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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

Shrirama Crown Price Coronation श्रीराम यौवराज्याभिषेक तिथि का निर्धारण राजा दशरथ ने किया


अद्य चन्द्रोऽभ्युपगतः पुष्यात्पूर्वं पुनर्वसू
श्वः पुष्ययोगं नियतं वक्ष्यन्ते दैवचिन्तकाः
ततः पुष्येऽभिषिञ्चस्व मनस्त्वरयतीव माम्
श्वस्त्वाऽहमभिषेक्ष्यामि यौवराज्ये परन्तप
महातेजस्वी, समस्त भूतों में स्वयम्भू के समान, कौशल्या के सुत वैसे जैसे अदिति के वज्रपाणि इन्द्र, रूपोपन्न, वीर्यवान, अनसूयक, भूमावनुपम, प्रशान्तात्मा, मृदुभाषी, दूसरों की कठोर बातों का भी प्रत्युत्तर न देने वाले अर्थात प्रतिक्रियावादी नहीं, कृतज्ञ, अपकारास्मर, शील-ज्ञान-वय-वृद्धों से विमर्शी, बुद्धिमान, प्रियम्वद, अविस्मित, नानृतकथ, विद्वान, वृद्धप्रतिपूजक, प्रजानुरञ्जक, जितक्रोध, सानुक्रोश, ब्राह्मणप्रतिपूजक, दीनानुकम्पी, धर्मज्ञ, प्रग्रहवान, शुचि, कीर्तिमानी, कुलोचितमति, क्षात्रधर्ममानी, नाश्रेयरत, विरुद्धकथाऽरुचि, वाचस्पतिसम उत्तरोत्तरयुक्ति वक्ता, अरोग, तरुण, वाग्मी, वपुष्मान, देशकालविद, पुरुषसारज्ञ, लोकसाधु एक, प्रजा के प्राणप्रिय, सम्यक विद्या युक्त स्नातक, साङ्गवेदविद, धनुर्विद्या में पिता से भी श्रेष्ठ, धर्मार्थदर्शीद्विजशिक्षित, स्मृतिमान, धर्मकामार्थतत्त्वज्ञ, प्रतिभानवान, लौकिक समयाचार कृतकल्पविशारद, निभृत, संवृताकार, गुप्तमन्त्र, सहायवान, अमोघहर्षक्रोध, त्यागसंयमकालविद...

... यौवराज्याभिषेक की भूमिका में आदर्श राजा के गुणों को गिनाते व उनके राम में होने को बताते हुये महामुनि वाल्मीकि अयोध्याकाण्ड के पहले सर्ग में ही मर्यादा पुरुषोत्तम के भावी रामराज्य की झाँकी दिखा देते हैं जो दशरथ के सुराज से भी बढ़ चढ़ कर होगी। नगर-वन-नगर के राम अयन के अन्तिम युद्धकाण्ड के अन्त में सम्राट के राज्याभिषेक में विस्तार से लिखने को कुछ बचा ही नहीं, राम का जीवनवृत्त एक ऐसा वृत्त है जिसका आदि अन्त ही नहीं ...

दृढभक्तिः स्थिरप्रज्ञो नासद्ग्राही न दुर्वचाः
निस्तन्द्रिरप्रमत्तश्च स्वदोषपरदोषवित्
शास्त्रज्ञश्च कृतज्ञश्च पुरुषान्तरकोविदः
यः प्रग्रहानुग्रहयोर्यथान्यायं विचक्षणः
सत्संग्रहप्रग्रहणे स्थानविन्निग्रहस्य च
आयकर्मण्युपायज्ञः संदृष्टव्ययकर्मवित्
श्रैष्ठ्यं शास्त्रसमूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेषु च
अर्थधर्मौ च संगृह्य सुखतन्त्रो न चालसः
वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थविभागवित्
आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम्
धनुर्वेदविदां श्रेष्ठो लोकेऽतिरथसम्मतः
अभियाता प्रहर्ता च सेनानयविशारदः
अप्रधृष्यश्च संग्रामे क्रुद्धैरपि सुरासुरैः
अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी
न चावमन्ता भूतानां न च कालवशानुगः
एवं श्रेष्ठगुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः
सम्मतस्त्रिषु लोकेषु वसुधायाः क्षमागुणैः
बुद्ध्या बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्येणापि शचीपतेः
तथा सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसञ्जननैः पितुः
गुणैर्विरुरुचे रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः

°°°
लोकपाल इन्द्र के समान ऐसे राम को अपना नाथ बनाने हेतु मेदिनी ही मानो कामना कर उठी!
इत्येतैर्विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभैः
शिष्टैरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः
तं समीक्ष्य महाराजो युक्तं समुदितैः शुभैः
निश्चित्य सचिवैः सार्धं युवराजममन्यत

ऐसी स्थिति हो जाने पर कि राम योग्यता में उनसे बहुत आगे हो चुके हैं, राजा ने 'समीक्षा' कर, सचिवों के साथ विमर्श कर राम को युवराज बनाने का निर्णय लिया।
आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च
प्राप्तकालेन धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः

प्राप्तकालेन, उचित अवसर आ चुका था। उस पद हेतु राम न्यूनतम वय की सीमा भी पूरी कर चुके थे। राम का जन्मदिन आ पहुँचा था, राजा ने बिना विलम्ब के त्वरित ही चन्द्रमा के समान मुख वाले रामचन्द्र का अभिषेक करने का निर्णय लिया, जो वैसे ही शोभते हैं जैसे चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र के साथ -
तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम्
यौवराज्ये नियोक्तास्मि प्रीतः पुरुषपुंगवम्

साथ ही सभा में उपस्थित विविध राजाओं की सम्मति माँगी कि परस्पर विरोधी मतों के घर्षण पश्चात ही ऐसा महत्वपूर्ण काम किया जाना चाहिये -
यद्यप्येषा मम प्रीतिर्हितमन्यद्विचिन्त्यताम्
अन्या मद्यस्थचिन्ता हि विमर्दाभ्यधिकोदया

राजतन्त्र का लोकतन्त्र था, समस्त प्रजा के प्रतिनिधि उपस्थित थे। सबने एक स्वर से अनुमोदन किया किन्तु दशरथ ने तब भी पूछा कि ऐसा क्या है मेरे कहे में जो सभी मान गये?
श्रुत्वैव वचनं यन्मे राघवं पतिमिच्छथ
राजानः संशयोऽयं मे तदिदं ब्रूत तत्त्वतः

प्रतिनिधियों व राजाओं ने वही गुण दुहराये जो ऊपर लिखे जा चुके हैं।
सुभ्रूरायतताम्राक्षः साक्षाद् विष्णुरिव स्वयम्
रामो लोकाभिरामोऽयं शौर्यवीर्यपराक्रमैः
तब दशरथ ने वसिष्ठ, वामदेव व अन्य ब्राह्मणों से कहा -
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम्

वसिष्ठ मुनि ने अगले दिन अभिषेक हेतु सारी व्यवस्थायें करने का आदेश दे दिया।
पिता ने पुत्र को बुला कर कहा, पुष्ययोग में तुम्हारा अभिषेक होगा -

तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि।
कहा कि यद्यपि तुम गुणवान हो, तथापि -
भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः
कामक्रोधसमुत्थानि त्यजेथा व्यसनानि च
विनयी रहो, जितेन्द्रिय हो, काम, क्रोध व व्यसनों का त्याग कर के!
...
समय का निर्णय दशरथ का था, वसिष्ठ मुनि ने कार्यक्रम निर्धारित किया। दशरथ की चेतावनी मानो भावी हेतु ही उनके अवचेतन से निस्सृत हुई थी।
पौराणिक व लौकिक लन्तरानियों से इतर मूल को पढ़ें, ध्यान से। व्यर्थ के वितण्डा से मुक्ति मिलेगी। रामायण हो या महाभारत, राजन्यों के ज्योतिष ज्ञान के विशद विवरण बिखरे पड़े हैं। तब मुहूर्त देख कर काम नहीं किये जाते थे, काम करने का निर्णय ले कर उपलब्ध में से शुभ का चयन कर लिया जाता था। दोनों में अन्तर है।
जिस दिन निर्णय लिया गया, चैत्र माह में चन्द्र पुनर्वसु नक्षत्र पर थे, राम की जन्मतिथि। पुनर्वसु की अधिष्ठात्री मघवा माता अदिति हैं। उपेन्द्र विष्णु से अधिक राम की गढ़न महेन्द्र की है।
पुनर्वसु का अगला नक्षत्र पुष्य था, बृहस्पति का।

रविवार, 19 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - ३ श्रीरामपट्टाभिषेकम्‌


Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - १  से आगे 

सर्वा पूर्वमियं येषामासीत्कृत्स्ना वसुन्धरा 
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् 
यह रामायण का प्रथम श्लोक है। प्रजापति मनु से आरम्भ हुये जयशाली राजाओं द्वारा यह वसुंधरा शासित थी। दशरथ के राज्य का जो वर्णन है, वह रामराज्य सा ही है। 
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा
मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:
तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धन: 
पुरीमावासयामास दिवं देवपतिर्यथा 
... 
विक्षेप हुआ, युवराज निर्वासित हुआ और आज चौदह वर्षों पश्चात लौटा है, जाने कितनी जातियों को एक सूत्र में बाँध, जाने कितनों को भयमुक्त व स्वतंत्र कर तापस राम लौटा है, राजा बनने।
प्रजापति मनु का वह श्रेष्ठ उत्तराधिकारी है जिसके यहाँ समस्त जातियाँ मानव होंगी, कोई राक्षस नहीं, कोई पीड़क नहीं, कोई पीड़ित नहीं। 
राम लौटा है, वहाँ जहाँ उसका सौतेला भाई भरत उसकी पादुकाओं को राजपीठ पर रख उसका तपस्वी प्रतिनिधि बन प्रजा के भरण पोषण के भर्त्तार राजधर्म का निर्वाह कर रहा है। प्रतीक्षा के चौदह वर्ष मानों एक कल्प के चौदह मन्‍वन्तर की भाँति बीते हैं और आज राम मनु का किरीट सिर पर धारण करने लौटा है  ... 
...
कच्चिन्न खलु कापेयी सेव्यते चलचित्तता
न हि पश्यामि काकुत्स्थं राममार्यं परन्तपम् 
भरत ने हनुमान से पूछा - वानरसुलभ चञ्चलता के वशीभूत हो तो नहीं कह रहे? मुझे तो काकुत्स्थ परन्तप राम आते नहीं दिख रहे!
तं समुत्थाप्य काकुत्स्थश्चिरस्याक्षिपथं गतम्
अङ्के भरतमारोप्य मुदितः परिषष्वजे
राम ने भरत को देखा - आँखें पथरा गयी थीं रे, जो तुझे इतने दिनों से देखा नहीं! उन्होंने भरत को गोद में उठा लिया, तब आलिंगन किया।
भरत ने अपना नाम उचार अभिवादन तो सबका यथोचित किया किन्तु पहली बात सुग्रीव से बोले -
त्वमस्माकं चतुर्णां वैभ्राता सुग्रीव पञ्चमः
आप हम चारों के पाँचवे भाई हैं।
... 
संसार में सम्भवत: यह अकेला उदाहरण होगा जहाँ शीर्षाभिषेक से पूर्व पादाभिषेक हुआ। भाई भरत ने सेवा का प्रेष्य प्रतिनिधि भाव छोड़ते हुये राम की पादुका स्वयं उनके पाँवों में पहनाई, सेवाप्रवीण भाई ने  भावी भूपति के पाँवों से भूमि का सम्बन्ध जोड़ा - 
पादुके ते तु रामस्य गृहीत्वा भरतः स्वयम् 
चरणाभ्यां नरेन्द्रस्य योजयामास धर्मवित् 
और दायित्त्व को उतारने की भूमिका में कृताञ्जलि हो बोल पड़े -
एतत्ते रक्षितं राजन्राज्यं निर्यातितं मया  
अद्य जन्म कृतार्थं मे संवृत्तश्च मनोरथः 
यस्त्वां पश्यामि राजानमयोध्यां पुनरागतम् 
राजन् ! जो राज्य आप मुझे सौंप कर गये थे, उसकी मैंने रक्षा की है। आज मेरा जन्म कृतार्थ हुआ, मनोरथ पूरे हुये जो आप को अयोध्या लौट आया देख रहा हूँ। 
पाँवों में पादुकायें पहना दीं, मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, आप मेरे राजा हैं। राजा हैं तो सम्पदा व शक्ति होनें चाहिये न!   
अवेक्षतां भवान्कोशं कोष्ठागारं पुरं बलम् 
भवतस्तेजसा सर्वं कृतं दशगुणं मया 
देख लें, कोश, कोठ-कोठार, सैन्य बल सभी आप के तेज से मैंने दसगुने कर दिये हैं (मैंने १४ वर्ष तप किया है, ऐसे ही नहीं बैठा रहा! ) 
पूजिता मामिका माता दत्तन् राज्यमिदं मम 
तद्ददामि पुनस्तुभ्यन् यथा त्वमददा मम 
मेरी माता का सम्मान करते हुये यह राज्य आपने मुझे दिया था, उसे मैं आपको उसी प्रकार दे रहा हूँ जिस प्रकार आपने मुझे दिया था (अभिवृद्धि तो बता ही चुका हूँ, कोई हानि या न्यूनता नहीं होने दी!) 
धुरमेकाकिना न्यस्तामृषभेण बलीयसा 
किशोरवद्गुरुं भारं न वोढुमहमुत्सहे  
वारिवेगेन महता भिन्नः सेतुरिव क्षरन् 
दुर्बन्धनमिदं मन्ये राज्यच्छिद्रमसन्वृतम् 
(बहुत हो गया) आप सँभालिये अब। जिस प्रकार बली वृषभ के साथ एक ओर नाध दिया गया किशोर बछड़ा उसके साथ भार का वहन नहीं कर सकता, वही स्थिति मेरी है, आप ही राजा रहें, मैं नहीं। 
