बुधवार, 15 अगस्त 2012

कोणार्क सूर्य मन्दिर - 15 : क्षैतिज योजना और वास्तुमंडल - 1

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भाग 12, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13 और 14 से आगे...
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सिद्धांत शिरोमणि की अंग्रेजी टीका के वे पृष्ठ जिनमें पृथ्वी के व्यास और परिधि की चर्चा है।
(डा. अर्कसोमायाजी, केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति शृंखला 29)
वर्तमान कर्नाटक के सह्याद्रि क्षेत्र में हुये गणितज्ञ भास्कराचार्य। वे बारहवीं सदी में उज्जयिनी की वेधशाला में कुलपति थे। कोणार्क मन्दिर का निर्माण तेरहवीं सदी में हुआ। इस दृष्टि से आर्यभट, वाराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त की तुलना में इनका कालखंड सबसे निकट का है। अपने गणित ज्योतिष ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि’ में उन्हों बताया कि पृथ्वी की परिधि 4697 योजन और व्यास 1581 योजन है  यानि उनका योजन भी ब्रह्मगुप्त के योजन के लगभग बराबर ही था। उनके अनुसार एक योजन 4 क्रोश के बराबर होता है (तो पिछले लेख में ललित जी की टिप्पणी का सन्दर्भ भास्कराचार्य से था! Smile ) ।

भास्कराचार्य इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्हों ने परिधि मापने की विधि और सूत्र भी बताये जो कि सही हैं। उन्हों ने भिन्न भिन्न विद्वानों द्वारा अंगुल और यव की भिन्न मापें दिये जाने की बात बताते हुये यह भी बताया कि परिधि को उन्हों ने 'आगम' आधारित व्यक्त किया है क्यों कि कमोबेश पृथ्वी की परिधि की माप 'सर्वसम्मत' है। 'यव और अंगुल की विभिन्न मापों के प्रचलित होने की बात' और 'पृथ्वी परिधि के सर्वसम्मत माप की बात' महत्त्वपूर्ण है।  काल की निकटता देखते हुये इस मापन पद्धति का ज्ञान कोणार्क के स्थापतियों को होना अधिक सम्भाव्य है जो इस तथ्य से और पुष्ट हो जाता है कि उज्जैन क्षेत्र से विद्वानों का ओड्रदेश आना जाना लगा रहता था।

पृथ्वी के औसत व्यास 1274200000 सेंटीमीटर से तुलना करने पर भास्कराचार्य का एक योजन होता है 805945.60 सेमी.। उनके गणित से एक क्रोश हुआ 201486.40 सेमी. यानि 2.015 किलोमीटर। एक हजार पुरुषों के बराबर क्रोश होने से एक पुरुष, धनु, धनुष, नृ या चाप बराबर हुआ 201.5 सेंटीमीटर। यहाँ समस्या है। देह आधारित मापन पद्धति में यह इकाई बड़ी लगती है। उस समय भारत में साढ़े छ: फीट के कितने  लोग लुगाई होते होंगे ? इसका समाधान एक और तथ्य में है।
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24 की ही शृंखला में पुरुष या पिंड की एक और माप मिलती है – 120 अंगुल (बौधायन शुल्ब सूत्र 1/1-21)। मानव शुल्ब सूत्र (4/5) में हाथ सीधे ऊपर उठाने पर खिंची ऊँचाई को एक पुरुष बताया गया है। हमें पता है कि हाथ ऊर्ध्व ऊपर करने पर ऊँचाई में लगभग एक हाथ यानि 24 अंगुल की वृद्धि होती है। 96+24=120 से यह रहस्य स्पष्ट हो जाता है कि कालभेद से पुरुष या धनुष मापन की दो इकाइयाँ रहीं और विधियाँ भी। केश, विन्यास, पगड़ी, शिरस्त्राण आदि भेदों के कारण सिर के बजाय 'हाथ ऊपर' वाली स्थिति में मापन अधिक सुग्राही होगा।

