कुहरे भरी कुनकुनी प्रातधूपों के प्रारम्भिक दिन। इन
दिनों जब कि गोरखपुर आँखें फाड़ कुहरे को भेदने के प्रयास कर रहा होता है, मँड़ुवाडीह
स्टेशन पर बनारसी लोग लुगाइयाँ नारंगी धूप गंगा में नहा रहे होते हैं।
आने वाला दिल्ली से आ रहा था, उसे रिसीव करना था सो प्रात:काले
शिवगंगा दर्शन को मँड़ुवाडीह स्टेशन जाना पड़ा। एक स्टेशन पहले या आउटर सिगनल पर समय
से चलती ट्रेन को भी खड़ा कर डिले कर देने की भारतीय रेलवे की उज्जवल परम्परा का निर्वाह
उस दिन भी हुआ था, शिवगंगा जी अगवानी द्वार पर पवना घंटे से खड़ी आरती थाल को अगोर रही
थीं जब कि नरायन गेरुआये चमक रहे थे। मैं प्लेटफार्म पर भटकने और लोगों को परखने
लगा। पूर्वी उत्तरप्रदेश में साफ सुथरा स्टेशन मिलना यूँ ही आप को भौंचक कर देता
है, भीड़ भी कम हो तो दोषदर्शी के लिये कुछ देखने को रहता ही नहीं, इसलिये बहुत
शीघ्र ही बोर हो कर एक बेंच पर बैठ गया।
कुछ
पल में ही पीछे से एक बालक स्वर उभरा – अंकल जी, अंकल जी! बच्चे का स्वर इतना
संभ्रांत और पॉलिश्ड!! आश्चर्य में मैंने दृष्टि
फेरी –केश करीने से कढ़े हुये, साधारण सी स्कूल यूनिफॉर्म में आत्मविश्वास से भरा मन्द
स्मित साँवला सलोना बौद्धिक और गरिमामय तीखे नैन नक्श वाला चेहरा। नाटा सा मासूम लड़का,
अधिक से अधिक छ्ठी कक्षा में पढ़ता होगा। उसने पूछा – अंकल, यह जो सामने ट्रेन खड़ी
है, एक्सप्रेस है न? मैंने इधर उधर चेहरा
घुमाया कि कोई अभिभावक साथ में है या नहीं? कोई नहीं था। बच्चे के हाथ में एक
पॉलीथीन बैग था जिसमें टिफिन रखा हुआ था। मैं सतर्क हो गया – क्या मामला हो सकता
है?
चौरीचौरा एक्सप्रेस को देखते मैंने उत्तर दिया – हाँ, एक्सप्रेस ही है।
चौरीचौरा एक्सप्रेस को देखते मैंने उत्तर दिया – हाँ, एक्सप्रेस ही है।
बच्चे ने उत्तर दिया – भाई जी को छोड़ने आया था। उन्हें
पैसेंजर ट्रेन से एक स्टेशन आगे जाना है, यह तो वहाँ शायद रुके भी नहीं। किसी वयस्क
पुरुष की तरह उसने अपनी चिंता जताई और मुस्कुराते हुये थैंक यू बोल कर आगे बढ़ गया।
मेरे मन में बवंडर उठने लगे – क्या इसके
घर कोई अभिभावक नहीं है? सातवीं में पढ़ते अपने बालक को हमें बस स्टॉप तक छोड़ कर आना
पड़ता है कि कहीं इतने समय में ही कुछ ऐसा वैसा न घट जाय! जब कि यह बच्चा अकेले, भाई को ट्रेन पर चढ़ाने आया है! मैं धीरे धीरे
उसके पीछे चल पड़ा। दूर दिखा कि वह एक विकलांग से बच्चे को छोड़ने आया था जो रह रह
अपनी लाठी के सहारे उठ खड़ा होता और अपने सलोने भाई के कुछ कहने पर पुन: बैठ जाता।
माथे पर सूरज देव की तौंक पड़ी। उसमें से बच्चे के लिये किरण भर मौन आशीर्वाद ले कर मैं बुदबुदाया – शत शरद जियो पुत्र! स्टेशन से घर तक की यात्रा टाइम मशीन की यात्रा से कम नहीं थी, मैं एक आयाम से दूसरे आयाम तक जो पहुँच गया था।
'शत शरद जियो पुत्र' -और ऐसे ही प्रकाशमय तन-मन के साथ जीवन सार्थक करो !
जवाब देंहटाएंएक हमारा भी आयाम है - हर रोज के आउटर से अगले रोज के आउटर तक की यात्रा।
जवाब देंहटाएंआउटर पर टंगी जिन्दगी।
... लिखे बढ़िया हो बन्धु!
आपके आशीष में मेरा भी स्वर सम्मिलित माना जाए! शतायुष्य हो!!
जवाब देंहटाएंइतने अच्छे संस्कार पिता के बझे होने की आशंका का समर्थन तो करते हैं किंतु उसके नालायक होने की सम्भावना पर आपत्ति व्यक्त करते हैं (मेरा मन कहता है - भूल हो सकती है मेरी)...!!
शत शरद जियो..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया !
कल ही एक बच्चे की खबर पढ़ी जिसने भिलाई पुलिस को रेलवे का लोहा चोरने वाले चोर की सूचना दी,और नतीजे में चोर के परिवार ने उस बच्चे की हत्या कर दी.....
जवाब देंहटाएंऔर आज ये बच्चा .....सलाम ऐसे बच्चों को ....
ऐसी घटनाएँ वाकई सोच को भी दूसरे आयाम पर ले जाती हैं...
जवाब देंहटाएंआनंददायक।
जवाब देंहटाएंऐसे बच्चे उम्मीद बनाए रखते हैं कि अभी आने वाली पीढ़ी में संस्कार बचे हुए हैं और बचे रहेंगे.
जवाब देंहटाएंआशीर्वाद ऐसे नौनिहालों को.