मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 26

पिछले भाग से जारी ...
सोहित के घर की ओर बढ़ती मतवा, अगल बगल बहतीं गंगा जमुना! नगिनिया का हाल बूझ गंगा हिलोर ले आगे बढ़ती तो सम्भावित लांछन, बहिष्कार की जमुना जैसे गोड़ के नीचे से जमीन ही बहा ले जाती! कसमकस, छोटी सी राह और पवन बहान! गंगा बीस पड़ती गई और मतवा सुध बुध खोती आगे बढ़ती गईं। नेबुआ मसान दिखा और दिखे दूर आसमान में मेहों से मुँह करियाते चमकते ढूह। मतवा की आँखें बढ़िया गईं, लाली उतरी – सब सुभ होई! झड़क चली। छिपाव कि कोई देख न ले जाने कहाँ छिप गया।
खिरकी दिखी ही थी कि साड़ी टाट की खोंच फँसी, थमी ही थीं और दोनो गोड़ तीखी चुभन धँसती गई। ऊपर की ओर लहराती पीर बढ़ती, देह थरथराती; उसके पहले ही मसानों ने स्वेद की गगरियाँ उड़ेल दीं। घस्स से भुइँया बैठ गयीं, होश ठिकाने आ गया। साफ पता चला कि लीक पर सूखी नेबुआ की डाल किसी ने आड़ी डाल रखी थी। चोख काँटे! पाँवों में गहरे उतर गये थे। निकाल कर फेंकती मतवा के कानों में स्वर पड़ा – कवन ह रे! कहेनी कि देखि के चलs सो, बाबू के टाट तिसरिये टूटेला।
 समूचा अस्तित्त्व एक ही अंग - बस कान कान! मतवा ने साफ पहचाना – रमईनी काकी! धुँधलाती चेतना पतियाती कि जानी पहचानी कर्कश हँसी ने जैसे चेतना ही हर ली – अरे काकी! पाँवपुजवा हे, कुच्छू न कहs- लँगड़ जुग्गुल!
देह नहीं, केवल भीतरी संवाद थे – क्या बचा मतवा? बेटा धतूरा पी बेसुध सोया है, सँवाग अचेत है और जो गोपन बनाये रखना चाहती थी वह तो खुले बजार उघार हो गया! ये दोनों जान गये तो अब किसे जानना शेष है?
काँटे के घाव से अचानक तीखा दर्द उठा, नयन भर भर उठे। अब जो होना हो सो हो। लहराती पियरी बुला रही थी, पाँव यंत्रवत बढ़ चले। गंगा जमुना दह बिला गईं, पीर पटा गई।
 
टाट की आड़ से झाँकती दो जोड़ी आँखों ने देखा। लीक की चिकनी चमकती कठभट्ठा माटी पर पाँवों के लाल लहू निशान ज्यों देवी देवकुरी में पइस रही हो। दोनों सन्न!

भउजी ने आहट पहचानी और चौखट पर ही मतवा से लिपट गई। मतवा ने जाना उनकी आँखें सूख गई थीं। इतनी जल्दी! लम्बे जर बोखार से उऋन होने पर जैसे देह हो जाती है बस वैसी थी। अभी तो सब सँभालना था।
काठ ने देखा – पाथर! यह चेहरा परसूत की पीर झेलती मेहर का नहीं हो सकता, नहीं।
नइहर कि माई मूरत ध्यान में आई – पाथर!  दरद कहाँ छिपा रखा है इसने?
भउजी झट से बैठ गई। पाँव पड़ी नागिन को उठा मतवा ने गले लगा लिया। एक मौन सहमति में दोनों उस कोठरी की ओर बढ़ चलीं जहाँ नागिन का रात का बासा होता था - परसूता का घर।
हाँफती पुकार ने दोनों को थाम लिया – भउजी! सोहित आ पहुँचा था। उसने मतवा को देखा। बहुत बार कुछ कहने सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। भीतर की आश्वस्ति चारो ओर फैलने लगी। जिस मुँह कालिख लगी थी, जिस पर पट्ठा बैल मरने जैसी गम्मी थी, वह अब भावी पिता था। उसने चेतावनी सुनी - सोहित! केहू भीतर जनि आवे, हम सब सँभारि लेब। हाथ की लाठी मुट्ठी की भींच, कस कराह – सब ठीक होई।

इसरभर आया, पिटा और भूखे पेट घर वापस गया। भूख तो जन्म के बाद होती है न?  

