शनिवार, 14 जुलाई 2012

साधु स्त्रियों! - अंतिम भाग।

भाग 1 और 2 से आगे...

अगले दिन शाम को घर आया तो घर का वातावरण अलग सा था। सुपुत्र जी अपनी माँ के चलने की नकल कर रहे थे और माँ बेटी हँसे जा रही थीं। पूछने पर पता चला कि बेटा उस चाल की नकल कर रहा था जिसे चल कर श्रीमती जी ने पार्क में एक लड़के को 'फ्रीज' कर दिया था। घटना कुछ इस तरह हुई:

लड़कियों की माँ ने ऐक्शन लेने का निर्णय लिया। लड़कियों को वैसे ही पार्क के चक्कर लगाने दिया गया जैसे कुछ हुआ ही न हो। नियत समय पर शोहदे आ धमके। एक दिन पहले की घटना से उत्साहित थे, इसलिये आज दो की बजाय तीन बाइकें थीं और छ: लड़के। लड़कियाँ घूमते हुये पार्क के भीतर आ चक्कर लगाने लगीं। शोहदे अपनी अपनी बाइकें बाहर खड़ी कर भीतर आ कर बेंच पर जम गये। छेड़खानी शुरू हुई। वह अपनी बालकनी से देख रही थीं। मोबाइल काल कर उन्हों ने सभी महिलाओं को तुरंत तीन दिशाओं से आने को कहा ताकि अगर लड़के ताड़ कर भागें तो भी कम से कम एक पकड़ में आ जाय। श्रीमती जी की सहेली पी एच डी हैं और लड़कियों की माँ अभी कर रही हैं लेकिन उन्हों ने घर के पत्थर पर पहले से ही 'डा.' लिखवा लिया है। इस बात को लेकर दोनों में कुछ तीखी बातें पहले कभी हुई थीं इसलिये सहेली जी जाने को तैयार नहीं थीं लेकिन श्रीमती जी ने कहा कि यह सोचिये कि आप की भी एक बेटी है।  छोटे मोटे झगड़े ऐसे मामलों में परे रख देने चाहिये।

महिलायें पार्क के भीतर पहुँच गयीं लेकिन शोहदे मशगूल रहे। उनके एकदम  पास पहुँच जाने पर वे समझ पाये। तीन तो कूद कर भाग गये लेकिन वे तीन जो बाइक चालक थे, महिलाओं की चेतावनी पर वहीं फ्रीज हो गये। बाइकों पर पहले से ही महिलाओं का कब्जा था!

दो अध्यापिकाओं ने बाकायदा उनकी क्लास ली। जूते उतरवा दिये गये। बाइकों की चाभियाँ ले ली गईं और उनके नम्बर नोट कर लिये गये। पंक्ति में खड़ा करा कर उनसे सबके नाम पते लिये गये। भाग चुके और पकड़े गये मिला कर पाँच मुसलमान और एक हिन्दू निकले! (20:80 प्रतिशत का अनुपात यहाँ उलट है। कम से कम इस इलाके में मुसलमान ऐसे कामों में बहुसंख्यक हैं)। माफी माँगने, दुबारा न आने और अपने यार दोस्तों को भी ऐसी हरकतों के लिये पार्क में न ले आने या चेताने का आश्वासन ले उन्हें छोड़ दिया गया।

शोहदों की प्रतिक्रियायें कुछ इस तरह रहीं:

- एक:

"(अकड़ के साथ) मैं दसवीं पास हूँ, ऐसे काम नहीं करता।"

"कह तो ऐसे रहे हो जैसे पी एच डी हो! क्यों आये थे यहाँ, पहले तो नहीं दिखे?"

"ये सब बोले कि चलो तो चला आया।"

"क्या करते हो?"

"कबाड़ का काम।"

"दुबारा दिखे तो चप्पलों से इतनी पिटाई होगी कि खुद कबाड़ हो जाओगे।"

- दो: 

"मैं यहाँ पहली बार आया हूँ, अब कभी नहीं आऊँगा, कान पकड़ता हूँ।"

"अरे, यह तो वही है जो किनारे कोने बैठ कर चरस पीता रहता है। झूठ बोल रहा है!"

"दुबारा नहीं आऊँगा आंटी!"

"चरस क्यों पीते हो?"

....