इस आधार पर एक अंगुल की माप आती है 1.679 सेमी. जो कि 5/3 सेमी. यानि 1.66666666666...सेमी. के निकट है। 3,4,5 की समकोण त्रयी में अनुपात होने से यह वर्तमान मापन पद्धति के ज्यामितीय अनुकूलन में सहायक होगी। 'अंगुल' और 'तीन पाँच' करने की दिव्य लोक परम्परा Smile का निर्वहन भी इस माप में हो जाता है। Geometrical_diagram_showing_Egyptian_seked_systemयहाँ यह बताना उचित होगा कि पुरानी सभ्यतायें अपनी 'स्केल' के ऐसे अनुकूलन करती रही हैं ताकि केवल सरल विधियों से आकृतियों को उकेरना और जाँचना परिशुद्ध हो। मिस्र के पिरामिडों के निर्माण में प्रयुक्त स्केल ऐसे ही विभाजित थी जिससे लगभग 52 अंश के कोण मानक को आसानी से बनाया और जाँचा परखा जा सकता था।

हम पहले देख चुके हैं कि कैसे यवमध्य की चौबिस इकाइयों में अंगुल को परिभाषित किया गया था। आगे के लिये हम 5/3 और 24, 48, 72, 96, 120, 144 ...श्रेणी को गँठिया लेते हैं Smile और चलते हैं कोणार्क की क्षैतिज योजना को समझने।

vastu-shastr2वास्तुपुरुष की संकल्पना के बारे में पहले ही बता चुका हूँ। वर्गाकार वास्तुमंडल में पेट के बल लेटा वास्तुपुरुष अपनी पीठ पर स्थापत्य को धारण करता है।

यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे की अवधारणा के अनुसार सृष्टि की सूक्ष्म इकाई भी अपने भीतर ब्रह्मांड को निहित किये रहती है। जैसे जैसे चेतना का विकास होता है, मनुष्य की मेधा परम सत्य के निकट होती जाती है।

sun_halfएक केन्द्र से प्रसरित होते चेतनामंडल को दर्शाने के लिये वृत्त आदर्श ज्यामिति संरचना होगी और उसे भूमि पर उकेरना भी कठिन नहीं लेकिन क्षैतिज योजना को जब ऊँचाई देनी होती है तो ऊर्ध्व शिखर में उस आकार को कलात्मकता और परिशुद्धि के साथ निबाहना अति कठिन हो जाता है। थोड़ी सी चूक समूचे प्रभाव को दूषित कर सकती है, बनाने में समय अधिक लगेगा सो अलग।

pachtattva_vastuइसके अतिरिक्त भवन के लिये प्रकाश, वायु और ऊष्मा की दृष्टि से चार दिशायें महत्त्वपूर्ण हैं। दिक्विन्यास सही होने पर पंचतत्त्व और पारिस्थितिक अनुकूलन स्वयं सध जाते हैं। पृथ्वी का अपने अक्ष से झुकाव क्षैतिज स्थापन में कोणीय दिशाओं को और महत बना देता है। वर्ग या आयत के चारो कोण समकोण होने के कारण उनका दिशाओं से संयोजन यूँ ही हो जाता है क्यों कि दिशायें समकोण के अन्तर पर ही होती हैं। वर्ग के विकर्ण 90 अंश के अंत:कोण को बराबर 45 अंश में बाँटते हैं जिन्हें ईशान, नैऋत्य, वायव्य और आग्नेय कोणों से युत किया जा सकता है।

square_rotationवर्ग को केन्द्र के सापेक्ष घुमाते हुये और प्रक्षेप देते हुये बहुभुज बनाये जा सकते हैं जो कि धीरे धीरे वृत्त के निकट होते जाते हैं। वर्ग के सादे चार आयामों की तुलना में बहुभुज आयाम निर्माण की ऊँचाई को भव्यता देते हैं साथ ही भिन्न भिन्न ज्यामितीय प्रयोगों द्वारा सजावट की अनंत सम्भावनाओं का सृजन भी करते हैं।

इन कारणों से वृत्त की तुलना में वर्ग उस युग में और आज भी स्थापति के लिये अधिक ग्राह्य है और तार्किक भी। वर्गclip_image004[8] के क्षेत्रफल के बराबर वृत्त या वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर वर्ग की ज्यामितीय रचनाओं में भारतीय निष्णात थे ही।

altersईसा पूर्व शुल्बसूत्रों में जटिल यज्ञ वेदियों की निर्माणविधियाँ बताई गई हैं और सरस्वती सिन्धु सभ्यता में भी ज्यामितीय अग्नि वेदियाँ मिली हैं।
शुल्बसूत्रों में ही समकोण त्रिभुज के निर्माण के लिये दिये त्रिवर्गों 32+42=52, 122+52=132 , 82+152=172 और 122+352=372 को लेकर ही वह ज्यामितीय विधि विकसित हुई है जिसका प्रयोग आज भी भूमि पर समकोण त्रिभुज के निर्माण और उसकी परिशुद्धता की जाँच करने के लिये किया जाता है।
एक ही कर्ण पर दो समकोण त्रिभुज बना कर वर्ग बनाया जा सकता है और उसकी जाँच भी इस तथ्य से की जा सकती है कि वर्ग (या आयत) के दोनों विकर्ण बराबर होते हैं। भारतीय स्थापतियों ने आयत निर्माण के लिये भी वर्ग और उसके अंश विस्तार का प्रयोग किया।

