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शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

कोणार्क सूर्य मन्दिर - 19 : विदिशा की ओर - दीर्घतमा ऋषि और ऐरण

भाग 12, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17 और 18 से आगे...
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बाला सर की कम्प्यूटर स्क्रीन पर चक्र आवर्त।
चन्द्र हरि संकेत – ध्यान केन्द्रित करो!
प्रज्ज्वलित कसौटी अग्निकुंड। अस्सी की एलिस की आँखें दपदप हैं। संकल्प लो! कालसर्प की फुफकारे हैं ये, चन्द्रभागा तट के समुद्र की ध्वनियाँ नहीं हैं, चेतन हो!
“चेतन कि सम्मोहन, एलिस?”
“चुप्प! बोलो मेरे साथ - वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलि प्रथम चरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बुद्वीपे भागीरथ्याः तटे ...”

“एलिस! हम विदिशा जा रहे हैं। भागीरथी का तट क्यों?”
“भगीरथ प्रयत्न को ऋषियों का स्मरण करो! काल और स्थान के चतुर्विमीय जगत में नहीं हो तुम!”  
ecliptic-pathअंतरिक्ष सम्मोहन। यह एनिमेशन नहीं कालपुरुष का चक्र है। एकल चक्र, ब्रह्मांडीय वायु, निर्वात, तरंगित हहर अस्वर धूम। जन्मा, युवती, विहारिणी, माता, संहारिणी अनंत निहारिकायें। आकाशगंगा, नक्षत्र, सूर्य, ग्रह, पृथ्वी। अयन वृत्त पर घर घर रथ स्वर, उड़ती धूल। भुवन भाष्कर - आदि पुरखे।
रथ को घेरे कालसर्प,  कितने मन्वंतर, कितने मनु? कितने युग? कितने नृवंश? कितनी परम्परायें? आदित्य सबका जनक, पूज्य पुरखे की गोद में कितने इतिहास?
अयन वृत्त क्या क्या समेटे हुये है?  
... आदि युग, सरस्वती तट। उगते आदित्य को अर्घ्य देते, विश्वमित्र रश्मियों से स्नात होते औचथ्य ऋषि दीर्घतमा।
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प्रात: के जरापीत केशधारी पुरोहित तुम, मध्याह्न के तड़ित सम तेजधारी भ्राता तुम, घृतपृष्ठ हो तुम तीसरे भ्राता, जिस पर अंतरिक्ष फिसलता है और हम विश्पति और उनके पुत्र सप्तऋषियों का दर्शन करते हैं।
Archimedes_Trammelअयनवृत्त एक रथ, एक चक्र जिस पर सात ग्रह जुतते हैं और जिन्हें एक गुरुत्त्व अश्व खींचता है। तीन नाभियों वाला यह दीर्घवृत्त अजर है, बली है जिस पर सम्पूर्ण संसार स्थित है।
सप्तर्षि उन अश्वधारी सातो ग्रहों को धारण किये अग्रसर होते हैं जिनके नाम पर सात गायों (वार?) के नाम हैं। उनकी प्रशंसा में सात बहनें गीत गाती हैं।...
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 अयन रथचक्र में समय माप से बारह अरे हैं, ये बिना थके घूमते हैं। इनके अमर 720 पुत्र हैं जो संयोगाग्नि के साथ युगनद्ध रहते हैं। कोई इन्हें आधे नभ का स्वामी पंचपादी पितर कहते हैं तो कोई इन्हें छ: अरों वाले सात पहियों के रथ पर सवार दूर द्रष्टा कहते हैं।   
Pleiades-Rochus Hess... चन्द्र हरि या आचार्य शरण जाने किसका स्वर है – दीर्घतमा जब सरस्वती तट पर गा रहे थे उस युग में महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र की सीध में था।
इस नक्षत्र की स्मृति में ही सप्तमातृकायें आज भी पूजित हैं। वही छ: कृत्तिकायें और एक कार्तिकेय नाम से आगे पूजित हुईं।
बारह अरे बारह महीने हैं। दिन रात मिला कर चन्द्रगति सामान्यीकृत वर्ष में 720 संख्या बनती है। सात पहिये वार हैं और छ: अरे ऋतुयें, आधा नभ क्षितिज की सीमा वाला अर्धवृत्त मंडल है।  
... अर्धचेतन सी स्थिति में प्रश्न उभरा है – वर्ष के बचे 5 दिन क्या पितरों को समर्पित थे? पंचपादी पितर?
कोई उत्तर नहीं।  
saptamatrikaमहाध्यान में दीर्घतमा का स्वर ही प्रखर है, आचार्यों के स्वर जैसे उनके शिष्यों द्वारा दुहराव है। अग्नि, सूर्य, वायु, वाकादि देवों की स्तुति करते ऋषि आह्लादित हैं। आराधना में संवत्सर कालचक्र भी देवता हो गये हैं:

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संख्यायें, नक्षत्र, तारागण, अहोरात्र ... जाने कितने आयामों में मैं प्रार्थना स्वर के साथ घूम आया हूँ। निर्झरिणी उतरी है – तुम्हीं पूषन, तुम्हीं प्रजापति, इन्द्र तुम्हीं, विष्णु तुम्हीं, पर्जन्य तुम्हीं, मित्र तुम्हीं, वरुण तुम्हीं, सम्पूर्ण देव, तुम्हीं अश्विन, विश्वे देवा:!
एक ही है। एकम् सद्विप्रा: वहुधा वदन्ति।
कालचक्र की उद्धत दुर्धर्ष गड़गड़ाहट है और तेज भागता मैं देख रहा हूँ -  
vamana_turns_trivikramaबेबीलोन, माया, मिस्र, आर्य, शक, मग, अरब, नाग, किन्नर, शाबर, सौर, बौद्ध सब, सब सूर्योपासक।
यज्ञ के बलि यूप से बँधा पशु सूर्यरूपी प्रजापति है, वराह है जो बलि लेता है और स्वयं बलि भी होता है। भरतखंड जम्बूद्वीप में वैदिक बलियूप सौर, शाक्त और तांत्रिक मतों के लिये सौरगति प्रेक्षण का छाया यंत्र हो गया है तो बौद्धों के लिये कीर्ति स्तम्भ।
वेधशाला मन्दिरों के बाहर गड़ा अरुणस्तम्भ हो या गरुड़स्तम्भ या चक्रस्तम्भ, सभी छायायंत्र हैं। अपने तीन पगों से समूची धरती को मापने वाला वैष्णव देव वामन त्रिविक्रम भी सूर्य है।...     
...ध्यान टूट गया है। दिशायें लुप्त हैं। कितने दिन बीत गये?
एलिस ने मुस्कुराते हुये उत्तर दिया है – 14।
“तो, शरद विषुव बीते एक पक्ष हो गया?”
“हाँ, एक पक्ष में तुमने तो विश्वरूप दर्शन कर लिया। कृष्णा जी की कृपा है तुम पर।“
“विदिशा कितनी दूर है अभी?”
आचार्य शरण ने उत्तर दिया है – बस पहुँच गये। रास्ते में ऐरण में वाराह अवतार के दर्शन करेंगे। Vishnu_temple_at_Eran,_Madhya_Pradesh
पुरानी पुस्तक से टूट कर गिरते शब्दों को सँभालते एलिस के हाथ थम गये हैं – वाराह अवतार?
“हाँ एलिस! यहाँ वाराह मनुष्य देह में न होकर मूल देह के साथ हैं और भूदेवी का उद्धार कर रहे हैं।“
आचार्य ने मेरी ओर देख कर कहा है – यहाँ गरुड़ स्तम्भ भी है। सूर्य मन्दिर के रहस्य को सुलझाने के लिये जैसे विष्णु को जानना होगा वैसे ही सारथी अरुण के स्तम्भ को सुलझाने के पहले उसके भाई गरुड़ के स्तम्भ को जानना होगा।
Eran-saurabh_saxenaआचार्य ने संकेत किया है – देखो! वाराह के गले की मेखला। यह मेखला अयनवृत्त के उन 27 नक्षत्रों को दर्शाती है जिनसे होकर सूर्य, चन्द्र और ग्रहादि चलते दिखाई देते हैं। वाराह उदित होते सूर्य का प्रतीक है जो सहज दर्शनीय सर्वपोषक सर्वप्रमुख आकाशीय पिंड है। जो पृथ्वी को अंधकार से उबारता है। 
Eran-1009_saurabh_saxenaमेरा ध्यान दोनों स्तम्भों पर है। एक का घेरा चतुर्भुज से अष्टभुज और अष्टभुज से षोडषभुज कर दिया गया है। मैं अंकगणित लगा रहा हूँ:
चार दिशायें – 4, चतुर्भुज विष्णु
चार दिशायें+चार कोण (ईशान, नैऋत्य, वायव्य और आग्नेय) – 8, अष्टभुजा भवानी
इसके आगे?
भक्ति से ज्योतिष विद्या की ओर। पूर्ण वृत्त = 360 अंश
360/16 = 22.5
पृथ्वी का अक्ष पर झुकाव – 23.5 अंश यानि मात्र एक अंश का अंतर है। स्तम्भ पर सूर्य के प्रकाश और छाया के भाग देख कर स्थान के अक्षांश का प्रयोग करते हुये अयनान्त और विषुव के बारे में भविष्यवाणी और गणनायें की जा सकती हैं। कोणार्क का अरुण स्तम्भ भी षोडषभुज है। चतुष्कोणीय आधार के ऊपर अष्टदल कमल और ऊपर सोलह पंखुड़ियाँ। कोणीय दिशाओं में हाथी पर सवार दोपीछे सिंह।
स्तम्भ के पास यहाँ भी सिंह है। मन्दिर वास्तु की सिंहद्वार अवधारणा का क्या रहस्य है?...
मैंने सिर घुमाया है। एलिस मुग्ध सी वाराह को निहारे जा रही हैं – अवश्य मूर्तिकला का कोई अनुपात दिख गया होगा!
प्रो. शरण ने पुकारा है – दोनों यहाँ आओ! प्रतिमा और स्तम्भ के दिशाओं से सम्बन्ध समझा दूँ।
“तुम जाओ, मैं इस पुस्तक के पन्नों को व्यवस्थित कर के आती हूँ।“
(जारी)   

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कोणार्क सूर्य मन्दिर - 18 : पश्चिमी तट से विदिशा की ओर ...

भाग 1,  2345678910111213141516 और 17 से आगे... 


पश्चिमी तटक्षेत्र का विशाल भूदृश्य है। एक कैनवस जिसमें मैं साक्षी हूँ, कोने पर स्थिर, नभ निहारता तूलिका के दो तीन स्पर्श भर अस्तित्त्व हूँ। जहाँ बैठा हूँ, चट्टान नहीं झूलता कालखंड है। नभ की नीलिमा विलुप्त है। साँवरे कारे मेघ घिरते नीचे उतर आये हैं। दृष्टिपटल पर दूर लघु पर्वतमालाओं का आभास है। मुझे लगता है कि धरा से क्षितिज छिन चुका है।

 निर्जन एकांत में कहीं से उमस भरी गहिमणी गीली पुकार उभरी है – तुम हो? स्वरहीन महीन झींसे की झीनी तैरती सी बूँदें काँप काँप मुझे घेरने लगी हैं – तुम हो?
‘नहीं, मैं नहीं हूँ ... यहाँ नहीं हूँ, दूर पूर्वी तट पर हूँ।‘
मौन भर पुलकित धीमी हँसी। गीली झीनी कँपकँपाती अदृश्य बूँदे, भीगती देह और नभ में छाने लगे हैं कितने घुले वर्ण – गैरिक, रक्त, पीत, केसर। चन्द्रभागा के प्रात:कालीन तट की स्मृति हो आई है... ईर्ष्यालु बूँदे सिमट गईं।
 मेघों के पीछे से प्रभापुरुष झाँक रहा है ... हविषा विधेम! चित्र स्थिर है। यह लाली! अरुणोदय है क्या?
‘नहीं, तुम विक्षिप्त हो!’
काले मेघ नहीं, ये बेचैन प्रश्नों के अंधेरे हैं। इतने बड़े विद्रोही निर्माण में इतना सरल आयोजन कि विषुव दिनों में प्रात: के कुछ क्षणों तक रश्मियाँ गर्भगृह के अंधेरे तक पहुँचें? ऐसा तो मोदेरा के सूर्यमन्दिर और दक्षिण के पूर्वाभिमुख कई मन्दिरों में होता है, अर्कक्षेत्र के मित्रवंशी इतने से ही संतुष्ट हो गये होंगे?
बाहर का झुटपुटा वैसे ही है लेकिन भीतर अचानक उत्तरों के प्रकाशपुंज दीप्त हो उठे हैं।
मुझ मनुष्य पर भारी घिर आये गज स्वरूप मेघ और उन पर सवारी गाँठता नरसिंह स्वरूप सूर्य! - कोणार्क में आगंतुकों का स्वागत करती सिंहद्वार की विशाल नर-गज-सिंह प्रतिमायें।
