साँझ हो गई थी। बाहर उजाला उतना ही बचा था जितना पूर्ण सूर्यग्रहण के समय रह जाता है। ऑफिस के पीछे के ताल से आती गन्ध गढ़ू थी और कोर्ट कचहरी के चक्कर में अधूरी रह गई सड़क पर धूल चमक रही थी। अभी स्ट्रीट लाइटें नहीं जली थीं। ऐसी गदबेर में 95 कलर रेंडरिंग इंडेक्स वाले भीतरी भव्य कृत्रिम प्रकाश के माहौल से वह बाहर आया। उसने घड़ी पर दृष्टि डाली। ठीक साढ़े पाँच बज रहे थे। मन में फैलते माहुर को भूल वह मुस्कुराया – तो साँझ ऐसी होती है! साला, भीतर दिन रात का तो पता नहीं चलता, साँझ की क्या पूछ?
वनसेमर के विशाल वृक्षों के ऊपर आसमान शांत था लेकिन घर लौटते पंछियों की लकीरें चटचटा रही थीं। धूसर थर्मोकोल की शीट को कोई चाकू से यत्र तत्र काटे जा रहा था।
उसे भूख लगी थी, बहुत तेज। उसने कार का इग्निशन चालू किया लेकिन हेडलाइट नहीं जलाया। माहौल को निहारता पीता रहा। आखिर में चमकती धूल को उसने नज़र भर निहारा और हेडलाइट जला दिया। अभी अभी एक बाइक गुजरी थी। तेज प्रकाश की सुरंग में उड़ती धूल अपार्थिव सी लगी। ‘उड़ कर सारे शीशों पर भठ जायेगी’ मन ही मन बुदबुदाते हुये उसने कार को पास के पैथॉलॉजी सेंटर की ओर मोड़ दिया। पिछ्ले तीन महीनों से उसे देह में डायबिटीज होने का शक हो रहा था – गाहे बगाहे भूख बहुत लगने लगी थी जब कि वजन एकदम स्थिर था। हर महीने वह टेस्ट करवा रहा था।
ड्राइव करते वह सोचने लगा – भोजन से शर्करा और शर्करा से ऊर्जा। थोड़ा सा सिस्टम गड़बड़ हो तो नमकीन खून मीठा होने लगे। उसे अपने मूर्ख और जिद्दी बॉस की स्मृति हो आई। माँग और आपूर्ति। सिस्टम कुछ अधिक ही खून पीने लगा है। आश्चर्य नहीं कि ऊपर वाले के टेस्ट के अनुरूप ही अब मीठे खून वाले भी बढ़ने लगे हैं।
उसे पता ही नहीं चला, कब यांत्रिक सा कार पार्क किया, कब पैथॉलॉजी के काउंटर पर पहुँच गया? तन्द्रा, अगर कहा जा सके तो, रिसेप्शनिस्ट के मधुर स्वर से टूटी – सर! यह रही आप की रिपोर्ट। उसने प्रश्नवाची नजर से उसे देखा तो बदले में चौड़ी मुस्कान मिली – यू आर फिट ऐंड फाइन सर! रिपोर्ट एकदम नॉर्मल है।
रुपये चुकाते वह निराश था – फिर इस कमबख्त भूख का क्या कारण हो सकता है?
पास ही माल में मैकडोनाल्ड था लेकिन उसने कभी भी वहाँ से कुछ नहीं मँगाया। उसे बर्गर बेहूदे लगते थे। आलू की टिक्की को चाँपे पाव स्वाद में मिसफिट इंकम्पैटिबल थे जब कि खाते समय किनारों से निकल कर बहती क्रीम जुगुप्सा जगाती थी। बहुत ही अहमकाना और बेहूदी डिश! पोटैटो फिंगर चिप्स और बेहूदे लगते। उसे आलू एकदम पसन्द नहीं थे – मधुमेह के मरीज आलू नहीं खाते। उसका खून अभी भी नमकीन था जिसे ऊपर वाले पसन्द नहीं करते और खाम्खा सताते रहते कि कब मीठा हो और वे तर हों!
