तेषां वचः सर्वगुणोपपन्नं,
प्रस्विन्नगात्रः प्रविषण्णरूपः।
निशम्य राजा कृपणः सभार्यो,
व्यवस्थितस्तं सुतमीक्षमाणः ॥
...रथ पर आरूढ़ श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण वन को जा रहे हैं। दशरथ एवं कौशल्या देवी की पीछे से पुकार है, थमो सुमंत्र, थमो - तिष्ठ तिष्ठ। श्रीराम का आदेश है, भगाओ सुमंत्र सुमंत्र भगाओ, दु:ख को खींचना पापकर्म है - चिरं दुःखस्य पापिष्ठमिति, भगाओ - याहि याहि! - तिष्ठेति राजा चुक्रोश याहि याहीति राघवः।
सुमंत्र विचित्र परिस्थिति में हैं एवं राम ! मुड़ मुड़ कर पीछे देखते हैं, पुन: पुन: आगे। वाल्मीकि जी लिखते हैं, रथ के पीछे भागती, रुकती, आगे पुत्र को देखती, पीछे मुड़ कर पति को देखती कौशल्या देवी की गति ऐसी थी मानों नृत्य कर रही हों - नृत्यन्तीमिव मातरम्। प्रिय पुत्र बहू एवं अनुज सहित नयनों से दूर हो रहा है, पति की स्थिति चिंताजनक है, दो दूर होते प्रियपात्रों के बीच कौशल्या की स्नेह से बँधी इस स्थिति हेतु तुम्हें यही उपमा सूझी आदि कवि!
दो विरोधी पुकारों के बीच सुमंत्र की स्थिति कैसी है? मानों दो चक्रों के अंतर में सु मंत्री का मन पड़ गया हो!
तिष्ठेति राजा चुक्रोश याहि याहीति राघवः।
सुमन्त्रस्य बभूवात्मा चक्रयोरिव चान्तरा ॥
रथ दूर हो गया। बिछड़न बेला का वह गतिशील बिम्ब ठहर गया, जिसे जाना था, चला गया। मंत्रियों ने कहा, जिनके लौटने की हमें इच्छा है, उनके पीछे दूर तक नहीं जाते - यमिच्छेत्पुनरायान्तं नैनं दूरमनुव्रजेत्।
ऊपर का उपेन्द्रव्रजा छन्द उसी समय का है जब सहसा ही सब रुक जाता है, दु:ख जड़ीभूत हो जाता है कि मंत्रियों की वाणी सर्वगुणसम्पन्न है, मान जाओ तथा स्थिति वैसी हो जाती है कि हाथ मलते रह जाना होता है। रथ के पीछे भागते रहने से गात स्वेद से भीग गया है, दु:ख से भरा रूप विषण्ण है, समस्त अस्तित्त्व ही दु:खपूरित कृपण है तथा पुत्र को तकते राजा रानी के साथ ठगे से खड़े रह जाते हैं।
इस श्रांत दु:ख भरे क्षण को कवि 'ण' वर्ण के प्रयोगों द्वारा स्थिर कर देते हैं। देखें कि प्रत्येक चरण में ण है। तीन पंक्तियों का पूर्वार्द्ध भौतिक स्थिति है तो उत्तरार्द्ध प्रभाव की जिसमें 'ण' है, विषण्ण विविध :
वच: > गुण:
प्रस्विन्न > विषण्ण
निशम्य > कृपण:
अंतिम पंक्ति में क्रम उलट जाता है, प्रभाव पहले है, कारक अनंतर - व्यवस्थित<सुतमीक्षमाण, पुत्र को देखते देखते ठहर गये ! सुर बढ़ा बढ़ा, एकाएक खींच लिया !
...
यह भारतीय काव्य का सौंदर्य है जिसमें वर्णगरिमा ध्यातव्य है। यह न अरबी मुगलई उर्दू में मिलेगा न उस 'मिजाज' वाले इसे समझ या सराह पायेंगे। आयातित संस्कृति आप को बड़े प्रेम से आप से ही काटती है।
'ण' की इस गरिमा को आधुनिक काव्य में देखना हो तो निराला की सरोज स्मृति पढ़ें। पुत्री की असमय मृत्यु के पश्चात उसका 'तर्पण' करता कवि पिता जाने क्या क्या उड़ेल देता है, दु;ख है, गहन दु:ख है किन्तु किसी महर्षि की भाँति उसे अभिव्यक्त करता है :
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!"