आज महाशिवरात्रि है – फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी या तेरस। हर महीने यह तेरस शिवरात्रि कहलाता है किंतु कामऋतु वसंत में कामदहनी शिव के विवाह वाला तेरस महती अर्थ धारण कर लेता है। शिव का विवाह गृहस्थ जीवन की प्रतिष्ठा है। गिरि वन प्रांतर में अनेक प्रकार के जीव जंतुओं से उलझते सुलझते, उन्हें पालतू बनाते यायावर मनुष्य का ‘गृह प्रवेश’ है। इस दिन समाज से दूर रहने वाला विनाशी औघड़ घुमंतू फक्कड़ी संन्यासी गृहस्थ बनता है। शक्ति से जुड़ शव शिव हो जाता है। उससे जुड़ गिरि वन प्रांतर की बाला मैदानों की गोरी गउरा हो जाती है।
संहार से जुड़े होने के कारण शिव की दिशा दक्षिण मानी जाती है। दक्षिण में यमपुरी है। वर्ष का वह आधा भाग जब सूर्य दक्षिणायन होते हैं, पितृयान यानि पितरों का समय माना जाता है। पितर देवतुल्य हैं। उनका तर्पण आगामी पीढ़ी करती है। मृत्यु की कठोर सचाई के बीच इस तरह की व्यवस्था, जीवन की प्रतिष्ठा है कि चाहे जो हो, जीवन जयी रहेगा। जीवन जयी हो इसलिये शिव का विवाह आवश्यक है। वह घर परिवारी हो, यम को निर्देशित करते हुये भी संतति को जन्म दे तो संतुलन हो, विरुद्धों का सामंजस्य हो। बिना सामंजस्य के कैसा जन, कैसा समाज, कैसी पूजा, कैसी व्यवस्था? थोड़ा गहरे उतरें तो यह ऋत की प्राचीन अवधारणा का लौकिक रूप है।
शिव का विवाह वसंत की काम ऋतु में होता है। जोगी महाभोगी हो उद्दाम वासना में लिप्त होने से पहले समाधिस्थ होता है, काम द्वारा जगाया जाता है। शिव क्रोध से ग्रस्त होता है। त्रिनेत्र द्वारा काम का दहन होता है तब शिवा और शिव युगनद्ध होते हैं। सृष्टि नर्तन का रूपक है यह जिसमें शिव का तांडव है तो शिवा का लास्य भी!
भले कैलास के खोह में रहते हों, शिवयुगल आदि दम्पति हैं। ब्रह्मा सरस्वती तो शापित हो कलंकी हो गये। विष्णु युगल भी आदर्श नहीं, लक्ष्मी चंचला हैं तो उनके स्वामी बला के सुतक्कड़। बच गये गौरी महेश। सारी सीमाओं के बावजूद वे घर घर के हैं। वे लोक दम्पति हैं। सुख, दुख, कलह, मिलाप, कथा, व्यथा, उपासना, वासना आदि आदि सब धारण किये गाँव गाँव घूमते रहते हैं। गृहस्थ के प्रिय देव महादेव हैं। घरनी की प्रिय देवी गउरा पार्वती हैं।
गृहस्थ सबका भार वहन करता है। गृहस्थ धर्म का निबाह निर्बल के वश का नहीं, इसके लिये महादेव सा पौरुष और गिरिजा सा धैर्य ममत्त्व चाहिये। मनु कहते हैं:
जिस प्रकार वायु का आश्रय सभी जीवित प्राणी करते हैं, वैसे ही गृहस्थ का अन्य तीन आश्रम। इसलिये गृहस्थ सर्वोत्तम आश्रम है। ऋषि, पितर, देव, भूत और अतिथि इन सबका पोषण गृहस्थ को ही करना है। यह आश्रम दुर्बल इन्द्रियों वाले के लिये नहीं है। तो इस आश्रम का आदर्श महादेव का दाम्पत्य ही होगा न!
बोलिये भवम भवानी की जय!