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बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

मैं हूँ न! अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं

कुछ कथायें या गाथायें चिरजीवी क्यों हो जाती हैं? कई कारणों में से एक यह भी है कि वे जीवन के शाश्वत सत्यों की कोष होती हैं। जन उनमें अपनी उच्चकामा प्रज्ञा को आश्रय दे पाते हैं। ऐसी गाथायें जातीय संस्कार का अंग हो परिष्कार भी करती हैं। जो साधारण कार्यव्यापार हैं उनसे ऊपर, बहुत ऊपर तक पहुँचा देती हैं, आत्मविभूतियोग के स्तर तक।
आल्हा हो, लोरिकाइन हो, रासो हों या प्राचीन महाकाव्य; सबमें ऐसे प्रसंग मिलते हैं जो ऊर्ध्वरेता चेतना की चरम अभिव्यक्ति होते हैं।
आधुनिक काव्य ‘राम की शक्ति पूजा’ में श्रीराम के आँसू देख हनुमान की प्रतिक्रिया देखिये:
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग भंग, उठते पहाड़,
जलराशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत वायु वेगबल, डूबा अतल में देश भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद क्षुब्ध कर अट्टहास।
भगवद्गीता का आत्मविभूति हो या दिव्य रूप, चेतना का वही आयाम है।
कहते हैं कि विश्वामित्र के पिता पितर गाधि या गाथिन का सम्बन्ध भी गाथाओं से ही है। रामकथा में वह मंत्रद्रष्टा ऋषि परम्परा मनुजता और ऐश्वर्य के बीच सेतु का कार्य करती है  और आगे के लिये मार्ग प्रशस्त कर देती है।
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 जामवंत जी के प्रेरणा भरे शब्द सुन कर हनूमंतं महाबलं रामकाज सम्पन्न करने को उद्यत हो अपनी देह बढ़ाने लगे। देह बढ़ाना क्या है? आत्मबल का दैहिक सीमाओं का अतिक्रमण। कोई चिंता नहीं, कोई संशय नहीं बल्कि अपने ही बल का स्मरण करते हर्ष भी है – हर्षाद् बलमुपेयिवान्। आत्मविभूति का साक्षात्कार होता है, कहते हैं अयुतं योजनानां तु गमिष्यामीति में मति:, सौ योजन की कौन कहे, मैं तो अयुत योजन को भी पार कर जाऊँगा। मैं हूँ न! तुम सभी निश्चिन्त रहो, मैं वैदेही के दर्शन अवश्य करूँगा, मोद मनाओ - अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं प्रमोदध्वं प्लवंगमाः।
वाल्मीकि जी शब्दों के संयोजन से तुल्य प्रभाव का सृजन करते हैं:
अम्बरीषोपमं दीप्तं विधूम इव पावकः
हरीणामुत्थितो मध्यात्संप्रहृष्टतनूरुहः ...
अरुजन्पर्वताग्राणि हुताशनसखोऽनिलः
बलवानप्रमेयश्च वायुराकाशगोचरः
तस्याहं शीघ्रवेगस्य शीघ्रगस्य महात्मनः
मारुतस्यौरसः पुत्रः प्लवने नास्ति मे समः
उत्सहेयं हि विस्तीर्णमालिखन्तमिवाम्बरम्
मेरुं गिरिमसंगेन परिगन्तुं सहस्रशः
बाहुवेगप्रणुन्नेन सागरेणाहमुत्सहे
समाप्लावयितुं लोकं सपर्वतनदीह्रदम्
ममोरुजङ्घावेगेन भविष्यति समुत्थितः
संमूर्छितमहाग्राहः समुद्रो वरुणालयः
...
सागरं क्षोभयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम्
पर्वतान्कम्पयिष्यामि प्लवमानः प्लवंगमाः
हरिष्ये चोरुवेगेन प्लवमानो महार्णवम्
...
महामेरुप्रतीकाशं मां द्रक्ष्यध्वं प्लवंगमाः
दिवमावृत्य गच्छन्तं ग्रसमानमिवाम्बरम्
विधमिष्यामि जीमूतान्कम्पयिष्यामि पर्वतान्
सागरं क्षोभयिष्यामि प्लवमानः समाहितः
...
निमेषान्तरमात्रेण निरालम्भनमम्बरम्
सहसा निपतिष्यामि घनाद्विद्युदिवोत्थिता
...
अयुतं योजनानां तु गमिष्यामीति मे मतिः
वासवस्य सवज्रस्य ब्रह्मणो वा स्वयम्भुवः
विक्रम्य सहसा हस्तादमृतं तदिहानये
 मैं समस्त ग्रह नक्षत्रादि को लाँघ सकता हूँ, चाहूँ तो समुद्र सोख लूँ, पृथ्वी विदीर्ण कर दूँ, पर्वतों को चूर कर दूँ ...
स्यात निराला जी की प्रेरणा यह संयोजन रहा होगा। 
अनुवाद में सौन्दर्य नष्ट हो जाता है, इन अनुष्टुपों का सस्वर पाठ उस वातावरण का अनुमान करा देता है जिसमें मनुष्य देह से परे जा वज्रांग और अप्रतिहत हो जाता है।

...देह सिकोड़ कर महाबली छलाँग लगाने को उद्यत हैं। ऊर्जस्वित मारुति का प्रभाव परिवेश पर भी है –
... त्यज्यमानमहासानु: संनिलीनमहोरग:
शैलशृङ्गशिलोत्पातस्तदाभूत् स महागिरि:
बड़े बड़े सर्प बिलों में छिप गये, पर्वत के शिखरों से बड़ी बड़ी शिलायें टूट टूट गिरने लगीं, पर्वत बड़ी  दुरवस्था में पड़ गया।
मन में केवल लक्ष्य ही दिख रहा था। कवि कहते हैं, महानुभाव मनस्वी ने मन ही मन लङ्का का स्मरण किया:
मन: समाधाय महानुभावो, जगाम लङ्का मनसा मनस्वी!