उसे पता था कि घर पहुँचने पर रात नौ बजे तक एक कप चाय और दो बिस्कुटों के अलावा कुछ नहीं मिलने वाला। कुछ और माँगने पर मोटापे का ताना मिलता था। जैसा कि पिछले कई महीनों से कभी कभी करता चला आ रहा था, उसने कार झटका चिकेन सेंटर की ओर मोड़ दी। चिकेन सेंटर के बगल में दारूबाज जुटते थे। दारू की गर्मी मरे मुर्गे की भुनी टाँग सहला कर शांत होती थी। उसने केवल सुन रखा था, दारू कभी नहीं पी थी।
दुकान पर पहुँचने तक स्ट्रीट लाइटें जल चुकी थीं। सड़क पर फैले पीलिया से घबरा कर साँझ भाग गई थी और रंडी रात ने देह चमकाना शुरू कर दिया था। सरदार ने उसका बढ़ कर स्वागत किया – हो, हो, हो। आओ जी! इस गली बहुत दिन बाद? सब ठीक तो है? ...ऐ लौंडे! भाई की पसन्द वाली मेज साफ कर दे। तन्दूर लगा दूँ – फुल? मसाले वाली? घी या मक्खन?
उसने आँखों आँखों, हाथ हिला इशारा कर दिया। दोनों ओर की समझ पक्की हो गई – घी वाला फुल रोस्टेड, पातगोभी के ढेर सारे लच्छों के साथ।
मेज साफ करने की बात पर वह मुस्कुराया। सरदार को उसकी पसन्द पता थी। किनारे की मेज पर वह उस ओर बैठता जहाँ माइका सफेद थी। वह मेज नाले से लगी थी जिससे रह रह आती गन्ध और मच्छरों के कारण वह दुकान की सबसे कम पसन्दीदा जगह थी। उसे लगता कि सरदार उसे बस इसलिये पसन्द करता है कि उस मेज का उपयोग हो जाता है।
उस जगह की खासियत समझने के लिये थोड़ा विकृत होना अनिवार्य था। वहाँ से सड़क एकदम ताजी सी दिखती, काली ड्रेस से झाँकती पिंडलियों की तरह उत्तेजक, मोहक, बुलाती सी। नाले की गन्ध, बनते हुये ऑमलेटों की गन्ध और भुने जाते मुर्गे का अरोमा दारू की उड़ती महक के साथ मिल कर वह फिजाँ पैदा करते जिसके बारे में उसे यकीन था कि स्वर्ग का माहौल वैसा ही होता होगा जिसमें ऊपर वाले खून पीते जीते हैं।
वह बैठ गया। भूख मरोड़ रही थी। जैसा कि होता था, वह एकदम चुप, नहीं, चुप्प था। वह तेज भूख लगने पर ऐसा ही हो जाता था। उसे लगता था कि ऐसे में अगर बोला तो सिवा गालियों के कुछ नहीं निकलने वाला। उसे गालियों की निरर्थकता के बारे में कोई सन्देह नहीं था, इसलिये वह चुप्प रहता।
उसे अरोमा से पता चला कि वे अंडे ठीक नहीं थे जिनसे ऑमलेट बन रहा था। उसने कन्धे उचकाये और मन में बड़बड़ाया – मुझे क्या? खाना थोड़े है।
दारूखाने में ऐसों की भीड़ थी जो रोज कमाते हैं, रोज उड़ाते हैं, रोज मरते हैं, रोज जीते हैं। पेट्टी ठीकेदारों के सुपरवाइजर, प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन, कबाड़ी, घर घर मार्केटिंग करने वाले जवान, घर वालों को चूतिया बनाती संघर्षशील प्रतिभायें – शाम की जेंट्री ऐसी ही होती थी। इस जेंट्री को वह बहुत पास से जानता था।
इन्हें डायबिटीज कभी नहीं होता। खून खारा ही होता है लेकिन जाने इनके खरेपन में कौन सी ऐसी बात होती है कि इन्हें सब चूसते हैं और ये खुद भी बहुत बड़े खूनखोर होते हैं! इनका इश्क़ अनिवार्यत: अवैध सम्बन्ध होता है और कोई महीना ऐसा नहीं गुजरता जिसमें अखबारों को ये गर्मागर्म किस्से न मुहैया कराते हों।
फिर भी वह उन्हें अपने से बेहतर मानता था। उसे वहाँ उस समय बहुत अच्छा लगता कि दुनिया में अच्छे लोग हैं जो उससे बेहतर भी हैं।
ताजे भुने मुर्गे से आती भाप और अरोमा से उसकी तन्द्रा टूटी। प्लेट में चारो ओर पातगोभी के लच्छे करीने से रखे हुये थे। लच्छों के बीच में मुर्गा कटा फटा चीरा लगा सजा हुआ था जिसके मरे भुने मांस की ललछौहीं सफेदी लुभावनी थी। मुर्गों को डायबिटीज होता है क्या? वे इतनी उम्र जी पाते हैं क्या? इनका खून कोई पीता है क्या?
