संस्कृत के 'पिष्' धातु से बना है पिसाना जैसे गेहूँ पिसाना (कुछ लोग आटा भी पिसाते हैं!)। 'आटा पिसाने वालों' से ही प्रेरणा ले कर शब्द बना 'पिष्टपेषण'। पिसा हुआ कहलाता है पिष्ट और उसे भी पिसाने की बात हुई पिष्टपेषण माने व्यर्थ का श्रम या दुहराव भरा निरर्थक काम। तर्क वितर्क में व्यर्थ के विवाद के लिये भी इसका प्रयोग होता है।
पिसे हुये आटे को पानी या दूध में गूँथ कर गोल या चपटे आकार के उबले या तले खाद्य को 'पिष्टक' कहा गया। चावल के आटे से बनाये जाने पर पिष्टिक भी कहा जाता था। पूर्वी उत्तरप्रदेश और पश्चिमी बिहार का एक व्यंजन पिट्ठा इसी पिष्टक का अपभ्रंश है।
भरवा पिट्ठा आजकल 'युवाप्रिय' चीनी व्यंजन मोमो या नेपाली ममचा के तुल्य है। संस्कृतिकरण आर्थिक और औद्योगिक उन्नति एवं प्रभुता से भी निर्धारित होता है, पिट्ठा या ममचा की मोमो की तुलना में स्थिति इसे रेखांकित करती है।
मथने की क्रिया 'खज' कहलाती थी और दही को मथ कर निकलता है मक्खन। उससे बना घी कहलाता था 'खजपं'। विशिष्ट विधि से बेले हुये पिट्ठा को घी में तलने और शर्करा पाग में डुबोने के बाद बनाई गयी मिठाई के लिये जातक कथाओं में संज्ञा मिलती है - 'पिट्ठखज्जक'।
बताते हैं कि बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र को पिट्ठखज्जक इतना प्रिय था कि उन्हों ने उसे न खाने की शपथ ले ली क्यों कि वह उन्हें लालची बनाता था :) यह कुछ अपने जैसा मामला है। जो मुझे अधिक प्रिय होता है, उससे आगे चल कर सुरक्षित दूरी बना लेता हूँ ;)
यह 'पिट्ठखज्जक' ही आगे चल कर और घिस गया और लोग 'खाजा' या 'खाझा' कहने लगे। हजारो वर्षों पुरानी यह मिठाई आज भी मंगल कार्यों में देश के पूर्वी क्षेत्रों में बनती है। कन्या की बिदाई के समय लड्डू के साथ यह अनिवार्य है।
कूट पीस कर बनी तिल की मिठाई के लिये भी पिष्टक संज्ञा ही प्रयुक्त होती थी। आधे पिसे तिल से बनने वाली आज की मिठाई 'तिलकुट' इसी की परवर्ती संस्करण है। पाणिनी इसका नाम 'पलल' भी बताते हैं। यह भी उतना ही पुराना है।
ऋग्वेद में एक मिष्ठान्न चर्चित है 'अपूप'। देवताओं के प्रिय इस व्यंजन की उन्हें आहुति दी जाती थी और लोकखाद्य तो था ही।
कई नव्यताओं के सर्जक विश्वामित्र पहली बार इसे भुने अन्न और सोम के साथ इन्द्र को अर्पित करते हुये गाते हैं (3.52.1):ऋषि अपाला कहती हैं कि कन्यायें इन्द्र को अपूप अर्पित कर रोग मुक्त हो स्वस्थ और कांतिमयी यौवन सम्पन्ना होती हैं (8.91)।