॥इति किष्किन्धाकाण्ड॥
(आगे सुन्दरकाण्ड)  

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

तुम जाओगे मारुति!

भारत महाकाव्य 75 वर्ष पाये व्यक्ति को ऋषि की संज्ञा देता है। ऋषि अर्थात जो जीवन ऋचा का द्रष्टा हो। वृद्ध का कार्य नयी पीढ़ी को पहचानना, दिशा देना, उत्साहित करना और प्रेरित करना होता है। जो बूढ़े केवल कोसने का काम करें उन्हें मृत ही मानना चाहिये।
...............
विषण्ण किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में बूढ़े जामवंत कहते हैं – एष संचोदयाम्येनं य: कार्ये साधयिष्यति। अब मैं उसे प्रेरित कर रहा हूँ जो इस कार्य को सिद्ध कर देगा।
हनुमान तुम चुपचाप बैठे हो, बोलते क्यों नहीं? किं न जल्पसि?
गरुड़ का दृष्टांत देते हुये भूली शक्ति का आह्वान करते हैं, जैसे संकेत कर रहे हों,  विनता के पुत्र गरुड़ विष्णु के वाहन हैं और तुम्हारे ऊपर श्रीराम की आशा आरूढ़ है, उठो! बल और वेग में तुम उनसे कम नहीं!!
अरिष्टनेमि: पुत्रो वैनतेयो महाबल:
पक्षर्योयद् बलं तस्य भुजवीर्यबलं तव
विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते
बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिपुङ्गव
विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं सज्जसे?
जामवंत जी असाध्य कार्य साधन हेतु गुण गिनाते हैं – बल, वेग, बुद्धि, तेज, सत्त्व और विशिष्ट नवोन्मेषी स्वभाव। हनुमान!  तुममें वह सब है, तुम स्वयं को अभियान हेतु सज्जित क्यों नहीं करते?
बस कहना पर्याप्त नहीं होगा यह सोच हनुमान को उनका पूरा बाल्यकाल बताते पराक्रम गिनाते हैं और समर्पण कर देते हैं:
मैं बूढ़ा हुआ, पराक्रम घट गया और तुम सब गुण सम्पन्न हो।
स इदानीमहं वृद्ध: परिहीनपराक्रम: ... भवान् सर्वगुणान्वित:
पुरानी पीढ़ी को एक समय बागडोर नयी को थमानी पड़ती है। अवसर और सुपात्र की पहचान ऋषि का काम है। जाम्बवान ऋषि हैं।
हनुमान जी से कहते हैं कि हम सभी विक्रांत पराक्रम देखना चाहते हैं – विक्रांत द्रष्टुकामा हि सर्वा वानरवाहिनी
पुन: पुन: प्रेरित करते हैं – उत्तिष्ठ हरिशार्दूल! अंत में विष्णु के तीन पग द्वारा पृथ्वी नापने के पराक्रम की तुलना कर जैसे स्मृति दिलाते हैं – तुम्हारा वह आराध्य तुझमें समर्पण कर बैठा अगोरा में है, उसका और हम सबकी चिंता हरो – विषण्णा हरय: सर्वे!
विक्रमस्व महावेग विष्णुस्त्रीन् विक्रमानिव।
मनोविज्ञान में एक बात कही जाती है – विधायी सुझाव की, Self suggestion.
जामवंत जी उसी का प्रयोग करते हैं। विक्रम शब्द इतनी बार कहते हैं कि हनुमान को प्रबोध और विश्वास हो उठता है:
चोदित: प्रतीतवेग: पवनात्मज: कपि:!
 प्रेरित हनुमान सबका हर्ष बढ़ाते अपना विराट रूप धारण कर लेते हैं – प्रहर्षयंस्तां हरिवीरवाहिनीं चकार रूपं महदात्मनस्तदा

( शेष आगे)         

सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

जामवंत जी! उस पार कौन जायेगा?

निर्लिप्त हनुमान एकांत का आश्रय ले किनारे सुखपूर्वक बैठे हुये हैं। सामने महोदधि लहरा रहा है। वानरों के सामने बड़ी समस्या है कि पार कैसे करें?
नेता अङ्गद अन्य सबसे समुद्र को लाँघने की क्षमता के बारे में पूछते हैं। सभी बताते हैं लेकिन किसी की क्षमता पर्याप्त नहीं है। जाम्बवान भी वार्धक्य की दुर्बलता दर्शाते हुये अक्षमता बता देते हैं। 
अन्तत: अङ्गद जैसे तैयार हो रहे हों, अपनी सीमा बताते हैं – पार तो कर जाऊँगा लेकिन लौट पाऊँगा इसमें अनिश्चय है – निवर्तने तु में शक्ति: स्यान्न वेति न निश्चितं!  
वृद्ध बुद्धिमान जाम्बवान उनकी क्षमता का बखान करते हुये उन्हें ऐसा करने से बरजते हैं। जो कहते हैं वह बहुत ही समीचीन है:
नहि प्रेषयिता तात स्वामी प्रेष्य: कथंचन 
भवता अयम् जनः सर्वः प्रेष्यः प्लवग सत्तम 
भवान् कलत्रम् अस्माकम् स्वामि भावे व्यवस्थितः 
स्वामी कलत्रम् सैन्यस्य गतिः एषा परंतप
अपि वै एतस्य कार्यस्य भवान् मूलम् अरिम् दम
तस्मात् कलत्रवत् तात प्रतिपाल्यः सदा भवान्
मूलम् अर्थस्य संरक्ष्यम् एष कार्यविदाम् नयः
मूले हि सति सिध्यन्ति गुणाः पुष्प फल उदयः
कलत्रशब्द का अप्रचलित, पुराना मूल प्रयोग कर एक बार पुन: वाल्मीकि जी संहितासमांतर परम्परा के वाहक सिद्ध होते हैं। इस शब्द का अर्थ पूछेंगे तो ज्ञाता रूढ़ अर्थ बतायेंगे पत्नी किंतु यहाँ यह शब्द रक्षणीयअर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पत्नी या भार्या रक्षणीय होती है क्यों कि वह धर्म की मूल है। इस शब्द का का अर्थ राजदुर्ग भी होता है जिसमें बहुत कुछ मूल्यवान जमा होता है इसलिये वह रक्षणीय होता है। इसका अर्थ गुह्य मर्मस्थल भी होते हैं जो रक्षणीय होते हैं। 
जामवंत कहते हैं नहीं कुमार, आप तो स्वामी प्रेषक हैं आप प्रेष्य सेवक कैसे हो सकते हैं? आप का कार्य तो कर्ता को नियुक्त करना है। आप हमारे कलत्र हैं जिसे हमने अपना स्वामीबना रखा है। आप की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है (हम वहाँ भेज आप को कैसे संकट में डाल सकते हैं?)। आप सेना के कलत्र हैं, आप की रक्षा करनी ही होगी। हे शत्रुदमन! आप इस कार्य के मूल में हैं (जैसे भार्या गृहधर्म की होती है) इसलिये हमें आप का प्रतिपालन कलत्रवत ही करना है। किसी भी उद्योग को करते समय उसके मूलार्थ की रक्षा करनी होती है। मूल के सुरक्षित रहने से सभी गुण सिद्ध होते हैं और फल फूल भी प्राप्त होते हैं। आप रक्षणीय हैं, आप को सङ्कट में नहीं डाल सकते।

रविवार, 16 अक्टूबर 2016

हनुमंस्तथा कुरुष्व


हनुमान जी को सीता अन्वेषण हेतु विदा करते श्रीराम जी के अंतिम उद्गार ये थे: 
 अतिबल बलमाश्रितस्तवाहम्,
हरिवर विक्रम विक्रमैरनल्पै:।  
पवनसुत यथाधिगम्यते सा, 
जनकसुता हनुमंस्तथा कुरुष्व॥

समर्पण की सर्वोच्च अवस्था में भक्त आराध्य से कहता है - सब छोड़ कर तुम्हारी शरण हूं, मेरे लिए जो तुम्हें योग्य लगे करो! यथा योग्यं तथा कुरु! 
क्यों न कहे? द्वापर में कह गये न - सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज
यहाँ त्रेता में अद्भुत क्षण है। आराध्य स्वयं भक्त को समर्पित हो रहा है। राघव ने सब कुछ हनुमान पर छोड़ दिया है,
”हे परम बलशाली! मैं तुम्हारे बल के सहारे हूँ। हे अमित विक्रमी वानर! हे पवनसुत! तुम्हारा कोई भी पराक्रम अल्प नहीं होता। जिस प्रकार भी जनकसुता का उद्धार हो सके, करो। जाओ हनुमान,
यथाधिगम्यते ... तथा कुरु!”
आराध्य का समर्पण और सीता देवी का वात्सल्य, क्रमश: लङ्का प्रवेश और निर्गम के समय हनुमान जी के कवच बन गये। 

शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

सुंदरकाण्ड में अग्निपरीक्षा


हनुमान जी के लांगूल में आग लगा दी गई है। हिंसक आनंद से भर राक्षसियां सीता जी को समाचार देती हैं - तुम्हारे उस ललमुंहे की पूंछ में आग लगा घुमाया जा रहा है - ताम्र मुखः कपिः ... लांगूलेन प्रदीप्तेन स एष परिणीयते!
सीता जी व्यग्र हो उठती हैं। कवि कैसे समझाये उस पीड़ा की तीव्रता को? अभिधा, लक्षणा, व्यंजना सब व्यर्थ हैं। माता की पीड़ा को उस उपमा का सहारा देते हैं जो रामायण में संभवत: एक बार ही प्रयुक्त हुई है:
श्रुत्वा तत् वचनम् क्रूरम् आत्म अपहरण उपमम्।
सूचना देने वाले शब्द क्रूर हैं और उनसे जो पीड़ा हुई है वह वैसी ही है जैसी रावण द्वारा अपहरण के समय उन्हें हुई थी।
सीता देवी के हाथ हुताशन अग्नि से प्रार्थना में जुड़ जाते हैं - कपि के लिए शीतल हो जाओ। 'कच्चित्' शब्द को ले अद्भुत करने वाले कवि कुल श्रेष्ठ 'यदि' शब्द का साथ ले एक तुलनीय प्रसंग रचते हैं।
माँ अपने समस्त पुण्य दाँव पर लगा देती है! सीता जी अपनी उस विशिष्टता को दाँव पर लगा देती हैं जिसके लिए आगे उन्हें युगों युगों तक आदर्श मान पूजा जाने वाला है। वाल्मीकि कहते हैं - मङ्गलाभिमुखी!
वैदेही शोकसंतप्ता हुताशनमुपागमत्
मङ्गलाभिमुखी तस्य सा तदासीन्महाकपेः
उपतस्थे विशालाक्षी प्रयता हव्यवाहनम्
यद्यस्ति पतिशुश्रूषा यद्यस्ति चरितं तपः
यदि चास्त्येकपत्नीत्वं शीतो भव हनूमतः
यदि कश्चिदनुक्रोशस्तस्य मय्यस्ति धीमतः
यदि वा भाग्यशेषं मे शीतो भव हनूमतः
यदि मां वृत्तसंपन्नां तत्समागमलालसाम्
स विजानाति धर्मात्मा शीतो भव हनूमतः
यदि मां तारयत्यार्यः सुग्रीवः सत्यसंगरः
अस्माद्दुःखान्महाबाहुः शीतो भव हनूमतः

यदि मैं पति के प्रति एकनिष्ठ हूं, यदि पति की शुश्रूषा की है, यदि मैं तपस्विनी चरित्र की हूँ ...यदि श्रीराम के मन में मेरे लिए थोड़ी भी दयालुता शेष है, यदि मेरे भाग्य में थोड़ा भी कुछ शुभ शेष है ... यदि श्रीराम मुझे उदात्त नैतिक चरित्र की मानते हैं जिसके भीतर उनसे मिलन की लालसा है.... यदि सत्यशील सुग्रीव के नेतृत्व वाली सेना मुझे मुक्त कराने वाली है ... 
तो हनुमत के लिए शीतल हो जाओ।

अग्नि कहाँ ऐसी के सामने ठहर सकते हैं? शिखाओं द्वारा प्रदक्षिण हो सीता को मान रखने की सूचना देते हैं। पवन देव भी शीतल वायु हो हनुमान को लपेट लेते हैं और हनुमान को आश्चर्य हो रहा है, चिन्ता हो रही है कि लांगूल दहक रहा है, आग चारो ओर इतनी प्रदीप्त है लेकिन मुझे जला क्यों नहीं रही?
तस्तीक्ष्णार्चिरव्यग्रः प्रदक्षिणशिखोऽनलः
जज्वाल मृगशावाक्ष्याः शंसन्निव शिवं कपेः
हनुमज्जनकश्चापि पुच्छानलयुतोऽनिलः
ववौ स्वास्थ्यकरो देव्याः प्रालेयानिलशीतलः
दह्यमाने च लाङ्गूले चिन्तयामास वानरः
प्रदीप्तोऽग्निरयं कस्मान्न मां दहति सर्वतः 
पूँछ आग में है लेकिन इतनी शीतल जैसे कि उस पर शिशिर ऋतु का संपात हुआ हो!
शिशिरस्य इव सम्पातो लाङ्गूल अग्ने प्रतिष्ठितः 
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जो सीता हैं न, हम सबकी आदर्श, उनकी अग्निपरीक्षा यह है। 

https://www.valmiki.iitk.ac.in/sloka?field_kanda_tid=5&language=dv&field_sarga_value=53