भूख की मरोड़ अब अम्लीय हो चली थी और खटास जीभ तक आ पहुँची थी। उसने पातगोभी के कुछ लच्छे मुँह में डाले और चुभलाने लगा।
सरदार आ पहुँचा था – ओय बादसाओ! बधिया बना कि नहीं?
वह मन में ही भुनभुनाया – हाँ जगलर! बधिया है।
प्रकट में वह पहली बार बोला – तुस्सी फ्री हो?
“हो, हो, हो। हम कब फ्री? की गल?”
“फ्री हो तो पास बैठो और अपने बनाये का मज़ा लो।“
हैरान सरदार कुछ झिझका – लौंडे सम्भाल लेंगे। उसने कुछ को गालियाँ देते हुये चेताया और बोला - यहाँ नहीं, बहुत गन्द है। उधर चलते हैं।
“बैठना है तो यहीं बैठो सरदार जी! वरना ...”
सरदार बैठ गया और उसके इशारे पर मुर्गे की एक टाँग उठा कर खाना शुरू कर दिया – ओय, ये जगह तो बौत बिन्दास है! मान गये तुम्हारी पसन्द को! - उसकी नज़र सामने से गुजरती लौंडिया पर थी।
वह भुनभुनाया - साला बिन पिये ही बकवास करने लगा!
उसे दारू की दुकान की बेंच पर एक गिलास दिखा जिसमें से कड़वे तेल जैसी पीली दारू झाँक रही थी।
घी, मक्खन, तेल, मीठा, नमकीन, अंडे...सब परहेज, जिन्दगी परहेज ही होती जा रही है और खून है कि मीठा होने का नाम नहीं ले रहा!
जैसे किसी ने खींचा था, वह उठ कर गिलास ले आया - बस दारू सी बची है जिन्दगी में!
“ओय, यह क्या? दारू है जी!”
तेरी तो! ...उसने मुर्गे का ब्रेस्ट पीस उलट दिया। उसके दिल, जिगर सब भुन चुके थे जिनमें क्या मीठा, क्या नमकीन; खून का एक कतरा तक नहीं बचा था।
ब्रेस्ट, ब्रा, ब्रेसिका! उसे सरसो का लैटिन नाम याद आया। पिंडलियाँ जिन्दा मांस, मुर्गा मुर्दा मांस – सब जिबह, सब खूनखोर मांसभोजी।
पोल की पीली लाइट में ब्रेस्ट से उठती भाप अभी भी दिख रही थी।
धूल है यह सब, कुछ और नहीं - उसने सरसो के तेल, नहीं दारू को ब्रेस्ट पर उड़ेल दिया, जैसे पेट में मरोड़ते अम्ल पर चूने की धार पड़ी हो! सब बैठता चला गया। भूख लापता हो गई। मुर्गा ठंडा हो गया।
उसने दो सौ सौ के नोट सरदार की जेब में ठूँसे और चल दिया – सरदार जी, खा लेना, सुना है दारू से ठण्डा किये गोश्त की तासीर ही अलग होती है।
पीछे से आती मुँहठूँसू हँसी से वह समझ गया कि मुर्गा पेट की ओर जाने को चबाया जा रहा था।
“आज देर कर दी?”
पूछती पत्नी को उसने उत्तर दिया – इस साल तो नहीं लेकिन अगले साल प्रमोशन हो जायेगा। इस महीने की रिपोर्ट मिल गई, मुझे डायबिटीज नहीं है। मुझे फिजूल के खान पान परहेजों में न जकड़ो...हाँ, आज रात जश्न करें? दिवान में रखी वियना वाली नवीं सिम्फनी की सी डी निकाल लो।
जार से एक मुट्ठी चीनी निकाल उसने मुँह में डाल लिया। मुँह में मिठास भरती चली गई।
वह दूसरे लोक में था जहाँ भूख जैसा कुछ नहीं होता।
रात का जश्न!... लजाई पत्नी हैरान सी उसे देखती रह गई। ...