कल के सूर्योदय के साथ उदया तिथि में 22 दिसम्बर को
सूर्य उत्तरायण होंगे अर्थात दक्षिण की ओर के अपने अधिकतम झुकाव से उत्तर की ओर
पहला पग लेंगे। उस समय सूर्य मूल नक्षत्र पर होंगे अर्थात आकाश में जिस अयन क्षेत्र में सूर्योदय होगा, वह मूल नक्षत्र (वृश्चिक
राशि के डंक का अंतिम बिन्दु) वाला होगा।
उत्तर दिशा को शून्य
मान कर यदि दक्षिणावर्त चलें तो पूरब दिशा 90
अंश पर आती है। अपने अधिकतम दक्षिणी झुकाव में सूर्योदय लगभग 116 अंश पर होता है और वहाँ से पुन: धीरे धीरे घटाव प्रारम्भ होता है - 115,
114, 113 ...। महाविषुव अर्थात 21 मार्च के
आसपास मधुमास में सूर्योदय पुन: 90 अंश अर्थात ठीक पूरब दिशा
में होगा।
हिन्दुओं में उत्तरायण को मकरसंक्रांति अर्थात सूर्य के धनु
राशि से मकर राशि में संक्रमण तिथि 14/15 जनवरी से जोड़ कर माना जाता है।
कभी ऐसा था किंतु आज ऐसा नहीं है।
अब 14 जनवरी को सूर्य उत्तराषाढ़ नक्षत्र पर होते हैं। उत्तराषाढ़
नक्षत्र पर उत्तरायण सूर्योदय लगभग छठी सदी में होता था जब कि आर्यभट आदि ने अंतिम
बार पंचांग का मानकीकरण किया। तब मकर संक्रांति और उत्तरायण सम्पाती थे। लगभग 25920
वर्षों की आवृत्ति के साथ धरती के घूर्णन अक्ष के शीर्ष बिन्दु की
वृत्तीय गति के कारण यह खिसकन होती है।
अयनवृत्त पर सूर्य का वार्षिक संचरण अथर्ववेद (19.7) अनुसार 28 नक्षत्रों में विभाजित है (संभवत: महाभारत काल में व्यासपीठ के संशोधनों में अभिजित को हटा कर यह विभाजन 27 नक्षत्रों में कर दिया गया)।
वैदिक युग में यह विभाजन सदा समान नहीं था। समान विभाजन कालांतर में गणितीय सुविधा हेतु किया गया जिसके कारण पश्चिम के 12 राशि तंत्र को अपनाना और उसके भीतर नक्षत्र आधारित काल गणना को समायोजित करना सरल रहा।
आधुनिक विद्वानों ने वैदिक समय की मान्यता के अनुसार 25920 वर्ष के समय अंतराल को महाविषुव के दिन सूर्य के किसी नक्षत्र पर होने से इन अवधियों में बाँटा है:
मृगशिरा - 363, आर्द्रा 1761, पुनर्वसु 1116, पुष्य 354, अश्लेषा
1164, मघा 828, पूर्व फाल्गुनी 741,
उत्तर फाल्गुनी 1572, हस्त 748, चित्रा 30, स्वाति 1500, विशाखा
1257, अनुराधा 519, ज्येष्ठा 1068,
मूल 720, पूर्वाषाढ़ 561, उत्तराषाढ़ 213, अभिजित 1185, श्रावण
1047, धनिष्ठा 1818, शतभिषा 858,
पूर्व भाद्रपद 1128, उत्तर भाद्रपद 771,
रेवती 1017, अश्वायुज 1026, भरणी 849, कृत्तिका 705, रोहिणी 1002।
इस समय महाविषुव पूर्वभाद्रपद नक्षत्र पर है
जिसके 455 वर्ष
बीत चुके हैं। महाविषुव की खिसकन के कारण पर्वों को मनाने में अब 23 दिनों का अंतर आ चुका है, पर्व पंचांग में संशोधन
होने चाहिये।
गज़ब!
जवाब देंहटाएंबाबा रे बाबा........... समझ नहीं आया। भूगोल पढ़ी है, ज्योतिष नहीं।
जवाब देंहटाएंमैं आशा करती हूं कि कभी यह समझ पाऊंगी।
भीष्म पितामह ने जब प्राण त्यागे थे क्या उस समय संक्रांति और उत्तरायण एक ही थे? और उस समय सूर्योदय किस नक्षत्र में था ?
जवाब देंहटाएंवैदिक समय की मान्यता के अनुसार 25920 वर्ष के समय अंतराल को महाविषुव के दिन सूर्य के किसी नक्षत्र पर होने से जिन अवधियों में बाँटा है वो मृगशिरा से शुरू होते हुए पिछला रोहिणी तक क्रमिक रूप से है जो अब पूर्वभाद्रपद पर है ?
(1) जय संहिता (8800 श्लोक) से महाभारत (लगभग 100000 श्लोक) तक होने में महाभारत कई बार भिन्न भिन्न कालखंडों में परिवर्द्धित किया गया। जो कालखंड महाभारत का बताया जाता है, उस में भारतीय राशि या संक्रांति से परिचालित न हो कर वैदिक श्रौत सत्रों से संचालित होते थे। पितामह के लिये सूर्य का उत्तरायण होना महत्त्वपूर्ण रहा होगा न कि मकर संक्रांति क्यों कि ऐसे किसी विभाजन या संक्रमण से उस समय के गणित ज्योतिष को कुछ नहीं लेना देना था।
जवाब देंहटाएंयहाँ एक पक्ष यह भी है कि महाविषुव आधारित देवयान और पितृयान की संकल्पना उत्तरायण और दक्षिणायन से कैसे जुड़ती रही या परिवर्तित हुई। किसी भी यान को अच्छा या खराब मानना बाद का विकास है - शतपथ ब्राह्मण से भी बाद का।
(2) महाविषुव आज पूर्वभाद्रपद नक्षत्र पर ही है। आधुनिक राशियों Pegasus और Pisces वाला क्षेत्र।
(3) जब हम महाविषुव vernal equinox के पश्चगमन precession की 25920 वर्षों की आवृत्ति की बात करते हैं तो सरलता के लिये बाकी गतियों जैसे nutation (दोलन), अक्षीय झुकाव के परिवर्तन (22° 13' 44" से 24° 20' 50" के बीच का दोलन) और अन्य ग्रह आकाशीय पिंडों के प्रभाव आदि को छोड़ देते हैं। इन सबका सम्मिलित प्रभाव बहुत ही जटिल है और लम्बी संगणकीय गणनाओं की माँग करता है। सम्मिलित प्रभाव के पश्चात की आवृत्ति लगभग 19500 से 23500 वर्षों की परास में पड़ती है। 4000 वर्षों का यह अंतर जटिलता को रेखांकित करता है। अधिक जानना हो तो नेट पर Milankovitch Cycles डाल कर ढूँढ़ें।
जवाब देंहटाएं(4) नक्षत्रों में तारों की संख्या एक समान नहीं है। इसलिये सूर्य के आभासी नभ पथ ecliptic का विभाजन भी बराबर खंडों में नहीं था। यह भी कि हजारो वर्ष पहले की तुलना में अब क्रांतिमंडल ecliptic से नक्षत्रों की स्थितियाँ भी बदल चुकी हैं। धीमी गति से ऐसा होने के कारण अब भी स्थिति ऐसी नहीं कि संबंध पहचाने न जा सकें।
(5) आर्ष ग्रंथों में वर्णित बातों के अलंकार और ढंग को समझने के लिये उन्हीं के समकालीन भाषा तंत्र अर्थात वैदिक छान्दस या प्रारम्भिक संस्कृत का प्रयोग करना होगा। निरुक्त शास्त्र का सतर्क अध्ययन और उसका उपयोग अपेक्षित हैं।
(6) आधुनिक तकनीकी और विज्ञान के प्रयोग से तत्कालीन प्रेक्षणों को उनके संगत रूप में समझा जा रहा है। यह सतत जारी प्रक्रिया है।
Ye hui baat. chura ,dahi aur tilkut ka bhog aaj hi lagata hoon. BTWur writeup/research is thought provoking....surya ki gati ko dekh Konark par likhe aap ke lekh yaad aa gaye. waise main to Bau ka deewana hoon.
जवाब देंहटाएंगज़ब ... कितना कुछ है जिसको जाना, समझा और सोचा नहीं है आज तक ...
जवाब देंहटाएंपढो तो किसी फंतासी से कम नहीं लगता ...
बहुत कुछ नया जानने मिला है. आभार
जवाब देंहटाएंदिल्ली में सबसे छोटे दिन (10 घंटे 19 मिनट 7 सैकंड) 20,21 और 22 दिसंबर को होते है और 23 दिसंबर से दिन बड़े होने शुरू होते हैं. किन्तु सूर्यास्त सबसे जल्दी 28 नबम्बर से 5 दिसंबर के बीच होता है. उसके बाद देर से सूर्यास्त होना शुरू होता है. सूर्योदय 13 जनवरी (मकर संक्रांति) तक लगातार और अधिक देरी से उगता है (8 जनवरी से 13 जनवरी को प्रातः 7:13 पर) उसके बाद जल्दी निकलना शुरू. क्या मकर संकांति का सम्बन्ध सूर्योदय के जल्दी शुरू होने से है?
जवाब देंहटाएंपञ्चांग में संशोधन की जिम्मेवारी भारत सरकार के विज्ञान और प्रोद्योगिकी मंत्रालय की होती है जो इसे पुणे और उज्जैन की वेधशालाओं की सिफारिश पर दुरुस्त करता रहता है.
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