"भगो यहाँ से।" 

- तीन:

"मैं यहीं ट्यूटोरियल में ट्यूशन पढ़ता हूँ। मैं तो आऊँगा।"

"तुम्हीं इन सबको लेकर आये थे?"

"हाँ... अपनी लड़कियों को तो देखिये।"

"अभी वापस जाने लायक रहना चाहते हो तो वादा करो कि दुबारा नहीं दिखोगे, वरना इतनी पिटाई होगी कि हॉस्पिटल जाना पड़ेगा। जेंट्स भी आ ही रहे होंगे। तुम्हारे बाप को और कोचिंग वाले को भी बुला लिया जायेगा। सोच लो जब तुम्हारा बाप तुम्हारी संगति और चरसियों की दोस्ती जानेगा तो क्या हाल होगा?"

"..."

"दिखोगे दुबारा?"

"नहीं।"  

__________________________________

मैंने सब सुन कर कहा - मुझे फोन कर दी होती। पुलिस को भी बुला लेना था। श्रीमती जी ने उत्तर दिया - लड़कियों का मामला है। पुलिस बेकार की पूछताछ करेगी, लड़कियों का नाम खराब होगा। दुबारा वे सब नहीं दिखेंगे। नाम पता नोट है। बाइक के नम्बर भी हैं। ...

...माहौल में आज तक शांति है। इस शृंखला की यह अंतिम पोस्ट लिखने से रह गई थी लेकिन गुवाहाटी की घटना के बाद प्रासंगिक सी लगने लगी तो लिख रहा हूँ।

मैं कॉलोनी की उन सभी स्त्रियों को नमन करता हूँ। जहाँ पुरुष वर्ग काम काज के सिलसिले में दिन भर बाहर रहता हो वहाँ गृहिणियों को इतना सतर्क और सक्रिय रहना ही चाहिये। विश्वास कीजिये कि 95% मामले उसी समय शांत हो जाते हैं जब सभ्य समूह मूक द्रष्टा न रह कर ऐक्शन लेता है। आँखें मूँदने से पौधा विषवृक्ष बन जाता है, पहले ही उखाड़ दिया जाय तो नौबत ही न आये!

पाँचवीं में पढ़ रहा मेरा सुपुत्र बड़ा हो कर क्या किसी लड़की के साथ छेड़खानी करेगा? शायद कभी नहीं। उसे अपनी माँ की नर्सरी हमेशा याद रहेगी। आप अपने बेटे को लड़कियों से कैसे पेश आना चाहिये, बताते हैं न? उसे बताते हैं न कि स्त्रियाँ विशिष्ट होती हैं क्यों कि वे माँ की जाति होती हैं, उनका विशेष सम्मान होना चाहिये? उनसे उकसावा भी मिले तो भी संयम रखना चाहिये? मैं पुरातनपंथी अबौद्धिक तो नहीं लग रहा?

सारे शोहदे नाबालिग थे जिन्हें कायदे से उन बाइकों को चलाना ही नहीं था। स्पष्ट है कि उनके पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं रहे होंगे। कहीं आप के बच्चे भी तो ....

बेटा ट्यूशन पढ़ने जाता है। कभी आप ने जानने का प्रयास किया कि कहीं वह चरस तो नहीं .... बेटे की बदली बदली हरकतें हमेशा किशोरावस्था की देन नहीं होतीं, आप को पता है न?

परिवार संस्था की शक्तियों को हम भुलाये जा रहे हैं। अपनी संतानों के साथ ऐसी सीखों के लिये आप अंतिम बार कब बैठे थे? या सब कुछ टी वी, इंटरनेट और दोस्तों की संगति पर ही छोड़ दिये हैं? आप को पता है न कि माता पिता की सीखें अवचेतन में सबसे अधिक गहराई और दृढ़ता से सुरक्षित होती हैं?

आधुनिकता की रौ में बहते हुये कभी आप ने सोचा क्या कि नाबालिग बच्चों को पार्टी करने बाहर जाना तो चाहिये लेकिन शराबखाने में नहीं? मैंने सुना है कि अब अमेरिकी भी अल्प आयु गर्भधारण,नशा आदि के व्यसनों में नई पीढ़ी के संलिप्त होते जाने को खतरनाक समझने लगे हैं। ऐसे में थोड़ा 'पिछड़ा हुआ' होने में क्या बुराई है? पिछ्ड़ापन शो ऑफ से दूर होता है या मस्तिष्क के संस्कारित समृद्ध होने से?

