'यदि वह देखे तो?'
'तो भी नहीं।'
'स्त्री से बोलना मत!'
'यदि वह कुछ पूछे या कहे तो?'
'तो भी नहीं।'
'स्त्री को सुनना मत!'
'वह स्वयं पुकारे तो?'
'तो भी नहीं।'
'स्त्री का स्पर्श नहीं करोगे।'
'यदि वह स्वयं स्पर्श करे तो?'
'तो भी नहीं।'
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सन्न्यस्त आचार्य अपने शिष्य को प्रात:काल का उपदेश दे रहे थे। शिष्य हर बात को मन में अश्म रेख की भाँति बैठाता जा रहा था। सूरज आधा बाँस चढ़ आया तो आचार्य ने कहा - अब हमें प्रस्थान करना चाहिये। नाविक चला जायेगा तो पार होना दुष्कर हो जायेगा।
दोनों नदी तट पहुँचे, न कोई नाव थी, न कोई नाविक। नदी का प्रवाह मन्थर था, तैर कर पार किया जा सकता था। प्रतीक्षा लम्बी होने लगी तो दोनों ने तैर कर पार करना उचित समझा।
उसी समय एक युवती वहाँ विह्वल स्थिति में पीछे से आई तथा दोनों से हाथ जोड़ पार कराने की प्रार्थना करने लगी। शिष्य ने तो आँखें नीचे ही झुका रखी थीं, मन ही मन प्रतीक्षा करने लगा कि देखें, अब गुरु क्या करते हैं, उपदेश तो बहुत दिये थे ! कनखियों से देख भी चुका था कि युवती सुन्दर थी।
गुरु ने उससे कहा - वत्स ! दुखिया है, उसे पार कराओ। शिष्य ने समझा कि परीक्षा ले रहे हैं। उसने उत्तर दिया - क्षमा आचार्य, यह आप की शिक्षाओं के विपरीत होगा। हमें इस माया को यहीं छोड़ चल देना चाहिये।
गुरु ने युवती से कहा - स्थविर आयु है किन्तु तुम्हें पार करा सकता हूँ। मेरी पीठ पर सवार हो अपने को इस ओढ़नी से दृढ़ता से मुझसे बाँध लो। हम तैर कर पार कर लेंगे।
शिष्य इस प्रस्ताव से आश्चर्य में पड़ गया किन्तु मौन ही रहा। आचार्य ने युवती को पीठ पर चढ़ाया एवं तैर कर उस पार उतार दिया। धन्यवाद देती वह अपने मार्ग गई। उन दोनों ने भी पन्थशाला का मार्ग पकड़ा।
...
शिष्य दु;खी था, बहुत दु:खी। आचार्य भ्रष्ट हो चुके थे। शिक्षा के मध्य में ही इनका त्याग करना होगा, यह सोचते हुये वह उद्विग्न मन से साथ बना रहा। पहुँचते पहुँचते संध्या हो गई। संध्या वन्दन एवं अल्पाहार के पश्चात आचार्य विश्राम की मुद्रा में लेट गये। शिष्य भी पार्श्व में पड़ रहा।
कुछ ही समय में आचार्य गहरी नींद में खो गये किन्तु शिष्य करवटें लेता रहा। आधी रात तक जब नींद नहीं आई तो उसने सोचा कि अब क्या सम्मान करना? जगा ही देते हैं।
आचार्य को उसने पुकार कर जगाया एवं रुष्ट स्वर में बोला,"मैं आप का त्याग कर रहा हूँ, आप भ्रष्ट हो गये हैं।"
आचार्य ने साश्चर्य पूछा,"वत्स ! मैं भ्रष्ट ? कैसे ?"
शिष्य ने उत्तर दिया,"आप ने एक सुंदरी युवती को पीठ पर आरूढ़ करा नदी पार कराया। उसके अङ्ग लम्बे समय तक आप से लगे रहे ! अपनी शिक्षा का भी सम्मान नहीं करते, ढोंगी हैं आप! छि: !!"
गुरु अट्टहास कर उठे,"वत्स ! मैं तो पार कराते ही उससे मुक्त हो गया था। वह दुखिया भी मुझसे उसी समय मुक्त हो गई। तुमने तो उसकी कोई सहायता भी नहीं की थी ! किन्तु अब तक ढोये जा रहे हो? वह तुम्हारे मन मस्तिष्क पर सवार है। सच कहो, देखा था न उसे?"
शिष्य ने रूँधे गले से कहा - हाँ एवं फूट फूट कर रोने लगा।
आचार्य उसका सिर अपनी गोद में ले सान्त्वना देने लगे - गुरु का कहा मानना चाहिये वत्स ! न मानने से शिष्य नरकगामी होता है।
तुमने आज दारुण नरक भोगा है। अब मुक्त हो। शान्त हो सो जाओ। प्रात:काल बातें करेंगे।
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'तुम स्त्री को नहीं देखोगे।'
'कदापि नहीं आचार्य! मैं उसे देख कर भी नहीं देखूँगा।'
'यदि वह देखे तो?'
'मैं नहीं देखूँगा तो वह कैसे देख सकेगी?'
'हाँ वत्स ! यही दृष्टि है।'
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वाह बहुत सुंदर
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