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रविवार, 31 मई 2009

गड्ढा प्रतियोगिता

पहले के पोस्ट वह गढ्ढा ; वह गढ्ढा:कहानी में ट्विस्ट

पश्चिम में एक दार्शनिक हुए थे - विट्गेंस्टीन। उनका इतना आतंक था कि उन्हें युग पुरुष, युग प्रवर्तक और ईश्वर तक कहा गया और वे आज भी आधुनिक पश्चिमी दर्शन के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक माने जाते हैं। अपनी पहली रचना के बाद उन्हों ने यह कह कर कि फिलॉसफी तो अब समाप्त हो गई, गाँव की राह पकड़ी और दूर दराज के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लगे। बहुत दिनों के बाद किसी कार्य वश शहर आए तो किसी कॉंफ्रेंस में उन्हें फिर से ज्ञान प्राप्त हुआ कि अभी तो फिलॉसफी बाकी है। लिहाजा बेचारे फिर "दरशनिया " गए. . .

कहानी का मॉरल यह है कि जब ऐसा धाकड़ आदमी ज्ञान के बारे में मिस्टेक कर सकता है तो हमारी क्या औकात? लिहाजा अपने को सँभाल कर और
बालसुब्रमण्यम जी की सलाह पर अमल करते हुए पुन: लिखना शुरु कर रहा हूँ।

वह गड्ढा अभी भी जस का तस विद्यमान है। खबरों को मानें तो अभी तक कोई इंसान या जानवर उसमें गिरा नहीं है। लोग बहुत जोर शोर से वहाँ गाड़ी चलाना सीख रहे हैं। मतलब यह कि इस इलाके में सभी कार चलाने वाले दारूबाज हैं और जानवर भी होशियार हैं(यदि समझ में नहीं आया तो इस विषय पर मेरी पुरानी पोस्टें पढ़ें। )। इति सिद्धम् , लॉजिक के विद्यार्थियों और दार्शनिकों से क्षमा सहित।

एक हैरतअंगेज बात मैंने यह देखी कि वह छड़ का टुकड़ा भी चिकना सा गया है और अब उतना खतरनाक नहीं लगता। टायर निर्माताओं और विकास खण्ड के कार चलवइयों को इसका पूरा श्रेय जाता है। जानो माल को कोई नुकसान नहीं हुआ है। इसलिए नगर निगम और परिवहन विभाग के अधिकारी अपने सहयोग प्रोग्राम की सफलता से बहुत प्रसन्न हैं। इस साझा प्रोग्राम को चरणबद्ध तरीके से पूरे लखनऊ में लागू करने के लिए शासन की अनुमति ले ली गई है। साथ ही इस प्रोग्राम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हाइलाइट करने के लिए डी ए के वाइस श्री मस्तराम जी अमेरिका और यूरोप जाकर प्रेजेंटेशन करने वाले हैं। सुना है कि पाकिस्तान की दूसरी सरकार (वही समानांतर वाली) इसको अपने यहाँ लागू भी करने की सोच चुकी है और यह गड्ढा शरिया के हिसाब से बना है कि नहीं, यह देखने के लिए लखनऊ आ रही है।
इस ब्लॉग की कॉपी साइट
http://girijeshrao.wordpress.com पर विचित्र बात हो गई। बाला जी 'गड्ढों' और गोमतीनगर के खण्डों में कंफ्यूजिया गए और ऐसी टिप्पणी लिखी जिससे लगा कि 'गड्ढों' के नाम 'वि' से रखे गए हैं।
('गड्ढा', 'खड्डा', गढ्ढा और 'खण्ड' में शब्दशास्त्रीय साम्य की जांच पड़ताल के लिए
अजित वडनेरकर जी से अनुरोध कर रहा हूँ। मैं खुद जांच पड़ताल करूँगा तो वे रिसिया जाएँगें। बुजुर्गों का ध्यान तो रखना ही पड़ता है।)
हालाँकि मैंने उस समय स्पष्टीकरण दे दिया लेकिन तुरंत ही
बालसुब्रमण्यम जी की दूर दृष्टि को भाँप गया। कल्पना कीजिए कि हर मुहल्ले (गोमतीनगर के केस में खण्ड) के सबसे होनहार गड्ढे को मोहल्ले का नाम दे दिया जाता है:
विकास गड्ढा (डेवलपमेंट में अच्छा योगदान !)
विशाल गड्ढा ( साइज के कारण)
विनम्र गड्ढा ( बहुत ही नफासत से लोगों को पाताल की राह दिखाता है)
विकल्प गड्ढा ( पाट दिए गए गड्ढे की जगह बनाया गया है)
विजय गड्ढा (किस की विजय ? जनता की कि विभाग की कि ठीकेदार की?)
विभव गड्ढा ( बहुत ही वैभवशाली है यह ! केवल धनिकों को ही जमींदोज करता है।)
.......
यदि आप लखनऊ के हैं तो समझ जाएँगे, यदि नहीं हैँ तो हमारे शहर पधारें।
अब मैं यदि कहूँ कि विभागीय साझेदारी के प्रोग्राम में 'लखनऊ टूरिज्म' भी सामिल है तो आप होशो हवास बनाए रखें और आगे की घोषणा को ध्यान से पढ़ें ( सुझाव सर्वाधिकार -
बालसुब्रमण्यम)| गड्ढे पर लिखने की खुजली हमारे अनुज सिद्धार्थ के उकसाने पर शुरू हुई।:

अगली 30 जून तक गड्ढों की एक प्रतियोगिता आयोजित है। अपने शहर, गाँव, मुहल्ले के सर्व-प्रभावशाली गड्ढे का सचित्र वर्णन यहाँ पोस्ट करें। तीन श्रेणियों में विजेताओं की घोषणा होगी:
1.सबसे होनहार गड्ढा (सम्भावनाओं के आधार पर चयन)
2.सबसे सुन्दर गड्ढा (मासूक के हँसते हुए गालों का चित्र न भेजें)
3.सबसे बलवान गड्ढा (लोगों को पाताल दिखाने की क्षमता के आधार पर)

धुरन्धर लिक्खाड़ों को निमंत्रण भेज रहा हूँ - निर्णायक बनने के लिए।
समीर जी ने सहमति दे दी है, बाकी सहमति आते ही सूचित करूँगा।
फॉर्मेट इस प्रकार होगा:
(1) निर्णायक मंडल में 3 निर्णायक रखने का प्रयास होगा। बाकी दादा लोगों कि सहमति जैसी हो। वैसे
समीर जी अकेले कइ के बराबर हैं (वजन को आप जैसे भी इंटर्प्रेट करें)। संशोधन दिनांक 31/05/09 @0909 अंतिम सहमति आते ही निर्णायक मंडल का गठन हो चुका है। इन विभूतियों को लख लख धन्यवाद। नाम क्रम का आदर भावना से कोई सम्बन्ध नहीं है|सभी समान रूप से आदरणीय हैं। अब तक ऐसा सॉफ्टवेयर नहीं बना है जिससे सारे नाम एक ही बारी लिखे जा सकें:
निर्णायक मंडल: (1) समीर जी (उड़न तश्तरी) (2) ताऊ रामपुरिया जी (3)अजित वडनेरकर जी
(2) पोस्ट भेजने और प्रक्रिया का समस्त व्यय पोस्ट प्रेषक को स्वयं उठाना होगा। समस्त कानूनी, नैतिक, धार्मिक वगैरह अनुमतियों प्रक्रियाओं की जिम्मेदारी पोस्ट प्रेषक की होगी।
(2) गड्ढे की अनुमानित लम्बाई, चौड़ाई और गहराई देना आवश्यक है।
(3) गड्ढे का चित्र(फोटो, हुसैन आदि की पेण्टिग मान्य नहीं), लोकेशन, मोहल्ला और नगर का नाम अवश्य दें (केवल भारतीय गड्ढे ही प्रतिभागी हो सकते हैं। बाकी के लिए चाँद थुरूर की सहमति नहीं है)
(4) कितना पुराना है, कितने लोग उसमें गिर चुके हैं, कितनी दुर्घटनाएं करा चुका है, देना आवश्यक है।
(5) किस तरह और कैसे परोपकार कर रहा है – बताएँ।
(6) कितने विभाग भागीदार हैं? (पीडब्लूडी, पर्यटन विभाग,स्वास्थ्य विभाग,ट्रैफिक विभाग, निगम इत्यादि)।
(7) प्रविष्टियां प्राप्त करने की अंतिम तिथि 30/06/09
(8) जजों का निर्णय घोषित किया जाएगा 07/07/09
(9) यह ड्राफ्ट फॉर्मेट है। निर्णायक मण्डल इसमें परिवर्तन करने के लिए स्वतंत्र है।

बुधवार, 27 मई 2009

वह गढ्ढा : कहानी में ट्विस्ट

(पिछले भाग का लिंक


आप से विदा लेने के बाद जब मैं इस गड्ढे के पास पहुँचा तो उसमें से झाँकते वाल्व को देख कर मुझे अपने अनुमान पर गर्व हुआ। वह तीसरे प्रकार का ही गड्ढा था। थोड़ी दूर पर सीवर का बजबजाता पानी नाली में देख कर यह पक्का हो गया कि नगर निगम इस बार विकास खण्ड में खाली भू खण्डों पर रहने वाले गरीबों पर मेहरबान है और उनका अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए सीवर और पानी सप्लाई को मिलाने के लिए दृढ़ संकल्प है।