राजकाज सँभालना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार बड़ी धारा से छिद्रित होने से रिसते बाँध को सँभालना।  
गतिं खर इवाश्वस्य हन्सस्येव च वायसः 
नान्वेतुमुत्सहे देव तव मार्गमरिन्दम 
हे अरिन्‍दम! मैं आप की भाँति इस कठिन मार्ग पर नहीं चल सकता जैसे एक गधा अश्व की भाँति नहीं चल सकता, जिस प्रकार एक कौवा हंस की चाल नहीं चल सकता। 
भाव भरे भरत ने सम्भवत: अनुभव किया कि उदाहरणों और उपमाओं की दिशा ठीक नहीं जा रही। उन्होंने जोड़ा - 
यथा च रोपितो वृक्षो जातश्चान्तर्निवेशने 
महांश्च सुदुरारोहो महास्कन्धः प्रशाखवान् 
शीर्येत पुष्पितो भूत्वा न फलानि प्रदर्शयेत् 
तस्य नानुभवेदर्थन् यस्य हेतोः स रोप्यते 
एषोपमा महाबाहो त्वमर्थन् वेत्तुमर्हसि 
यद्यस्मान्मनुजेन्द्र त्वं भक्तान्भृत्यान्न शाधि हि 
घर के पिछवाड़े में रोपा गया वृक्ष पाल पोस कर बड़ा कर दिया जाय, इतना विशाल हो जाय कि उस पर चढ़ा न जा सके, उसका तना बहुत मोटा हो जाय, शाखायें प्रशाखायें बढ़ जायें, सब हो किंतु फुलाने के पश्चात बिना फल दिये सूख जाये, उस स्थिति में रोपने वाले के साथ जैसा होगा, वैसा ही कुछ हमारे साथ होगा यदि आप ने राज्य स्वीकार नहीं किया। यह रूपक आप के ही लिये है, आप समझें।  
अनुज भरत आगे ऐसे कहते चले गये मानों बड़े भाई पर शुभाशंसाओं की झड़ी लगा रहे हों, जन जन की शुभेच्छायें एक हो उनकी जिह्वा पर विराजमान हो गईं -  
जगदद्याभिषिक्तन् त्वामनुपश्यतु सर्वतः
प्रतपन्तमिवादित्यं मध्याह्ने दीप्ततेजसं 
तूर्यसङ्घातनिर्घोषैः काञ्चीनूपुरनिस्वनैः 
मधुरैर्गीतशब्दैश्च प्रतिबुध्यस्व शेष्व च 
यावदावर्तते चक्रन् यावती च वसुन्धरा 
तावत्त्वमिह सर्वस्य स्वामित्वमभिवर्तय 
मध्याह्न में अपने तेज से दप दप दीप्त होते सूर्य की भाँति आज समस्त संसार को आप स्वयं को अभिषिक्त होता हुआ देख लेने दें। भरत ने सूर्यवंशी की उपमा सूर्य से ही दी। 
आप तूर्य, नृत्यनूपुर ध्वनि, मधुर गीतों की ध्वनि के साथ विश्राम करें तथा उन्हें सुनते हुये ही जागरण करें। जब तक यह कालचक्र घूम रहा है, जहाँ तक इस वसुन्‍धरा का प्रसार है, हे स्वामी आप शासन करते हुये देखभाल करें। 
वाल्मीकि के घुमन्तू  कुशीलव गायन वाली वसुन्धरा से आरम्भ हुआ आख्यान भर्त्ता भरत की मङ्गलकामना से युक्त वसुंधरा तक पहुँच अपनी पूर्ण परिणति प्राप्त कर चुका।  
... 
लौटते राम की सूचना देने वाले मारुति से संवाद से ले कर श्रीरामपट्टाभिषेकम् से कुछ पूर्व तक भरत ही भरत हैं।
आश्चर्य सा होता है कि रामायण अनूठी कृति है तो भाइयों के परस्पर प्रेम के कारण।
रामरूपी सूर्य का अयन जिन दो सीमाओं के बीच है, वे लक्ष्मण और भरत हैं। एक ग्रीष्म का चरम, तो दूसरा शीत का और इनके बीच है रामेन्द्र की वह वज्रवर्षा जिससे सारा मानस भर भर फुला उठता है, आठ ब्राह्मणश्रेष्ठों ने राम का उसी प्रकार अभिषेक किया, जिस प्रकार कभी आठ वसुओं ने वासव इन्‍द्र का अभिषेक किया था। प्रजापति मनु की परम्परा मानवोत्तम, नरोत्तम, पुरुषोत्तम को पा कर रामराज्य हुई, वसुधा तृप्त हुई -
वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः 
कात्यायनः सुयज्ञश्च गौतमो विजयस्तथा 
अभ्यषिञ्चन्नरव्याघ्रं प्रसन्नेन सुगन्धिना 
सलिलेन सहस्राक्षन् वसवो वासवं यथा 
ब्रह्मणा निर्मितं पूर्वं किरीटं रत्नशोभितम् 
अभिषिक्तः पुरा येन मनुस्तं दीप्ततेजसम्
तस्यान्ववाये राजानः क्रमाद्येनाभिषेचिताः
...
रामो रामो राम इति प्रजानामभवन् कथाः
रामभूतं जगाभूत् रामे राज्यं प्रशासति
नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरवः स्कन्धविस्तृताः
कालवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा लोभविवर्जिताः
स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्टा: स्वैरेव कर्मभिः
आसन् प्रजा धर्मपरा रामे शासति नानृताः
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणा: