शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

मुर्दे को कलमा नहीं

ननकाना से करीब दस मील दूर के उस गाँव में बस एक हिन्दू दीवानराय का परिवार बचा रहा। कारण था तुग्गन खाँ। तुग्गन की दीवानराय से छनती थी। तुग्गन ने न हाँ बोला, न ना लेकिन उसकी दहशत ही कुछ ऐसी थी कि दीवानराय बच गया। वक़्त गुजरता गया, करीब नौ साल बाद एक दिन अच्छे भले तुग्गन का अपने घर में ही इंतकाल हो गया। किसी ने सबसे अधिक मातम मनाया तो दीवानराय ने, और तो और उसकी मौत पर सवाल खड़ा कर खुद पर भी सवालिया निशान लगा लिया उसने। गाँव वालों ने एक बात नोटिस की - उस दिन के बाद दीवान के घर की खवातीन ने घर से बाहर निकलना छोड़ दिया। पैंसठ की लड़ाई के दौरान ही दीवानराय चल बसा। अर्थी तैयार करते उसके बेटे केशव को बड़े बुजुर्ग सलामत ने रोक दिया - आग में जलाना कुफ्र है। केशव के ऊपर बिजली गिरी - लेकिन हम तो ... उसकी बात को अधूरा ही रोक सलामत मियाँ गरजे - बहुत हो गया, अब बस्स! केशव ने बाकी गाँव वालों की ओर देखा और खामोशी के पीछे झाँकती नफरत को भाँप गया। उसने हाथ जोड़े, बूढ़े जवानों के पाँव पड़ा लेकिन बात नहीं सुलझी।

दिन ढल गया तो गाँव वाले अपने अपने घर चले गये। बाप की देह के पास सारी रात केशव खामोश बैठा रहा। सुबह सलामती का सन्देश पहुँचा - दीन कुबूल कर लो तो दफना सकते हो। केशव ने न हाँ कहा और न ना। तिजहर को चुपचाप कलमा पढ़ने पहुँच गया। शुकराना सलामी वगैरह के बाद नये मियाँ कसाब ने बाप का जनाजा उठाने की बात कही तो सलामत मियाँ फौरन तैयार हो गये लेकिन तौफीक ने एक पेंच पेश कर दिया - दीवान तो काफिर ही मरा, उसको अपने कब्रिस्तान में कैसे दफना सकते हैं, हिन्दू कब्रिस्तान तो है नहीं? सलामत मियाँ चुप हो गये। गाँव तो जैसे पहले चुप था, अब भी बना रहा। कसाब ने पूछा - मुर्दे को कलमा नहीं पढ़ा सकते क्या? जवाब का इंतजार किया और चुप्पी को और गहरा बनाते घर की ओर लौट पड़ा।

उस रात तब जब कि सब मीठी नींद में सो रहे थे, कसाब मियाँ ने अपने पहले और आखिरी कुफ्र को अंजाम दिया। उनींदा गाँव जागा और इकठ्ठा हुआ - घर धू धू कर जल रहा था, न तो लाश का पता था, न कसाब का और न घर की खवातीन का। माहौल में बस उसी सवाल की चट चट थी - मुर्दे को कलमा नहीं पढ़ा सकते क्या?

अगर आप हाल फिलहाल पाकिस्तान जाने वाले हों तो मुझसे उस गाँव का पता लेते जाइयेगा। वहाँ जहाँ मस्जिद दिखेगी न, वहीं केशव का घर था। दीनी कसाब को तो न घर मयस्सर हुआ और न कब्रिस्तान ही।

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

राम की शक्तिपूजा - स्वर आयोजन, अंतिम भाग

दीपावली अमानिशा से जागरण का पर्व होती है। वर्षों से लम्बित पड़े स्वर आयोजन का प्रारम्भ करने को सोचा तो यह भी ध्यान में आया कि रात में जगना तो मुझसे हो नहीं पाता!