ऋग्वेद में इन्द्र किसी एक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। यह बहुत ही व्यापक और बहुअर्थी शब्द है। इन ऋचाओं में इन्द्र का अर्थ देह की जीवनशक्ति से है जिसे उत्तम आहार द्वारा पुष्ट करना होता है। यह भी ध्यातव्य है कि एक स्त्री ऋषि ने कन्याओं के हित इसे प्रतिपादित किया है। इन्द्र को आहुति का अर्थ यज्ञकुंड में अपूप झोंकना नहीं है बल्कि सोमादि औषधीय वनस्पतियों के साथ प्रार्थना के पश्चात उसे स्वयं वैसे ही पाना है जैसे आजकल 'तुमहिं निवेदित भोजन करई' भावना के साथ आस्तिक जन भोजन ग्रहण करते हैं: इस अपूप का जातक कथाओं में भी खूब वर्णन है। आज का पुआ यही 'अपूप' है। इसे बनाने की विधि हजारो वर्षों से यथावत रही है। आटे को दूध में घोल कर घी में छान लिया जाता है और शर्करा पाग में डुबो दिया जाता है। इसमें एक गुण यह भी होता है कि कई दिनों तक बिना दुर्गन्धित हुये खाने लायक बना रहता है। इस गुण की ओर भी ऋग्वेद में संकेत है।
रबड़ी, खोया या मलाई के साथ खाये जाने के कारण बाद में पुआ के साथ 'माल' जुड़ गया होगा जिसमें सम्पन्नता यानि आज की बोली में रिच कैलोरी का भाव है – 'मालपुआ'।
यह होली का प्रमुख पकवान है और युवा गृहिणी का देहराग रूपक भी। यौवन से भरी पुरी देह लिये सहज सुन्दरी आकर्षणगुण सम्पन्ना मधुरा की कामपर्व के दिन इससे अच्छी रसोई क्या हो सकती है? रसिया के लिये चुनौती भी है - शक्ति है लाला तो...मेरे पुये खा कर दिखाओ!
(सभी चित्र सम्बन्धित साइटों से साभार) पिसे हुये आटे को पानी या दूध में गूँथ कर गोल या चपटे आकार के उबले या तले खाद्य को 'पिष्टक' कहा गया। चावल के आटे से बनाये जाने पर पिष्टिक भी कहा जाता था। पूर्वी उत्तरप्रदेश और पश्चिमी बिहार का एक व्यंजन पिट्ठा इसी पिष्टक का अपभ्रंश है।
भरवा पिट्ठा आजकल 'युवाप्रिय' चीनी व्यंजन मोमो या नेपाली ममचा के तुल्य है। संस्कृतिकरण आर्थिक और औद्योगिक उन्नति एवं प्रभुता से भी निर्धारित होता है, पिट्ठा या ममचा की मोमो की तुलना में स्थिति इसे रेखांकित करती है।
मथने की क्रिया 'खज' कहलाती थी और दही को मथ कर निकलता है मक्खन। उससे बना घी कहलाता था 'खजपं'। विशिष्ट विधि से बेले हुये पिट्ठा को घी में तलने और शर्करा पाग में डुबोने के बाद बनाई गयी मिठाई के लिये जातक कथाओं में संज्ञा मिलती है - 'पिट्ठखज्जक'।
बताते हैं कि बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र को पिट्ठखज्जक इतना प्रिय था कि उन्हों ने उसे न खाने की शपथ ले ली क्यों कि वह उन्हें लालची बनाता था :) यह कुछ अपने जैसा मामला है। जो मुझे अधिक प्रिय होता है, उससे आगे चल कर सुरक्षित दूरी बना लेता हूँ ;)
यह 'पिट्ठखज्जक' ही आगे चल कर और घिस गया और लोग 'खाजा' या 'खाझा' कहने लगे। हजारो वर्षों पुरानी यह मिठाई आज भी मंगल कार्यों में देश के पूर्वी क्षेत्रों में बनती है। कन्या की बिदाई के समय लड्डू के साथ यह अनिवार्य है।
कूट पीस कर बनी तिल की मिठाई के लिये भी पिष्टक संज्ञा ही प्रयुक्त होती थी। आधे पिसे तिल से बनने वाली आज की मिठाई 'तिलकुट' इसी की परवर्ती संस्करण है। पाणिनी इसका नाम 'पलल' भी बताते हैं। यह भी उतना ही पुराना है।