सरस्वती सभ्यता, मोहनजोदड़ो में जो अग्नि मन्दिर मिला है, उसकी क्षैतिज योजना बहुत कुछ वास्तुमंडल की योजना से मिलती है:

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temple_symbloism_mahamaryada_sreenivasrao_sulekhaअंतत: प्रकृति की फ्रैक्टल योजना से जुड़ने वाली ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’ की वैदिक धारणा को भी वर्ग विभाजन clip_image008द्वारा आसानी से व्यक्त किया जा सकता है। अनेक लघु वर्ग लघु देवों या सम्भावनायुक्त विलक्षण पुरुषों को व्यक्त करते स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त होने के साथ ही एक विराट ब्रह्मस्वरूप बाहरी वर्ग को भी दर्शाते हैं। आश्चर्यजनक रूप से एक ही आकार की बारम्बारता द्वारा बड़े आकार के सृजन के चित्र बहुत प्राचीन भारतीय शैलचित्रों में भी मिलते हैं।

विराट वर्ग को विभाजित कर समरूप 2x2, 4x4, 6x6, 8x8 … या विषमरूप 3x3,5x5,7x7, 9x9 … ग्रिड बनाये जाते थे। प्रतिष्ठित देवताओं की संख्या, मुख्य देव के लिंग, निर्माण की धनराशि, समय आदि तमाम कारकों के प्रभाव में विभाजन बढ़ता जाता था। बाइनरी सहस्र संख्या यानि 1024 संख्या वाला ग्रिड सबसे उत्तम माना गया और दक्षिण के कुछ मन्दिरों में इसके अनुप्रयोग के प्रमाण हैं किंतु व्यावहारिक दृष्टि से मुख्य देवता के स्त्री या पुरुष होने पर क्रमश: 64 (8x8) या 81 (9x9) के ग्रिड अधिक प्रचलित रहे।
यहाँ यह जानना रोचक होगा कि हजारों वर्ष पुराने अथर्ववेद (9.3.21) में भी दो, चार, छ:, आठ या दश पक्षों की शाला और स्त्री सदन का वर्णन है जिनमें अग्नि वैसे ही निवास करती है जैसे गर्भ में हो।
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ग्रिफिथ ने पक्ष का अर्थ facade किया है। दो facade वाली शाला मुझे समझ में नहीं आई। वास्तव में निर्माण में 2,4,6,8,10 आदि के वर्गमंडल और गर्भगृह में अग्नि स्वरूप तेजस्वी देवता की अवधारणाओं के बीज यहाँ हैं।

अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि प्रकृति, जलवायु और परिवेश निरीक्षण, सहज समझ और ज्यामितीय अनुकूलन के आधार पर जो कुछ ईसा से हजारो वर्ष पूर्व विद्यमान था वही विकसित होते हुये जटिल और विशाल वास्तु शास्त्र का रूप ले सका।

वर्ग संख्या और उसके सम या विषम होने के आधार पर कई प्रकार के वास्तुमंडल हुये, जिनमें कुछ निम्नवत हैं:

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इस विन्यास में फ्रैक्टल योजना सहज ही आ जाती है। सामान्यत: मंडूक या परमशायिका मंडलों का प्रयोग मन्दिर विन्यास में किया जाता है। केन्द्रस्थ चार या नौ वर्ग ब्रह्मा के स्थान होते हैं जहाँ मुख्य देव का पूजन विग्रह स्थापित होता है। बाहरी वर्ग गर्भगृह की दीवारों, प्रदक्षिणा पथ (यदि हो) और उसके घेरे के लिये प्रयुक्त होते हैं। स्थापति मूल मंडलों को और छोटे छोटे वर्गों में विभाजित कर वास्तुविन्यास, कलाकारी और संयोजन में लचीलेपन की ढेरों और जटिल सम्भावनाओं का सृजन कर लेते हैं।
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कोणार्क मन्दिर जिस कलिंग  शैली (कुछ विद्वान इसे उत्तरभारतीय नागर शैली की एक उपशैली भी कहते हैं) में बना है उसकी क्षैतिज योजना में प्रवेश से प्रारम्भ कर ये संरचनायें होती हैं:

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(1) नटमन्दिर या नृत्यमंडप - यहाँ देवदासियों द्वारा नृत्य और ललित कला आयोजन होते हैं।
(2) भोगमंडप या यज्ञशाला - यहाँ देवता की भोगसामग्री का प्रबन्धन होता है।

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(3) जगमोहन या मुखशाला या सभामंडप - यहाँ आराधना, देव अनष्ठान, शास्त्रार्थ, विमर्श, कर्मकांड या अन्य ऐसे आयोजन होते हैं।
(4) गर्भगृह या देउल - यहाँ मुख्य देवता विराजते हैं। इस पर शिखर सबसे ऊँचा होता है। 

प्रथम दो संरचनायें वास्तविक मंडप होती हैं यानि इनका शिखर केवल स्तम्भों पर आधारित होता है और चारो ओर से घेरा खुला होता है।
जगमोहन में दीवारें होती हैं जिनमें द्वार और खिड़कियाँ भी लगाई जाती हैं यानि इसे एक बहुत बड़े कमरे की तरह माना जा सकता है।
गर्भगृह का क्षेत्रफल जगमोहन की तुलना में बहुत कम होता है जिसमें एक लघुद्वार और शीर्ष कलश से होते ध्वज तक जाती बहुत पतली नलिका के अतिरिक्त सब बन्द होता है।
सामान्यत: नटमन्दिर मूल मन्दिर के  जनप्रिय हो जाने के बाद ही बनाया जाता था। देवविग्रह से विवाहित और आजन्म पुरुषों से दूर रह देवता को रिझाने के लिये सांस्कृतिक कार्यक्रम करने वाली देवदासियाँ कालांतर में राजसत्ता और पुजारियों के भ्रष्टाचार की शिकार होती चली गईं। परिणामत: यह व्यवस्था भी घृणित हुई। लोकप्रतिष्ठा में कमी, घृणा और समृद्धि के क्षरण के चलते यह प्रथा लगभग समाप्त ही हो गई।

कोणार्क मन्दिर में नटमंडप और भोगमंडप एक ही संरचना में थे जो कि मुख्यमन्दिर की पीठ (plinth) से अलग पीठ पर बनी थी।
यूनेस्को के जिन अभिपत्रों में इसे विश्व धरोहर संख्या 246 घोषित किया गया है, उनमें यह मानचित्र मिलता है:
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इसके पैमाने की जाँच मैंने उपलब्ध मापों, गुगल मैप और स्वयं के कुछ पदमापों से कर ली है। मापन के समस्त परिमाणों और उनके आपसी अनुपातों के बारे में बाद में बातें करेंगे। पहले यह देख लें कि किस तरह से वर्ग वास्तुमंडलों के प्रयोगों और संयोजनों द्वारा क्षैतिज योजना विकसित की गई। इसके लिये मैंने इस मानचित्र के ऊपर ग्राफ को चिह्नित कर भिन्न भिन्न रंगों में वास्तुमंडल अनुप्रयोग दर्शाये हैं:
SQUARE_GEOMETRYवर्गों की स्थिति अलग अलग दर्शाने के लिये उन्हें थोड़ा थोड़ा हटा दिया है।
  • लाल  – गर्भगृह
  • केसरिया – जगमोहन
  • नीला (तीन) - मुख्य मन्दिर की दीवारों से लगे उदय, मध्याह्न, अस्त सूर्यप्रतिमाओं के लघु मन्दिर।
  • हल्का धानी - पीछे के उपमन्दिर को घेरे जगमोहन के केन्द्र तक
  • बैगनी - जगमोहन और गर्भगृह का घेरा। ध्यान दें कि यह धानी घेरे के बराबर है।
  • गुलाबी - उपमन्दिरों की आंतरिक सीमाओं का जगमोहन की मुख्य बाहरी दीवारों से संरेखण दर्शाता है।
  • हरा - यह दीर्घ आयत कई लघु वर्गों से बना है और नटमन्दिर तक जाता है।
  • मुखशाला के आगे खिंची गहरी कथई रेखा नवग्रह प्रतिमाओं के पैनल की स्थिति दर्शाती हैं जो कि 12 हाथ आगे लौह धरनियों (beam) पर स्थापित था और बहुत पहले मराठा राजाओं द्वारा उतारा जा कर अन्यत्र पूजित है। लौह कर्म और नवग्रहों की चर्चा आगे करेंगे। 
ध्यान से देखें तो तीनों उपमन्दिरों के मध्य बिन्दु एक समकोण त्रिभुज का निर्माण करते हैं जिनके दर्पण बिम्ब त्रिभुज का शीर्ष ठीक उस गलियारे के मुहाने पर समाप्त होता है जहाँ से गर्भगृह का द्वार खुलता है। यह गूढ़ तांत्रिक संकेत है जिसकी चर्चा बाद में करेंगे।
पूर्वाभिमुख नटमन्दिर के चार चार स्तम्भों के ग्रिड से होती सूर्य किरणों के चार सम्भावित पथ 1,2,3, और 4 दर्शाये गये हैं। आप देख सकते हैं कि गर्भगृह तक ये किरणें अबाध रूप से पहुँच सकती हैं। सूर्य के उत्तरायण से दक्षिणायन होने और संक्रांति बिन्दुओं पर उसकी स्थिति के अनुकूल ही इन स्तंभों का स्थान, विन्यास और मोटाई रखी गई। किसी नियत पवित्र दिन को सूर्योदय के पश्चात प्रात: के कुछ मिनटों में नृत्य/भोगमंडप में किरणों के खगोलीय ऋतुनृत्य सुनिश्चित कर दिये गये ताकि वे मुख्य प्रतिमा का अभिषेक कर सकें। ऐसी किरणों का मार्ग देख जो कि गर्भगृह तक पहुँचती हों या नृत्यमंडप के चुनिन्दा स्तम्भों के सहारे नृत्यरत हों, दर्शनार्थी अंतरिक्ष में सूर्य के मार्ग से भी अवगत रहते थे।
 