वर्तमान के तीन स्तर होते हैं। भूत का वह कृष्ण पक्ष जिसकी ओर देख हम अपने को धन्य समझते हैं कि समय बदल गया। वर्तमान की विकृतियों का पक्ष जो कि वास्तविकता है और सभ्य समाज के निरंतर अच्छे होते जाने के स्वप्न का पक्ष कि ऐसा होना चाहिये। जैसे कि - ऐसा होना चाहिये कि स्त्रियाँ किसी भी समय कहीं भी सुरक्षित हों और पुरुष उच्छृंखल न हों, मर्यादित रहें।

एक ही समय में भिन्न भिन्न स्थानों पर इन स्तरों की निष्पत्तियाँ भिन्न भिन्न हो सकती हैं। सूरत में रात के दो बजे अकेली लड़की ठेले पर पानी पूरी खाने आ सकती है और बिना किसी खतरे की आशंका के वापस घर भी जा सकती है। शायद उस समय वह हाफ पैंट और टी शर्ट ही पहने हो सकती है लेकिन गुड़गाँव में वह ऐसा सोच भी नहीं सकती। यह यथार्थ है। न तो भूत आज का यथार्थ है और न सुनहरे भविष्य का सपना। समाज को हर स्तर पर बेहतर बनाने के व्यक्तिगत, संस्थागत और सामूहिक प्रयास चलते रहें। बहसें होती रहें लेकिन यह तो बहुत धीमी प्रक्रिया होती है - सोच एक झटके में नहीं बदलती। तब तक जो यथार्थ है वह है! लड़की इसे समझती है न कि उसका मामला अधिक सम्वेदनशील है क्यों कि प्रकृति ने उसे ऐसा बनाया है? उसके मन में पुरुषों की मानसिकता के प्रति तीव्र आक्रोश है, वह अच्छी ज्वलंत कवितायें लिखती है, बहस करती है लेकिन जोश में यथार्थ को भूल तो नहीं जाती?

सूरत की लड़की और गुड़गाँव की लड़की के यथार्थ अलग अलग होंगे बावजूद इसके कि दोनों फेसबुक पर मित्र हों। आप की बेटी यह अंतर समझती है न? कभी बात की आप ने? लड़की को ऐसे में आक्रामकता और संयम के संतुलन के बारे में तो बताया न आप ने?  

बेटा स्त्रियों से स्वयं दुर्व्यवहार न करे यह तो ठीक लेकिन यदि कोई और कर रहा है तो क्या करना चाहिये? चुपचाप आँखें मूँद घर आ जाना चाहिये - ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर। जमाना खराब है बेटा! दूसरों के पचड़ों में न पड़ना। यही सिखाया न आप ने अपने बेटे को? खुद न भिड़ सके, रोक सके तो और लोगों को प्रेरित तो कर सकता है? कोई मदद माँग रहा हो तो हाथ तो बढ़ा सकता है, 100 नम्बर पर  काल तो कर सकता है? सिखाया कभी आप ने? या स्कूल कॉलेज के नाम पर व्यापार करते शैक्षिक संस्थानों ने भरोसे छोड़ दिया? बेटी को भी ऐसा समझाने की आवश्यकता समझी आप ने या नज़र झुका कर घर आने को कहा?

आप का बेटा को-एड में पढ़ता है या लड़कों के स्कूल कॉलेज में? केवल लड़कों के लिये बने संस्थान में अगर आप का लड़का अब तक पढ़ता चला आ रहा है तो आप की जिम्मेदारी अधिक है। उसे समझाइये, बताइये कि लड़कियाँ अजूबा नहीं होतीं। उसके मन में जमाये जा चुके पूर्वग्रहों को खुरचिये। बड़ा कठिन काम है न?