...रात गझीन है। आसमान में बदरी है। अँजोरिया अन्हरिया बराबर। चारो ओर फुसफुसाहटें हैं। खदेरन नींद में ही जागे हैं। सुभगा आ रही है। आश्वस्त चुप्पी है। सब तैयारी पूरी हो चुकी है। अब तो बस स्वागत का अगोरा है। गुड़ेरवा नहीं बोल रहा, पिहका है। खेंखर नहीं, खेंचातान है। दूर की कामाख्या पितरों की भूमि पधार रही है। आओ माँ! बताओ तो मैं कहाँ हूँ? किस काल में हूँ?...

...लहू रुकने का नाम नहीं ले रहा, कितनी पीड़ा ले कर आयी भवानी? माँ नग्न है, ले मैं ब्राह्मणी भी आधी होती हूँ – मतवा ने अपनी साड़ी फाड़ी और नागिन को उसमें कसती चली गईं – केहाँ, केहाँ।
ढेबरा के अँजोर भवानी की आब, दप दप! यह तो महीने दो महीने जैसी लग रही है! मतवा रूप निहारने लगीं।
... होश आया। जान पहचान कर नागिन रोने लगी – जमीन को बचाने वाला नहीं आया, इस दुआर दिया जलाने वाला नहीं आया। मुझ पापिनी की कोख कैसे आता?
मतवा ने अँकवार भर लिया – ई नाहीं कहे के रे! एकरे कोखि से होई। आई रे आई!
अन्हार सन्न। दुख जब सहन के परे हो जाता है तो मनुष्य में शक्ति जगती है। आखिरकार भउजी ने कहा – बबुना के बता देंई। आपन भवानी सँभारें।
उसके बाद उसने मतवा को मुक्त किया – जाइये मतवा! अपना घर सँभालिये। इस घर के दो जन पर कृपा दृष्टि बनाये रखियेगा। जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल।
पाँवों की पीर का तेहा अब जबराने लगा था। मतवा ने बची खुची साड़ी लपेटी और बाहर आ गईं। लाठी का सहारा लिये बैठी सोहित की छाया प्रतीक्षा में दिखी। कन्धे पर हाथ रख मतवा ने बताया – भवानी ... संतान और सँवाग की देखभाल करना। कुल चलाने बेटी आई है। उन्हों ने सोहित का चेहरा उठाया। अन्धेरे में क्या दिखता? सोहित ने जैसे सहमति में सिर हिलाया – पाँय लागीं मतवा! हम बाप बनि गइलीं मतवा, हम बाप बनि गइलीं!
मतवा के मन में स्वर पुन: उठे – जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल। अर्थ समझ में आया, आशंका सी उठी लेकिन उन्हों ने अशुभ को शब्द तक नहीं लेने दिया। कंठ में रूदन भर आया। सोहित को अधूरा ही छोड़ अन्धेरे में भागीं। कुछ देर की तेज हवा ने आसमानी बदरी को तो छिन्न भिन्न कर दिया था लेकिन मतवा का मन ...   

काँटा! काँटा गड़ि गइल!! पाँवों तले नमी थी। जाने फिर से घायल हुए थे या नहीं लेकिन मतवा को सँभालने के बाद खदेरन ने हाथ लगा देखा। मद्धिम रोशनी में लहू करिया लग रहा था। गर्म लहू! भवानी न? मतवा ने सिर हिलाया और जाने किस प्रेरणा से दोनों आलिंगन में कस गये। कौन है? माँ?? सुभगा???
मेरे साथ साधना करोगे पापी!

भउजी के ललाट पर हाथ फेर, कन्या को दुलरा कर सोहित कोठरी से बाहर आँगन में ही नंगी धरती पर चौड़ा हो गया। चौखट पर एक छाया उभरी और अकन कर किनारे हो गई।
...देह में जाने कहाँ की शक्ति भर आयी है, नागिन छोटकी डेहरी पर चढ़ तर उपर ओसौनी सहेज रही है। मतवा की साड़ी कमर में नहीं, गले में है।
....एक उछाल, बन्धा, झटका ...देह झूल गयी।

सन्नाटे को चीरते तीखे स्वर से नींद टूटी, खदेरन उठ कर चौकी पर बैठ गये। वेदमुनि सो रहा था। उतरने को पाँव नीचे किये तो मतवा की देह से लगे। झपट कर हाथ लगाया तो पाया कि मतवा की देह भट्ठी हो रही थी।
इतना ज्वर, ताप! काँटे थे या कुछ और? उठा कर चौकी पर लिटाने के बाद उन्हों ने चादर भिगो कर निचोड़ा और मतवा को ओढ़ा दिया  ...गिलोय, इस समय गिलोय कहाँ ढूँढ़ें खदेरन? (जारी)                                                  

रविवार, 20 अक्टूबर 2013

प्रसाद

जीवन की गति ऐसी ही है। गंगाजल वारुणी के लिये प्रयुक्त होने पर अपनी महिमा खो देता है किंतु वारुणी आराध्या देवी को समर्पित हो प्रसाद हो जाती है।   

