शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

केश और बाल

केश कटाने हैं। वह बाल नहीं कहता, पुरबिया भाभी खी खी कर हँसती है और फिर मजाक उड़ाती है – बाबू, आप के सिर पर बाल! खी, खी, खी....
कॉलोनी के इलाके में दस रुपये से लेकर सत्तर रुपये में केश कटते हैं। वह सत्तर वाले एयर कंडीशंड सैलून में जाता है, जिसका नाम है dews बोर्ड पर पानी की बूँदों के चित्र देख उसके भीतर का बजबजाता आभिजात्य नाली के किनारे के कुर्सी बरसाती सैलून से अपने को अलग समझता है जहाँ मज़दूरों के केश कटते हैं, नहीं बाल बनते हैं।     
Dews में एक बार आरामकुर्सी पर बैठ जाओ तो उठने का मन नहीं करता। अगल बगल धीमी रोशनी फेंकते एल ई डी होते हैं, सब सफेद चकाचक। लड़के फूल से महकते हैं और हमेशा इलायची चबाये रहते हैं। उनके हाथ रमणियों जैसे होते हैं जो केशों में कैंची कुशल सर्जन की तरह चलाते हैं। आध घंटे लग जाना आम बात है।

लेकिन आज dews में भीड़ थी, वह ग़लत समय पहुँच गया था। उसे इंतज़ार करना बुरा लगता है। इंतज़ार वह भी ऐसे टुच्चे काम के लिये! नहीं।
जाने लोगों के पास कितना पैसा हो गया है, यहाँ भी भीड़ हो जाती है!
बाहर टहलते टहलते वह कुढ़ता रहा, बेचैन होता रहा – इन्हें मेंहदी आज ही लगवानी थी और उसे आज ही फेस मास्क चढ़वाना था!
सामान्य सी बातें भी चिढ़ाती रहीं क्यों कि उनके कारण देर हो रही थी - कमबख्त लड़के भी मीठी मीठी बातें कर जेब काटते हैं, तीन चार सौ का बिल आम है। 
जाने कब वह नाली के किनारे हजामों की उस कुर्सी कतार के पास पहुँच गया जहाँ मज़दूर बाल बनवाते हैं। वह कुर्सी पर बैठ गया जो काठ की थी और जिसकी एक बाँह दुर्घटनाग्रस्त थी।
“डिटॉल है तुम्हारे पास?”
हजाम ने जवाब दिया – हाँ साहेब! अब मजूरा लोग भी यह सब माँगते हैं, यह देखिये।
भीतर डिटॉल का दुधिया घोल था लेकिन शीशी बहुत गन्दी थी। चोर नजरों से उसने हजाम के हाथ को देखा तो शिवमंगल की याद हो आई। गाँव के खानदानी नाऊ – केश काटते तो कई दफे लगता कि बाबा सिर सहला रहे हैं! इस हजाम के भी हाथ वैसे ही थे – खुरदरे, बेवाई भरे जिनसे कर्मों की राख झाँक रही थी।
प्रकट में उसने कहा – कैंची, उस्तरा सब डिटॉल से धो दो। मैं दूना दाम दूँगा। ब्लेड तो नया है न?
हजाम ने वैसा ही किया। तौलिया साफ थी लेकिन कुचैली थी जिस पर वह मैल थी जो रीठ जाने के कारण जबरजोर धुलने पर भी नहीं जाती – पुरायठ कभी छूटता है भला?
उसने अपनी जेबें टटोलीं – रुमाल घर छूट गया था।
कैंची चलने लगी और बाहर सड़क के शोर और अगल बगल की चखचख के बावजूद वह भीतर खामोश होता चला गया। शिवमंगल कितना बतियाते थे! सारे गाँव इलाके की खबर दे देते और हमलोगों से शहर की खबरें ले भी लेते। यह बूढ़ा इतना चुप क्यों है? जब कि इसके हाथ एकदम शिवमंगल जैसे हैं। कैंची जैसे खोपड़ी को दुलरा रही है।
इशारे से रोक कर उसने हजाम को देखा। कोई फर्क नहीं।
“क्या हुआ साहेब?”
“कुछ नहीं। यहीं के हो?”
“नहीं, गाँव से।“
उसने आगे नहीं पूछा क्यों कि आगे की कहानियाँ उसे पता होती थीं। कैंची चलती रही। खत बनाने को उस्तरे का नम्बर आया और कनपटी के पास कट गया।
हजाम हाथ से डिटॉल लगाने लगा। उसके चेहरे पर खामोश घबराहट थी। खून रुक नहीं रहा था।
“साहेब, कुछ गहरा हो गया लगता है। बुढ़ाई...” । बूढ़ा छलछला गया था – आप के पास रुमाल होगा?
“नहीं, लाना भूल गया।“
उसने बूढ़े हजाम का राख भरा हाथ अपने हाथ में लिया और पुरायठ तौलिये को घाव पर जमा दिया। उसे लगा कि दोनों और खामोश हो गये थे।
“आप कुछ बोले नहीं। बाल बनाते तो आप लोग खूब बातें करते हैं?”
उसकी बात का जवाब टूटा बक्शा खोलते हाथों की कँपकपाहट ने दिया। बूढ़े ने बीस के नोट से लौटाने को दस रुपये निकाले थे।
उसने देखा – नोट बहुत मैला था – soiled .

