अभिषेक ओझा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
अभिषेक ओझा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

दूसरा भाग: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से भी..(लंठ महाचर्चा)

____________________________________________________

पिछले भाग से जारी...
प्रवचन के बीच में ही पुस्तकालय के द्वार खुल गए। बाहर घूमते अद्भुत प्राणी एक साथ द्वार की ओर भागे तो लेंठड़े को उत्सुकता हुई। वह भी घुस गया और स्तब्ध रह गया ! उन्नत मेधा के उस जीव ने जो देखा वह अलौकिक था। यह सभ्यता तो बहुत विकसित थी ! जिस अतीन्द्रिय क्षमता का उस सनातन बर्तन के भीतर कोई काम नहीं था, उसका उसने यहाँ प्रयोग किया और अद्भुत प्राणियों, जिन्हें मानव कहा जाता था, की सभ्यता के सारे पृष्ठ कुछ क्षणों में ही उसके लिए ऐसे हो गए जैसे उसके पंजों के पकड़। विस्मित सा वह सोचता ही रह गया - कितने उलट पुलट, कितनी यात्राएँ, कितने विमर्श, कितने ज्ञान, विज्ञान, कितने घात प्रतिघात.... यह सभ्यता कितनी रोचक थी !
    विस्मय से बाहर आ लेंठड़े ने दृष्टि फिराई तो मानव चुपचाप बेंचों पर पढ़ने और नोट करने में लगे थे। इतनी शांति ! उफ। उसे उस बर्तन से अपना अभिगमन याद आ गया। उस समय कितना कोलाहल मचा था। उसे यह इंगिति हुई कि ये मानव विभिन्न प्रकार के थे, क्या नर क्या मादाएँ - वैज्ञानिक, गणितज्ञ, साहित्यकार, पत्रकार, विद्यार्थी, शोधार्थी, प्रबन्धक, प्रशासक, प्रोफेसर, इंजीनियर, वास्तुशास्त्री, अनुवादक, निठल्ले .... जाने कितने! उसे निठल्ले सबसे अनूठे प्राणी लगे। इन्हें सब कुछ आता था और कुछ नही आता था। ये जटिल थे क्यों कि कभी गम्भीर बहस में पड़ सकते थे तो साथ ही कभी भी बीच से ही अपनी अज्ञानता बघार कर चलते बन सकते थे। 

  असल में रास्ते में चलते ही उसे शब्द जैसे विराट वस्तु की प्रतीति हुई थी और उसने अपने प्रवचन का उसे ही विषय बनाया था लेकिन पुस्तकालय में आने के बाद वह 'शब्द' की विराटता से अभिभूत रह गया था। उसने तय किया कि इनमें से एक एक को चुन कर अपनी बात कहेगा। पहली बार के लिए उसने कोने में हैट लगाए बैठे चुपचाप समीकरण बैठाते गणितज्ञ को पकड़ा। बात शुरू करने के लिए उसने फुसफुसा कर पूछा ," दो और दो चार क्यों होते हैं?" गणितज्ञ पहले ही उसका प्रवचन बाहर सुन हैरान हो गया था। उसने नज़र उठाई तो लेंठड़े ने बाहर आने का इशारा किया। सम्मोहित सा गणितज्ञ उसके साथ बाहर आ गया। बाहर आते ही लेंठड़े ने उसे बिना अवसर दिए अपना प्रवचन चालू कर दिया:
_________________________________________________________

क्या ऐसा नहीं है कि दो और दो चार उसी तरह होते हैं जैसे 'नृत्य' का मतलब नाचना होता है खाना नहीं? दो और दो चार से ज्यादा महत्वपूर्ण है: 'नृत्य' शब्द का उद्भव कैसे हुआ या फिर 'एक, दो... इत्यादि' का उद्भव कैसे हुआ? किस तरह से अक्षर, ध्वनि और मानव मन में उपजे विचारों ने 'शब्द' को जन्म दिया होगा.?

गणित भी तो एक भाषा की तरह ही है जिसमें अक्षर है, शब्द हैं और साहित्य भी है. प्रिन्सीपिया मैथेमेटिका में एक सिद्धांत है जो दो और दो के चार होने को एक मूल नियम से जोड़ता है. पर दो और दो चार तो उसके पहले भी होते थे. ठीक वैसे ही जैसे बिन व्याकरण के भी शब्द होते थे. व्याकरण तो संभवतः शब्दों के समूह को समझने के लिए उन्हें एक नियम में बांधने के लिए बाद में बनाया गया प्रिन्सीपिया मैथेमेटिका की तरह.

अक्षर, शब्द, वाणी, भाषा, साहित्य... इनके उद्भव और गणित के विकास में बड़ी समानता है. बस गणित में सब कुछ तर्क और एक परिभाषित संरचना के अंतर्गत होता है साहित्य में आजादी अधिक है. गणित की अपनी सुंदरता है... साहित्यिक और कवितामयी ! ठीक साहित्य की तरह ही गणितीय साहित्य कुछ के लिए बस गणितीय शब्दों का संकलन होता है... ये संकलन सुंदर क्यों होता हैं ये तो कोई संभवतः कोई गणितज्ञ नहीं बता पाता लेकिन जो ये सुंदरता देख पाते हैं उनके लिए अगर इस शब्द विन्यास में सुंदरता नहीं तो संसार में फिर कुछ भी सुंदर नहीं.

