चेतना के उच्चतम स्तर तक पहुँचे एवं सहस्राब्दियों में पसरे सनातन वाङ्मय का देवता वैविध्य भौतिक एवं आध्यात्मिक, दोनों स्तरों पर समेकित चिंतन एवं अभिव्यक्ति का द्योतक है।
द्यौ, भू एवं आप: (जल), विराट परिवेश के इन तीन स्पष्ट क्षेत्रों में ग्यारह ग्यारह देवताओं की उद्भावना के साथ कुल ३३ देवता बताये गये - त्रयादेवाऽएकादश त्रयस्त्रिंसासुराधस ।
पाँच तत्त्वों का अभिज्ञान रहा ही। ऋग्वेद से ले कर उपनिषदों तक संख्याओं के बारे में बहुत कुछ है ही, उनके विविध विभाजनों को ले कर भी बहुत कुछ है। प्रतीत होता है कि अविभाज्यता उनकी चेतना में रही होगी। एक ब्रह्म, दो पुरुष प्रकृति, तीन लोक, पाँच तत्व (पञ्चजन भी)। यहाँ तक आते आते इन अभाज्य संख्याओं (Prime Numbers) का योग ग्यारह हो जाता है। पाँच एवं ग्यारह के बीच सप्तमात्रिकायें ही अभाज्य बचती हैं, जिनका अपना तन्त्रमार्ग है।
३३ देवताओं को आगे पाँच तत्त्वों के समूह में बाँटे गये द्वादश आदित्य, एकादश रुद्र, अष्ट वसु एवं भूत भूतेतर को दर्शाते प्रजापति-इन्द्र या दो अश्विनीकुमारों का युग्म।
आदित्य पृथ्वी पर जीवन के कारक हैं, बारह महीनों में सूर्य के विविध रूप। रुद्र सम्पूर्ण भूतों का समन्वित रूप है, मानव सहित सभी पशु कहे गये हैं जिनकी बलि सृष्टि का विराट यज्ञपुरुष लेता रहता है, एकीकृत रुद्र पशुपति है। याज्ञिक बलि की इस प्रतीकात्मकता को न समझ पाने के कारण या नितान्त स्थूल शब्दार्थ लेने के कारण बहुत से अनर्थ हुये। आठ वसु धरा की सम्पदायें हैं। ज्येष्ठराजा इन्द्र की वासव संज्ञा हो या वीर राजन्यों हेतु कहा गया वीर भोग्या वसुंंधरा ; वसुओं का रूप स्पष्ट होता है।
छंदों को देवताओं का छाजन कहा गया जिनमें 'मृत्यु के भय' से देवता शरण लेते हैं। ध्यान दें तो १२, ११ एवं ८ की संख्यायें क्रमश: जगती, त्रिष्टुप एवं गायत्री छंदों से जुड़ती हैं जो क्रमश: (उत्पादक) वैश्य, (रक्षक) क्षत्रिय एवं (मन्त्री) ब्राह्मण छन्द कहे गये हैं।
इन्हें घेरे दो सीमान्त प्रतीक, सत एवं असत, ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त से समझे जा सकते हैं। अश्विनों में नासत्य जहाँ दयालु एवं पोषक है, वहीं दस्र भयङ्कर एवं संहारक। प्रजापति एवं इन्द्र को भी ऐसे ही जाना जा सकता है। पूर्वी बौद्ध देशों की यिन-यान संकल्पना हो या ऊपर बताये पुरुष प्रकृति, चक्रीय क्रम में ऐसे समझे जाने चाहिये।
अंत में समस्त देवताओं के एक रूप विश्वेदेवा देवता को समर्पित एक मन्त्र का अंश देखें, वीरभोग्या वसुन्धरा का मर्म अधिक प्रतिभाषित हो जायेगा :