पहली भेंट

वाल्मीकि जी के यहाँ अनेक शब्द अपने वैदिक और पुराने अप्रचलित अर्थों में भी प्रयुक्त हुये हैं, शठ उनमें से एक है। सामान्यत: इसका अर्थ दुष्ट, मलिन, कुटिल बुद्धि वाले मनुष्य के अर्थ में लिया जाता है लेकिन पुरानी संस्कृत में यह बहुअर्थी है। यह कुछेक उन शब्दों में से है जिनके परस्पर विपरीत लगते अर्थ भी चलते थे। इसका एक अर्थ बुराई बकने वाला है तो दूसरा अच्छे प्रकार से बोलने वाला भी है। इसका अर्थ सच होने से भी है। शाठयते होने पर इसका अर्थ प्रशंसा करना, परचित्तानुरंजन करना होता है।
इस शब्द में कहीं वह सन्देह भी है जो सीधे साधे अक्खड़ लोग मीठी और चतुराई भरी बातें करने वाले के प्रति रखते हैं। एक अर्थ कहीं उससे भी है जो बिना लाग लपेट के बात करता है। यह शब्द हमारी छठी इन्द्रिय की प्रवृत्ति का द्योतक है। संवाद के इतने लक्षण और गुण समोये इस शब्द का एक अर्थ यदि मध्यस्थ भी है तो आश्चर्य नहीं।
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चित्राभार: https://www.valmiki.iitk.ac.in/
राम और लक्ष्मण वीर वेश में ऋष्यमूक पर्वत पर पधारे हैं। उन्हें देख कर सुग्रीव सशंकित हो उठते हैं, कहीं वालि ने तो नहीं भेजा?
हनुमान उन्हें समझाते हैं कि यहाँ वालि से कोई भय नहीं। उलाहना भी देते हैं कि इस प्रकार प्रतिक्रिया दे कर आप ने वानरोचित चपलता का ही प्रदर्शन किया है, आप की लघु बुद्धि स्थिर नहीं है:
अहो शाखामृगत्वं ते व्यक्तमेव प्लवङ्गम।
लघुचित्ततयाऽऽत्मानं न स्थापयसि यो मतौ॥
आप बुद्धि और विज्ञान का आश्रय ले कर दूसरों के मनोभाव समझें और शासन करें – बुद्धिविज्ञानसम्पन्न इङ्गितै: सर्वमाचर।
सुग्रीव नहीं मानते। उन्हें शंका है, विश्वासो नात्र हि क्षम:। छ्द्मवेशी शत्रुओं की पहचान करनी ही चाहिये – विज्ञेयाश्छद्मचारिण:। कहते हैं उनके पास ‘प्राकृत’ अर्थात सीधे साधे छ्द्मवेश में जाओ। प्राकृत चेष्टा, रूप, बातचीत आदि विधियों से उन दो आगंतुकों, अनाप्त जनों का परिचय प्राप्त करो – इङ्गितानां प्रकारैश्च रूपव्याभाषणेन च। भाँति भाँति की बातों से उनके मनोभाव को समझो। उन्हें मेरे अनुकूल करो।
सुग्रीव को इतने से भी संतोष नहीं होता तो कहते हैं उनके आने का प्रयोजन पूछ ही लेना, कैसे पूछना?
ममैवाभिमुखं स्थित्वा पृच्छ त्वं हरिपुङ्गव।     
मेरी ओर मुँह कर के खड़े हो ताकि मैं भी अनुमान लगा सकूँ।
राजनीति की कहें तो एक बहुत ही महान घटना होने वाली है जो कि आगे युगांतकारी सिद्ध होगी। भक्तों की सोचें तो भक्त और प्रभु का पहला सदेह मिलन होने वाला है। ऐसे में वाल्मीकि जी कैसे वर्णन करें कि जो अर्थगढ़ू हो? भिक्षु रूप बना कर मिलने चले हनुमान जी के लिये वाल्मीकि जी अनूठा शब्द प्रयोग करते हैं – शठबुद्धितया!
भिक्षुरूपं ततो भेजे शठबुद्धितया कपि:। आधुनिक संस्कृत के विद्वान से पूछेंगे तो कहेगा कि इसका अर्थ हुआ बहुत ही मक्कार बुद्धि वाला लेकिन आप प्रारम्भ में दिये विश्लेषण पर ध्यान दें।
हनुमान जी कैसी बानी बोलते हैं? शब्द देखिये - श्लक्ष्णया, सुमनोज्ञया, विनीत, प्रशंसस, सत्यपराक्रमौ और संशितव्रतौ
शंका से भीत किसी व्यक्ति की वाणी सुनिये कभी, हर पक्ष को उड़ेलता चित्त का अनुरंजन करता हुआ बात करता है। हनुमान जी भी वही करते हैं, आप दोनों देह से क्षत्रिय लगते हैं, वेश व्रती तापसों का है! क्या कहूँ? अच्छा लगे इसलिये पूरक करते राजर्षि और देवप्रतिमा कहते हैं - राजर्षिदेवप्रतिमौ तापसौ संशितव्रतौ!
उसके पश्चात ताड़ जाते हैं और ऐसी प्रशंसायें करना प्रारम्भ करते हैं जो क्षत्रियों को अच्छी लगें। वन के सभी मृगों को त्रास देते पम्पा सर के किनारे के वृक्षों को निहारते, उसे सुशोभित करते आप दोनों कौन हैं? कहीं आप देवलोक से तो नहीं पधारे? मृग से कौतुकप्रिय हनुमान जी का संकेत अपने ‘शाखामृग’ स्वामी सुग्रीव की ओर है।
सुग्रीव की शंका भी परोक्ष रूप से कह डालते हैं -  आप दोनों तो राज्यश्री भोगने योग्य हैं, इस दुर्गम वन प्रदेश मैं कैसे आना हुआ?
राज्यार्हावमरप्रख्यौ कथं देशमिहागतौ?
क्षत्रिय को सुहाने वाली जितनी प्रशंसायें हो सकती हैं, कह डालते हैं लेकिन दूसरी ओर से कोई संकेत नहीं मिलता।
एवं मां परिभाषंतं कस्माद् वै नाभिभाषत:?
ये दोनों कुछ बोलते क्यों नहीं? संकेत क्यों नहीं मिलता?
इसलिये कि श्रीराम को भी तो जानना है कि इस अनजान प्रदेश में अचानक यह कहाँ से आ टपका? पहले भी बहुत संकट झेले पड़े हैं, कोई नयी तो नहीं आन पड़ी!
हनुमान जी की शठबुद्धि दूसरी राह लेती है – बता ही देता हूँ कि मैं कौन हूँ। सुग्रीव का परिचय देते हैं, उनके साथ क्या घटित हुआ बताते हैं। कहते हैं कि मैं उन्हीं के द्वारा प्रेषित हूँ, मेरा  नाम हनुमान है। वानर जाति का हूँ। मेरे स्वामी आप से मित्रता करना चाहते हैं। मुझे उनका सचिव समझें। मैं जो रूप चाहे बना सकता हूँ, जहाँ चाहूँ जा सकता हूँ। सुग्रीव का प्रिय करने को भिक्षु रूप बना आप के पास आया हूँ।
प्राप्तोऽहं प्रेषितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना
राज्ञा वानरमुख्यानां हनुमान्नाम वानरः
युवाभ्यां सह धर्मात्मा सुग्रीवः सख्यमिच्छति
तस्य मां सचिवं वित्तं वानरं पवनात्मजम्
भिक्षुरूपप्रतिच्छन्नं सुग्रीवप्रियकाम्यया
ऋष्यमूकादिह प्राप्तं कामगं कामरूपिणम्

नीति पूरी हो गयी। शठता चुक गयी। भक्त समर्पित हो चुप हो गया! अब तुम्हारे सामने हूँ, यथा योग्यं तथा कुरु। वाल्मीकि जी लिखते हैं वाणी को जानने वाले हनुमान का कौशल शांत हो गया, पुन: कुछ न बोला।
एवमुक्त्वा तु हनुमांस्तौ वीरौ रामलक्ष्मणौ
वाक्यज्ञौ वाक्यकुशलः पुनर्नोवाच किंचन  

संवाद का प्रारम्भ ऐसे मौन से ही सम्भव है। दोनों पक्षों द्वारा प्रारम्भिक मीमांसा के पश्चात यह विराम आवश्यक है। श्रीराम भी मानसिक प्रेक्षण और विश्लेषण कर आगे के लिये उद्यत हो उठे हैं। लक्ष्मण से कहते हैं, ये सचिव हैं, कपीन्द्र हैं और महात्मा हैं। स्वामी के हित की इच्छा से हमारे पास आये हैं। वाक्यज्ञ अर्थात बात के मर्म को समझने वाले हैं।
हे अरिन्दम! इनसे स्नेह पूर्वक बात करो - वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदमम्।

शब्द प्रयोग पर ध्यान दें तो पायेंगे कि उग्रमना लक्ष्मण के लिये अरिन्दम, शत्रुओं का दमन करने वाला सम्बोधन उन्हें जैसे सतर्क करने के लिये है कि ठीक है कि तुम वीर समर्थ हो लेकिन यह व्यक्ति शत्रु नहीं लगता इससे स्नेहपूर्वक बात कर समझना होगा।
 हनुमान द्वारा कामग और कामचारिण शब्दों के प्रयोग ने राम को सतर्क कर दिया है, यह व्यक्ति अद्भुत शक्ति सम्पन्न लगता है, इससे यूँ ही भिंड़ जाना ठीक नहीं, अनुकूल हुआ तो आगे बहुत काम आयेगा।

