ननकाना से करीब दस मील दूर के उस गाँव में बस एक हिन्दू दीवानराय का परिवार बचा रहा। कारण था तुग्गन खाँ। तुग्गन की दीवानराय से छनती थी। तुग्गन ने न हाँ बोला, न ना लेकिन उसकी दहशत ही कुछ ऐसी थी कि दीवानराय बच गया। वक़्त गुजरता गया, करीब नौ साल बाद एक दिन अच्छे भले तुग्गन का अपने घर में ही इंतकाल हो गया। किसी ने सबसे अधिक मातम मनाया तो दीवानराय ने, और तो और उसकी मौत पर सवाल खड़ा कर खुद पर भी सवालिया निशान लगा लिया उसने। गाँव वालों ने एक बात नोटिस की - उस दिन के बाद दीवान के घर की खवातीन ने घर से बाहर निकलना छोड़ दिया। पैंसठ की लड़ाई के दौरान ही दीवानराय चल बसा। अर्थी तैयार करते उसके बेटे केशव को बड़े बुजुर्ग सलामत ने रोक दिया - आग में जलाना कुफ्र है। केशव के ऊपर बिजली गिरी - लेकिन हम तो ... उसकी बात को अधूरा ही रोक सलामत मियाँ गरजे - बहुत हो गया, अब बस्स! केशव ने बाकी गाँव वालों की ओर देखा और खामोशी के पीछे झाँकती नफरत को भाँप गया। उसने हाथ जोड़े, बूढ़े जवानों के पाँव पड़ा लेकिन बात नहीं सुलझी।
दिन ढल गया तो गाँव वाले अपने अपने घर चले गये। बाप की देह के पास सारी रात केशव खामोश बैठा रहा। सुबह सलामती का सन्देश पहुँचा - दीन कुबूल कर लो तो दफना सकते हो। केशव ने न हाँ कहा और न ना। तिजहर को चुपचाप कलमा पढ़ने पहुँच गया। शुकराना सलामी वगैरह के बाद नये मियाँ कसाब ने बाप का जनाजा उठाने की बात कही तो सलामत मियाँ फौरन तैयार हो गये लेकिन तौफीक ने एक पेंच पेश कर दिया - दीवान तो काफिर ही मरा, उसको अपने कब्रिस्तान में कैसे दफना सकते हैं, हिन्दू कब्रिस्तान तो है नहीं? सलामत मियाँ चुप हो गये। गाँव तो जैसे पहले चुप था, अब भी बना रहा। कसाब ने पूछा - मुर्दे को कलमा नहीं पढ़ा सकते क्या? जवाब का इंतजार किया और चुप्पी को और गहरा बनाते घर की ओर लौट पड़ा।
उस रात तब जब कि सब मीठी नींद में सो रहे थे, कसाब मियाँ ने अपने पहले और आखिरी कुफ्र को अंजाम दिया। उनींदा गाँव जागा और इकठ्ठा हुआ - घर धू धू कर जल रहा था, न तो लाश का पता था, न कसाब का और न घर की खवातीन का। माहौल में बस उसी सवाल की चट चट थी - मुर्दे को कलमा नहीं पढ़ा सकते क्या?
अगर आप हाल फिलहाल पाकिस्तान जाने वाले हों तो मुझसे उस गाँव का पता लेते जाइयेगा। वहाँ जहाँ मस्जिद दिखेगी न, वहीं केशव का घर था। दीनी कसाब को तो न घर मयस्सर हुआ और न कब्रिस्तान ही।