शुक्रवार, 29 मार्च 2013

जतिगो सम्हति

(1)   
बसंतपंचमी की तिजहर थी। सीरी बाबू निखहरे खटिया सिर के नीचे बाँह दे बाँई करवट ऊँघ रहे थे। बीच बीच में भिनभिनाती मक्खियों को हाँक भी दे रहे थे। दिन में भी लगते मच्छरों का उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता था, उनके बंडी, गमछा और धोती में खून के दाग प्रमाण थे। दूसरी ओर से आये खरहरा पंडित ने अपने इयार को चेताने को हल्के से खखार लगाई और बिना प्रतीक्षा किये ओनचन पर बैठ गये। वे सीरी बाबू के उपरोहित भी थे लेकिन यारी दोस्ती में धरम करम का क्या काम? सो पैंताने बैठने में कुछ भी ग़लत नहीं था।
ओनचन की चरचराहट और गोनतारी भार की आहट पा सीरी बाबू ने समझा कि कलुआ पिल्ला फिर से खटिया पर सवार हो गया है सो उन्हों ने आदतन लात चला दिया। निर्दोष लात खा कर पंडित ने जो दुरबासा डाँट लगाई उसका संक्षेप यही था कि बिना सोचे समझे लात हाथ चलाने के कारण ही सीरी का सन्स बरक्कत सब सफाया होता जा रहा है।
कहना न होगा कि सीरी की नींद हवा हो गयी। चेतन हो उन्हों ने कल्पित पिल्ले की माँ से अपना नाता जोड़ते हुये प्रास्चित किया और खरहरा पंडित की बगल में ही बैठ कर उनकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। उस समय कोई इन दोनों को देखता तो महामूर्ख कहता – सगर खटिया छोड़ गोनतारी ओनचन पर जो बैठे थे!
अद्धी की जेब से पंडित ने जनेऊ निकाला और इयार के हाथ में थमा दिया। दोनों लगभग पचपन पार कर चुके थे और पंडित की मानें तो समूची बाबू पट्टी में जनेऊ पहनने वाले सीरी बाबू एकमात्र ‘जुवा’ बचे थे। उनसे कम उमर के जन नहीं पहनते थे। कमोबेश बभनटोली में भी यही हाल था, बस आयुसीमा पैंतिस के आसपास की होगी। पंडित इन सबको बिप्रजोनिसूदा कहते थे।
पंडित ने अपनी खरहरा दृष्टि आसपास की छतों की ओर दौड़ाई तो बबुआने की अलग अलग छतों पर तीन लड़कियाँ मोबाइल पर लोर झोर बतियाते दिखीं। बिना सुने ही पंडित ने अनुमान लगा लिया कि किनसे क्या बातें हो रही होंगी। पंडित जानते थे कि उनके चलित्तर ठीक नहीं! न चाहते हुये भी बुदबुदा उठे – जोनी उड़ंता हो रही है, राम जाने क्या होगा इस जवार का? सीरी बाबू ने सुना और जैसे आकाश को सुनाते हुये उत्तर दिया – सभत्तर जोनी मोबाइल हो रही है खरहरा पंडित! कौनो जात नहीं बची। कब तक केवल लिंग ही बेदंड कवंडल घूमता रहेगा?  
सीरी से बेध्यानी हुई थी, नाम बिगाड़ उन्हीं का किया हुआ था लेकिन पंडित उनके मुँह से यह सम्बोधन बर्दाश्त नहीं कर पाते थे सो उछ्ल कर खड़े हो गये – लाण सबकी चिंता कर रहे हो! छात्रसमाज ही पतित हो गया तो बचेगा क्या?