प्रश्न यह उठता है कि इतनी परिशुद्धि के साथ इतना विशाल खाका भूमि पर कैसे उकेरा जाता था? इसका उत्तर ज्यामिति में है। मन्दिरों का खाका या वास्तुमंडलसमूह दिशाओं के सापेक्ष भूमि पर उकेरे जाते थे क्यों कि प्रकाश और वायु की उपलब्धता इस पर निर्भर थी। साथ ही दिशायें देवताओं और पंचमहाभूतों के संतुलन से भी सम्बन्धित थीं।
यह जानना भी रोचक होगा कि दिशा अंकन की परिशुद्धता कैसे सुनिश्चित की जाती थी? इसके लिये इस तथ्य का प्रयोग होता था कि सूर्य प्राची में उदित होता है और पश्चिम में अस्त। उन्हें यह भी पता था कि वर्ष में विषुव (equinox) नामधारी दो दिनों को ही सूर्य वास्तविक पूरब और पश्चिम में उदय अस्त होता है। बाकी दिनों के लिये सूर्य की आभासी गति के अनुसार संशोधन उन्हें पता थे।
अगले अंक में अंकन विधि। (जारी)
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आभार और स्रोत:
सुभाष काक, श्वेता वार्डिया, श्रीनिवासराव, बॉबी बनर्जी, अथर्वण संहिता और अन्य कई
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13 टिप्‍पणियां:

  1. स्वतंत्रता दिवस महोत्सव पर बधाईयाँ और शुभ कामनाएं

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    1. आप को और अन्य सभी मित्रों को भी बधाइयाँ। ... मुझे आशा थी कि आप लेख पर भी कुछ कहेंगी, 15 अगस्त सन्देश तो ई मेल से भी दिया जा सकता है :(
      ...खैर, कोई बात नहीं जी।

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  2. हजारों हजार टन उलझे सूत्र को सुलझाने का दूरह श्रम है यह तो!!
    सुलझाना ही नहीं उसे उसके हर छोटे बिन्दु पर मूल स्वरूप में पुनः बुनना है। समझना भी दिमाग की नसों की सलवटें निकालने सम श्रम का कार्य है फिर भी विद्यार्थीपन में टिके रहने का प्रलोभन सवार है।

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  3. मुझे तो १०-१५ मिनट में पढ़ के लिखने में भी अजीब लग रहा है। आपके इतने श्रम, इतने शोध को बड़े आराम से पढ़ के "वाह" कह निकल लेने का जी नहीं करता।
    आज ED और survey labs में बिताये गए अतिरिक्त घंटे याद हो आए।

    बहुत आभार आचार्य! :)

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    1. :) सत्य वचन कविवर !
      जब शब्दों के खिलाड़ीयों के पास ही शब्द कम पड़ जा रहे हैं इस श्रृंखला पर टिपण्णी करने में. तो हम तो क्या ही कहें !