“अरे बाबा! आप रखिये उसे।“
बक्शा वापस खुला और बन्द हुआ। कुर्सी पर एक मज़दूर बैठ गया था – जल्दी से खत बना द!
“जल्दी में ई कार न होला। हमरे लगे टैम लगी...”
हजाम बाबा सहज हो चले थे।
वह घर को लौट चला।
“बाबू! बहुत जल्दी केश कटवा आये?”
“नहीं, बाल बनवा कर आ रहा हूँ।“
उसके चेहरे के भाव देख भाभी खी खी नहीं कर पाई।       

14 टिप्‍पणियां:

  1. सच्चाई छुप नहीं सकती ... समय के बहाने ही सही, आदमी जड़ों से जुड़ाव महसूस कर सका।

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  2. @ तौलिया साफ थी लेकिन कुचैली थी जिस पर वह मैल थी जो रीठ जाने के कारण जबरजोर धुलने पर भी नहीं जाती – पुरायठ कभी छूटता है भला?
    ......

    गजब...एकदम राप्चिक !

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  3. “साहेब, कुछ गहरा हो गया लगता है। बुढ़ाई...” । बूढ़ा छलछला गया

    कोहरे के पार सच अब भी उतना ही है, वैसा ही है।
    आप वही रखते हैं, आभारी रहूँगा।

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  4. @ पुरायठ कभी छूटता है भला?


    ... यही सत्य है.

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  5. घर में बुलाकर कटवाने से बड़े सैलून में बनवाये/कटवाये हैं, बस हल्का ही लगता है बाद में।

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  6. सच जब थोड़ा तीखा हो जाता है तो उस पर कोई हँस नहीं पाता.

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  7. हम तो मजाक में इटैलियन सैलून (ईंट से बना इटैलियन) कह दिया करते थे.. तब पता नहीं था कि इटैलियन शब्द उस मेहनतकश के प्रति एक गाली होगा!!

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  8. तौलिया साफ थी लेकिन कुचैली थी जिस पर वह मैल थी जो रीठ जाने के कारण जबरजोर धुलने पर भी नहीं जाती – पुरायठ कभी छूटता है भला?
    ............................
    बूढ़ा छलछला गया था – आप के पास रुमाल होगा?“नहीं, लाना भूल गया।“ उसने बूढ़े हजाम का राख भरा हाथ अपने हाथ में लिया और पुरायठ तौलिये को घाव पर जमा दिया। उसे लगा कि दोनों और खामोश हो गये थे।
    .............................
    ....पुरानी आदत याद आई इन पंक्तियों को पढ़कर कि जब कभी दिल को कुछ छू जाता था तो उसे दौड़कर डायरी में उतारने की आदत थी। अब न वह पढ़ना रहा..डायरी रही..और न वह आदत ही रह गयी। ले दे कर ब्लॉगिंग ही शेष है। बहुत खुशी होती है जब इतना अच्छा पढ़ पाता हूँ।

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  9. विचारों की अच्छी धर पकड़ कर रहे हैं इन दिनों!

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  10. कभी कभी ऐसे भी बाल बनवाते रहना चाहिए !

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  11. पुरायठ कभी छूटता है भला ?

    क्‍या क्‍या ठेल दिए, ये तो लिंक मिल गया तो पढ़ लिए...


    एक दिन बैठ के पूरा ब्‍लॉग टटोलना पड़ेगा :)

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