इसके पश्चात श्रीराम अपना प्रेक्षण प्रत्यक्ष कहते हैं जो स्वयं श्रीराम की शिक्षा दीक्षा का भी साक्षी बनता है:
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिण:
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुं
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा न मिली हो, जिसने यजुर्वेद को धारण न किया हो, जो सामवेद का ज्ञाता न हो; वह इस प्रकार बात नहीं कर सकता अर्थात हनुमान तो त्रयी के ज्ञाता प्रतीत होते हैं।
निश्चय ही इन्हों ने व्याकरण का कई बार श्रुतिसम्मत अभ्यास किया है, इतनी बात किये लेकिन इनके मुख से एक भी अपशब्द नहीं निकला! (यहाँ अपशब्द का अर्थ गाली नहीं, भदेस उच्चारण और प्रयोग से है)

अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्ययम्
उर:स्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्
संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीं
अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि
इनकी वाणी हृदय में मध्यमारूप में अवस्थित है, कण्ठ से वैखरी रूप में प्रकट होती है। प्रवाही है, तोड़ मरोड़ नहीं, बहुत ही सधावट है। ध्वनि न ऊँची है और न नीची, मध्यम है।
संस्कार, क्रम और अविलम्बित कल्याणमयी वाणी इनकी विशेषता है। हृदय, कण्ठ और मूर्धा तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इनकी इस विचित्र वाणी से किसका चित्त न प्रसन्न होगा! आघात करने को उद्यत शत्रु का हृदय भी यह वाणी परिवर्तित करने में सक्षम है।

आगे श्रीराम निषेधप्रशंसा करते हैं – जिस राजा के पास इनके समान दूत न हो, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है? अर्थात नहीं हो सकती है। जिसके कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं।
यह सब कह कर श्रीराम ने हनुमान जी को भी संकेत दे दिया कि मैं इस योग्य हूँ कि तुम मेरे दूत बन सको।   
यह कथन भविष्य के ‘रामदूत हनुमान’ की भूमिका है:
एवंविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु।
सिद्धय् न्ति हि कथं तस्य कार्याणा गतयोऽनघ॥
एवंगुणगणैर्युक्ता यस्य स्यु: कार्यसाधका:।
तस्य सिद्धय् न्ति सर्वेऽर्था दूतवाक्यप्रचोदिता:॥
छ्द्म प्राकृत रूप से संस्कृत वाणी प्रशंसा तक का यह ‘पहली भेंट’ प्रकरण मनन करने वालों के लिये बहुत ही कल्याणकारी है।  
॥स्वस्ति॥ 