अरुणोदय -  अब जगन्नाथ पुरी के पूर्वी द्वार पर विराजमान कोणार्क से ले जाया गया अरुण स्तम्भ।...मन्दिर नहीं रे! वह विशाल छायायंत्र था!! शंकुयंत्र। संक्रांतियों और सूर्यगतियों के प्रेक्षण की धर्म वेधशाला थी वह!
अरुण स्तम्भ ही नहीं विमान का शिखर, पीछे कोने पर बना रहस्यमय छायादेवी का मन्दिर, रथाकार मन्दिर के पहिये, सब, सभी सौर प्रेक्षण के यंत्र थे। अंशुमाली सूर्य का महागायत्री महालय आराधना स्थल के अतिरिक्त वेधशाला भी था। रथाकृति में बने महागायत्री महालय के 6,4,2 के युग्म में स्थापित 24 पहिये कालगति के प्रतीक हैं।
..तट की चट्टान तपने सी लगी है, पाँवों के नीचे कालचक्र उग आये हैं। भागते हुये अपने कक्ष में पहुँच कर मैंने संगणक को ऑन कर दिया है - इंटरनेट और साइट www.sunearthtools.com। यहाँ मैं सूर्य की गति को, छायाओं को, रश्मियों को वर्ष के किसी दिनांक और किसी समय पर देख सकता हूँ। Konark sun temple टंकित कर ध्वंसावशेषों में प्रवेश कर गया हूँ। मेरे साथ हैं – प्रो. बालसुब्रमण्यम, एलिस बोनर, के. चन्द्रहरि, सदाशिव रथ और उनके कई शिष्य।

काल और स्थान की सीमायें छिन्न भिन्न हो गई हैं। वे सभी मुझे  पकड़ कर पश्चिमी तटक्षेत्र से दूर उज्जयिनी क्षेत्र की ओर ले उड़े जा रहे हैं। उस क्षेत्र में लगभग कर्क वृत्त पर पड़ती है विदिशा नगरी – अक्षांश 23° 32' 0" उ., देशांतर 77° 49' 0" पू.।

मेरी उलझन को भाँप कर प्रो. बालसुब्रमण्यम ने बताया है – कोणार्क के ध्वंशावशेषों में शंकुयंत्र का सन्धान करने से पहले वह तो देख लो जो अभी भी ध्वस्त नहीं हुआ है, जहाँ विष्णुस्तम्भ वैसे ही है जैसे लगा था। हाँ, उसमें भी अष्टकोण और षोडषकोण हैं जैसे तुम्हारे कोणार्क के अरुण स्तम्भ में हैं। प्रोफेसर ने ‘तुम्हारे’ पर वात्सल्य भरा जोर दिया है। मैं मान गया हूँ। 
 (जारी)