वास्तुमंडल को सम्यक दिशाओं में स्थापित करने के लिये इस तथ्य का प्रयोग किया जाता था कि सूर्य पूर्व में उदित होता है और पश्चिम में अस्त। यद्यपि वर्ष की दो विषुव तिथियों को छोड़ सूर्य की आभासी गति वास्तविक पूर्व और पश्चिम के मार्ग नहीं चलती और विषुवत वृत्त के सापेक्ष अक्षांश स्थिति के अनुसार उत्तर या दक्षिण की ओर झुकी रहती है; प्रारम्भिक उकेरण के लिये मध्याह्न (दुपहर) के पहले और पश्चात क्रमश: पश्चिम और पूर्व की ओर लम्बवत गड़े दंड की पड़ने वाली छाया पर्याप्त थी। इस काम के लिये जिस यंत्र का प्रयोग किया जाता था उसे ज्यामितीय समानता के कारण 'शंकु यंत्र’ (पश्चिम के gnomon का समतुल्य) कहा जाता था।
शंकु यंत्र वृत्ताकार आधार पर लम्बवत द्ंडिका को स्थापित कर बनाया जाता था। आधार का व्यास और दंडिका की ऊँचाई समान होते थे। सोलह अंगुल माप के यंत्र अधिक प्रचलित थे।
शुल्ब सूत्रों में वर्णित ज्यामिति और सरल गणित के प्रयोग द्वारा जटिल यज्ञ वेदियों की रचना की बात पहले बताई जा चुकी है। कात्यायन शुल्ब सूत्र (2200-2300 वर्ष पूर्व?) में शंकु यंत्र और उसके छाया प्रयोगों द्वारा पूर्व और पश्चिम दिशाओं का अंकन करने की विधि बताई गई है। वृत्त की परिधि पर दुपहर के पूर्व एवं पश्चात के छाया विन्दुओं को मिलाने से पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं का उपगत अंकन कर लिया जाता था।
कात्यायन पूर्व पश्चिम रेखा के छोरों से रस्सी तान कर उसे क्रमश: उत्तर और दक्षिण की ओर खींच कर बनाये गये दो समद्विवाहु त्रिभुजों के शीर्षों द्वारा इन दिशाओं का निर्धारण करते हैं तो आपस्तम्ब मिस्री निर्माताओं के 'स्केल विभाजन' की भाँति ही वितस्ति के समान यानि 12 अंगुल माप के समकोणीय विभाजनों की युक्ति अपनाते हैं (5/12, 12/12, 13/12)।
शुल्ब सूत्रों के युग से प्रारम्भ हो आर्यभट, वाराहमिहिर, लल्ला, भास्कराचार्य के हाथों प्रयुक्त होते हुये यह शंकु यंत्र अठारहवीं सदी (प्र.सं) में जयपुर में बनी वेधशाला तक पिष्ठक, छायायंत्र, सूची आधार, चक्रादि रूप लेता रहा किन्तु विधि वही रही। उज्जैन की वेधशाला में शंकु यंत्र का बड़ा रूप आज भी उपलब्ध है जिसके प्रयोग द्वारा सूर्य के गति पथ पर दृष्टि रखी जाती है।
सूर्य के झुकाव के कारण दिशा निर्धारण में हुई त्रुटि के शोधन की एक विधि:
- एक ही समय पर आगे पीछे के दो दिनों में छाया बिन्दुओं का अन्तर साठ घटिका (आज के चौबीस घंटों) का छाया अंतर होगा।
- पहले दिन के पूर्वी और पश्चिमी छाया बिन्दुओं के बीच के समयांतराल को छाया अंतर से गुणा करें। गुणनफल को साठ से भाग दें। भागफल उस समय के लिये छाया अन्तर को व्यक्त करेगा।
- अब दूसरे दिन के छाया अन्तर को ध्यान में रखते हुये पूर्व या पश्चिम बिन्दुओं में से किसी एक को उत्तर या दक्षिण की ओर छाया अन्तर के सम दूरी खिसका दें। खिसकाने के लिये दिशा चयन इस पर निर्भर होगा कि सूर्यदेव उत्तरायण में हैं या दक्षिणायन में।
कालान्तर में आर्यभट ने कोण, समय और ज्या सारिणी का प्रयोग करते हुये और परिशुद्ध विधि बताई। वर्ग को अनेक गुना विस्तारित करने की विधि तो शुल्ब सूत्र के समय से ही ज्ञात थी जिसके कारण लघु अंकन को पूर्ण आकार की क्षैतिज योजना का रूप देने में कोई कठिनाई नहीं होती थी।