... अब मैं बताता हूँ दो ऐसी घटनायें जिनका स्वयं साक्षी रहा हूँ।

- एक सम्भ्रांत घर की तीसरी कक्षा में पढ़ती लड़की के लिये एक ट्यूटर रखा गया। लड़का प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था। संघर्षशील था, शरीफ था। तीन वर्षों तक वह उसे पढ़ाता रहा। जुड़ाव इतना अधिक हो गया कि वहाँ से जाते हुये यह कह कर गया कि बच्ची के विवाह में मुझे अवश्य बुलाइयेगा। कहीं रहूँगा, आप लोगों से सम्पर्क में रहूँगा। बच्ची के हर जन्मदिन पर वह काल कर विश करता रहा। रजस्वला होने के बाद जब बच्ची को स्त्री पुरुष सम्बन्धों की भनक लगी तो उसने एक दिन अपनी माँ के आगे चरम संताप के क्षणों में भेद खोला - ट्यूटर उस मासूम की देह को टटोलता रहता था, बाहर से भी और कपड़ों के भीतर हाथ डाल कर भी। दुबारा ट्यूशन के लिये सहमत करने के लिये बच्ची की कौंसिलिंग करानी पड़ी। अब वह ठीक है। ट्यटर के काल नहीं उठाये जाते। वह नम्बर बदल कर भी फोन नहीं करता। अब इसे क्या कहें?

सम्बन्धों की जटिलता और विकृतियों के बारे में बच्चों से बातें करनी होंगी।

चाहे जिस अवस्था की लड़की हो, या तो एकांत में ट्यूटर के साथ न छोड़ें या उसे इतनी समझदार और खुद से खुली बनायें कि वह समझ सके और आप से शेयर कर सके।

- संघर्ष के दिनों में प्रति घंटे 150 रुपये की दर पर दो अति धनाढ्य घरों में इंटर की लड़कियों को ट्यूशन पढ़ाता था। दोनों परिवार आपस में रक्तसम्बन्धी थे लेकिन कल्चर में बहुत अंतर था। एक घर में मुझे एकांत कमरे में  लड़की के साथ बन्द कर दिया जाता तो दूसरे में उसकी दादी पूरे समय बैठी रहती। एकांत वाले घर में एक दो बार लड़की ने कुछ उकसानेवाली हरकतें और बातें की। उसके कपड़े भी दिन ब दिन उघारू टाइप के ही हो चले थे लेकिन घर वालों को कोई समस्या नहीं थी। उस दौर में पिता के दिये संस्कार ही मुझे बचा ले गये। अपेक्षतया जल्दी विवाहित होने पर भी बहकने के पूरे अवसर थे।

दूसरी बहुत ही सॉफिस्टिकेटेड थी और गणित से बहुत डरती थी। दुर्भाग्य से उसकी परीक्षा प्रारम्भ होते ही मुझे गले में भयानक संक्रमण  हो गया। डाक्टरों ने बोलने से एकदम मना कर दिया। विचित्र स्थिति थी। ऐसे में मैने उस लड़के को काम पर लगाने को कहा जिसने उनके यहाँ मुझे भेजा था। उन लोगों ने साफ मना कर दिया। लड़के से थोड़ा खोद खाद करने पर पता चला कि दोनों में कुछ कुछ था। वह उसके लिये अंग्रेजी कवितायें रचती थी। मैं उलझन में पड़ गया, लिख कर बात करना था जिसमें लड़के ने बताया कि हो सकता है उसके परिवार वालों को बाद में भनक लग गई हो, जिस समय डर कर छोड़ा था उस समय तो उन्हें नहीं पता था। लड़की के पिता से तो मिलना असम्भव था, माँ ही सर्वे सर्वा थी और उसने कहा चाहे जो हो आप ही पढ़ायेंगे!

मैं लिख कर ही लड़की से बात करता रहा, पढ़ाता रहा और उसका हौसला बढ़ाता रहा। आश्चर्यजनक रूप से उसकी हमेशा पहरा देने वाली दादी इधर उधर घूम आने लगीं जैसे एकांत के क्षण देना चाहती हों। गणित का डर! - एक दिन पहले लड़की फूट पड़ी। उसकी हताशा देख मैं बेचैन। गर्म पानी पी बोलने की कोशिश किया लेकिन लग गया कि बात हो नहीं पायेगी और गले की स्थिति भी खराब हो जायेगी। अंतत: मैंने कागज पर लिखा – give me your hand। वह असमंजस की स्थिति में लगी लेकिन मैंने फिर से अपने लिखे पर अंगुली ठकठकाई। उसका हाथ अपने दोनों हाथों में ले मैं थपथपाता उसके चेहरे को देखता रहा। उसने सिर  हाथों पर झुका फूट फूट कर रोना शुरू कर दिया। विचित्र स्थिति हो गई! मैं घबरा गया। हाथ खींचना भी सही नहीं लगा। उसी समय उसकी दादी सामने आ खड़ी हुईं, कुछ कहतीं उसके पहले ही पीछे लड़की की माँ दिखाई दीं, मेरी ओर देख कृपा से मुस्कुराईं और अपनी सास का हाथ पकड़ कमरे से बाहर ले गईं... एकाध मिनट में लड़की सामान्य हुई। उस दिन मैंने उसे दो घंटे पढ़ाया। गणित में 72%  अंक आये थे उसके, जिसके लिये वह और उसके परिवार वाले कृतज्ञ थे लेकिन उस बढ़े घंटे का पैसा नहीं दिये :) ...

