पिछले भाग से जारी ...
टाट की आड़ से झाँकती दो जोड़ी आँखों ने देखा। लीक की चिकनी चमकती कठभट्ठा माटी पर पाँवों के लाल लहू निशान ज्यों देवी देवकुरी में पइस रही हो। दोनों सन्न!
सोहित के घर की ओर बढ़ती मतवा, अगल बगल बहतीं गंगा जमुना! नगिनिया का हाल बूझ गंगा हिलोर ले आगे बढ़ती तो सम्भावित लांछन, बहिष्कार की जमुना जैसे गोड़ के नीचे से जमीन ही बहा ले जाती! कसमकस, छोटी सी राह और पवन बहान! गंगा बीस पड़ती गई और मतवा सुध बुध खोती आगे बढ़ती गईं। नेबुआ मसान दिखा और दिखे दूर आसमान में मेहों से मुँह करियाते चमकते ढूह। मतवा की आँखें बढ़िया गईं, लाली उतरी – सब सुभ होई! झड़क चली। छिपाव कि कोई देख न ले जाने कहाँ छिप गया।
खिरकी दिखी ही थी कि साड़ी टाट की खोंच फँसी, थमी ही थीं और दोनो गोड़ तीखी चुभन धँसती गई। ऊपर की ओर लहराती पीर बढ़ती, देह थरथराती; उसके पहले ही मसानों ने स्वेद की गगरियाँ उड़ेल दीं। घस्स से भुइँया बैठ गयीं, होश ठिकाने आ गया। साफ पता चला कि लीक पर सूखी नेबुआ की डाल किसी ने आड़ी डाल रखी थी। चोख काँटे! पाँवों में गहरे उतर गये थे। निकाल कर फेंकती मतवा के कानों में स्वर पड़ा – कवन ह रे! कहेनी कि देखि के चलs सो, बाबू के टाट तिसरिये टूटेला।
समूचा अस्तित्त्व एक ही अंग - बस कान कान! मतवा ने साफ पहचाना – रमईनी काकी! धुँधलाती चेतना पतियाती कि जानी पहचानी कर्कश हँसी ने जैसे चेतना ही हर ली – अरे काकी! पाँवपुजवा हे, कुच्छू न कहs- लँगड़ जुग्गुल!
देह नहीं, केवल भीतरी संवाद थे – क्या बचा मतवा? बेटा धतूरा पी बेसुध सोया है, सँवाग अचेत है और जो गोपन बनाये रखना चाहती थी वह तो खुले बजार उघार हो गया! ये दोनों जान गये तो अब किसे जानना शेष है?
काँटे के घाव से अचानक तीखा दर्द उठा, नयन भर भर उठे। अब जो होना हो सो हो। लहराती पियरी बुला रही थी, पाँव यंत्रवत बढ़ चले। गंगा जमुना दह बिला गईं, पीर पटा गई।
टाट की आड़ से झाँकती दो जोड़ी आँखों ने देखा। लीक की चिकनी चमकती कठभट्ठा माटी पर पाँवों के लाल लहू निशान ज्यों देवी देवकुरी में पइस रही हो। दोनों सन्न!
भउजी ने आहट पहचानी और चौखट पर ही मतवा से लिपट गई। मतवा ने जाना उनकी आँखें सूख गई थीं। इतनी जल्दी! लम्बे जर बोखार से उऋन होने पर जैसे देह हो जाती है बस वैसी थी। अभी तो सब सँभालना था।
काठ ने देखा – पाथर! यह चेहरा परसूत की पीर झेलती मेहर का नहीं हो सकता, नहीं।
नइहर कि माई मूरत ध्यान में आई – पाथर! दरद कहाँ छिपा रखा है इसने?
भउजी झट से बैठ गई। पाँव पड़ी नागिन को उठा मतवा ने गले लगा लिया। एक मौन सहमति में दोनों उस कोठरी की ओर बढ़ चलीं जहाँ नागिन का रात का बासा होता था - परसूता का घर।
हाँफती पुकार ने दोनों को थाम लिया – भउजी! सोहित आ पहुँचा था। उसने मतवा को देखा। बहुत बार कुछ कहने सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। भीतर की आश्वस्ति चारो ओर फैलने लगी। जिस मुँह कालिख लगी थी, जिस पर पट्ठा बैल मरने जैसी गम्मी थी, वह अब भावी पिता था। उसने चेतावनी सुनी - सोहित! केहू भीतर जनि आवे, हम सब सँभारि लेब। हाथ की लाठी मुट्ठी की भींच, कस कराह – सब ठीक होई।
इसरभर आया, पिटा और भूखे पेट घर वापस गया। भूख तो जन्म के बाद होती है न?
...रात गझीन है। आसमान में बदरी है। अँजोरिया अन्हरिया बराबर। चारो ओर फुसफुसाहटें हैं। खदेरन नींद में ही जागे हैं। सुभगा आ रही है। आश्वस्त चुप्पी है। सब तैयारी पूरी हो चुकी है। अब तो बस स्वागत का अगोरा है। गुड़ेरवा नहीं बोल रहा, पिहका है। खेंखर नहीं, खेंचातान है। दूर की कामाख्या पितरों की भूमि पधार रही है। आओ माँ! बताओ तो मैं कहाँ हूँ? किस काल में हूँ?...
...लहू रुकने का नाम नहीं ले रहा, कितनी पीड़ा ले कर आयी भवानी? माँ नग्न है, ले मैं ब्राह्मणी भी आधी होती हूँ – मतवा ने अपनी साड़ी फाड़ी और नागिन को उसमें कसती चली गईं – केहाँ, केहाँ।
ढेबरा के अँजोर भवानी की आब, दप दप! यह तो महीने दो महीने जैसी लग रही है! मतवा रूप निहारने लगीं।
... होश आया। जान पहचान कर नागिन रोने लगी – जमीन को बचाने वाला नहीं आया, इस दुआर दिया जलाने वाला नहीं आया। मुझ पापिनी की कोख कैसे आता?
मतवा ने अँकवार भर लिया – ई नाहीं कहे के रे! एकरे कोखि से होई। आई रे आई!
अन्हार सन्न। दुख जब सहन के परे हो जाता है तो मनुष्य में शक्ति जगती है। आखिरकार भउजी ने कहा – बबुना के बता देंई। आपन भवानी सँभारें।
उसके बाद उसने मतवा को मुक्त किया – जाइये मतवा! अपना घर सँभालिये। इस घर के दो जन पर कृपा दृष्टि बनाये रखियेगा। जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल।
पाँवों की पीर का तेहा अब जबराने लगा था। मतवा ने बची खुची साड़ी लपेटी और बाहर आ गईं। लाठी का सहारा लिये बैठी सोहित की छाया प्रतीक्षा में दिखी। कन्धे पर हाथ रख मतवा ने बताया – भवानी ... संतान और सँवाग की देखभाल करना। कुल चलाने बेटी आई है। उन्हों ने सोहित का चेहरा उठाया। अन्धेरे में क्या दिखता? सोहित ने जैसे सहमति में सिर हिलाया – पाँय लागीं मतवा! हम बाप बनि गइलीं मतवा, हम बाप बनि गइलीं!
मतवा के मन में स्वर पुन: उठे – जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल। अर्थ समझ में आया, आशंका सी उठी लेकिन उन्हों ने अशुभ को शब्द तक नहीं लेने दिया। कंठ में रूदन भर आया। सोहित को अधूरा ही छोड़ अन्धेरे में भागीं। कुछ देर की तेज हवा ने आसमानी बदरी को तो छिन्न भिन्न कर दिया था लेकिन मतवा का मन ...
काँटा! काँटा गड़ि गइल!! पाँवों तले नमी थी। जाने फिर से घायल हुए थे या नहीं लेकिन मतवा को सँभालने के बाद खदेरन ने हाथ लगा देखा। मद्धिम रोशनी में लहू करिया लग रहा था। गर्म लहू! भवानी न? मतवा ने सिर हिलाया और जाने किस प्रेरणा से दोनों आलिंगन में कस गये। कौन है? माँ?? सुभगा???
मेरे साथ साधना करोगे पापी!
भउजी के ललाट पर हाथ फेर, कन्या को दुलरा कर सोहित कोठरी से बाहर आँगन में ही नंगी धरती पर चौड़ा हो गया। चौखट पर एक छाया उभरी और अकन कर किनारे हो गई।
...देह में जाने कहाँ की शक्ति भर आयी है, नागिन छोटकी डेहरी पर चढ़ तर उपर ओसौनी सहेज रही है। मतवा की साड़ी कमर में नहीं, गले में है।
....एक उछाल, बन्धा, झटका ...देह झूल गयी।
सन्नाटे को चीरते तीखे स्वर से नींद टूटी, खदेरन उठ कर चौकी पर बैठ गये। वेदमुनि सो रहा था। उतरने को पाँव नीचे किये तो मतवा की देह से लगे। झपट कर हाथ लगाया तो पाया कि मतवा की देह भट्ठी हो रही थी।
इतना ज्वर, ताप! काँटे थे या कुछ और? उठा कर चौकी पर लिटाने के बाद उन्हों ने चादर भिगो कर निचोड़ा और मतवा को ओढ़ा दिया ...गिलोय, इस समय गिलोय कहाँ ढूँढ़ें खदेरन? (जारी)