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शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

कोणार्क सूर्य मन्दिर - 20 : ग्रीष्म अयनांत और ऐरण

भाग 12, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18 और 19 से आगे...
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पृथ्वी है, नभ है, युगनद्ध दिन रात, ऋतुचक्र, चन्द्रकलायें, क्षितिज पर लुका छिपी खेलती तारिकायें, निशा शयन जागरण की लाली लिये उगता, दिन भर चलता और अंत में अलसाता, अंतरिक्ष में श्रांति का गैरिक वैराग्य उड़ेल सो जाता अनुशासन प्रिय प्रत्यक्ष देव सूरज, उसकी अनुपस्थिति में सिर के ऊपर दूर सजती सभायें, निहारिकाओं और नक्षत्रों के वर्तुल एकल युगल समूह नृत्य, लगभग थिर एकटक निहारता ध्रुव।
मनुष्य ने आज अनुभव किया है कि बाहर दिखती जो लय है वह उसके भीतर भी है। काल का जनक अनंत नृत्य कूट संकेत बन मन को तरंगित करता है। कब हुआ यह सब, कैसे हुआ, क्या रहा होगा तब? इतना विशाल नियमन! कौन सँभालता होगा? उत्सुकता के बीज सहज प्रेक्षण और अनुमानों की खाद पानी पा अंकुरित हो उठे हैं। भीतर की लय शब्दों में संगीत भर रही है। वह छलक पड़ा है:
Vishnu temple - Only the portico pillars and the main deity statue is remained of this beautiful temple.
क्या नाम दूँ तुम्हें हे विराट नियामक? तुम अक्षर हो, तुम्हारी लय का छ्न्द मैं भी अक्षर हूँ। तुम ‘क’ हो! तुम्हारी उपासना करता हूँ। यह सम्पूर्ण परिवेश ‘ख’ है जिसमें मेरे ग, अरे नहीं, गीत गूँजते हैं...
महाअन्धकार में ज्योति की पहली लीक थी वह, जाने कितने युगों पहले। उपासना और श्रद्धा के स्वर पहचाने जाते गये। एक स्वरा , द्वि स्वर, तीन स्वर, पंचयोग, षड् राग, सप्त अर्घ्य – राग रागिनियाँ उमड़ती रहीं। सूरज उदित अस्त होता रहा, नदियाँ बहती, सूखती, बढ़ियाती रहीं, मनु संतति जन्म लेती, युवा होती और क्रीड़ोपरांत क्षय होती रही। सूरज से प्रेरणा पा पुरुष परिवेश सँवारता रहा और कन्धों से कन्धा मिलाती स्त्री, सोमदेव की कलाओं के ऋतुचक्र देह भीतर जीती गर्भभार धारण करती, प्रजनन करती रही।
दूर देश गये घर लौटते पथिकों को रात के नक्षत्र पथ दिखाते रहे और देहरी पर बैठी चन्द्र को निहारती प्रतीक्षारत ललनायें गीत गाती रहीं। उनके घूमते जातों में ऋतुओं के चक्र बारहमासा बन घहरते रहे और अमानिशायें देह के रसायन को शमित कर डराती रहीं।
मनुष्य ने कहानियाँ गढ़नी सीख लीं, हजारो कहानियाँ। फलक पर अब प्रेमिल संयोग को उफनती युवा देवियाँ थीं तो मिलन को आतुर अर्धनर-अर्धपशु देव भी। उनके क्रियाकलाप विचित्र थे। वे बड़े जटिल थे किंतु उनकी कहानियों में जीवन का लय था।
ओझाओं ने सुनहले उड़ते बाज की गति के रहस्य को अपने मंत्रों में समेट लिया। जब वह सम पर आता तो उनके ढोल बज उठते और एक साथ कभी बीज बोने को किसानों के हल उठते तो कभी समूह स्नान को सरोवर की ओर पग। वे देवताओं से बातें करने लगे, देवियाँ उन्हें अपने गोपन बताने लगीं और वे भविष्यवक्ता हो गये। समारोहों के अवसान समय भोज के लिये दी जाने वाली बलि के गले से उफनते रक्त की धार से वे नदी की बाढ़ बताने लगे।
हू हू करती लू में उठते बवंडरों की धूल उन्हें प्रकृति की प्यास लगती तो नभ में छिटके रंग बदलते बादल आने वाली वर्षा के स्वागत में भरे कलश। उनके अभिचारों में संवत्सर पगते चले गये और यूँ सैकड़ो, हजारो वर्षों तक सभ्यतायें एक दूसरे से अलग थलग फलती फूलती रहीं।
विप्लव, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारियाँ, भूकम्प और सबसे ऊपर स्वयं के लालच से उपजी तृष्णायें, आक्रमण, युद्ध, बर्बर सामूहिक संहार; सभ्यताओं के मिलन ऐसे ही होते। रह जातीं कहानियाँ, भूल जाते मर्म। रह जाते गीत, बह जाते राग। रह जाते शब्द, खो जाते अर्थ। रह जाते अभिचार, भटक जाते लय विस्तार। रह जाते ढोल, खो जाते ठाठ... और नया उपजा मनुष्य हँसते हुये कहता – सब कोरी गप्प है। मिथ हैं, मिथक हैं, बकवास! ...