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  4. बेहद जटिल लगती हैं ये गणनाएँ.
    हमारे पूर्वज बहुत ही बुद्धिमान और गणित में विद्वान हुआ करते होंगे.
    मुझे तो इतना ही समझने में लग रहा है मैं कितनी ज्ञानवान हो गयी हूँ.

    अद्भुत जानकारी और आप की मेहनत तो इस श्रृंखला में दिखाई दे ही रही है ,

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  5. जितना समझते है, उतना उलझते हैं...कुछ भी हो समझकर ही मानेंगे। आश्चर्य है कि परिधि कैसे मापी होगी?

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    1. परिधि मापन की विधि बहुत आसान थी। प्रारम्भ में दिये अंग्रेजी पृष्ठों के चित्र को क्लिक कर बड़ा कर देखें। भास्कराचार्य ने विधि बता रखी है।

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  6. बेहतर संकलन और प्रस्तुति !!

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  7. पता नहीं आपका ब्‍लॉग अपडेट कैसे चूक गया, आज ही देखा है, अभी समझने में कुछ वक्‍त लगेगा। फिर टिप्‍पणी करूंगा। अभी की टिप्‍पणी तो केवल उपस्थिति मात्र की सूचना है... :)

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  8. भोजपुरी 'पोरिसा' भर पानी में डूब कर 'पुरुष' की लम्बाई याद आई .
    'तीन-पांच'.... शायद पञ्च तत्व गुन तीनी चदरिया है.
    आज मन से पढ़ने बैठा हूँ .
    हम भाग्यशाली हैं कि इतिहास की पुनर्रचना के गवाह हैं , आपसे बोलते-बतियाते .

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    1. पुरुष > पोरसा ... क्या बात है भइया!तिया पाँचा पर थोड़ा और 'लैट' मारिये न!

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  9. मंदिर की संरचना पर आपका शोध काबिले तारीफ है। (हालांकि काबिले तारीफ इसके लिए छोटा शब्‍द है लेकिन अभी इसी से काम चला लें... बाकी तारीफ आगे के लिए सुरक्षित है)

    बहुत साल पहले एक शोधकर्ता का भाषण सुना था। एक घंटे में उन्‍होंने भारत के पिछले एक हजार साल में मंदिरों की मूल संरचना में हुए बदलावों के बारे में विस्‍तार से जानकारी दी थी। इसमें जैन मंदिरों का विशेष उल्‍लेख था। जैन मंदिर इसलिए क्‍योंकि उन मंदिरों को बाहरी आतताइयों ने कुछ विशिष्‍ट कारणों से छेड़ा नहीं था।

    उस भाषण को पूरा तो मैं याद नहीं कर पा रहा हूं, लेकिन मेरे दिमाग में एक मोटी छवि यह बनी कि मंदिरों की संरचना कभी एक जैसी नहीं रही है। आदिकाल में जो मंदिर बन रहे थे, उनमें गर्भगृह को इस प्रकार चारों ओर से घेरा नहीं जाता था। बाद में गर्भगृह के आगे के निर्माण कार्य होने, सामाजिक आयोजनों के केन्‍द्र बनने, सत्‍ता के लोगों के आसन लगने के कारण गर्भगृह का चेहरा एक ही हो गया, बाकी तीन कपाट धीरे धीरे बंद होते गए। सूर्य मंदिर के लिए हो सकता है कि निर्माणकर्ताओं ने सूर्य की रश्मियों के साथ तादात्‍म्‍य बैठाने के लिए इसके गर्भगृह को केवल पूर्व की ओर रखा हो, लेकिन शुरू से ऐसा नहीं होता था।

    इसी के साथ मंदिर की मुख्‍य संरचना, यादि गर्भगृह, उसके आगे (चारों ओर) का स्‍थान, इस प्रकार बना होता था कि हर कोण से साम्‍य में रहता था। बाद के मंदिरों में यह चीज लुप्‍त हो गई और मंदिर की मुख्‍य संरचना में चार के बजाय अधिक कोणों ने प्रवेश लेना शुरू कर दिया...

    उन प्रोफेसर का नाम भी भूल गया, मेरा एक मित्र साथ में था, किसी दिन उससे पूछकर बताउंगा, उन प्रोफेसर ने इस क्षेत्र में शानदार शोध किया है..

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