ऋग्वेद में एक मिष्ठान्न चर्चित है 'अपूप'। देवताओं के प्रिय इस व्यंजन की उन्हें आहुति दी जाती थी और लोकखाद्य तो था ही।
कई नव्यताओं के सर्जक विश्वामित्र पहली बार इसे भुने अन्न और सोम के साथ इन्द्र को अर्पित करते हुये गाते हैं (3.52.1):ऋषि अपाला कहती हैं कि कन्यायें इन्द्र को अपूप अर्पित कर रोग मुक्त हो स्वस्थ और कांतिमयी यौवन सम्पन्ना होती हैं (8.91)।
ऋग्वेद में इन्द्र किसी एक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। यह बहुत ही व्यापक और बहुअर्थी शब्द है। इन ऋचाओं में इन्द्र का अर्थ देह की जीवनशक्ति से है जिसे उत्तम आहार द्वारा पुष्ट करना होता है। यह भी ध्यातव्य है कि एक स्त्री ऋषि ने कन्याओं के हित इसे प्रतिपादित किया है। इन्द्र को आहुति का अर्थ यज्ञकुंड में अपूप झोंकना नहीं है बल्कि सोमादि औषधीय वनस्पतियों के साथ प्रार्थना के पश्चात उसे स्वयं वैसे ही पाना है जैसे आजकल 'तुमहिं निवेदित भोजन करई' भावना के साथ आस्तिक जन भोजन ग्रहण करते हैं: इस अपूप का जातक कथाओं में भी खूब वर्णन है। आज का पुआ यही 'अपूप' है। इसे बनाने की विधि हजारो वर्षों से यथावत रही है। आटे को दूध में घोल कर घी में छान लिया जाता है और शर्करा पाग में डुबो दिया जाता है। इसमें एक गुण यह भी होता है कि कई दिनों तक बिना दुर्गन्धित हुये खाने लायक बना रहता है। इस गुण की ओर भी ऋग्वेद में संकेत है।
रबड़ी, खोया या मलाई के साथ खाये जाने के कारण बाद में पुआ के साथ 'माल' जुड़ गया होगा जिसमें सम्पन्नता यानि आज की बोली में रिच कैलोरी का भाव है – 'मालपुआ'।
यह होली का प्रमुख पकवान है और युवा गृहिणी का देहराग रूपक भी। यौवन से भरी पुरी देह लिये सहज सुन्दरी आकर्षणगुण सम्पन्ना मधुरा की कामपर्व के दिन इससे अच्छी रसोई क्या हो सकती है? रसिया के लिये चुनौती भी है - शक्ति है लाला तो...मेरे पुये खा कर दिखाओ!
सुंदर प्रस्तुति. मालपुआ देखकर मुँह में पानी आ गया.
जवाब देंहटाएंहोली के स्वागत में सुन्दर आलेख.
जवाब देंहटाएंमीठी -मीठी पोस्ट.
जवाब देंहटाएंहमारी तरफ़ होली की ख़ास मिठाई गुझिया है.
खानपान का शाब्दिक आनन्द..
जवाब देंहटाएं:) होली है ...
जवाब देंहटाएंसोच ही रहे थे कि आज होली पर क्या बनाया जाये आपने तो आज मजा ला दिया, तो आज इन तीनों पकवानों में से एक पकवान तो बनाया ही जायेगा ।
जवाब देंहटाएंएक स्थान पर मिटाई टंकित हो गया है।
जवाब देंहटाएंशेष यह कि आलेख तो अपूप सैम ही स्वादिष्ट है।
ठीक कर दिया। धन्यवाद।
हटाएंहमारी और खीर-मालपुए का भोज प्रचलित है। विशेषकर किसी वयोवृद्ध के बैकुण्ठवास के पश्चात उसके अरष्टि भोज में सुद्ध घी के मालपुए और उनके साथ फीकी खीर। दिव्य भोजन!
जवाब देंहटाएंसुंदर और ज्ञानवर्धक
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