सीरी ने चुटकी ली – इयार हो! सुबिधा और आजादी मिलने पर यह सब होता ही है। निश्चिंत रहो, जात पात सुद्ध साँच बचे रहेंगे और कुजात झूठ पाप भी। भूल गये अपना समय? ... कैसे आना हुआ? केवल जनेऊ देने या ...। सीरी ने बात अधूरी छोड़ दी जब कि पंडित समय पर अटक गये।
(2)   
सीरी के पहले बियाह के साल भर पहले की बात थी जब रामहरख पांडेय खरहरा पंडित हुये थे। एक्के छेदा हगने वालों के नाम से मशहूर ये दोनों उस दिन अलग अलग शिकार पर थे। सीरी एक खरहा मारने के चक्कर में और हरख पंडित हिरनी चखने के। खरहे का पीछा करते सीरी अरहर के खेत में पहुँचे तो पंडित प्रणय निवेदन से आगे बढ़ चुके थे। एकाएक इयार को देख हड़बड़ा कर हटे और बिना पूछे ही सफाई उगल पड़े – खरहरा बाँधना था सो डाँठ काटने आये थे। इधर की अरहर घनी है, खरहरा ठीक बनेगा।
हिरनी यानि सोगतिया और सीरी की आँखें चार हुईं, दो पूर्वपरिचित खिलखिला उठे। पंडित को भौंचक छोड़ सोगतिया ने खाँची उठाई और अस्त व्यस्त कपड़े लिये भाग पड़ी। हँसी रोकते रोकते सीरी का चेहरा लाल हो गया, शब्दों ने राह पाई – ग़जब! खरहरा पंडित। पूरा सरेह अट्टहास से गूँज उठा।
कहना नहीं होगा कि गाँव में अगले दिन यह नाम प्रचलित हो गया लेकिन तब भी पंडित ने सीरी बाबू की यारी निभाने की बात को समझा क्यों कि नाम परिवर्तन का वास्तविक कारण छिपा सीरी ने बात बनाई थी -  रामहरख का उल्टा खरहमरा। अरहर के खेत में पंडित ने खरहा मारा और पकड़े जाने पर बताने लगे खरहरा काटने आये थे। उल्टी बात बनाये न बने खरहमरा, खरहरा...
तराई से लगे इस इलाके में ब्राह्मणों का बकरा मछली खाना सामान्य था लेकिन खरहा तो और जातियाँ ही खाती थीं, पंडित जात के वश का नहीं तेज दौड़ते को पकड़ना! सत्रह की उमर के बिगड़ैल लौंडों का तमाशा समझ सबने हँसी हँसी में उड़ा दिया लेकिन पंडित का नाम बिगड़ा तो बिगड़ा ही रहा।
अगले बरस सीरी का पहला विवाह हुआ और दो साल बाद खरहरा पंडित का। खरहरा पंडित ने जीवन का पहला विवाह सीरी का ही कराया, बदले में धोती में बँधी पूड़ियों और चूतड़ में एक स्थान पर चुभती सूई का प्रसाद भी पाया। चुभोने वाली नाउन ने पुरोहित से प्रतिक्रिया में मसलन की सपने में भी कल्पना नहीं की होगी! किसी परायी स्त्री के साथ पंडित की यह आखिरी हरकत थी। उसके बाद दोनों वह हो गये जिन्हें देहात में सभ्भ सरीफ कहा जाता है – आँख उठा कर भी न देखने वाले। यह बात और है कि चाहे सीरी की मुसमात काकी का कुजड़े से सम्बन्ध हो या कोइटोले के तिरगुट का मैना अहिरिन से, भंडाफोड़ इन्हीं दोनों ने किया!  
पैंतिस की उमर में जब एक रिश्तेदारी के विवाह में सीरी अपने पुरोहित ‘पं. रामहरख पांडेय’ के साथ गये थे तो किसी बात पर उभय पक्ष में झगड़ा हो गया। बात बिगड़ कर बारात वापस ले जाने तक आन पहुँची। खून खराबा होना तय देख खरहरा पंडित ने खिसक लेने का सुझाव दिया लेकिन सीरी बाबू ने अपने प्रस्ताव से उन्हें चौंका दिया – दोनो पच्छ राजी हों तो कन्या दर्शन के बाद सीरी बाबू उससे विवाह कर सकते थे यानि कि दूसरा विवाह! प्रस्ताव लेकर खरहरा पंडित को ही जाना पड़ा और नेम टेम तिगड़म फाँस के कारण कन्या दर्शन का सौभाग्य भी उन्हें ही मिला।