रविवार, 6 अक्टूबर 2013

अथर्वण संहिता - 2

[1] से आगे


(क)
किताबी मजहबों के आने से पहले संसार भर में स्त्री पुरुष सम्बन्ध समग्रता में देखे जाते थे। उनमें गोपन तो था किंतु घृणास्पद कुछ नहीं था। विक्टोरियन 'पवित्रता' और इव की कथित पतनमुखी प्रलोभनी वृत्ति को ले स्त्री के प्रति इसाई घृणा भाव का जुड़ाव 'नारी नरक का द्वार' की चरम नकारात्मकता के साथ हुआ तो स्त्री पुरुष सम्बन्धों के प्रति जो सहज स्वीकार्य भाव था वह विकृत हुआ। सभ्यता का नागर देहात के गँवार पर चढ़ बैठा।
नवरात्र पर्व स्त्री तत्त्व को समझने का पर्व है। ऋतु परिवर्तन के साथ जननी के नव रूपों की आराधना का पर्व है। वर्ष में विषुव के दो दिन जब कि दिन रात बराबर होते हैं और ऋतु परिवर्तन की भूमिका बनती है, धरती गहिमणी होती है, नभ आतुर होता है तो सृष्टिजनक काम के अनुशासन को नवरात्र पर्व मनाया जाता है। छ: महीने पश्चात 20 मार्च को विषुव पड़ेगा और 31 मार्च को युगादि या वर्ष प्रतिपदा यानि नववर्ष का प्रारम्भ। मदनोत्सव कामपर्व उच्छृंखल होली बीत चुकी होगी। पुन: अनुशासन पर्व होगा मातृ आराधना के नव दिनों के रूप में।
इस बार नवरात्र के पश्चात विजया पड़ेगी यानि सुपुरुष राम की कुपुरुष रावण पर विजय। उस समय रामनवमी पड़ेगी यानि राम का जन्म। यह जो जन जन में रमा राम है न, बहुत पुराना है। ऋतुचक्र के साथ उसके जन्म और विजय को देखिये। मातृशक्ति उपासना के साथ उसकी संगति को समझिये और समझिये कि ये पर्व महज प्रदर्शन या ढकोसले नहीं, समाज के नियामक रूप में ऋतुचक्र की संगति में गढ़े गये हैं। अब यह हम पर है कि हम इनका क्या करते हैं।
(ख)
ऋचि यजुषि साम्नि शांतेऽथ घोरे - गोपथ ब्राह्मण

द्वैपायन व्यास द्वारा संकलन और पुनर्व्यवस्थन के पहले एक समय ऐसा भी था जब पाँच वेद थे। यह जो अथर्ववेद है न, उसकी दो धारायें थीं - अथर्वण और अंगिरा। अथर्वण धारा भैषज विद्या यानि आयुर्वेद से सम्बन्धित थी जिसे 'शांत' कहा गया और आंगिरस धारा यातु यानि जादू, टोने, टोटके से सम्बन्धित थी जिसे 'घोर' कहा गया। आंगिरस धारा के ही हैं देवगुरु वृहस्पति और ऋषिशिरोमणि भृगु भी!
छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर आंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण मगदेश (वर्तमान ईरान) से सूर्यपूजक अग्नि परम्परा के (सकलदीपी, शाकल या शकद्वीप के वासी, वर्तमान पारसी) ब्राह्मणों को बुला कर मूलस्थान (मुल्तान) में सूर्यमन्दिर की स्थापना करवाते हैं। ये सकलदीपी आज भी यातुविद्या प्रवीण माने जाते हैं। कृष्ण के पुत्र साम्ब का कोढ़ अर्कक्षेत्र कोणार्क में इन्हीं पुरोहितों के निर्देशन में की गयी आराधना से दूर होता है।
पुराण भी मगदेशियों के चार वेद बताते हैं - वाद, विश्ववाद, विदुत और 'आंगिरस'।
एक बात स्पष्ट है कि देव दानव या आर्य अनार्य के आजकल के अकादमिक भेद अति सरलीकरण हैं और दूसरी यह कि वैदिक संस्कृति का प्रसार वर्तमान भारत की सीमाओं से परे बहुत दूर तक था। कतिपय भेदों के साथ उनमें आपसी सम्वाद, सम्पर्क और प्रतिद्वन्द्विता भी थी। तीसरी यह कि चाहे मगदेशियों को बुलाना हो या द्वारिका तट से समुद्र मार्ग दवारा यमदेश (मालागासी, मेडागास्कर?) से सम्पर्क बनाना हो, कृष्ण का योगदान अप्रतिम है।

