मैंने दस वर्ष पूर्व विक्रम संवत 2065 में चिट्ठा (blog) हिंदी में लिखना आरम्भ
किया तथा उसे पूरब की माटी के अनुकरण में 'चिठ्ठा' कहा, 'ठ' का डेढ़त्व 😄। उस
वर्ष मात्र एक प्रविष्टि रही ।
तब से अब तक दो मुख्य एवं अन्य चिट्ठों को
मिला कर प्राय: सवा ग्यारह सौ प्रविष्टियाँ लिख चुका हूँ।
गद्य लेखन हेतु मुख्यत: 'आलसी का चिठ्ठा' है तो पद्य हेतु 'कवितायें और कवि भी'। पद्य एवं गद्य प्रविष्टियों में अनुपात ~ 1:2 का रहा है। 2067 सबसे उर्वर वर्ष रहा जिसमें लगभग पौने तीन सौ प्रविष्टियाँ आईं तथा पद्य एवं गद्य की लगभग समान संख्या रही। आगे के दो वर्ष संख्या घटी किन्तु नव्य विषयों पर नई विधाओं में रचना कर्म हुआ। 2069 के पश्चात 2070 में सहसा ही प्रविष्टि संख्या पहले की 55% रह गई, आगे के वर्षों में भी संख्या घटती चली गयी। वर्ष 2072 में मात्र 27 प्रविष्टियाँ आईं, तब से अब अति मंद गति से उठान है इस वर्ष अब तक 36 प्रविष्टियाँ हो चुकी हैं।
इन वर्षों में भाषा अनिवार्यत: संस्कृतनिष्ठ होती गयी यद्यपि पद्य में नागरी उर्दू में कुछ ऐसी रचनायें, नज़्में एवं ग़जलें भी आईं जिन्हें उस अप्रकट चुनौती का उत्तर कहा जा सकता है जिसके अनुसार उर्दू काव्य कोई शतघ्नी है। यह कहना उचित होगा कि उनका छन्द या लय विधान अनेक स्थानों पर देसी है, हिन्दी है।
महा/खण्ड काव्य के अतिरिक्त काव्य की प्राय: हर विधा में रचा। लम्बी कविता 'नरक के रस्ते' में उसका सार है जो मुझे कम्युनिस्ट मार्ग से मिला जिससे अब बहुत दूर आ चुका हूँ। इतना सब होते हुये भी मैंने सदैव अपने काव्य को _विता कहा क्यों कि कवि कर्म को मैं आज कल के अर्थ में नहीं लेता।
गद्य में नाटक के अतिरिक्त प्रत्येक विधा में लिखा, बहुत लिखा। कविता एवं गद्य, दोनों में विपुल प्रयोग भी किये, जिनमें कुछ को भयानक, जुगुप्सित या बालपन भी कहा जा सकता है :) अपनी रची कहानियों को कहानी कहते हुये भी सङ्कोच होता है किन्तु उनके भी ग्राहक हैं ।
गद्य में कोणार्क शृंखला को पाठकों ने बहुत सराहा । मेरी समस्त सर्जनात्मकता का निचोड़ 'एक अधूरा प्रेमपत्र' एवं 'बाउ कथा', इन दो धारावाहिकों में है। विशाल किन्तु अधूरा 'अधूरा प्रेमपत्र' अब पाठकों को उपलब्ध नहीं है तथा बाउ कथा उपलब्ध होने पर भी ठहरी हुई है क्यों कि प्रवाह टूटने के पश्चात वह विशेष क्षण नहीं आ रहा जिसके आगे सब तट पर तज बहना पड़ता है। जहाँ तक मेरी प्रतीति है, इन दो को पढ़ने वाले भी अल्प ही मिलेंगे किन्तु इन दो को पुस्तक रूप में प्रकाशित किये बिना धरा से प्रयाण नहीं करना है । :)
भारतविद्या यथा रामायण, नाक्षत्रिकी, शब्द, पुराण, वेदादि पर भी बहुत लिखा एवं लिखे जा रहा हूँ।
2070 से फेसबुक एवं ट्विटर पर सक्रिय उपस्थिति है, जुड़ तो 2065 में ही गया था। इन पर कितना लिखा, आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। किसी दिन इन्हें भी खँगालना है। लगभग दो वर्ष पूर्व मघा पत्रिका में लिखना आरम्भ किया जो अनवरत चल रहा है।
अपने चिट्ठों को देखता हूँ तो वर्तनी शुद्धता 95% से नीचे नहीं लगती जिसे मैं अपनी एकमात्र उपलब्धि मानता हूँ। शेष तो पाठक जानें।