... आप के बच्चे ऐसी जाने कितनी स्थितियों से दो चार होते होंगे। या तो उन्हें ऐसा बनाइये कि बवंडर से बाहर  आ सकें या उनसे इतने खुले मित्रवत रहिये कि वे आप से सब कुछ शेयर कर सकें। इनके बिना काम नहीं चलने वाला। समय बहुत तेज है और बच्चों पर दबाव बहुत अधिक हैं। बहकने बिगड़ने के अवसर दस वर्ष पहले की तुलना में बहुत बहुत अधिक हैं और बनने के भी!

आसपास कुछ गड़बड़ हो रहा हो तो संगठित हो प्रतिरोध कीजिये।

अपनी बात 'यंग इंडिया 1924' में लिखी मोहनदास गान्धी की इस बात से समाप्त करता हूँ:

Where there are cowards, there will always be bullies.

(जहाँ कायर होंगे वहाँ गुंडे हमेशा रहेंगे) 

______________

सेकुलरी, स्त्रीवादी, लालवादी, भगवावादी आदि आदि अपनी विलक्षण बौद्धिक बातों, गालियों और विश्लेषणों को यहाँ न छिड़कें। मुझ मूढ़महज को यही समझ में आता है कि ऐसे मामले खाँचों में फिट नहीं होते।

27 टिप्‍पणियां:

  1. thanks for this post. don't know what to say. please convey my thanks to your wife and her friends for handling things the way they did. thanks for sharing the tree tuition experiences. thanks for reminding us that raising kids doesn't just mean sending them to schools, but also counselling them about life. thanks again for everything in this post.

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  2. @ 95% मामले उसी समय शांत हो जाते हैं जब सभ्य समूह मूक द्रष्टा न रह कर ऐक्शन लेता है।

    १००% तार्किक बात !

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  3. @ बहकने बिगड़ने के अवसर दस वर्ष पहले की तुलना में बहुत बहुत अधिक हैं और बनने के भी!
    जैसे मैंने खुद ही से यह बात कही हो .............. परिवार में सात भाई बहन और है और उनकी अवस्था इस बनने और बिगड़ने की लकीर पर पहुँच रही है .......... डर लगा रहता है की आशा की लौ पर कोई झंझावत ना भरी पड़ जाये .............................. सोचता हूँ की आपकी पोस्ट के प्रिंट आउट अधिकाधिक बाँट दूँ अपनी जानकारी में ....................

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  4. @सोचता हूँ की आपकी पोस्ट के प्रिंट आउट अधिकाधिक बाँट दूँ अपनी जानकारी में ................

    उत्तम विचार!

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  5. आर्य , तीनों भाग पढ़ गया । पिता का मित्र होना निश्चय ही व्यक्तित्व को एक अलग आयाम देता है ।

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  6. महिलाओं की जागृति अनुकरणीय है। वे बेग़ैरत लड़के अपने अपराधों को सामान्य व्यवहार समझ रहे हैं, उनका दृष्टिदोष तो है ही, परवरिश और प्रशासन का नकारापन भी है। सहशिक्षा से फ़र्क ज़रूर पड़ता है, इसी प्रकार पुरुषों को सही-ग़लत कुछ भी करने की छूट और स्त्रियों को बुरके आदि कुरीतियों से बान्धकर अनपढ बनाये रखने की प्रवृत्ति से भी ऐसी गुंडागर्दी को सहारा मिलता है। बच्चों को रक्षा, दिशा, सहारा और न जाने क्या-क्या चाहिये, हम अपनी ज़िम्मेदारी कहाँ तक निभा रहे हैं, खासकर उनकी रक्षा के लिये खड़े होने की।

    ज़रूरी आलेख, लिखते रहो!

