महातेजस्वी, समस्त भूतों में स्वयम्भू के समान, कौशल्या के सुत वैसे जैसे अदिति के वज्रपाणि इन्द्र, रूपोपन्न, वीर्यवान, अनसूयक, भूमावनुपम, प्रशान्तात्मा, मृदुभाषी, दूसरों की कठोर बातों का भी प्रत्युत्तर न देने वाले अर्थात प्रतिक्रियावादी नहीं, कृतज्ञ, अपकारास्मर, शील-ज्ञान-वय-वृद्धों से विमर्शी, बुद्धिमान, प्रियम्वद, अविस्मित, नानृतकथ, विद्वान, वृद्धप्रतिपूजक, प्रजानुरञ्जक, जितक्रोध, सानुक्रोश, ब्राह्मणप्रतिपूजक, दीनानुकम्पी, धर्मज्ञ, प्रग्रहवान, शुचि, कीर्तिमानी, कुलोचितमति, क्षात्रधर्ममानी, नाश्रेयरत, विरुद्धकथाऽरुचि, वाचस्पतिसम उत्तरोत्तरयुक्ति वक्ता, अरोग, तरुण, वाग्मी, वपुष्मान, देशकालविद, पुरुषसारज्ञ, लोकसाधु एक, प्रजा के प्राणप्रिय, सम्यक विद्या युक्त स्नातक, साङ्गवेदविद, धनुर्विद्या में पिता से भी श्रेष्ठ, धर्मार्थदर्शीद्विजशिक्षित, स्मृतिमान, धर्मकामार्थतत्त्वज्ञ, प्रतिभानवान, लौकिक समयाचार कृतकल्पविशारद, निभृत, संवृताकार, गुप्तमन्त्र, सहायवान, अमोघहर्षक्रोध, त्यागसंयमकालविद...
दृढभक्तिः स्थिरप्रज्ञो नासद्ग्राही न दुर्वचाः
निस्तन्द्रिरप्रमत्तश्च स्वदोषपरदोषवित्
शास्त्रज्ञश्च कृतज्ञश्च पुरुषान्तरकोविदः
यः प्रग्रहानुग्रहयोर्यथान्यायं विचक्षणः
सत्संग्रहप्रग्रहणे स्थानविन्निग्रहस्य च
आयकर्मण्युपायज्ञः संदृष्टव्ययकर्मवित्
श्रैष्ठ्यं शास्त्रसमूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेषु च
अर्थधर्मौ च संगृह्य सुखतन्त्रो न चालसः
वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थविभागवित्
आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम्
धनुर्वेदविदां श्रेष्ठो लोकेऽतिरथसम्मतः
अभियाता प्रहर्ता च सेनानयविशारदः
अप्रधृष्यश्च संग्रामे क्रुद्धैरपि सुरासुरैः
अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी
न चावमन्ता भूतानां न च कालवशानुगः
एवं श्रेष्ठगुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः
सम्मतस्त्रिषु लोकेषु वसुधायाः क्षमागुणैः
बुद्ध्या बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्येणापि शचीपतेः
तथा सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसञ्जननैः पितुः
गुणैर्विरुरुचे रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः
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लोकपाल इन्द्र के समान ऐसे राम को अपना नाथ बनाने हेतु मेदिनी ही मानो कामना कर उठी!
इत्येतैर्विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभैः
शिष्टैरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः
तं समीक्ष्य महाराजो युक्तं समुदितैः शुभैः
निश्चित्य सचिवैः सार्धं युवराजममन्यत
ऐसी स्थिति हो जाने पर कि राम योग्यता में उनसे बहुत आगे हो चुके हैं, राजा ने 'समीक्षा' कर, सचिवों के साथ विमर्श कर राम को युवराज बनाने का निर्णय लिया।
आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च
प्राप्तकालेन धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः
प्राप्तकालेन, उचित अवसर आ चुका था। उस पद हेतु राम न्यूनतम वय की सीमा भी पूरी कर चुके थे। राम का जन्मदिन आ पहुँचा था, राजा ने बिना विलम्ब के त्वरित ही चन्द्रमा के समान मुख वाले रामचन्द्र का अभिषेक करने का निर्णय लिया, जो वैसे ही शोभते हैं जैसे चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र के साथ -
तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम्
यौवराज्ये नियोक्तास्मि प्रीतः पुरुषपुंगवम्
साथ ही सभा में उपस्थित विविध राजाओं की सम्मति माँगी कि परस्पर विरोधी मतों के घर्षण पश्चात ही ऐसा महत्वपूर्ण काम किया जाना चाहिये -
यद्यप्येषा मम प्रीतिर्हितमन्यद्विचिन्त्यताम्
अन्या मद्यस्थचिन्ता हि विमर्दाभ्यधिकोदया
राजतन्त्र का लोकतन्त्र था, समस्त प्रजा के प्रतिनिधि उपस्थित थे। सबने एक स्वर से अनुमोदन किया किन्तु दशरथ ने तब भी पूछा कि ऐसा क्या है मेरे कहे में जो सभी मान गये?
श्रुत्वैव वचनं यन्मे राघवं पतिमिच्छथ
राजानः संशयोऽयं मे तदिदं ब्रूत तत्त्वतः
प्रतिनिधियों व राजाओं ने वही गुण दुहराये जो ऊपर लिखे जा चुके हैं।
सुभ्रूरायतताम्राक्षः साक्षाद् विष्णुरिव स्वयम्
रामो लोकाभिरामोऽयं शौर्यवीर्यपराक्रमैः
तब दशरथ ने वसिष्ठ, वामदेव व अन्य ब्राह्मणों से कहा -
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम्
वसिष्ठ मुनि ने अगले दिन अभिषेक हेतु सारी व्यवस्थायें करने का आदेश दे दिया।
पिता ने पुत्र को बुला कर कहा, पुष्ययोग में तुम्हारा अभिषेक होगा -
तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि।
कहा कि यद्यपि तुम गुणवान हो, तथापि -
भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः
कामक्रोधसमुत्थानि त्यजेथा व्यसनानि च
विनयी रहो, जितेन्द्रिय हो, काम, क्रोध व व्यसनों का त्याग कर के!
...
समय का निर्णय दशरथ का था, वसिष्ठ मुनि ने कार्यक्रम निर्धारित किया। दशरथ की चेतावनी मानो भावी हेतु ही उनके अवचेतन से निस्सृत हुई थी।
पौराणिक व लौकिक लन्तरानियों से इतर मूल को पढ़ें, ध्यान से। व्यर्थ के वितण्डा से मुक्ति मिलेगी। रामायण हो या महाभारत, राजन्यों के ज्योतिष ज्ञान के विशद विवरण बिखरे पड़े हैं। तब मुहूर्त देख कर काम नहीं किये जाते थे, काम करने का निर्णय ले कर उपलब्ध में से शुभ का चयन कर लिया जाता था। दोनों में अन्तर है।
जिस दिन निर्णय लिया गया, चैत्र माह में चन्द्र पुनर्वसु नक्षत्र पर थे, राम की जन्मतिथि। पुनर्वसु की अधिष्ठात्री मघवा माता अदिति हैं। उपेन्द्र विष्णु से अधिक राम की गढ़न महेन्द्र की है।
पुनर्वसु का अगला नक्षत्र पुष्य था, बृहस्पति का।
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