रविवार, 5 अगस्त 2018

ग्राम गिरा - मुसलमान नहीं, तुरकट


1146 वि.। परमार भोज एवं कलचुरी कर्ण के अवसान के पश्चात तुरुष्क अर्थात तुर्क आक्रमणों से पीड़ित उत्तर भारत के कन्नौज में राष्ट्रकूट राठौर चंद्रदेव गहड़वाल का अभिषेक हुआ। सूर्य एवं चंद्र वंशी राजाओं का नाश हो चुका था, वेद लुप्त हो रहे थे। ऐसे में धरा के इस उद्धारक ने सब कुछ व्यवस्थित किया एवं परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परम महेश्वर चन्द्रादित्य नाम धारण किया।  
प्रध्वस्तेसोमसूर्योद्भवविदितमहाक्षत्रवंशद्वयेस्मिनुत्सन्नप्रायवेदध्वनिजगदखिलंमन्यमान: स्वयम्भू:।
इस वंश की दूसरी राजधानी वाराणसी हुई।
सौ वर्षों से भी अधिक समय पश्चात 1251 वि. में मुहम्मद गोरी के गुलाम नायक कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा शक्तिशाली राठौर राजा जयचंद पराजित किया गया एवं उत्तर भारतीय इतिहास का एक बहुत ही उपेक्षित किंतु बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय आरम्भ हुआ। 
व्यापार, उद्योग, कला, संस्कृति एवं धर्म की नगरी वाराणसी पर तुर्कों ने आक्रमण किया। 'तज-उल-मासिर' में हसन निज़ामी लिखता है कि 'दीन' के दुश्मन की सेना हरा दी गयी थी। काशी विश्वेश्वर मंदिर के साथ ही कुल 1000 मंदिर तोड़े गये जिनके स्थान पर मस्जिदें एवं कब्रें तामीर की गयीं। 
अभूतपूर्व लूट एवं अत्याचार का सामना करती जनता ने आक्रांता इस्लाम का अभिज्ञान एक नाम से किया - तुर्क। स्वतंत्रता पश्चात तक कांग्रेसी इतिहास से अपरिचित पूर्वी उत्तरप्रदेश की भोजपुरी जनता मुसलमानों को एक ही नाम से जानती थी - तुरकट, तुरुष्क का लोक रूप। 
पहली स्मृति स्थायी हुयी, यद्यपि काशी औरंगजेब तक बारम्बार लूटी गयी, पुन: पुन: उठ खड़ी हुई। इस जीवनी शक्ति के पीछे था - निरंतर प्रतिरोध, जिसे झुठलाते हुये इतिहास में ऐसे पढ़ाया जाता है मानों मुसलमानों को थाली में परोस कर भारत दे दिया गया ! प्राचीन, मध्य एवं आधुनिक काल के रूप में सोचने के अभ्यस्त सदियों लम्बे प्रतिरोध, संघर्ष, शांति, उद्योग एवं पुन: पुन: निर्माण एवं समृद्धि को भुला देते हैं। 
औरंगजेब तक के पाँच सौ वर्ष लम्बे इस काल में मुसलमानी आक्रमणों की बारम्बारता एवं उसके सजग, सर्वजन, सफल प्रतिरोध ने इस देश में आंतरिक प्रवजन को जन्म दिया। राजपूतों के साथ सपुरोहित प्रवजन करती जातियों ने जाने कितने गाँव बसाये, जाने कितने गाँव उजाड़ भी दिये किंतु भारत को जीवित रखा। सभी जातियाँ लड़ीं - लघु सीमांतों (सिवानों) पर, बड़े युद्धों में, गाँवों के समूहों में। 'सात जातियों' वाले मानक गाँव को मानों इस काल ने पुनर्जीवित कर दिया। 
लघु स्तर पर इसके वैविध्य को 1857 ई. के पश्चात अंग्रेजों के अत्याचार के कारण घटित प्रवजन से समझा जा सकता है। 
पूर्वी उत्तरप्रदेश एवं पश्चिमी बिहार के विशाल भू भाग में बिखरे जाने कितने गाँवों में विविध जाति वंशों का वैविध्य प्रमाण है। दो किलोमीटर की ही परास में पाँच छ: वंशों का मिलना कोई आश्चर्य नहीं, न ही लघु गाँवों की विशिष्ट वास्तुयोजना जो कि कौटल्य द्वारा निर्धारित रूप से साम्य रखती है। 
यदि एक पीढ़ी 40 वर्ष की मानी जाय तो आज तक के लगभग 800 वर्षों में बीस पीढ़ियाँ होती हैं। दस पीढ़ियों वाले गाँव चार सौ वर्ष पुराने होंगे। 
यदि आप ऐसे किसी गाँव में रहते हैं, जाति चाहे जो हो, जहाँ पिछली दस बीस पीढ़ियों का लेखा जोखा किसी भी कथा एवं समय चिह्न के साथ अब भी उपलब्ध है तो आप भारत की उन भुला दी गयी सदियों के पुनर्निर्माण में सहयोग कर सकते हैं। गाँव, तहसील, जिला, उपजाति, पीढ़ी संख्या, विक्रमी संवत के पुराने संदर्भ एवं जनश्रुतियों के साथ इन सूचनाओं को एकत्र कर इस क्षेत्र का सत्य लोक इतिहास रचा जा सकता है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे। 
कभी अमृतलाल नागर ने 'गदर' किये पुरखों के 'फूल' चुन सहेज दिये थे। क्या कोई इस जटिल एवं बृहद काम को हाथ में लेगा? 
नगरों का इतिहास बहुत हो चुका, गाँवों के इतिहास को पढ़ना होगा।

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