चिठ्ठाकारी के आरम्भ में मैं एक द्विपदी कहता था :
' पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं,
तफसील पूछोगे तो कह दूँगा - मुझे कुछ नहीं पता। '
प्रेमकथा हो या बाउ कथा, उनके लिये लिखा करता था -
' ...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता है। संसार जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। '
तथा
' मेरे पात्र बैताल की भाँति,
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न ।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर
...प्रतिदिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।'
बड़ा ही देसी प्रकार का आत्मविश्वास था, जो आज भी बना हुआ है। मेरा मात्र यही है, मैं कोई आचार्य वाचार्य नहीं हूँ। किञ्चित समर्पण हो तो आप भी वह कर सकते हैं जो मैं इन वर्षों में करता रहा हूँ, उसकी लब्धि क्या रही, सिद्धि क्या रही, मुझे नहीं पता।
____________
हिन्दी चिट्ठों के पते ये हैं :
https://girijeshrao.blogspot.com
https://kavita-vihangam.blogspot.com/
शब्द आधारित अंतर्जाल स्थल यह है :
http://nirukta.in/
इनके अतिरिक्त भी हैं किन्तु सक्रियता अत्यल्प है। परिवार के साथ साथ उन सब का भी ऋणी हूँ जिन्हों ने सराहा, प्यार दिया, प्रोत्साहित किया तथा उपयोगी सुझाव भी दिये।
गद्य लेखन हेतु मुख्यत: 'आलसी का चिठ्ठा' है तो पद्य हेतु 'कवितायें और कवि भी'। पद्य एवं गद्य प्रविष्टियों में अनुपात ~ 1:2 का रहा है। 2067 सबसे उर्वर वर्ष रहा जिसमें लगभग पौने तीन सौ प्रविष्टियाँ आईं तथा पद्य एवं गद्य की लगभग समान संख्या रही। आगे के दो वर्ष संख्या घटी किन्तु नव्य विषयों पर नई विधाओं में रचना कर्म हुआ। 2069 के पश्चात 2070 में सहसा ही प्रविष्टि संख्या पहले की 55% रह गई, आगे के वर्षों में भी संख्या घटती चली गयी। वर्ष 2072 में मात्र 27 प्रविष्टियाँ आईं, तब से अब अति मंद गति से उठान है इस वर्ष अब तक 36 प्रविष्टियाँ हो चुकी हैं।
इन वर्षों में भाषा अनिवार्यत: संस्कृतनिष्ठ होती गयी यद्यपि पद्य में नागरी उर्दू में कुछ ऐसी रचनायें, नज़्में एवं ग़जलें भी आईं जिन्हें उस अप्रकट चुनौती का उत्तर कहा जा सकता है जिसके अनुसार उर्दू काव्य कोई शतघ्नी है। यह कहना उचित होगा कि उनका छन्द या लय विधान अनेक स्थानों पर देसी है, हिन्दी है।
महा/खण्ड काव्य के अतिरिक्त काव्य की प्राय: हर विधा में रचा। लम्बी कविता 'नरक के रस्ते' में उसका सार है जो मुझे कम्युनिस्ट मार्ग से मिला जिससे अब बहुत दूर आ चुका हूँ। इतना सब होते हुये भी मैंने सदैव अपने काव्य को _विता कहा क्यों कि कवि कर्म को मैं आज कल के अर्थ में नहीं लेता।
गद्य में नाटक के अतिरिक्त प्रत्येक विधा में लिखा, बहुत लिखा। कविता एवं गद्य, दोनों में विपुल प्रयोग भी किये, जिनमें कुछ को भयानक, जुगुप्सित या बालपन भी कहा जा सकता है :) अपनी रची कहानियों को कहानी कहते हुये भी सङ्कोच होता है किन्तु उनके भी ग्राहक हैं ।