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा 2072 सूर्योदय के पहले, भोर में जाग कर निराला जी की इस अद्भुत कविता के अंतिम भाग का ध्वनि अंकन किया। निशा बीत चुकी थी इसलिये प्रारम्भ भी राघव के जागरण अर्थात 'निशि हुई विगत ...' से किया। सुनिये।

ध्वनि सम्पादन नहीं किया है। समर्थ जन नाम और सन्दर्भ दे कर संपादन प्रकाशन के लिये स्वतंत्र हैं।

रविवार, 1 नवंबर 2015

बँटवारे के खिलाफ

सीजन शुरू नहीं हुआ था। छोटी लाइन के उस पार पंजाब चीनी मिल की ऊँची चिमनी से वह सम्मोहक धुँआ नहीं निकल रहा था जो स्कूल पर राख बिखेर हमारे श्वेतवसन साँझ तक काले कर देता था। इसके बावजूद उसके ऊपर की छतरी मुझे बहुत कलात्मक लगती थी।  फैक्ट्री में आग नहीं थी लेकिन 'हिन्दू' इन्दिरा की हत्या से उपजी घृणा हम जैसे मासूमों के भी भीतर सुलग रही थी। बाज़ार सहित तीनों प्रमुख चौराहे अफवाहों से गर्म थे।

घृणा के बाद भी मुझे मिल के क़्वार्टर में रहने वाले हैप्पी बन्धुओं के बारे में चिंता थी। विद्यालय के शिविर आयोजन की रात जब वे दोनों गाते, मुझे पंजाबी शब्द ठीक ठीक याद नहीं - परमै पिताजी तन कुर्बाणी, देश को .... तो रोंगटे खड़े हो जाते, लगता कि गुर गोविन्द सिंह के दोनों लाल गा रहे हैं!

सरदारों की दुकानों के लूटे जाने की खबरें आने लगीं और यह भी कि केश दाढ़ी कट रहे थे। आँखों को पढ़ने में तब भी सक्षम था। सूचना देने वालों की आँखों की नफरत आज भी भीतर कहीं गजबजा रही है - उन मेहनती सरदारों की समृद्धि से जलते देसवालियों की कुंठा ने अलग रूप ले लिया था। पिताजी बेचैन थे, इन्दिरा की हत्या से उन्हें भी बहुत दुख था लेकिन उससे भी गहरे कुछ था जो उन्हें असहज किये हुये था - जो हो रहा है, ठीक नहीं है। क़स्बे की नेकनियती पर उन्हें भरोसा भी था, लूट पाट के अलावा कुछ और नहीं हो सकता! पंजाब मिल किसानों को रोटी देता है... ।

शाम को हमलोग साथ ही तरकारी खरीदने गये। लौटना गोश्तमंडी से ही होता था। कुछ सुन कर पिताजी ठिठक गये। कसाई अपनी वीरता सुना रहा था - बड़ी मरली हँई सरऊ सरदारा के। उस गन्दे दुर्गन्धित स्थान पर ठीहे के पास ही झोले में लूट के नये सामान दिख रहे थे। श्रोताओं में लगभग सभी हिन्दू ही थे जिनकी आँखों में हसरतें मचल रही थीं।  मैं उनमें प्रशंसा भाव भी देख सन्न था।
घर पहुँचने पर पिताजी दुआर पड़ी खटिया पर घस्स से बैठ गये। उनकी बुदबुदाहट में मैं बस यही सुन पाया - बँटवारा।
उस रात उन्हों ने भोजन नहीं किया। हम सबने समझा कि इन्दिरा जी की हत्या से दुखी हैं, जनता लहर में भी गाँव के विरुद्ध जा कर कांग्रेस को वोट देने वाले एकमात्र मतदाता जो थे! 
 
इतने वर्षों के पश्चात आज उनका एकरतिया अनशन समझ पा रहा हूँ - वह बँटवारे के खिलाफ था।