... सरस्वती के साथ उसकी सभ्यता भी गई। उसके किनारों के वासी भटकते जन ने गंगा के पहले यमुना को जाना क्यों कि उसने सरस्वती का जल 'चुरा' लिया था। यमुना के सहारे वे गंगा तक पहुँचे; उन नाग, किरात आदि जनों के भू पर पहुँचे जो उनके साथ अल्प संख्या में आव्रजक के रूप में रहते थे। एक अभूतपूर्व संघर्ष, संलयन, समायोजन, विनाश और निर्माण का युग प्रारम्भ हुआ जिसमें निर्माण प्रभावी हुआ तो गंगा के कारण!
गंगा ने पवित्रता में सरस्वती का स्थान ले लिया। सरस्वती को गंगा यमुना संगम में 'लुप्त' कर उसकी स्मृति सर्वदा के लिये संरक्षित कर दी गयी - यह सांस्कृतिक बोध था जिसमें न भौगोलिक सच था और न ऐतिहासिक तर्क किंतु वह हजारो वर्षों तक जीवित रहने वाली थी।
महाविनाश को काव्य रूपकों में पुराणों और ब्राह्मणों में संरक्षित कर दिया गया। आम जन महाध्वंस के विलाप में बझे रहते तो पीढ़ियाँ जीवन यात्रा को आगे कैसे बढ़ा पातीं? जिजीविषा वाला उत्साह ही चुक जाता! लेकिन उस युक्ति में एक दोष था - विस्मृति का। लोग सरस्वती के सूखने से हुये महाविनाश को ही भूलते गये और नदी के जीवन को जनजीवन से जोड़ने वाली नेहधारा सूखती गयी।
गंगा माँ थी, देवी थी और भगीरथ प्रयत्न के कारण धरती पर स्वर्ग की अमरता भी ले आयी थी। वह मर नहीं सकती थी। लोग भूल गये कि नदियाँ अमर नहीं होतीं।
हजारो वर्षों के पश्चात विकास और औद्योगिक क्रांति का बिगुल यहाँ भी फूँका गया। संतान का मल भी सहने वाली माँ जैसी और अति विशाल धारा वाली समर्थ गंगा के लिये सीवर क्या चीज? गंगा सभ्यता की गन्दगी से बजबजाने लगी। जलचर सभ्यता के विष से लुप्त होने लगे।
ग्राम नगर, नगर महानगर होते गये। जनसंख्या के विस्फोट ने अन्न के अधिक उपज की आवश्यकता बताई तो सहायक नदियाँ बाँधी जाने लगीं, नहरें निकाली जाने लगीं और अन्न उगलती भूमि अति सिंचन से भीतर ही भीतर ऊसर होती चली गयी। विद्युत की आवश्यकता ने स्रोत की धाराओं से भी खिलवाड़ किया, गंगा मरण शय्या पर पड़ गई। उसकी स्थिति पर त्राहि त्राहि मचाने वालों की कोई सुनवाई नहीं थी। अनशन करते एकाध सिरफिरे मरे भी किंतु प्रगति की बाढ़ के लिये ऐसी बलियाँ तो लेनी ही होती थीं! उन्हें प्रतिक्रियावादी विगत युग के आदी कह कर चौराहों की प्रतिमाओं में गढ़ दिया गया जिन पर नेतृत्त्व कपोत मलमाल चढ़ाया करते थे।
दूर पूर्व में ब्रह्मपुत्र को चीन के ब्रह्मा ने अपने कमंडल में बाँध लिया था। सदानीरा, गंडक, सरयू आदि सभी अन्य नदियाँ नेपाल और हिमालय के रास्ते चीनी दोहन से कर्मनाशा सरीखी हो गयी थीं।
उस समय गंगा की पापी संतानों को चेताने वाले कल्पनाधुरन्धर ऋषि नहीं थे। बौद्धिकता के आतंक में लोग जीवनदायी कल्पनायें भूल गये थे। कल्पना वास्तविकता से कटी सोसल साइटों में बन्दी थी, हर व्यक्ति कम से कम दो संसारों में जी रहा था, अधिक की कोई सीमा नहीं थी। गंगा वाला संसार प्राथमिकता में सबसे नीचे था हालाँकि उसे लेकर और संसारों में बौद्धिक बकवासें खूब चलती थीं।
गंगा को जिलाये रखने के लिये जो ग्लूकोज चढ़ाने के उपाय किये गये उनमें भी भ्रष्टाचार का विष था। उसकी स्थिति और खराब होती गयी
और एक दिन गंगा सरस्वती हो गयी!गंगा ने पवित्रता में सरस्वती का स्थान ले लिया। सरस्वती को गंगा यमुना संगम में 'लुप्त' कर उसकी स्मृति सर्वदा के लिये संरक्षित कर दी गयी - यह सांस्कृतिक बोध था जिसमें न भौगोलिक सच था और न ऐतिहासिक तर्क किंतु वह हजारो वर्षों तक जीवित रहने वाली थी।
महाविनाश को काव्य रूपकों में पुराणों और ब्राह्मणों में संरक्षित कर दिया गया। आम जन महाध्वंस के विलाप में बझे रहते तो पीढ़ियाँ जीवन यात्रा को आगे कैसे बढ़ा पातीं? जिजीविषा वाला उत्साह ही चुक जाता! लेकिन उस युक्ति में एक दोष था - विस्मृति का। लोग सरस्वती के सूखने से हुये महाविनाश को ही भूलते गये और नदी के जीवन को जनजीवन से जोड़ने वाली नेहधारा सूखती गयी।
गंगा माँ थी, देवी थी और भगीरथ प्रयत्न के कारण धरती पर स्वर्ग की अमरता भी ले आयी थी। वह मर नहीं सकती थी। लोग भूल गये कि नदियाँ अमर नहीं होतीं।
हजारो वर्षों के पश्चात विकास और औद्योगिक क्रांति का बिगुल यहाँ भी फूँका गया। संतान का मल भी सहने वाली माँ जैसी और अति विशाल धारा वाली समर्थ गंगा के लिये सीवर क्या चीज? गंगा सभ्यता की गन्दगी से बजबजाने लगी। जलचर सभ्यता के विष से लुप्त होने लगे।
ग्राम नगर, नगर महानगर होते गये। जनसंख्या के विस्फोट ने अन्न के अधिक उपज की आवश्यकता बताई तो सहायक नदियाँ बाँधी जाने लगीं, नहरें निकाली जाने लगीं और अन्न उगलती भूमि अति सिंचन से भीतर ही भीतर ऊसर होती चली गयी। विद्युत की आवश्यकता ने स्रोत की धाराओं से भी खिलवाड़ किया, गंगा मरण शय्या पर पड़ गई। उसकी स्थिति पर त्राहि त्राहि मचाने वालों की कोई सुनवाई नहीं थी। अनशन करते एकाध सिरफिरे मरे भी किंतु प्रगति की बाढ़ के लिये ऐसी बलियाँ तो लेनी ही होती थीं! उन्हें प्रतिक्रियावादी विगत युग के आदी कह कर चौराहों की प्रतिमाओं में गढ़ दिया गया जिन पर नेतृत्त्व कपोत मलमाल चढ़ाया करते थे।
दूर पूर्व में ब्रह्मपुत्र को चीन के ब्रह्मा ने अपने कमंडल में बाँध लिया था। सदानीरा, गंडक, सरयू आदि सभी अन्य नदियाँ नेपाल और हिमालय के रास्ते चीनी दोहन से कर्मनाशा सरीखी हो गयी थीं।
उस समय गंगा की पापी संतानों को चेताने वाले कल्पनाधुरन्धर ऋषि नहीं थे। बौद्धिकता के आतंक में लोग जीवनदायी कल्पनायें भूल गये थे। कल्पना वास्तविकता से कटी सोसल साइटों में बन्दी थी, हर व्यक्ति कम से कम दो संसारों में जी रहा था, अधिक की कोई सीमा नहीं थी। गंगा वाला संसार प्राथमिकता में सबसे नीचे था हालाँकि उसे लेकर और संसारों में बौद्धिक बकवासें खूब चलती थीं।
गंगा को जिलाये रखने के लिये जो ग्लूकोज चढ़ाने के उपाय किये गये उनमें भी भ्रष्टाचार का विष था। उसकी स्थिति और खराब होती गयी
गंग क्षेत्र के वासियों के लिये आव्रजन ही एकमात्र विकल्प बचा लेकिन राह दिखाने को कोई यमुना नहीं थी। उनके उपग्रह भी धरा के नीचे बहती किसी धार को ढूँढ़ पाने में असमर्थ थे। विन्ध्य पार के क्षेत्र और दक्षिणावर्त तो पहले ही दुर्भिक्ष की मार के कारण अल्पजनी हो गये थे।
ऐसे में नयी धुरी के एक राष्ट्रसमूह ने अपने अत्याधुनिक अस्त्र के परीक्षण के लिये हिमालय के दक्षिण के क्षेत्र को सबसे उपयुक्त माना। राष्ट्रसंघ में औपचारिक अनुमोदन लेने के पश्चात सम्पूर्ण मानव जाति के व्यापक हित में परीक्षण किया गया और अदृश्य कृत्या ने पशु, पक्षी, मत्स्य, वृक्ष आदि सबके प्राण कुछ पलों में ही हर लिये।
आज वह विशाल भूमि संसार के सभी तरह के हानिकर वस्तुओं के उत्पादन की केन्द्र है। उसकी प्राचीन गाथाओं को चन्द विद्रोहियों के सर्वर डीप वेब पर सुरक्षित रखे हुये हैं। आम इंटरनेट और पुस्तकालयों आदि में कहीं भी उनके बारे में कुछ भी उपलब्ध नहीं है। सिंडिकेट संचार तंत्र उन्हें मिथक बताते हैं।
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http://aajtak.intoday.in/story/muse-muse-detected-in-the-hell-did-1-724211.html
सरस्वती का अस्तित्व अब वैज्ञानिक सत्य है, पर दबा कर रखा गया है, न जाने किस कारण। कहीं सरस्वती का इतिहास भी सरस्वती की तरह लुप्त न हो जाये।
जवाब देंहटाएंदुखद , दुर्भाग्यपूर्ण , न चेते तो संभवतः यही हो.....
जवाब देंहटाएंयही होगा, दुर्भाग्य से ऐसे ही आसार बन रहे हैं।
जवाब देंहटाएंनदियाँ अमर नहीं होतीं..यह लोग भूल गए हैं...तभी गंगा आज मरण शय्या पर है.
जवाब देंहटाएंसच है ,किसी सिरफिरे की बलि भी इसका उद्धार नहीं कर सकी है.
उपेक्षित भागीरथ नंदनी की सुध कौन लेगा?
सरस्वती हो जाना गंगा का भविष्य है तो बेहद दुखद है ...
आने वाली पीढ़ियों के लिए इसे संरक्षित रखने के लिए प्रयत्न करने ही होंगे.
ज्ञान के स्वर्णकाल के सारस्वतों ने अपने ठिकाने छोड़ते समय सर्वस्व कला और ज्ञान को श्रद्धा के साथ सरस्वती में मूर्तरूप कर दिया था लेकिन तब गांगेय क्या करेंगे? [अभी क्या कर रहे हैं]
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जब जब भी जमीन पर पानी गिरेगा... बारिश, ओले, पाले या बर्फ के रूप में, उसका कुछ हिस्सा जमीन सोख लेगी और कुछ हिस्सा बह निकलेगा, निचले धरातल की ओर... धार बनेगी, नाले, बरसाती नदियाँ, सहायक नदियाँ और फिर गंगा-जमना सी सदानीरा नदियाँ भी... ऐसे में यह हैरान कर देने वाला है कि सरस्वती जैसी कोई नदी थी, जो बरसात में भी उजागर नहीं होती आज... कैसे संभव है यह... लगता है कि पूरे उपमहाद्वीप की टोपोग्राफी ही बदल गयी अचानक... गंगा वहीं रही, जमुना वही रही, पर सरस्वती गायब हो गयी... दूर की कौड़ी है यह...