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  7. '... आप के बच्चे ऐसी जाने कितनी स्थितियों से दो चार होते होंगे। या तो उन्हें ऐसा बनाइये कि बवंडर से बाहर आ सकें या उनसे इतने खुले मित्रवत रहिये कि वे आप से सब कुछ शेयर कर सकें। इनके बिना काम नहीं चलने वाला। समय बहुत तेज है और बच्चों पर दबाव बहुत अधिक हैं। बहकने बिगड़ने के अवसर दस वर्ष पहले की तुलना में बहुत बहुत अधिक हैं और बनने के भी!'

    इस सब चक्कर में कौन पड़े? हम ऐसी सोसायटी के सदस्य हैं जो हर बात पर रिएक्शन जरूर देंगे, पुरुष हैं तो नारियों के बदलते लाईफस्टाईल और पहनावे को हर भले बुरे का जिम्मेदार बताएँगे और औरतें हर पुरुष को महिला उत्पीडन के लिए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार बताएंगी|कुछ भी होने के पीछे कारण सब बताएँगे लेकिन समाधान कोई नहीं बताता\बताती| कुछ दिन पहले अली सैय्यद जी के ब्लॉग 'उम्मतें' पर एक विमर्श चला था, बहस में तो हमारा हाथ वैसे ही तंग है,अपन जल्दी ही निकल लिए थे वहाँ से लेकिन उन्हीं दिनों एक आँखों देखा वाकया शेयर करने की सोची थी फिर कुछ सोचकर रुक गए थे| ताजा घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में लिखा जा सकता है|

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    उत्तर
    1. संजय जी
      @ समाधान कोई नहीं बताता\बताती|
      नारी ब्लॉग हो या अन्य नारियो के ब्लॉग सब पर एक बार नजर डालिये ऐसे उपायों से भरा पड़ा है जहा बेटियों को पढ़ाने लिखने , नौकरी कराने , उनमे आत्मविश्वास भरने, अपनी रक्षा खुद करने के साथ साथ बेटो को संस्कार देने की बात हजारो बार दुहराया जा चूका है ,हमेसा कहा गया की हर समय नारियो से ही हर बात की उम्मीद ना करे कुछ बेटो को भी सुधारने का प्रयास किया जाये, उनकी सोच स्त्री के प्रति बदला जाये , यहाँ तक की उन विज्ञापनों का भी विरोध किया गया है जहा नारी को उपभोग की वस्तु बना कर पेश किया गया है , लेकिन सुनता कौन है बस ऐसे ही पहली नजर में ही नारीवादी , फिजूल की बहसबाजी कह कर नकार दिया जाता है | अब यहाँ भी नारीवादियो का आना शक्त मना है पता नहीं ये टिप्पणी यहाँ दिखेगी भी की नहीं |

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    2. @अब यहाँ भी नारीवादियो का आना शक्त मना है पता नहीं ये टिप्पणी यहाँ दिखेगी भी की नहीं |

      एक बड़ा अन्तर है.... इस ब्लॉग पर कमेन्ट दबाये नहीं जाते ;)

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    3. सही कहा संजय जी समाधान पर कोई गम्भीर है ही नहीं।
      ऐसी घटनाओं से आक्रोश अवश्य आता होगा, किन्तु द्वेष आक्रोश हिंसा प्रतिशोध इस बुराई का समुचित उपाय है भी नहीं। द्वेषों से द्वेष और प्रतिशोध जन्मते है निराकरण नहीं। गजब का विरोधाभास है संस्कारों को ही भांडा जाता है और संस्कारों की ही दुहाई दी जाती है। शान्ति और सन्तोष के संस्कारों को बंधन माना जाता है दूसरी तरफ भयंकर घटनाओं पर प्रतिक्रिया दी जाती है- 'क्या यही है इनके संस्कार?' और तीसरी तरफ कहा जाता है-'माता-पिता नें अच्छे संस्कार दिए होते तो यह न होता' वस्तुतः संस्कार नारी पुरूष के भेदभाव बिना दिए जाय तभी सार्थक है। उसी दशा में उनकी एक दूसरे के प्रति सम्मान की सोच सम्पूर्ण बनती है। "कोई बेटियों को समझाने का प्रयास न करे" "कोई नारी से ही उम्मीद न रखे" कोई बता दे उन्हें कि "नारी ही सन्तान का प्रथम शिक्षक होती है" पुरूष कहीं जिम्मेदार नहीं बन रहा तो क्या जरूरी है कि नारी भी जिम्मेदारी का त्याग कर दे।