(ग)
ये जो राम और कृष्ण हैं न, बहुत रहस्यमय हैं या यूँ कहूँ कि अथर्वण धारा में बढ़ते हुये मेरे लिये रहस्यमय हुये जा रहे हैं। अवतारवाद के पीछे बहुत कुछ छिपा हुआ है जो आज दिखता ही नहीं। विकासवादी वाममार्गी क्षत्रिय जनक के दरबार को उपनिषद और आरण्यकों से जुड़ा और वेद परवर्ती बताते हैं लेकिन ऐसा है क्या?
बृहदारण्यक को ही ले लीजिये। यह बहुत पुरानी शतपथ परम्परा का अंश है। इसके पाँचवे अध्याय के तेरहवे ब्राह्मण में चार मंत्र हैं। ये चार वेदों से एक एक कर जुड़ते हैं। पहले में ऋग्वेद के लिये उक्थं का प्रयोग है, दूसरे और तीसरे के यजु: और साम स्पष्ट हैं। चौथे के लिये 'क्षत्रं' का प्रयोग है:
'क्षत्रं प्राणो वै क्षत्रं हि वै क्षत्त्रं त्रायते हैनं प्राण: क्षणितो: प्र क्षत्त्रमन्नमाप्नोति क्षत्त्रस्य सायुज्य ँ सलोकतां जयति य एवं वेद'
आचार्य शर्मा अर्थ करते हैं:
प्राण ही क्षत्र (बल) है, इसलिये प्राण की उपासना करें। प्राण ही क्षत्र है अर्थात् इस शरीर की शस्त्रादि जनित क्षति से रक्षा करता है। अत: क्षत से रक्षा करने के कारण प्राण का क्षत्रत्व प्रसिद्ध है। अन्य किसी से त्राण (रक्षा) न पाने वाले क्षत्र (प्राण) को प्राप्त करता है। जो भी व्यक्ति इस तरह जानता है, वह क्षत्र के सायुज्य और सालोक्य को प्राप्त कर लेता है।
अथर्वण का क्षात्र से सम्बन्ध प्रमाणित है - चाहे भैषजविद्या द्वारा प्राण रक्षा हो या यातुविद्या द्वारा या शस्त्रविद्या द्वारा।
आचार्य शर्मा आगे अन्यत्र बताते हैं:
गायत्री का चतुर्थ पद 'परो रजसे सावदोम्' भी आठ अक्षरों वाला कहा गया है। विश्वामित्र कल्प तथा प्राचीन संध्या प्रयोगों में इसका उल्लेख मिलता है। उपनिषद् का कथन है कि गायत्री के तीन पाद ही जपनीय हैं, यह चौथा पाद 'दर्शत' पद - देखा जाने वाला - अनुभूतिगम्य कहा गया है। इसका पदच्छेद होता है - परो रजसे - असौ- अद: ॐ अर्थात रजस् पदार्थ या प्रकाश से परे यह और वह सब ॐ अक्षररूप ब्रह्म ही है। जब साधक के प्राणों के स्पन्दन गायत्री के तीन पदों से एकात्मकता स्थापित कर लेते हैं, तो चौथे पद का आभास-अनुभव होने लगता है। इसलिये इसे दर्शत पद कहा है।... (विद्रोही) विश्वामित्र पर अटक जाता हूँ। याद आता है कन्हैयालाल मुंशी के उपन्यासों लोपामुद्रा लोमहर्षिणी में कहीं एक अवैदिक स्त्री को गायत्री का दर्शन कराता और उसे आश्रम की प्रथम पूजनीया बनाता विद्रोही विश्वामित्र। ... 'दर्शन' महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण हैं राजा के दरबार में दार्शनिक बहसें, महत्त्वपूर्ण है philosophy के लिये दर्शन शब्द का प्रयोग और महत्त्वपूर्ण है मंत्र के लिये 'द्रष्टा' की परिकल्पना। कहीं यह विश्वामित्र की गायत्री के बाद ही तो प्रचलित नहीं हुई?
...पहले देख चुका हूँ - इक्ष्वाकुओं की राम धारा में फलते फूलते अथर्वण आचार्य। यह रजस, यह प्रकाशमार्गी सूर्य, अग्नि और उससे भी परे जाने की क्षात्र अभिलाषा, गोपन यातु, अवतारवाद, विष्णु के वक्ष पर लात मार कर उसकी महत्ता सिद्ध करते 'आंगिरस' परम्परा के भृगु... जाने कितने संकेत छिपे हुये हैं।

आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:

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यह एक उत्सुक प्रयास भर है। फुटकर नोट हैं, मन की तरंगे हैं। अकादमिक गुणवत्ता की अपेक्षा न रखें।