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:) दूर की कौड़ी नहीं ऐतिहासिक सत्य है। रिमोट सेंसिंग से अंत:सलिला सरस्वती का उद्गम से लेकर सागर से मिलने तक का मार्ग अब सिद्ध है। स्थान स्थान पर मरुस्थल में उसके अक्विफर ऊपर बहते रहे हैं/बह रहे हैं।
हटाएंटेक्टॉनिक पर्यवेक्षणों ने यमुना और शतद्रु(सतलज) द्वारा सरस्वती का पानी चुराया जाना भी सिद्ध कर दिया है। भूकम्प और भूगर्भीय गतिविधियों के कारण सरस्वती के सोतों की दिशा बदली और छोटी नदी यमुना विशाल हो गयी, शतद्रु भी सौ धाराओं वाली हो गयी।
सरस्वती के लुप्त होने के कई कारक थे और लोप भी शताब्दियों में हुआ। महाभारत काल में ही वह कुंडों में बची रह गयी थी जिनमें से 5 पवित्र स्यमंतपंचक के नाम से जाने जाते थे। साहित्यिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं।
आधुनिक प्रमाणों से युक्त समग्र विश्लेषण के लिये यह पुस्तक देखें:
The Lost River - Michel Danino.
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भूकम्प और भूगर्भीय गतिविधियों के कारण सरस्वती के सोतों की दिशा बदली और छोटी नदी यमुना विशाल हो गयी, शतद्रु भी सौ धाराओं वाली हो गयी।
यानी धरातल पर बदलाव हुऐ, सरस्वती का कैचमैन्ट एरिया बदल गया, वह लुप्त हुई और लाभ यमुना-सतलज को हुआ... परिवर्तन तो नियम ही है प्रकृति का... भूकम्प और भूगर्भीय गतिविधियों को नियंत्रित करने की क्षमता पाने में हमें अभी काफी वक्त लगेगा, तब तक इनके चलते नदियाँ सूखेंगी, रास्ता बदलेंगी और नयी नदियाँ बनेंगी भी... जब तक धरा पर पानी गिरता रहेगा, धरा के सोखने से बचा पानी रास्ता ढूंढ ही लेगा समुद्र तक पहुंचने का, नदियों के रूप में... अत: नाम भले ही बदल जायें पर नदियाँ रहेंगी... कम से कम तब तक तक जब तक पानी बरसना जारी रहेगा... स्थूल अर्थ में ड्रेनेज चैनल ही तो हैं यह... सभ्यतायें और भावनायें तो इंसान ने जोड़ दी इनके साथ...
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हाँ, ड्रेनेज चैनल ही हैं जैसे देश एक भूमि का टुकड़ा भर। मनुष्य के भीतर जीवन के परिवेश से भावनाओं को जोड़ उसे जीवंत रूप में देखने की प्रवृत्ति रही है। मातृभूमि, फादरलैंड या नदी के लिये वरदान का प्रयोग आदि प्रयोग उदाहरण हैं।
हटाएंऐसी प्रवृत्ति ठीक है या बेठीक, बेकार की भावुकता है या सम्वेदना; ये अलग विमर्श के विषय हैं।
मनुष्य जोड़े या न जोड़े, उसके अस्तित्त्व पर पड़ने वाले प्रभाव से बच नहीं सकता। तब प्राकृतिक कारण थे, अब मानवनिर्मित कारण जिनके आगामी खतरों से गल्प के माध्यम से आगाह किया है। वर्तमान तो बस कुछ कुप्रभावों से साक्षी भर है; यदि समय पर उचित कदम नहीं उठाये गये तो भयानक परिणाम आने वाली पीढ़ियाँ देखेंगी।
नदियों के स्रोत हिमनदों का सिकुड़ते जाना और पीछे हटना चिंता का विषय है। प्रेरित प्राकृतिक घटनायें जाने कैसे अवांछनीय प्रभाव लेंगीं!
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