      संस्कार कैसे आते है, जब माता बाल अवस्था में ही नारी की ममतामयी छवि बेटों में डाल देती है और पुरूष पिता अपने बेटों के समक्ष चरित्रवान की इमेज प्रस्तुत करता है। ऐसे माहोल में पले युवक नारी सम्मान के प्रति जाग्रत रहते है।

      आवेश आक्रोश दंड और हिंसा कुछ क्षण के लिए हमारा खून गरम अवश्य कर देते है पर समाधान नहीं करते। माता पिता हो या युवक युवतियां, जीवन चरित्र को उत्कृष्ट, धैर्यवान, शान्ति भरे जीवन की चाह, सन्तोष आदि के बिना निदान ला पाना कठिन है।

      हटाएं
    4. अंशुमाला जी,
      कमेन्ट हमेशा नहीं करता लेकिन समय की पाबंदियों के बावजूद नारी ब्लॉग और कुछ अन्य नारियों के ब्लोग्स पढता जरूर हूँ| बहुत सी बातों से सहमति भी रहती है, हमेशा तो खैर खुद से भी सहमत नहीं हो पाता :( नारी को महज उपभोग की वास्तु मानने वाली मानसिकता के विरुद्ध तो मैं भी हूँ,कहने समझने के तरीके में फर्क जरूर हो सकता है|
      आपकी टिप्पणी का जवाब दे पा रहा हूँ, इस से सिद्ध हो रहा है कि आपकी टिप्पणी यहाँ दिख रही है|

      हटाएं
    5. @गजब का विरोधाभास है संस्कारों को ही भांडा जाता है और संस्कारों की ही दुहाई दी जाती है। शान्ति और सन्तोष के संस्कारों को बंधन माना जाता है दूसरी तरफ भयंकर घटनाओं पर प्रतिक्रिया दी जाती है- 'क्या यही है इनके संस्कार?' और तीसरी तरफ कहा जाता है-'माता-पिता नें अच्छे संस्कार दिए होते तो यह न होता'

      सुज्ञ जी,
      बहुत सही कहा आपने


      इसी तरह अक्सर देखा जाता है की अगर किसी पुरुष द्वारा किसी ऐसे विज्ञापन जहा नारी को उपभोग की वस्तु बना कर पेश किया गया हो, का विरोध किया जाता है तो उसे मोरल पोलिसिंग वाला, रूढ़िवादी, नेरो माइंडेड आदि उपाधियों से सम्मानित किया जाने लगता है|

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    6. @लेकिन सुनता कौन है बस ऐसे ही पहली नजर में ही नारीवादी , फिजूल की बहसबाजी कह कर नकार दिया जाता है |
      अंशुमाला जी,
      संजय जी ने मेरे मन की बात कह दी, नारी को महज उपभोग की वास्तु मानने वाली मानसिकता के मै भी तीव्र खिलाफ हूं. और ऐसा मानने वालों के प्रति मात्र आक्रोश व्यक्त कर इतिश्री नहीं की जा सकती.उनकी सोच को बदलने के सार्थक प्रयास अपेक्षित है.
      द्वेष दावानल को इतना भी विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए कि उस दावानल में सूखी लकडियों के साथ साथ हरे भरे निष्कंटक पौधे भी जलकर भस्म हो जाय!!
      सज्जन दुर्जन सभी को एक समान पुरूष ब्राण्ड के बाटों से नहीं तोला जाता. कई पुरूष भी नारी सम्मान के समर्थक होते है, बिना जाने ही जो भी सामने आया,"पुरूष है सिखाने आया है" दंत प्रहार से क्षत-विक्षित कर दो? इस तरह तो हम अपने ही समर्थक कम कर रहे होते है.

      हटाएं
    7. @ दंत प्रहार से क्षत-विक्षित कर दो? इस तरह तो हम अपने ही समर्थक कम कर रहे होते है.

      - कड़वाहट भी अकारण नहीं होती - ऐसे में सज्जनों को ही धैर्य और सहनशीलता दिखानी पड़ती है। लेकिन उद्देश्य की हानि तो होती ही है। आपके मंतव्य से सहमत हूँ

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    8. दुखद है कि हितैच्छुओँ को ही अपने मंतव्योँ के स्पष्टिकरण देने पडते है, पता नहीँ समन्वयवादियोँ को आहत करने से कौनसा नारी हित सधेगा. व्यक्तिगत मँशाओँ की इतनी भी कड़वाहट किस काम की जब आपका प्रधान मुद्दा ही पार्श्व मेँ चला जाय.