रविवार, 18 सितंबर 2016

रामायण से दो कथायें: गङ्गावतरण और कार्तिकेय जन्म

(1) गङ्गावतरण:   
सगर=स+गर, जो गर यानि गरल (विष) के साथ उत्पन्न हुआ हो।
गर्भ में ही थे तो विमाता ने माता को (गर्भपात कराने हेतु) विष दे दिया। घबरायी माँ गयी भृगुकुल - क्या होगा मेरे गर्भ का भविष्य?
"जाओ रानी, तुम्हारे पुत्र को कुछ नहीं होगा। वह प्रतापी विष के साथ ही जन्म लेगा, सगर कहलायेगा।"
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सगर की दो रानियाँ - विदर्भ की राजकन्या केशिनी और दूसरी गरुड़ की बहन सुमति। भृगु पुन: कथा में आते हैं -  एक को साठ हजार पुत्र होंगे और दूसरी को वंश चलाने वाला बस एक।
केशिनी को एक ही पुत्र हुआ - असमञ्ज। असमञ्ज दुष्ट अत्याचारी निकल गया। प्रजा के बालकों को पकड़ सरयू में फेंक देता, डूबते हुये आर्तनाद करते तो अट्टहास करता मोद मनाता। सगर ने उसे देशनिकाला दे दिया लेकिन वह योग्य युवराज अंशुमान के रूप में पुत्र छोड़ गया। उसके पश्चात क्षरित होते यथास्थितिवादियों और विस्तार लेती नवोन्मेषी इक्ष्वाकुओं के बीच संघर्ष प्रारम्भ हुआ।
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 विन्ध्य और हिमवान के बीच के क्षेत्र में खनन का प्रारम्भ होता है:
विन्ध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षते परस्परम्।
तयोर्मध्ये समभवद् यज्ञ: स पुरुषोत्तम॥
 आख्यान कहता है - यज्ञीय अश्व को इन्द्र चुरा ले गया था, उसकी खोज में ऐसा हुआ। सगर के साठ हजार पुत्र खंती, हल आदि ले 'मेदिनी' खोदने लगते हैं - खनत मेदिनीं। मेदा शरीर की एक अंतर्भाग होती है। कहते हैं कि पृथ्वी कभी मेदा से ढकी हुई थी।
खनन में क्या होता है? पूरा जम्बूद्वीप ही खोदा जा रहा है! - जम्बूद्वीपं खनंतो नृपशार्दूल सर्वत: परिचक्रमु।  देवता, नाग, यक्ष, गन्धर्व, पिशाच आदि सब मनुष्यों के इस वृहद अभियान से त्रस्त हो उठते हैं। कितने ही उनके हाथों मारे जाते हैं।
नागानां वध्यमानानामसुराणां च राक्षसानां दुराधर्षां सत्त्वानां निनदो... देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगपन्नगा:!
वाल्मीकि लिखते हैं - वसुधा। वसुधा तो वासुदेव की महिषी है जिसकी रक्षा वह कपिल रूप धारण कर करते हैं। उनके कोप से ये दुस्साहसी भस्म हो जायेंगे, धैर्य धरो - यस्येयं वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमत:। महिषी माधवस्यैषा स एव भगवान् प्रभु:॥ ...
... कभी उपजाऊ रही मेदिनी अब अल्प उपजाऊ हुई पड़ी थी। सगर पुत्रों का अभियान उसके दोहन का पहला संगठित अभियान था। कपिल बहुत पुराने हैं और धरा को एक बार बन्ध्यत्त्व से मुक्त करा उपजाऊ बनाने के लिये जाने जाते हैं। राजा पृथु की सहायता से यह काम तब सम्पन्न हुआ था, धरा पृथ्वी कहलायी थी।
कपिल संरक्षित पृथ्वी के संकट से इक्ष्वाकुवंशी टकराते हैं और भस्म होते हैं। स्पष्ट है कि कपिल ने पहले जो कुछ भी किया था, वह अब पर्याप्त नहीं रह गया था। संकट सामने था। साठ हजार सगरपुत्रों की गाथा जाने कितनों के पानी के उद्योग में मर खप जाने की गाथा है।   
... अंशुमान चाचाओं को ढूँढ़ते कपिल के आश्रम पहुँचते हैं। उन्हें भस्म पा शोकग्रस्त कुमार तर्पण हेतु जल ढूँढ़ते हैं और तर्पण तक के लिये पानी नहीं! 
क्या है यह? भूजल के चुकते जाने की गाथा नहीं है क्या? कितना भी खोदो, पानी रसातल में जा चुका है, नहीं मिलने वाला!
 मृतकों के मामा गरुड़ जो कि ऊँचाई से धरा पर दृष्टि रखते हैं, कुमार को समझाने आते हैं। कहते हैं - वधोयं लोकसम्मत:। इनका वध तो लोक कल्याण के लिये हुआ है। कपिल की आग से ये दग्ध हुये हैं, इनके तर्पण के लिये लौकिक जल! कत्तई नहीं - सलिलं नार्हसि प्राज्ञ दातुमेषां हि लौकिकम्!
... और तब गरुड़ उस स्वप्न को अंशुमान की आँखों में उकेरते हैं, ऐसा स्वप्न जिसने आगामी पीढ़ियों की भी नींद उड़ा दी।
अंशुमान खप गये, उनके पुत्र दिलीप भी और बारी आई नि:संतान भगीरथ की। उन्हों ने भी पुरखों की परम्परा आगे बढ़ायी - इस स्वप्न को तो पूरा करना ही है।
क्या था वह स्वप्न, कैसे उद्योग की प्रस्तावना था?
गङ्गा हिमवतो ज्येष्ठा दुहिता पुरुषर्षभ।
तस्यां कुरु महाबाहो पितृणां सलिलक्रियाम्॥
.. कुमार अंशुमान! गंगा तो इस लोक की थी, हिमवान की बड़ी पुत्री। लोक कल्याण का बहाना ले देवता स्वर्ग ले गये। उतार लाओ उसे पृथ्वी पर, उसकी अब यहाँ आवश्यकता है। उसी के जल से तुम्हारे पितरों का तर्पण होगा।
...
पीढ़ियों तक चले उद्योग के आगे ब्रह्मा पिघले, शिव की जटायें आश्रय बनीं, गंगा का भी अहंकार चूर्ण हुआ, जटायें खुल गयीं, जह्नु का आश्रम अवरोध समाप्त हुआ। धरा को, पृथ्वी को पुन: उसका दाय मिला। पुरखे तृप्त हुये और आने वाली पीढ़ियों को युगों युगों तक के लिये जलसंकट से मुक्ति मिली। धरा को पुन: बंध्यत्व से मुक्ति मिली और कठिन कर्म के साधकों के लिये एक उपमा ने जन्म लिया - भगीरथ। 
'सप्तसैन्धव' एक ऐसी अवधारणा रही जिसे किसी क्षेत्र विशेष में सीमित कर देना उपयुक्त नहीं। अग्नि केन्द्रित पश्चिमी और ओषधि केन्द्रित पूर्वी वैदिक धाराओं के बारे में बताता रहा हूं, यह भी कि ऋग्वेद का कवि जह्नुक्षेत्र से परिचित है, कार्य व्यापार भी बताता है और संकेत भी देता है कि वह प्राचीन समांतर क्षेत्र था।
सा तस्मिन् पतिता पुण्या पुण्ये रुद्रस्य मूर्धनि
हिमवत्प्रतिमे राम जटामंडल गह्वरे
भगीरथ के तप से धरा का ताप मिटाने को गंगा शूलिन की जटाओं में अवतरित हुईं। महर्षि वाल्मीकि विरोधी शब्दों को साथ रख कर अद्भुत गरिमा से संयुत कर देते हैं - नीचे आ कर पतिता हो गईं गंगा किन्तु पुण्या हैं 'पतिता पुण्या'। नीचे आईं तो किन्तु इतना पुण्य ले कर आईं कि रुद्र की जटाओं में स्थान मिला! कैसा पुण्य? लोक कल्याण हेतु पतिता होने का पुण्य।
बिन्दुसर में रुद्र ने गंगा जी को सात धाराओं में मुक्त किया  - यह सप्तसैंधव का पूर्वी संस्करण है।  तीन मंगलमयी धाराएँ प्राची की ओर बह चलीं - ह्लादिनी, पावनी और नलिनी। तीन धाराएँ प्रतीचि (पश्चिम) की ओर - सुचक्षु, सीता और सिन्धु महानदी। सातवीं धारा भगीरथ के पीछे पीछे चली, उनके पुरखों को तारने के लिए।
ह्लादिनी पावनी चैव नलिनी च तथैव च।
तिस्र: प्राचीं दिशं जग्मुर्गङ्गा: शिवजला: शुभा:॥
सुचक्षुश्चैव सीता च सिन्धुश्चैव महानदी।
तिस्रश्चैता दिशं जग्मु: प्रतीचीं तु दिशं शुभा:॥
सप्तमी चान्वगात् तासां भगीरथरथं तदा।
भगीरथोsपि राजर्षिदिव्यं स्यन्दनमास्थित:॥ 
तिस्र से बरबस ही ध्यान ऋग्वेद की तिस्रो देवियों सरस्वती, इळा और भारती पर चला जाता है। साथ ही अथर्वण संहिता के त्रिसप्ता तो ध्यान में आते ही हैं।
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आगे गंगा प्रवाह का सरल सहज वर्णन मुग्ध कर देता है। वाल्मीकी जी इस प्रकरण का महात्म्य बताना नहीं भूलते:
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुत्र्यं स्वर्ग्यमथापि च
... प्रीयंते पितरस्तस्य प्रीयंते दैवतानि च
इदमाख्यानमायुष्यं गंङ्गावतरणं शुभं
य: शृणोति च काकुत्स्थ सर्वान् कामानवाप्नुयात्
सर्वे पापा: प्रणश्यंति आयु: कीर्तिश्च वर्धते
इस आख्यान के सुनने से यश, आयु, पुत्र, स्वर्गसुख और कीर्ति में वृद्धि होती है।  सभी कामनायें पूरी होती हैं, पाप नष्ट हो जाते हैं।
'सुनना' बहुत कम समझा गया शब्द है। एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देना सुनना नहीं है, hearing और listening में अंतर है कि नहीं? सुनेंगे तो कर्मप्रवृत्त होंगे, यदि नहीं होते तो बस सुनी सुनाई बातें hearing भर है!  वेदों को श्रुति कहा गया है। श्रुति का 'योजन' यजु: कर्मकांड है, गायन साम है और अंग लगाना आंगिरस। बस सुन कर नहीं रह गए, कर्मरत हुये, जीवन में उतार लिए, ऐसे कि तन्मय हो गा उठे अंग अंग रससिक्त हो गया। वेदसम्मत जीवनाचार तो तब हुआ न!