एक रिटायर टाइप सज्जन वहीं टहल से रहे थे। जिस गड्ढे की खोज खबर पिछ्ले कई महीनों से किसी ने नहीं ली, उसकी इतनी बारीक जाँच पड़्ताल होती देख वे मेरे पास आए। मैं उत्साहित होकर बोला, देखिए कितना खतरनाक गड्ढा है! उन्हों ने पहले हिकारत से मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मेरे इतना नादान आदमी उन्हों ने देखा ही न हो, फिर बोले:
"यह गड्ढा नहीं एक खुला हुआ कलवर्ट है"। टेक्निकली वह सही थे और मैं अपनी इंजीनियरिंग ताक पर छोड़ आया था। संकट की स्थिति आन पड़ी थी। मुझे बड़ा गुस्सा आया, इस शख्स को इस स्थिति से कोई आपत्ति नहीं लेकिन गलत नाम देने पर है। लिहाजा ऐसे असामाजिक आदमी को परास्त करने के लिए मैंने साहित्यकार और दार्शनिक दोनों मुद्राएँ एक साथ बनाईं, बोला:
"ऐसी हर चीज जिससे इंसान के पतित होने की सम्भावना हो, उसका गड्ढे से अधिक उपयुक्त कोई और नाम हो ही नहीं सकता"। मेरे अचानक बदले तेवर और मुद्रा देख कर उन्हों ने बात बदल दी:
"आप को लगता होगा कि यह नगर निगम की काहिली है। असल में यह नगर निगम और परिवहन विभाग का पारस्परिक सहयोग प्रोग्राम है।"
मुझे ऐसी बात की उम्मीद कत्त्तई नहीं थी। भकुआ गया। यह तो नया ट्विस्ट हुआ।
"भला परिवहन विभाग को इस महीनों से खुले गड्ढे से क्या लेना देना?"
"यही तो बात है जिसे जनता नहीं समझती। आप लोगों को क्या मालूम कि जनता के हित में इन विभागों वाले क्या क्या करते रहते हैं?"
“?”
मुझे खासा परेशान और कन्फ्यूज देख उन्हों ने एक सवाल दाग दिया:
"अच्छा बताइये इस सड़क पर कितनी ही छोटी छोटी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। कभी आप ने सोचा क्यों?"
"!!@#$*"
"ऐसा है इस कॉलोनी में अचानक ही कार चलाना सीखने वालों की संख्या बढ़ गई थी जिससे दुर्घटनाएँ हो रही थीं।इस गड्ढे से उन पर अंकुश लगा है, लोग ज्यादा सतर्क हो चलने लगे हैं। "
ऐसा कहते हुए उन्हों ने सड़क के दूसरी तरफ किनारे पर कलवर्ट से ही झाँकते करीब एक सवा इंच ऊँचे छ्ड़ के टुकड़े की तरफ इशारा किया। वह मेरा बहुत ही जाना पहचाना खास था क्यों कि हमेशा कार वहाँ से निकालते समय मेरा ध्यान उस पर रहता है कि कहीं टायर में घुस कर पंक्चर न कर दे।
"आप उस छड़ और गड्ढे के बीच की दूरी का अनुमान लगाइए। एकदम इतनी है कि एक सामान्य कार निकल सके। यह भी ग़ौर कीजिए कि यह एक चौराहा है, और यहाँ से विकास खण्ड की तरफ मुड़ना भी पड़्ता है। ऐसा इसलिए किया गया है कि सीखने वाले सँभल कर चलें और साथ ही यहाँ से गाड़ी निकालने की कठिन परीक्षा को पास कर, लाइसेंस देने के पहले होने वाली तुच्छ विभागीय परीक्षा को अवश्य उत्तीर्ण कर लें।"
कहते हैं कि जब मुहम्मद के उपर आयतें उतरी थीं, वे काँपने लगे थे और विवेकानन्द तो ज्ञान प्राप्त करते समय सुध बुध ही खो बैठे थे। मेरी तो औकात ही क्या?
- - -
ज्ञान की इस झंझा से उबर कर जब होश में आता हूँ तो देखता हूँ कि वह सज्जन जा चुके हैं।मन ही मन उस अनाम गुरु को प्रणाम करता हूँ और नए नए प्राप्त ज्ञान की प्रशांत संतुष्टि के साथ घर की ओर चल पड़ता हूँ। सोचता हूँ व्यंग्य लिखना छोड़ दूँ।

मंगलवार, 26 मई 2009

वह गढ्ढा


(अ) भूमिका:

भारतीय नगरीय परिप्रेक्ष्य में गढ्ढे कइ प्रकार के होते हैं:

नई कॉलोनियों में कूडा फेंकने वाली जगह (नगर निगम का कचरा डिब्बा तो बहुत बाद में आता है) के पास का उथला गढ्ढा जिसमें सूअर लोटते हैं;

टेलीफोन/बिजली विभाग द्वारा खोदा गया सँकरा लेकिन लम्बोतरा गढ्ढा जो सड़क के बीचो बीच विराजमान होता है;

नगर निगम द्वारा पानी सप्लाई और सीवर को ठीक करने और उस प्रक्रिया में दोनों को मिलाने के लिए किया गया गढ्ढा जिसे मैनहोल भी कहा जा सकता है (मैं अपनी इंजीनियरिंग की पढाई को थोड़ी देर कि लिए ताक पर रख देता हूँ) ।

गढ्ढे का यह प्रकार जनता के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी होता है। यह शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है साथ ही आवश्यक मिनरल, लवण वगैरह की पूर्ति करता है। आप ने देखा होगा कि झुग्गियों वाले जो इस प्रकार से एनरिच किए पानी को वैसे ही पीते हैं, बँगलों में रहने वालों की तुलना में कम बीमार होते हैं। असल में अक्वा गॉर्ड वगैरह के कारण पानी से सारे पोषक तत्त्व निकल जाते हैं.।

इस तरह के गढ्ढे की एक और खासियत होती है। इसमें शराबी कभी नहीं गिरते। इसमें केवल शरीफ किस्म के कम या बिल्कुल दारू नहीं पीने वाले इंसान या जानवर ही गिरते हैं। दारू पीकर टल्ली हुआ इंसान हमेशा सड़क के किनारे सुरक्षित रूप से उथली नाली में ही गिरता है। यह रहस्य आज तक मुझे समझ में नहीं आया। बहुत विद्वान लोगों से पूछने पर भी जब इससे पर्दा नहीं उठा तो मैंने एक शराबी से ही इसका राज उस समय पूछा जब वह सुबह सुबह ठर्रे से कुल्ली कर रहा था। उसने हमारे चिठ्ठाकार बाला (बालसुब्रमण्यम जी) की सरल शैली में बताया कि जो इंसान दारू नहीं पीता वह जानवर ही होता है. उसकी बुद्धि और चेतना बहुत सीमित होते हैं इसीलिए जानवर और गैरदारूबाज इंसान दोनों इस तरह के गढ्ढे में गिरते हैं। मैं उसका कायल हो गया।

(आ) कथा:

इस रिपोर्ट का नायक ऐसा ही एक गढ्ढा है जो ऑफिस आते जाते मेरे रास्ते में पड़ता है।

लखनऊ की एक कॉलोनी है गोमती नगर। यहाँ के विकास प्राधिकरण में चूँकि कुछ साहित्यकार किस्म के अधिकारी पाए जाते हैं, इसलिए इस कॉलोनी के विभिन्न खण्डों के नाम बड़े ही साहित्यिक रखे गए हैं और सभी ‘वि‘ से प्रारम्भ होते हैं जैसे, विशेष, विराम, विपुल, विनम्र, विराट, विभव..आदि आदि। आप ‘वि‘ से प्रारम्भ होने वाले किसी शब्द को लें, उस नाम से एक खण्ड गोमती नगर में अवश्य होगा (बस विप्लव को छोड़ दें। वैसे मायामति की सरकार पूरे पाँच साल चल गई तो ऐसे एक खण्ड के पैदा हो जाने की पूरी सम्भावना है।).

हमारे इस गढ्ढे ने विशाल और विकास खण्ड के बीच वाली सड़क से निकलती कॉलोनी वाली सड़क पर चार महीने पहले जन्म लिया। इसे बिना किसी चेतावनी चिह्न के नगर निगम ने ठीक टी-प्वाइण्ट पर सड़क का चौथाई हिस्सा लेते हुए उत्पन्न किया।

वह गढ्ढा

फिलहाल आप गढ्ढे का विहंगम दृश्य देखते हुए आगे के वृतांत पर अनुमान लगाएँ। मैं चला गढ्ढे की तरफ़, रहस्यों पर से पर्दा कुछ और उठाने की कोशिश करने के लिए। कल बाकी की बताऊँगा।

(अगले भाग का लिंक)