वास्तुमंडल को दिशा अंकन के समय ही संयोजित किया जाता था। अनेक वर्गों वाले वास्तुमंडल और निर्माण की बाहरी सीमा परिशुद्धि के साथ अंकित करने की आवश्यकता के कारण ज्यामिति किंचित जटिल हुई और आधार वृत्त के साथ दूसरे वृत्त भी प्रयुक्त किये जाने लगे :
और यह रहा वास्तुमंडल का संयोजन :
भिन्न भिन्न परिमापों के वास्तुमंडल एक दूसरे से सटा कर इच्छित ऐक्षिक आरेखण में अंकित किये जाते और गर्भगृह, सभामंडप, नृत्यमंडप और भोगमंडपादि की संयुक्त क्षैतिज योजना भूमि पर अंकित हो जाती।
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- दक्षिण भारतीय मन्दिर एवं भवन स्थापत्य तंत्र - के. जे. ओइजेवार
- प्राचीन भारत के ज्योतिष यंत्र - शेखर नारवेकर
- हिन्दू स्थापत्य पर लेख - राम राज
अहा, बस हर बार यही उद्गार होते हैं आपका शोध पढ़ने के बाद।
जवाब देंहटाएंहम तो आनंद ले रहें हैं पढ़ के. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसादर
ललित
Kamaal hi kar rahe hain aap. Abhaar.
जवाब देंहटाएंदिशा निर्धारण का सूत्र खोज और सरल सहज प्रस्तुति!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
यह शोध पुस्तक रूप में कब प्रकाशित होगा ! काश तथाकथित शोधकों ने शोध विधि का पालन किया होता तो भारत का इतिहास मजाक ना बना होता !
जवाब देंहटाएंसूर्यसिद्धान्त के त्रिप्रश्नाधिकार: प्रकरण यथा ---- शिलातलेsम्बुसंशुद्धे वज्रलेपेsपि वा समे ......
का आपकी सहज शब्दावली में वर्णन इस विषय से संबद्ध होने के कारण पढ़ने को मिल जाये तो हम जैसे मूड मगजो के मगज का उद्धार हो जाये ! अगर इस प्रकरण को देने का आपका विचार न हो तो बालहठ के आगे ही झुक जाइयेगा :)
:) चलिये किसी ने तो सहज शब्दावली कहा!... बहुत काम हुआ है इस क्षेत्र में लेकिन आम जन तक पहुँच नहीं पाया है। मैं तो सेतुबन्ध की गिलहरी जैसा भी नहीं। इस शृंखला के लिये यही कहूँगा - तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोहे? ..गणित के पुराने ग्रंथों पर लिखने की बात मन में आती है लेकिन समयाभाव के कारण मन मसोस कर रह जाता हूँ। ऐसे कामों में बहुत समय लगता है और मस्तिष्क पर जोर भी।
हटाएंअभिषेक ओझा से कहता हूँ। यदि वह हाथ में ले लें गणित ग्रंथों पर काम तो क्या बात हो!
हैं! मैं सहज नहीं कहता?
हटाएंआपत्ति दर्ज करें आचार्य! ;)
ओझा जी से कहने की बात को हमारा भी समर्थन है।
आनंदित हुआ मन! लगा सूर्य रश्मियों ने ही खींचे हो वृत्त-कोण।
जवाब देंहटाएंइसे ख़त्म करेंगे तो रिक्त होगा मन, लत लगवा के एक दिन पटाक्षेप कर देंगे आचार्य! :(
खैर.. अभी तो अच्छा है, बहुत अच्छा!!
:):):)
हटाएंPRANAM.
:)
हटाएंइसे एक पुस्तक का आकार लेना ही चाहिए.
जवाब देंहटाएंअब इतनी मेहनत की है तो थोड़ी और कर ही दीजिये :)
सहमत .
हटाएंआम जन तक इन जानकारियों को पहुँचाने के लिए इन लेखों का एक पुस्तक के रूप में आना आवश्यक है.
बेशक ,बहुत श्रम और समय लगा है इन लेखों में आप का.
आभार .
सहमत तो मैं भी हूँ. अब आम जनता की बात की गयी है तो आपका यह "सहज" का मायने बदलना होगा.
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