कवि तो वैसे कुल लण्ठ होते हैं लेकिन कालिदास
लण्ठकुलशिरोमणि कहे जा सकते हैं। हमारे काल में होते तो आज कल के गोतम कबीयों की भाँति वह ‘लूसी’ के चित्र
पर चुप्पी नहीं साध लेते, प्रगल्भ हो 'लैला लैला' कह उठते! अपनी कविता के साथ वे इतने प्रगल्भ हो जाते हैं कि खोलने की बातें 'खुलेआम' करते हैं!
'मुझे चाँद चाहिये' नामक उपन्यास में नीवि अर्थात नाड़ा खोलने के कालिदासी उपाय का बड़ा ही
सुंदर प्रयोग हुआ है। साहित्त पढ़ने वाले बता सकते हैं।
नाड़े का सम्बन्ध बन्धन से है। बन्धन से बन्धु की
स्मृति हो आई। 'बंधु' के मूल
में बंधन है। उस बंधन का जिसका संबंध स्नेह और प्रेम से है। भाई के लिये बंधु शब्द का हिन्दी में रूढ़ होना
परवर्ती है जिसके पीछे संभवत: इस संबंध की प्रगाढ़ता रही होगी किन्तु संस्कृत और
बंगला में बंधु शब्द के व्यापक अर्थ में ही प्रयोग हुये हैं। पति, प्रिया, मित्र और प्रेमी के
लिये भी बंधु प्रयोग मिलेंगे।
बंधन कैसा भी हो, जब
खुलता है तो क्रांतियाँ होती हैं। यह बात और है कि क्रान्ति के मायने भी विविध होते हैं, जानू विषविधालय में बस भोग होता है, जब कि अन्य
स्थानों पर योग और मोक्ष भी।
यह कालिदास ही थे जिन्हों ने खोलने के महात्म्य का ऐसे वर्णन किया:
अविदितसुखदु:खं निर्गुणं वस्तु किञ्चिज्जडमतिरिह
कश्चिन्मोक्ष इत्याचचक्षे।
मम तु मतमनङ्गस्मेरतारुण्यघूर्णन्मदकलमदिराक्षीनीविमोक्षो
हि मोक्ष:॥
‘जड़मति हूँ, मुझे सुख दुःख से परे
निर्गुण मोक्ष नहीं बुझाता। यौवन है, अनंग का जोर है, ऐसे में मदिरामय आँखों वाली को
नाड़े से विमुक्त करना ही मोक्ष है!’
खुल गया तो कुछ ऐसा दिखा कि कवि ने अपनी आगामी यात्रा
ही स्थगित कर दी!
शेते शीतकराम्बुजे कुवलयद्वन्द्वाद्विनिर्गच्छति
स्वच्छा मौक्तिकसंहतिर्धवलिमा हैमी लतामञ्चति।
स्पर्शात्पङ्कजकोशयोरभिनवा यास्ति स्रज क्लांतता
मेषोत्पातपरम्परा मम सखे यात्रास्पृहां कृंतति॥
स्वच्छा मौक्तिकसंहतिर्धवलिमा हैमी लतामञ्चति।
स्पर्शात्पङ्कजकोशयोरभिनवा यास्ति स्रज क्लांतता
मेषोत्पातपरम्परा मम सखे यात्रास्पृहां कृंतति॥
‘चन्द्रमा
(मुख) कमल (हाथ) पर सो रहा है, नीलकमल (आँखों) से मोती (आनन्दाश्रु) झर रहे हैं, स्वर्णिम
लता (देह) (संतुष्टि के कारण) धवल सी हो रही है, कमलकोश (स्तनयुगल) के स्पर्श से पुष्पमालायें
कुम्हला रही हैं (देह में इतनी ऊष्मा भर गयी है!)’
जब ऐसी स्थिति हो तो मोक्ष की किसे सूझती है? वह तो है ही! कहने
का अर्थ यह है कि होली के वासंती पर्व में बन्धन खोलने और खोलवाने से भोग, योग और मोक्ष
तीनों की प्राप्ति होती है। लग जाइये!
वाह
जवाब देंहटाएंजय हो।
जवाब देंहटाएंआनंदम।
जवाब देंहटाएंवाह अति उत्तम
जवाब देंहटाएंhttp://chhotawriters.blogspot.in/
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "अरे प्रभु, थोड़ा सिस्टम से चलिए ... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएं'मुझे चाँद चाहिये' में नीवि बन्धन जानू विषविधालय के पास ही खुलता है किन्तु उसकी मर्यादा इनसे इतर है! इन लोगों ने, साफ़ साफ़ कहें तो, गन्द मचा रखी है! इस होली के पहले दशहरा और दिवाली दोनों होनी जरूरी है। आशा आप सह-'मत' होंगे!
जवाब देंहटाएं'मुझे चाँद चाहिये' में नीवि बन्धन जानू विषविधालय के पास ही खुलता है किन्तु उसकी मर्यादा इनसे इतर है! इन लोगों ने, साफ़ साफ़ कहें तो, गन्द मचा रखी है! इस होली के पहले दशहरा और दिवाली दोनों होनी जरूरी है। आशा है आप सह-'मत' होंगे!
जवाब देंहटाएंशत प्रतिशत
हटाएंअशीति प्रतिशत ;-)
हटाएंहमेशा की तरह एक और बेहतरीन लेख ..... ऐसे ही लिखते रहिये और मार्गदर्शन करते रहिये ..... शेयर करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। :) :)
जवाब देंहटाएंवाह ! वाह! इसके लिए यही उपायुक्त है । बहुत अच्छा लिखा है आपने....
जवाब देंहटाएंवाह ! वाह ! बहुत अच्छा आपने लिखा है ।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुंदर।
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