जब इतने वर्ष बीत जाने पर केवल संयोग लगें।
कहते हैं भूत अच्छा ही लगता है। क्या उन वर्षों के लिये काल विभाजन मायने रखता है? मेरे लिये वे सब वर्तमान में आते हैं। हॉस्पिटल की उस बेड पर तब जब कि हमारी प्रिय भोर थी और तपते होठों की धौंकनी के साथ तुमने कहा था – अब चला चली की बेर है; तुम सन जैसे केशों वाली स्नेहिल वृद्धा लगी थी, यौवनमयी उच्छृंखल बाला नहीं।
पास आने को झुकते हुये मुझे तुमने रोका था – अब दूर जा रही हूँ, इस बेला अधिक निकट आओगे तो मुझे याद भी न रख पाओगे। ... दूर तुम्हारे लिये नहीं पगले! संसार के लिये। मैंने बस ज्वर की बड़बड़ाहट समझा।
 बेड पर साथ कोई और आ बैठा और अटकन चटकन खेलने लगा। दो जोड़ी आँखें जीवन खाली कर रही थीं और बस तीन शब्द – मैं नहीं मरूँगी। पहली किरणों ने सोख कर सब कुछ प्रभा पुरुष के हवाले कर दिया और तुम शीतल हो गई। नर्स ने हाथ पकड़ा और मुझे बाहर कर दिया। उसकी आँखों में घृणा थी – मैं एक शव को चूमने जा रहा था। एक मृत कुमारी को जिससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था।
लोग दैवीय प्रेम की बातें करते हैं। मैं जानता हूँ कि वैसा कुछ भी नहीं होता। संयोग मानवीय होते हैं और प्रेम भी। जब मैं संयोगों में होता हूँ तो जीवित और मृत एक साथ होता हूँ। यही कालातीत होना है। छ: साँस वर्ष जीवन के सहारे शव साधना कर रहा हूँ, मैं मरा नहीं जीवित हूँ। तुम्हारी हमारी कहानी लिख रहा हूँ।                

9 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद संवेदनशील.

    उल्लेखनीय पंक्तियाँ -:
    संयोगों की प्रकाश झंझा स्मृतियाँ हैं जिनसे आँखें नहीं चौंधियातीं, वाणी मूक होती है!
    जब मैं संयोगों में होता हूँ तो जीवित और मृत एक साथ होता हूँ। यही कालातीत होना है।

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  2. गिरिजेश जी!
    यह सचमुच एक कविता है ऐसी कविता जिसमे आँखें भी साथ-साथ बहती हैं, मन साथ साथ चलता है।
    अहा! धन्य हुआ।

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  3. ये क्या लिख डाला आपने? एक शव साधना अन्यत्र भी है -अनचाहे ही मस्तिष्क ने समन्यव कर दिया और मैं असहज महसूस कर रहा हूँ -मैं बात वर्ज्य नारी की पोस्ट शव साधना की कर रहा हूँ !

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  4. सबकी राह वहीं जाती है,
    देख वहाँ मन घबराता है।
    बरबस वहीं चित्त सब पाते,
    जीवन जब भी बौराता है।

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  5. मैं मरा नहीं जीवित हूँ। तुम्हारी हमारी कहानी लिख रहा हूँ।

    जब मरकर सबको शांति मिले
    तो जीवन से आकर्षण क्यों??
    जब दर्द का ही एहसास नहीं
    तो अश्रु को ब्यर्थ निमंत्रण क्यों ??

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  6. सब चलती फ़िरती छाया है, सब माया है ~ इब्न ए इंशा

    मार्मिक!

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