द्यौ, भू एवं आप: (जल), विराट परिवेश के इन तीन स्पष्ट क्षेत्रों में ग्यारह ग्यारह देवताओं की उद्भावना के साथ कुल ३३ देवता बताये गये - त्रयादेवाऽएकादश त्रयस्त्रिंसासुराधस ।
पाँच तत्त्वों का अभिज्ञान रहा ही। ऋग्वेद से ले कर उपनिषदों तक संख्याओं के बारे में बहुत कुछ है ही, उनके विविध विभाजनों को ले कर भी बहुत कुछ है। प्रतीत होता है कि अविभाज्यता उनकी चेतना में रही होगी। एक ब्रह्म, दो पुरुष प्रकृति, तीन लोक, पाँच तत्व (पञ्चजन भी)। यहाँ तक आते आते इन अभाज्य संख्याओं (Prime Numbers) का योग ग्यारह हो जाता है। पाँच एवं ग्यारह के बीच सप्तमात्रिकायें ही अभाज्य बचती हैं, जिनका अपना तन्त्रमार्ग है।
३३ देवताओं को आगे पाँच तत्त्वों के समूह में बाँटे गये द्वादश आदित्य, एकादश रुद्र, अष्ट वसु एवं भूत भूतेतर को दर्शाते प्रजापति-इन्द्र या दो अश्विनीकुमारों का युग्म।
आदित्य पृथ्वी पर जीवन के कारक हैं, बारह महीनों में सूर्य के विविध रूप। रुद्र सम्पूर्ण भूतों का समन्वित रूप है, मानव सहित सभी पशु कहे गये हैं जिनकी बलि सृष्टि का विराट यज्ञपुरुष लेता रहता है, एकीकृत रुद्र पशुपति है। याज्ञिक बलि की इस प्रतीकात्मकता को न समझ पाने के कारण या नितान्त स्थूल शब्दार्थ लेने के कारण बहुत से अनर्थ हुये। आठ वसु धरा की सम्पदायें हैं। ज्येष्ठराजा इन्द्र की वासव संज्ञा हो या वीर राजन्यों हेतु कहा गया वीर भोग्या वसुंंधरा ; वसुओं का रूप स्पष्ट होता है।
छंदों को देवताओं का छाजन कहा गया जिनमें 'मृत्यु के भय' से देवता शरण लेते हैं। ध्यान दें तो १२, ११ एवं ८ की संख्यायें क्रमश: जगती, त्रिष्टुप एवं गायत्री छंदों से जुड़ती हैं जो क्रमश: (उत्पादक) वैश्य, (रक्षक) क्षत्रिय एवं (मन्त्री) ब्राह्मण छन्द कहे गये हैं।
इन्हें घेरे दो सीमान्त प्रतीक, सत एवं असत, ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त से समझे जा सकते हैं। अश्विनों में नासत्य जहाँ दयालु एवं पोषक है, वहीं दस्र भयङ्कर एवं संहारक। प्रजापति एवं इन्द्र को भी ऐसे ही जाना जा सकता है। पूर्वी बौद्ध देशों की यिन-यान संकल्पना हो या ऊपर बताये पुरुष प्रकृति, चक्रीय क्रम में ऐसे समझे जाने चाहिये।
अंत में समस्त देवताओं के एक रूप विश्वेदेवा देवता को समर्पित एक मन्त्र का अंश देखें, वीरभोग्या वसुन्धरा का मर्म अधिक प्रतिभाषित हो जायेगा :
आहुतयो मे कामान्त्समर्धयन्तु भू: स्वाहा।
आहुतियाँ मेरी समस्त कामनाओं को समृद्ध करें। भू मेरे लिये सु-वह हो।
ःःःःःःःःःःःःःःःःः
(उद्धरण अंश शुक्ल यजुर्वेद से हैं।)
(३३ करोड़ देवताओं का सम्बन्ध संवत्सर गणना के क्रमश: सूक्ष्म एवं परिशुद्ध होते जाने से है। उस पर कभी लिखेंगे।)