गणितीय शब्दों के बिना गणितीय सोच संभव नहीं है. ठीक वैसे ही जैसे शब्दों के बिना सोचना संभव नहीं. एक रोचक स्वाभाविक तार्किक प्रश्न उठता है: क्या हम इसलिये सोचते हैं क्योंकि हमारे पास शब्द है? या फिर हम सोचते हैं इसलिये हमारे पास शब्द हैं? या फिर उत्तर कहीं इन दोनों के बीच में आता है? सोच पाना संभवतः मानव को ईश्वर द्वारा दिया गया सबसे बड़ा वरदान है. हर मनुष्य सीखने की क्षमता के साथ इस संसार में आता है और सब कुछ यहीं सीखता है. इस प्रक्रिया में सोच का माध्यम बनते हैं शब्द. वैसे क्या मानव सोच तब नहीं होगी जब शब्द नहीं थे? संभवतः कुछ दृश्य और ध्वनि के जरिये. लेकिन शब्दों ने सोच और सोच ने शब्दों को जो गति दी होगी उसी से तो क्रांतिकारी परिवर्तन आया होगा. गणित के हिसाब से सोचें तो शब्दों, अंकों और गणितीय अक्षरों, के पहले भी संभवतः मनुष्य के पास सीमित गणितीय सोच का तरीका होगा, गिनती करने का. लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि आज जो भी गणितीय साहित्य है उसे गणितीय शब्दों ने ही गति दी. आज क्या गणितीय सोच बिना उन शब्दों के संभव है?

सोच और शब्दों का आपसी सहयोग और एक दूसरे पर निर्भरता तो मानव के विकास की कहानी ही लगती है. क्या संसार में कोई शब्द विहीन मानव समाज है कहीं? गणित की अलग अलग शाखाओं की ही तरह भिन्न समाजों के शब्द भले अलग रहे लेकिन उद्देश्य तो एक ही था. गणित की अलग अलग शाखाओं में आपसी संबंध की ही तरह भाषाओं में आपसी संबंध ने भी नए सोचों का संगम कराया. शब्द जितने समृद्ध हुए मानव सोच भी उतनी ही समृद्ध होती गयी.

गणितीय अक्षरों और शब्दों का साथ मिलने पर गणितीय सोच की धारा बह निकली. बिना इन शब्दों के गणितीय सोच और साहित्य की परिकल्पना असंभव है. अगर अंकों से बढ़ें तो शुरू में केवल प्राकृतिक संख्याएँ ही थी और इसे ही पूर्ण समझा गया. शून्य, भिन्न, दशमलव और अनंत जैसे नए विचारों का जुड़ना कइयों की गणितीय सोच के लिए झटका था. उन्हें लगा कि ये गणित की पूर्णता को समाप्त कर देंगे. ये नए अंक उनकी समझ की सीमा से बाहर थे. उन्हें ये प्राकृतिक संख्याओं के लिए ख़तरा जैसे लगे. पर वास्तव में इनसे गणितीय साहित्य को जो समृद्धि मिली वो जगजाहिर है पर प्राकृतिक संख्याएँ आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है. आज भी एक नवजात शिशु उन संख्याओं से ही गणितीय सोच की तरफ कदम बढ़ाता है.

इस नजरिये से शब्द तो सोच का प्रतिबिंब है एक ऐसा माध्यम जिसकी सहायता से सोच को संचारित किया जा सके. गैलीलियो ने कहा कि गणित एक ऐसी भाषा है जिसमें भगवान ने ब्रह्मांड लिखा है. अगर इसे मानें तो अपने विचार को आकार देने के लिए भगवान तक को एक भाषा और शब्दों की जरूरत पड़ी. और फिर मानवीय शब्दों और वाचिक परंपरा ने संसार को बदल डाला. अगर ये मान भी लिया जाय कि शब्दों के अलावा कोई और तरीका था मानव सोच का तो ये तो मानना ही पड़ेगा कि वो प्रभावी नहीं था और विकास प्रक्रिया में शब्दों ने जब आकार ग्रहण किया तब सब कुछ बदल गया.

अब गणित के संदर्भ में ही एक सिद्धांत जो इस तरह लिखा जाता था 'एक गोले के सतह का क्षेत्रफल उस पर बनने वाले सबसे बड़े वृत्त के क्षेत्रफल का चार गुना होता है' गणितीय अक्षरों और शब्दों के आने के बाद इसे इस तरह लिखा गया एस = ४पाईआर^२. इस तरह विचारों को प्रकट और संप्रेषित कर पाने से ही सारा गणितीय साहित्य और सोच समृद्ध हुए. ऐसे समीकरणों ने गणितीय साहित्य और सोच को त्वरित किया. इस उदाहरण में गणित को व्यक्त करने के लिए फिर भी शब्द थे, बस ये शब्द गणितीय नहीं थे. पर जब शब्द ही नहीं थे अगर ऐसी स्थिति थी भी तब मानव अगर सोच भी पाता होगा तो वो सोच प्रक्रिया कितनी जटिल और कितनी कम लाभकर होती होगी? गणितीय शब्दों के उपयोग से पहले गणित में परिणाम इतनी जल्दी नहीं आते थे और प्रभावी भी नहीं होते थे. क्योंकि सोचने के लिए औज़ार नहीं थे. शून्य, अनंत, अज्ञात के लिए एक अक्षर का प्रयोग जैसे नए प्रयोगों ने गणित को जिस गति से समृद्ध किया क्या वो किसी और तरीके से संभव था?

