रविवार, 26 अक्टूबर 2014

उन्माद और अवसाद

उन्माद

'तिष्ठ' माने बैठना सभी जानते हैं। यहाँ बैठने का प्रयोग खड़े होने के विपरीत के अर्थ में नहीं, स्थाणु - जम जाने के अर्थ में है जैसे आग पर रख कर बारम्बार पकाये जाने वाले बरतन की तली में 'जरठा' बैठ जाय। 'प्र' उपसर्ग 'अति, अत्यधिक आदि' के लिये प्रयुक्त होता है, यह भी जानते हैं। इन दोनों के युग्म से बनती है -प्रतिष्ठा। माने की जो बहुत जम के बैठ जाय, मिटाये न मिटे वह प्रतिष्ठा। पुरानी रचनाओं में इसका प्रयोग वांछनीय और अवांछनीय दोनों के लिये हुआ है - नामी चोर की भी प्रतिष्ठा होती थी! कालांतर में इसका विधायी रूप प्रचलित हो गया। जब ऐसा हुआ तो इसका अंतिम महाप्राण व्यंजन 'ठ' बहुत मारू हो गया। जब अल्पप्राण ध्वनियों में 'ह' जुड़ता है तो महाप्राण ध्वनि बनती है जैसे ट+ह = ठ, त+ह = थ आदि। ध्वन्यात्मकता से देखें तो बिना 'महा'प्राण 'ठ' के इस शब्द में ठसक आती ही नहीं!

प्रतिष्ठा के साथ मद भी आता है। मति कहीं स्थिर हो जाय तो मत बनता है। 'मत' जब अड़ने लगता है तो एक 'त्' और जोड़ लेता है और मनुष्य मत्त हो जाता है। जैसे ट से ठ तक पहुँचते पहुँचते शब्द वजनी हो जाता है वैसे ही जब ये डेढ़ 'त' अपने महाप्राण 'थ' पर पहुँचते हैं तो चित्त को मथ देते हैं और ऐसे में 'द' तक पहुँचते देर नहीं लगती, मन मन्मथ हो मदमत्त हो जाता है। ध तक पहुँचते मदांध होना स्वाभाविक है। ऐसे व्यक्ति की तुलना मद बहाते हाथी मतंग या मतंगज से की जा सकती है। उत्त-उन्न परिवार के उपसर्ग का अर्थ भिगोने से है। मन मद से पूरा अस्तित्त्व भीग जाय तो उन्मत्त होना स्वाभाविक है। पहले की ही तरह त से द तक आते आते व्यक्ति उन्मादी अर्थात मद रूपी सुरा(द्रव) के वशीभूत हो जाता है।
साधो! इस प्रकार उन्माद तक की स्थिति आने में कई पड़ाव आते हैं। उन्हें पहचान कर पहले ही उपाय कर लो ताकि भवसागर से तरे रहो।

अवसाद

अवसाद बहुत मायावी शब्द है। इसके लिये पहले साद को समझ लिया जाय। साद मन:स्थिति का अर्थ इस रूपक से समझा जा सकता है जैसे कि चलते चलते रथ का पहिया कीचड़ में गहरे धँस गया हो! मने कि खो जाने का, डूब जाने का, रुक जाने का, गति थम जाने का, गइल भँइसिया पानी में जैसा नैराश्य भरा भाव। 'अव' लग जाने पर यह सहारा पा और सान्द्र हो जाता है। 'अव'लम्ब से समझिये कि किसी थमे स्तम्भ के सहारे स्वयं को ढीला छोड़ दिया जाय, स्तम्भ खुदे डूबशिरोमणि हो तो क्या कीजै!

तुलसी बाबा तो तोड़ मरोड़ कर कहा जा सकता है कि विशिष्ट आश्रय ले अवसाद 'विषाद' हो जाता है। सीता और राम को भुँइया सोये देख निषाद को विषाद भया!

भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी।।

इस साद के आगे 'प्र' जुड़ते ही चमत्कार होता है। मामला एकदम्मे उलटा हो जाता है। प्रसाद - प्रसन्नता, चमक, उत्साह, दयालुता भरा प्रशांत प्रसन्न भाव - प्रसीद प्रसीद परमेश्वरी प्रार्थना वाला। नव्य ढंग से कहें तो अवसाद से मुक्ति पाने के लिये आप को अव का साथ छोड़ प्र का साथ थामना है, pro होना है, बकिया तो सब मन में हइये है।

वैसे कई लोगों को स को श और श को स कहने की आदत होती है (मुझे भी है)। स को श कहा जाय तो साद 'शाद' हो जाता है। फारसी में 'शाद' के अर्थ आह्लाद, आनन्द, सुख आदि हैं। इसी से 'शादी' बनी है, जिसके अनुसार विवाह माने आनन्द और सुख की प्राप्ति। वह सुख दाम्पत्य का सुख होता है, रतिसुख होता है, संतान सुख होता है आदि आदि हालाँकि तमाम मर्द मानुष शादी के पश्चात आनन्द या सुख नाम की धारणा से तवज्जो न रखते हुये उसे कल्पित ही मानते हैं (मानो कल्प भर की ईति गले पड़ गयी हो!), जब देखो तब बेलन जनित अवसाद का रोना रोते रहते हैं। आप किस ओर हैं?

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