गद्य में कोणार्क शृंखला को पाठकों ने बहुत सराहा । मेरी समस्त सर्जनात्मकता का निचोड़ 'एक अधूरा प्रेमपत्र' एवं 'बाउ कथा', इन दो धारावाहिकों में है। विशाल किन्तु अधूरा 'अधूरा प्रेमपत्र' अब पाठकों को उपलब्ध नहीं है तथा बाउ कथा उपलब्ध होने पर भी ठहरी हुई है क्यों कि प्रवाह टूटने के पश्चात वह विशेष क्षण नहीं आ रहा जिसके आगे सब तट पर तज बहना पड़ता है। जहाँ तक मेरी प्रतीति है, इन दो को पढ़ने वाले भी अल्प ही मिलेंगे किन्तु इन दो को पुस्तक रूप में प्रकाशित किये बिना धरा से प्रयाण नहीं करना है । :)
भारतविद्या यथा रामायण, नाक्षत्रिकी, शब्द, पुराण, वेदादि पर भी बहुत लिखा एवं लिखे जा रहा हूँ।
2070 से फेसबुक एवं ट्विटर पर सक्रिय उपस्थिति है, जुड़ तो 2065 में ही गया था। इन पर कितना लिखा, आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। किसी दिन इन्हें भी खँगालना है। लगभग दो वर्ष पूर्व मघा पत्रिका में लिखना आरम्भ किया जो अनवरत चल रहा है।
अपने चिट्ठों को देखता हूँ तो वर्तनी शुद्धता 95% से नीचे नहीं लगती जिसे मैं अपनी एकमात्र उपलब्धि मानता हूँ। शेष तो पाठक जानें।
चिठ्ठाकारी के आरम्भ में मैं एक द्विपदी कहता था :
' पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं,
तफसील पूछोगे तो कह दूँगा - मुझे कुछ नहीं पता। '
प्रेमकथा हो या बाउ कथा, उनके लिये लिखा करता था -
' ...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता है। संसार जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। '
तथा
' मेरे पात्र बैताल की भाँति,
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न ।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर
...प्रतिदिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।'
बड़ा ही देसी प्रकार का आत्मविश्वास था, जो आज भी बना हुआ है। मेरा मात्र यही है, मैं कोई आचार्य वाचार्य नहीं हूँ। किञ्चित समर्पण हो तो आप भी वह कर सकते हैं जो मैं इन वर्षों में करता रहा हूँ, उसकी लब्धि क्या रही, सिद्धि क्या रही, मुझे नहीं पता।
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हिन्दी चिट्ठों के पते ये हैं :
https://kavita-vihangam.blogspot.com/
शब्द आधारित अंतर्जाल स्थल यह है :
http://nirukta.in/
इनके अतिरिक्त भी हैं किन्तु सक्रियता अत्यल्प है। परिवार के साथ साथ उन सब का भी ऋणी हूँ जिन्हों ने सराहा, प्यार दिया, प्रोत्साहित किया तथा उपयोगी सुझाव भी दिये।
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॥ त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये ॥
Mujhe to Bau ki pratksha rahti hai. Ummid bhi bahut ajib hoti hai. .....Bau ka deewana.
जवाब देंहटाएंमुझे आपकी सभी विधाओं में आपका लेखन रुचिकर लगता है. निरुक्त पर 'follow' या 'join' बटन नहीं दिख रहे. कृपया मार्ग दिखाएँ.
जवाब देंहटाएंबधाई व शुभकामनाएँ. फ़ेसबुक का माल जो काम का हो, उसे वहाँ से छानबीन कर दरयाफ़्त कर यहाँ ब्लॉग में सजाएँ. फ़ेसबुक में तो माल आपके स्वयं के लिए गुम-सा है तो दूसरों तक कैसे पहुँचेगा? :(
जवाब देंहटाएंबधाई!औरशुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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