गणित में निराकार और अमूर्त की बात होती है पर क्या ये सचाई नहीं है कि अंततः शब्दों के माध्यम से ही वो व्यक्त किए जाते है. हम किसी भी युग में जायें शब्द गौण हो जायें ऐसा होता नहीं दिखता. शब्दों का स्वरूप भले बदल जाये पर समाप्त तो नहीं हो सकते. बिना समीकरण और गणित के क्या आइन्सटाइन रिलेटिविटी पर कुछ कर पाते? या फिर क्या क्वांटम फिजिक्स जैसी कोई चीज संभव थी? ठीक वैसे ही जैसे तुलसी बाबा के मानस की कल्पना बिना शब्द विन्यास के नहीं की जा सकती.

कई बार नयी सोच को संप्रेषित करने के लिए शब्द पहले से ही तैयार रहते हैं. कई बार नयी सोच के साथ नए शब्द आते हैं. कई बार साहित्य ने एक नयी सोच को जन्म दिया तो कई बार नयी विचारधारा ने साहित्य को जन्म दिया. ठीक वैसे ही जैसे भौतिकी के कई आविष्कारों में गणित उपयोग के लिए पहले से ही मौजूद था तो कई बार इस सिलसिले में नया गणित ही बन गया. विज्ञान की कई शाखाओं में गणित सोचने का वैसा ही एक उपकरण है जैसे शब्द हमारे दैनिक सोच के लिए. भौतिक विज्ञानी वैसे ही उपयुक्त गणितीय औज़ार चुनते हैं जैसे साहित्यकार शब्द. जब सोच को उपयुक्त शब्दों का माध्यम मिल जाता है तो सोच को नयी उड़ान मिलती है साथ में सृजनात्मकता भी आती है.

शब्दों में कई बार विचारों को अपने नियंत्रण में लेने और उन्हें प्रभावित करने की क्षमता भी होती है. इस शब्द विन्यास में एक जादू है जो सोच को संवेग प्रदान करता है. भौतिक विज्ञानी और इंजीनियर गणितीय समीकरणों में सोचने लगते हैं. सोच गौण हो जाता हैं माध्यम (शब्द) के सामने. जैसे उन वैज्ञानिकों के पास गणित के अलावा कोई और विकल्प नहीं वैसे ही हमारे पास भी शब्दों के अलावा और क्या विकल्प है? नए गणित की तरह नए शब्द आते रहेंगे लेकिन बिना उनके क्या हम सोच सकते हैं?

मौलिक गहरे मानवीय सोच तथा दैनिक कार्यकलाप अक्षरों और गणितीय सोच के उद्भव का स्रोत दिखते तो हैं पर स्वयं मानवीय सोच का इन पर आश्रित होना और उस पर इनका असर विरोधाभास की स्थिति पैदा करता है. शब्द और सोच दोनों का साथ-साथ उद्भव ही क्या संभव उत्तर नहीं लगता? वर्तमान भाषाई स्वरूप और विविधता को आधार बनाकर एक भाषा विज्ञानी ने सांख्यिकीय शोध किया तो शब्दों के उद्भव का काल मानव सभ्यता के ज्ञात शुरुवाती दिनों तक गया. तो क्या यह शोध शब्दों के उद्भव या उससे पहले कि स्थिति को समझा पाता है? नहीं... पर इतना तो दर्शाता ही है कि मानव सोच और शब्दों का उद्भव साथ-साथ ही हुआ.

और शब्दों का भविष्य? क्या मशीन इंटेलिजेंस से शब्दों पर ख़तरा नहीं दिखता? ख़तरा? मानव सोच तो शब्दों पर निर्भर रहेगी ही. शब्द के स्वरूप भले बादल जायें वर्तमान भाषा की जगह बिट्स का संप्रेषण भी होने लगे तो शब्द तो बाइनरी स्वरूप में रहेंगे ही. संभव है बिट्स की जगह क्वांटम बिट्स (क्यूबिट्स) आ जाएँगे. गणित की नयी शाखाओं की तरह नए शब्द जुडते रहेंगे, कॅटेगरी थियोरी की तरह सारी भाषाओं को भले एक नियम के अंतर्गत लाने की 'कोशिश' भी हो... जो गणित में की गयी कोशिश की ही तरह पूर्ण रूप से सफल भी नहीं हो सकती. लेकिन बदले रूप में शब्द तब भी रहेंगे ही. (जारी...)