ऐसे आचरण से ही कामनायें पूरी होती हैं। धूमेनाग्निरिवावृताः  - कर्म तो सदोष होता ही है लेकिन शुभ के लिये है तो कृत पाप भी नष्ट होते हैं, आयु और कीर्ति बढ़ते हैं। पीढ़ियों तक चला गंगा अवतरण अभियान  साक्षी है।     
भगीरथ का तप और गङ्गावतरण 
(2) कार्तिकेय का जन्म: 

सम्भव है, कार्तिकेय का जन्म भूले बिसरे युग में आकाश'गंगा' से हिमालय और कैलास क्षेत्र में हुये किसी उल्कापात और उसके कारण हुये विविध वृहद परिवर्तनों का क्लिष्ट रूपक हो।

रुद्र (आकाश का लुब्धक तारा?) का तेज स्खलित होता है , अग्नि देवता (कृत्तिका नक्षत्र के) 'आकाशगंगा' में उसे स्थापित करते हैं: 
इयमाकाशगङ्गा च यस्यां पुत्रम् हुताशन:

जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिन्दमम्॥ 

 गंगा उसे धारण करने में अपने को असमर्थ पाती हैं - अशक्ता धारणे देव तेजस्तव। इसके दाह से जली जा रही हूँ; ... 

अग्नि उसे हिमालय के पार्श्वभाग में स्थापित करने को कहते हैं। कैसा है वह तेज (उल्कापिंड?) कंचन के समान चमकता हुआ, उसके प्रभाव से बहुतों के रंग बदल कर रजत हो जाते हैं, दूरवर्ती क्षेत्र की वस्तुयें ताँबा और लोहा हो जाती हैं - ताम्रं कार्ष्णायसं चैव तैक्ष्ण्यादेवाभिजायत।

उस तेज की जो मैल है उससे सीसा और रांगा और अन्य कई धातुयें होती हैं:

मलं तस्याभवत् तत्र त्रपु सीसकमेव च।
तदेतद्धरणीं प्राप्य नानाधातुरवर्धत॥
पर्वत श्वेत सुवर्णमय जगमगाने लगता है। तृण, वृक्ष, लता और गुल्म सब काञ्चन।
और तब देवता उसे नहलाने और दूध पिलाने को कृत्तिकाओं को नियुक्त करते हैं। उन छ: माताओं का दूध पी वह शिशु बड़ा होता है, कार्तिकेय कहलाता है। उसके नेतृत्त्व में देवता दैत्यों पर विजय प्राप्त करते हैं। दैत्य कौन? दिति के पुत्र।
धातुयें, अयस्क, देवताओं द्वारा शोधन कर उन्नत शस्त्रास्त्रों का निर्माण और विरोधियों पर विजय। कब हुई यह घटना? तब तो नहीं जब महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र पर पहुँचा?? 
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संश्लिष्ट जटिल बिम्ब पुरातन सभ्यताओं के अपने ढंग रहे हैं - पीढ़ी दर पीढ़ी घटित की सीख को पहुँचाने को। मिस्र की कहानियाँ सुनाऊँ, यवनों की की?? 
भद्र!
उन गाथाओं की शक्ति पहचानो, जानो कि कितनी दीर्घजीवी हैं। आधुनिक समय में तो तुम्हें यह तक नहीं पता कि नेता जी कब तक और कहाँ कहाँ रहे
पुरनिये जानते थे कि 'यथार्थ' दीर्घजीवी नहीं होता। होना भी नहीं चाहिये, उसकी सीख होनी चाहिये।