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  8. सबको इस घटना से सीखने की आवश्यकता है, मुखर होना ही होगा।

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  9. याद आत़े हैं ६-७ साल पुराने वो दिन जब मैं छुट्टियों में गणित/भौतिकी पढाया करता था। और फिर रोज यहाँ गुडगाँव दिल्ली में देखता ही हूँ।

    95% मामले उसी समय शांत हो जाते हैं जब सभ्य समूह मूक द्रष्टा न रह कर ऐक्शन लेता है।
    बहकने बिगड़ने के अवसर दस वर्ष पहले की तुलना में बहुत बहुत अधिक हैं और बनने के भी!

    शत प्रतिशत सहमत! जरुरी है इसे सब पढ़ें/समझें।

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  10. मैं एक्शन लेनेवाली महिलाओं और आपको भी (जिन्होंने सब-कुछ देख समझ यह नई कर शुरुआत की )नमन करती हूँ !
    आपके इस उदाहरण से लोगों को दिशा मिले और हमारी बेटियाँ निर्भय रह सकें.लेकिन इसके साथ एक और ज़रूरत है -अपनी पुत्रियों को भी ऐसे संस्कार देने की , कि वे छिछोरेपन से बचें और अपनी मर्यादा और गरिमा को धारण कर सकें.

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  11. Thanks Girijesh for reminding everyone of us who are responsible for shaping up the next generation (that’s absolutely my believe and everyone has his liberty to disagree with me) as parents. This is where my comments on your this series of article ends.
    As commented before, your writing has a specialty, it keep you occupied and thinking after reading. After reading your article I was reflecting on the causes of the problems described by you. Let me tell you my thought.
    I have grown up in an area of Kolkata, which is equally populated by people from almost all clolours, however with one common character of being economically misbalanced. In these settlements, the parents have been reduced to be mere bread earners (laborers responsible for bringing basic amenity to the family more specific to kids). They have no time to be father and mother in most cases even though they may have some time left but either they don’t choose to do so or think it is not needed. Thanks god people like us who not only have providers in terms of parents but also mother and father as friend, philosophers and guide.
    The moral value or basic character picked up by the kids growing in these areas which is almost 60% of any metro in India or suburbs are from people sitting ideal doing all kind of things which are against socially acceptable behavior or from various inaccurate resources and the majority of kids grow up with very few moral value or confused state of mind.
    The other reasons which is migration of people from rural areas to cities, in effect from a system of parenting which has several level of check and balances in form of guidance from elders in the family, the watch from the respectable people in villages both male and female to a system which require the parents to be solely responsible for their kids growth both mental and moral. However the migrated people were so busy and not so sophisticated to notice the absence of the secondary support available in our villages. The villages also started worsening when these people and kids started coming back in the holidays and mixing and spreading the values acquired by them in their new found city life.
    However with the new generation things are changing the new age parents are pushing their kids towards education and trying to spend time with kids. It is need of the hour to embed the character building in the education system and think collectively how to install moral value in the kids growing in today’s India.
    One model which have helped me and my compatriots and I have found very effective was organization of Scouts & Guides, which used to be a necessary part of educational institutions have now been ignored as old and redundant concept.
    I would love to know what do you or other friends reading your articles think about this.
    Thanks for being patience enough to read till end.

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    1. आप को भी धन्यवाद कि आप ने अपनी राय रखी और एक अछूते रह गये पक्ष को व्यक्त कर इस पोस्ट को और पूर्ण कर दिया।

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  12. सशक्त लेखन.....
    टिप्पिणियाँ बहुत हुईं......अब कुछ कहना मुनासिब(बाकी)नहीं.
    सादर नमन.

    अनु

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  13. विश्वास कीजिये कि 95% मामले उसी समय शांत हो जाते हैं जब सभ्य समूह मूक द्रष्टा न रह कर ऐक्शन लेता है। आँखें मूँदने से पौधा विषवृक्ष बन जाता है, पहले ही उखाड़ दिया जाय तो नौबत ही न आये!
    सम्बन्धों की जटिलता और विकृतियों के बारे में बच्चों से बातें करनी होंगी।

    .... सहेजनीय पोस्ट !

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  14. समयानुकूल सुन्दर एवं शिक्षाप्रद पोस्ट.

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