उनके ऊँचे सुदर्शन खाते पीते घर के इयार को कौन अभागा अपनी कन्या नहीं देता! सो बियाह सम्पन्न भया।  डोला लेकर जब सीरी बाबू अपने दुआर पहुँचे तो बड़ा तमाशा हुआ। समाचार सुनते ही दुलहिन यानि पहली के दाँत लग गये। महतारी ने कलेजे पर सिलबट्टा रख कर गम्भीर मुख हो रस्म निर्वाह किये और सीरी बाबू के इस बेहूदे कर्म से घर में व्याप्त कलह के शमन की जिम्मेदारी सहज ही उपरोहित यानि कि  खरहरा पंडित पर आन पड़ी।
दो दुहिताओं को जनने के बाद धरम करम में तल्लीन दुलहिन को देह सुख से विरक्ति हो गई थी जब कि सीरी बाबू तो जैसे अब जवान हुये थे। कदाचित दूसरे विवाह का कारण भी यही था। पंडित ने इस स्थिति का फायदा उठाया। महीने भर की मेहनत के बाद दुलहिन ने प्रारब्ध और भक्ति का वह जटिल समीकरण सीख ही लिया जिसकी गूढ़ उपपत्ति सैकड़ो वर्षों से सवर्ण सुहागिन स्त्री को जुगल सरकार राधाकृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा या मीरा बनाती आई थी। वह दासी हो गईं – दसिया बहू। घर में शांति हुई। सीरी बाबू को प्रणय सुख मिलना पुन: शुरू हुआ, नवकी ने जाना कि साँड़ की उमर अधिक मायने नहीं रखती और खरहरा पंडित की मानें तो उन्हों ने अरहर के खेत का कर्ज उतार दिया।
पैंतालिस की आयु होते होते सीरी तीन बेटों के बाप बन चुके थे और दो दुहिताओं का कन्यादान भी कर चुके थे। उनकी महतारी को तो जैसे धरती पर ही स्वर्ग मिल गया सो ऊपर का हालचाल लेने रुखसत हुईं और दसिया बहू मलकिन हो गईं!
(3)
अटकन से बाहर आ पंडित सीधे पाइंट पकड़ लिये – असो भी सम्हति नहीं गड़ेगी क्या?
सीरी बाबू के सीने में फाँस सी चुभी। पुरनियों के जमाने से ही पंचमी को सम्हति गड़ती थी और होलिका दहन के दिन तक समृद्ध होती रहती थी। किसी की खोंपी, किसी की मचान, गोहरा बथान, किसी का सीसो – गोंइठी की माँग का समय आते आते सम्हति मइया चोरी और जबरदस्त लंठई के माल से भरी पुरी हो चुकी रहतीं। मात पिता हीन नवल्द बहोरन बाबू के  होलिका में आग लगाने से पहले छठ्ठू अहिर-महातम कोइरी और निरगुन तेली-सनारी पंडित में जोगीरा कबीरा कम्पटीशन होता। खरहरा पंडित की मानें तो वह सवर्न राज था।
परधानी में पहली बार रक्षण हुआ तो सीट पिछड़ी हो गई और बैस राज शुरू हुआ। छठ्ठू अहिर के परधान बनने के बाद अहिरटोली के लोग यादव लिखने लगे और खुद को जदुवंशी बताने लगे यानि कि असल छत्री। प्रतिक्रिया में कोइटोले के केदार मास्टर चन्द्रगुप्त मौर्य की जन्मकुंडली कहीं पर बाँच आये और गाँव में मौर्यवंश का प्रादुर्भाव हुआ। बैस राज की एकमात्र उपलब्धि यह रही कि गाँव समाज की वह जमीन जिस पर सम्हति गड़ती चली आ रही थी, जर-जोरू-जमीन की परम्परा का निर्वाह करती छ्ठ्ठू यादव की गोंयड़ा खेत हो गई। मारा पीटी में बस एक लहास गिरी थी। मरने वाले का नाम था महातम कोइरी।
ठाकुरों और पंडितों को बस पीट पाट हाथ गोड़ तोड़ कर छोड़ दिया गया। सम्हति मइया गतिशील हो गईं – कभी इस तिराहे कभी वो सिवाने! उस साल छठ्ठू अहिर गारी गाने की जगह भोंकार छाड़ के रोये थे लेकिन जो बीत गया उसे कौन वापस ला सकता है भला? उत्साह खत्म हुआ और पंचमी का महातम भी। प्रास्चित में हफ्ता भर पहले अहिरटोली के लोग यहाँ वहाँ बाँस गाड़ देते और गाँव बकिया काम कर देता। मुकदमा तो खैर आज भी चल रहा है।
रोटेशन में सीट सुरक्षित हुई तो सूदराज शुरू हुआ। तेलिया पट्टी और चमटोली के जुवा बाभनों और बबुआनों के लिये ‘यूरिया नस्ल’ शब्ददो का इस्तेमाल करने लगे। पंडित टोले का एक जुवा जब जे एन यू में पहुँचा तो उसे यूरिया नस्ल का राज समझ में आया। असल में उनके पुरखे हमलावर यूरेशियन थे जिन्हों ने मूलवासियों का दमन कर अपनी परम्परायें और लोकाचार थोप दिये थे। ये हमलावर बला के कामुक थे और इनके शास्त्र पुराण बेभिचारी ब्यंजन। हिरनाकस्सप और होलिका आदि मूल निवासियों के पुरखे थे जिनके नाश का यूरिया नस्ल वाले उत्सव मनाते थे... जाने कैसे जुवा इतना अधिक प्रभावित हुआ कि चोटी जनेऊ काट तोड़ कर पांडेय से नाग बन गया! गाँव वाले तो इसे किसी स्वैरिणी नागिन का असर ही बताते हैं।
पहले रैदास परधान के चुनाव के बाद चमटोली ने अपनी सम्हति अलग लगानी शुरू की और बाद के वर्षों में उसका भी त्याग कर दिया। तेलिया पट्टी ने मज्झिम मार्ग अपनाया – खड़े हो तमाशा देखना, न गाना न बजाना। हफ्ता सिकुड़ कर तीन दिन हो गया और एक खास क़ानून के डर से लोगों ने सम्हति मइया को भरी पुरी बनाने में होने वाले चौर्य कर्म का परित्याग कर दिया। जोगीरे और कबीरे अब भी कहे जाते थे लेकिन ललकारा और लुकारा भाँजने ग़ायब हो गये... छ्ठ्ठू अहिर पर भूमि हड़पन का मुकदमा दर्ज हुआ।
यही समय था जब खरहरा पंडित को ज्ञान प्राप्त हुआ – गीता में कृष्ण की चातुर्वर्ण वाली बात ग़लत है। असल में भारत में बस दो वर्ण हैं – बाभन और बबुआन। अपनी उठान में जो बाभन कहलाता है वह पतन में सूद हो जाता है। बबुआनों और बैस बनियों के साथ भी ऐसा ही है। इस दृष्टि से देखने पर सवर्न, बैस या सूद राज की बात ग़लत साबित होती है। खरहरा पंडित ने अपनी पुरानी ग़लती को स्वीकार भी कर लिया और बहुजन से सर्वजन की वैचारिक क्रांति में अपनी धोने को धारा में हाथ भी डाल दिया।
सीरी बाबू को पुरोहित के समझाने से यह सब तो समझ में नहीं आया लेकिन छ्ठ्ठू अहिर ने अपोजिट पाइंट किलियर कर दिया कि इस ज्ञान की रमायन लखनऊ के लिये रची गयी है। छठ्ठू अहिर को दोनों की दोस्ती पता थी वरना यादव कृष्ण पर अंगुली उठाने के जुर्म के लिये खरहरा पंडित की कुलस्त्रियों से वचनसम्बन्ध जोड़ने में कोई कोताही नहीं बरतते।  जनम के दो मित्र अब दो खेमों में अलग अलग थे लेकिन भले एक्के न हगें, दोस्ती और जजमानी-पुरोहिती यथावत बनी रही।  
ज्ञानप्राप्ति के उस साल एक दिन पहले तक सम्हति नहीं गड़ी। सीरी बाबू की ललकार पर अंत समय में अहिरटोली के जुवा वर्ग ने उन्हीं की खोंपी में बाँस बाँध कर आग लगा दी। सर र र र ... के ललकारे में किसी ने नहीं जाना कि सीरी बाबू वास्तव में दुखी नहीं हुये बल्कि भीतर भीतर ही कहीं संतुष्ट हुये कि एक साल और परम्परा आगे खिसकी। जुवा नाग की मानें तो यूरिया नस्ल का अभिचार फिर से दहका!  

3 टिप्‍पणियां:

  1. सम्हति की जमीन का विवाद गाँव-गाँव में पैदा हो गया था। सौभाग्य से चकबन्दी हुई तो सम्हति की जमीन अलग छाँट दी गयी। जतिगो की समस्या तो माया मुलायम के प्रादुर्भाव से अब स्थायी हो चुकी है। समाधान के लिए कोई क्रान्तिकारी नेता जन्म ले तो बात बने।

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  2. बेहतरीन कहानी | आनंदमय |

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