1248
ई.। रज़िया की मृत्यु हो चुकी है, उसके पूर्व
वह कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा ध्वस्त मूल काशी विश्वनाथ मंदिर पर मस्जिद बनवाना नहीं
भूली।
सुल्ताना की मृत्यु से मुक्त हुये बंगाल के सूबेदार तुगन खान ने
उड़िया राजा नरसिंहदेव के पास संदेश भेजवाया कि जगन्नाथ मंदिर समर्पित कर दो जिससे
कि वहाँ मस्जिद बनवाई जा सके तथा सम्पूर्ण पुरी क्षेत्र इस्लाम कुबूल करे। नीति का
आश्रय ले राजा ने मुसलमानों की सेना को ऐसा काटा कि आगे 300
वर्षों तक मुसलमान उड़ीसा पर दृष्टि डालने का साहस नहीं कर सके। राजा
की प्रेरणा राजमाता थीं।
इस
विजय की स्मृति में पहले से ही उपस्थित कोणादित्य के मंदिर को विस्तार दे राजा ने
महागायत्री देउल की स्थापना की योजना बनाई।
13 जनवरी 1258 ई. को रविवार के दिन कोणार्क के महालय
में आदित्य की प्राण प्रतिष्ठा हुई।
नरसिंहदेव
के वंशज नरसिंहदेव चतुर्थ के 1384 ई. लिखित ताम्रपत्र
में महालय में अर्चना का उल्लेख है अर्थात मंदिर पूरा हुआ था एवं उसमें अर्चना
पूजन को सवा सौ वर्ष से भी अधिक हो चुके थे।
अकबर
के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने मंदिर की यात्रा सोलहवीं शताब्दी में की थी, पूजन अर्चन तब भी चल रहा था। उसने आइन-ए-अकबरी में यह लिखा है।
1568
ई.।
पराजय
के 310 वर्षों पश्चात इस्लाम का पुन: आक्रमण पुरी पर
हुआ। दीनी नायक था मतांतरित हिन्दू, विशाल, कृष्णकाय जिसे 'काला पहाड़' नाम
दिया गया। इस बार इस्लाम विजयी हुआ।
पुरी
के मंदिर ने ध्वंस देखा। दारु विग्रह जला दिये गये। पुरी के मार्ग पर मुख्य विग्रह
के जल कर बचे हुये अंश पर थूकते एवं उसे पाँवों से ठोकर मार कंदुक की भाँति खेलते
अट्टहास करते 'काला पहाड़' की
स्मृति उड़िया मानस में सदा सदा हेतु अङ्कित हो गयी।
उसका
अगला लक्ष्य था महागायत्री देउल कोणार्क महालय।
यहाँ
उसे अधिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा परंतु वह मुख्य शिखर के (key
stone) दधि नौति को शिथिल करने में सफल रहा। शिखर के ध्वस्त होने का
कारण उसने सुनिश्चित कर दिया।
1847
में जब जेम्स फरगुसन बालू से अंशत: ढँके उस परित्यक्त मंदिर तक
पहुँचा तो शिखर का एक अंश गिरने से बचा हुआ था। उसने उसका प्रस्तर आधार चित्र (lithograph)
बनाया।
आगे
के वर्षों में बचा हुआ शिखर भी तड़ित पात से ध्वस्त
हो गया।
मन्दिर
कब परित्यक्त हुआ था? इस प्रश्न का उत्तर मिला 1929
ई. में जब अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जीवविज्ञानी पी. पर्या ने
मंदिर से प्राप्त एक ऐसे पत्थर के टुकड़े का परीक्षण किया जो कि ऊपर अगम्य स्थान से
प्राप्त हुआ था। उस पर काई, शैवाल इत्यादि के अनेक तल बैठ
गये थे, कुल 357 अर्थात कुल 357
वर्षा ऋतुयें।
1929
में से उसे घटा कर यह निश्चित किया गया कि 1573 ई. से मंदिर की कोई देखभाल नहीं हुई थी।
उल्लेखनीय
है कि मंदिर के शिखर एवं उसकी प्रतिमाओं पर चूने का पलस्तर किया गया था जिन्हें
प्रति वर्ष विविध रंगों से रँगा जाता था। जगन्नाथ मंदिर में आज भी प्रचलन है।
रंगों के अवशेष आज भी कोणार्क के जगमोहन मण्डप की प्रतिमाओं पर दृष्टिगोचर हैं।
अबुल
फजल वहाँ 1594 ई. में गया था। 1568, 1573 एवं 1594 ई. ये तीन स्वतंत्र बिंदु हैं जो कि एक
दूसरे के निकट हैं एवं जिनसे स्पष्टत: घटित का भान हो जाता है।
काला
पहाड़ के आक्रमण के पश्चात ही मंदिर उपेक्षित होना आरम्भ हो गया था। देउल का दूषित
होना, तत्कालीन राजवंश की उसके प्रति श्रद्धा न होने
से संरक्षण का अभाव, जगन्नाथ की बढ़ती कीर्ति, सूर्य पूजा का घटता चलन - इन सबके एकत्र हो जाने से मन्दिर का रखरखाव
बाधित हो गया। जर्जर मंदिर क्रमश: परित्यक्त होता गया, कुछ
वैसे ही जैसे आराधकों की न्यूनता से खजुराहो के मंदिर हो गये।
विरञ्चि
नारायण की गर्भगृह प्रतिमा के लिये भाँति भाँति की बातें सुनने को मिलती हैं, कुछ के अनुसार उसे काला पहाड़ ने तोड़ दिया था, कुछ के
अनुसार उसे वहाँ से ला कर जगन्नाथ मंदिर में स्थापित किया गया एवं कुछ के अनुसार
देवता अभी भी कोणार्क तट की बालुका में कहीं विलीन हैं।
कालान्तर
में मंदिर के आगे का अद्भुत अरुण स्तम्भ हटा कर जगन्नाथ मंदिर के समक्ष स्थापित कर
दिया गया जो आज भी पूजित है। जगन्नाथ मंदिर की सज्जा में वहाँ से लाई गई अन्य
प्रतिमायें भी प्रयुक्त हुईं।
...
इतिहास
इतना ही है।
बहुत सुन्दर खोज-पूर्ण आलेख. यह सारी जानकारी कोणार्क विषयक प्रचलित पुस्तकों में उपलब्ध नहीं है. इस नयी जानकारी के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंआपको कोणार्क की ईपुस्तक बनाकर अमेजन पर चढ़ा देनी चाहिए। प्रिंट में चित्रों वाली समस्या हो सकती है, लेकिन ईबुक में ऐसी कोई समस्या नहीं होगी।
जवाब देंहटाएंदूसरी बात आपके लेख गूगल सर्च में क्यों नहीं आ रहे। कोणार्क लिखने पर ऊटपटांग लेख आ रहे हैं, आपकी शृंखला नहीं दिखाई देती, क्यों। मेटा कीवर्ड और डिस्क्रिप्शन ठीक प्रकार लगाने से शायद गूगल सर्च में बेहतर परिणाम दिखाने लगे।
very interesting ad informative
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