धरती अपनी धुरी पर नहीं घूमती तो दिन रात नहीं होते। सूर्य की  परिक्रमा करती वह घूर्णन अक्ष का वह 23.5 अंश कोण नहीं बनाती तो ऋतुयें नहीं होतीं, सूरज अयन वलय की पट्टी पर खेल करता नहीं नज़र आता। न तो बारह महीनों के समान्तर अयन पट्टी की वह बारह राशियाँ होतीं जिन पर धीरे धीरे खिसकता सूरज अहेरी सा लगता और न तो वे 27, 28 नक्षत्र होते जिनके सहारे चन्दा की कलायें और महीने नाम पाते।  वर्ष के वे विशिष्ट दो दिन नहीं होते जब दिन रात बराबर होते, वर्ष के वे दो दिन भी नहीं होते जब सूरज नभ में एक ओर टंगा सा लगता।
उसे हिलाने डुलाने को न तो अवतारी देव होते और न ही दयालु देवियाँ! समूचे संसार में फैले संक्रान्ति उत्सव नहीं होते यानि फसलों की कटाई के समय बैसाखी नहीं होती और कहीं दूर दूसरी ओर मृदंग नहीं बजते। तब जाने क्या होता!   
घूर्णन अक्ष भी अगर 26000 वर्षों की आवृत्ति से न घूम रहा होता तो नक्षत्र कितने जड़ लगते! जैसे क देवता के सम्मोहन में ख मंच पर व्यर्थ ही एकरस घूमे जा रहे हों – ह, ह, ह ... ह,ह,ह। नभ निहारते मानुष की कल्पनायें परवान नहीं चढ़तीं, मनभावन परीकथायें नहीं होतीं। ऋचाओं में पुरखे अपने समय के संकेत भी नहीं छोड़ पाते।
हम भी वो नहीं होते जो हैं, कुछ और होते, जाने क्या! क्या होते? इस पर तो कहानियाँ ही गढ़ी जा सकती हैं, मिथक रचे जा सकते हैं और आने वाली पीढ़ी के लिये छोड़े जा सकते हैं – कूटो मत्था कि पुरखे क्या कहना चाहते थे!
लेकिन चूँकि घूर्णन अक्ष का घुमाव है इसलिये हमारे पास कथाओं से छ्न कर आते प्रमाण हैं।
2950 ईसा पूर्व, शतपथ ब्राह्मण – तब कृत्तिकायें पूरब का दामन नहीं छोड़ती थीं यानि हर दिन प्रात: सूरज बच्चे को बहलातीं कि जा बच्चा खेल आ!
1660 ईसा पूर्व, मैत्रायनीय ब्राह्मणोपनिषद – अयन पट्टी पर छुआ छू खेलता सूरज ग्रीष्म अयनांत के दिन मघा नक्षत्र को छूता।
वेदांग ज्योतिष को रचने वाला बताता है कि जाड़े के अयनांत में सूरज शर्विष्ठा नक्षत्र का उत्तरीय भर छू पाता लेकिन ग्रीष्म अयनांत में अश्लेषा नक्षत्र का भरपूर आलिंगन करता यानि 1300 ईसा पूर्व।
इन सबका आधार एक, वही – भुवन भास्कर, सूरज दादा, स्वर्ण बाज, मित्र मिहिर, रा, मार्तंड, भास्वत भाइल्ल स्वामी...एकं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति! हजारो वर्षों तक बस नभ को निहार कर और गीत रच कर पूर्वज पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान सौंपते रहे और स्वयं तारे बन कर पूज्य होते रहे – वशिष्ठ, अत्रि, अंगिरा, अरुन्धती, अनुसूया...
...आचार्य की पुकार से मन यात्रा को ठाँव मिला है – भाइल्ल स्वामी भी चलेंगे पगले! वो वहाँ हैं विष्णुपदगिरि पर लेकिन पहले यह तो देख लो कि कैसे विष्णु प्रतिमा, गरुड़ स्तम्भ और नक्षत्रधारी वाराह यहाँ ऐरण में व्यवस्थित किये गये हैं!
ऐरण का अक्षांश है भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर लगभग 24 अंश। वाराह और विष्णु प्रतिमायें इसी कोण पर उत्तर पूर्व की ओर मुँह किये हुये हैं। ग्रीष्म अयनांत यानि ईसा पंचांग के दिनांक 21/22 जून को सूर्य किरणें सीधी इनके ऊपर पड़ती हैं और स्तम्भ की छाया विष्णु की प्रतिमा पर पड़ती है। इस तरह से धार्मिक व्यवस्था में सौर गति का प्रेक्षण भी समाहित है। प्रतिमाओं पर सूर्य किरणों के कोण और स्तम्भ की छाया देख ऋतु परिवर्तन और काल का सटीक अनुमान लगाया जाता था।
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... पुस्तक के शब्द टूट टूट कर गिर रहे हैं। उन्हें सहेजना किसी के वश में नहीं – उड़ जाने दो उन्हें एलिस! आओ चलें विष्णुपदगिरि, विदिशा।
“अब कोणार्क ही चलो न!”
“नहीं, पहले विष्णुपदगिरि।“
(जारी)

शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

कोणार्क सूर्य मन्दिर - 19 : विदिशा की ओर - दीर्घतमा ऋषि और ऐरण

भाग 12, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17 और 18 से आगे...
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बाला सर की कम्प्यूटर स्क्रीन पर चक्र आवर्त।
चन्द्र हरि संकेत – ध्यान केन्द्रित करो!
प्रज्ज्वलित कसौटी अग्निकुंड। अस्सी की एलिस की आँखें दपदप हैं। संकल्प लो! कालसर्प की फुफकारे हैं ये, चन्द्रभागा तट के समुद्र की ध्वनियाँ नहीं हैं, चेतन हो!
“चेतन कि सम्मोहन, एलिस?”
“चुप्प! बोलो मेरे साथ - वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलि प्रथम चरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बुद्वीपे भागीरथ्याः तटे ...”

“एलिस! हम विदिशा जा रहे हैं। भागीरथी का तट क्यों?”
“भगीरथ प्रयत्न को ऋषियों का स्मरण करो! काल और स्थान के चतुर्विमीय जगत में नहीं हो तुम!”  
ecliptic-pathअंतरिक्ष सम्मोहन। यह एनिमेशन नहीं कालपुरुष का चक्र है। एकल चक्र, ब्रह्मांडीय वायु, निर्वात, तरंगित हहर अस्वर धूम। जन्मा, युवती, विहारिणी, माता, संहारिणी अनंत निहारिकायें। आकाशगंगा, नक्षत्र, सूर्य, ग्रह, पृथ्वी। अयन वृत्त पर घर घर रथ स्वर, उड़ती धूल। भुवन भाष्कर - आदि पुरखे।
रथ को घेरे कालसर्प,  कितने मन्वंतर, कितने मनु? कितने युग? कितने नृवंश? कितनी परम्परायें? आदित्य सबका जनक, पूज्य पुरखे की गोद में कितने इतिहास?
अयन वृत्त क्या क्या समेटे हुये है?  
... आदि युग, सरस्वती तट। उगते आदित्य को अर्घ्य देते, विश्वमित्र रश्मियों से स्नात होते औचथ्य ऋषि दीर्घतमा।
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प्रात: के जरापीत केशधारी पुरोहित तुम, मध्याह्न के तड़ित सम तेजधारी भ्राता तुम, घृतपृष्ठ हो तुम तीसरे भ्राता, जिस पर अंतरिक्ष फिसलता है और हम विश्पति और उनके पुत्र सप्तऋषियों का दर्शन करते हैं।
Archimedes_Trammelअयनवृत्त एक रथ, एक चक्र जिस पर सात ग्रह जुतते हैं और जिन्हें एक गुरुत्त्व अश्व खींचता है। तीन नाभियों वाला यह दीर्घवृत्त अजर है, बली है जिस पर सम्पूर्ण संसार स्थित है।
सप्तर्षि उन अश्वधारी सातो ग्रहों को धारण किये अग्रसर होते हैं जिनके नाम पर सात गायों (वार?) के नाम हैं। उनकी प्रशंसा में सात बहनें गीत गाती हैं।...
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 अयन रथचक्र में समय माप से बारह अरे हैं, ये बिना थके घूमते हैं। इनके अमर 720 पुत्र हैं जो संयोगाग्नि के साथ युगनद्ध रहते हैं। कोई इन्हें आधे नभ का स्वामी पंचपादी पितर कहते हैं तो कोई इन्हें छ: अरों वाले सात पहियों के रथ पर सवार दूर द्रष्टा कहते हैं।   
Pleiades-Rochus Hess... चन्द्र हरि या आचार्य शरण जाने किसका स्वर है – दीर्घतमा जब सरस्वती तट पर गा रहे थे उस युग में महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र की सीध में था।
इस नक्षत्र की स्मृति में ही सप्तमातृकायें आज भी पूजित हैं। वही छ: कृत्तिकायें और एक कार्तिकेय नाम से आगे पूजित हुईं।
बारह अरे बारह महीने हैं। दिन रात मिला कर चन्द्रगति सामान्यीकृत वर्ष में 720 संख्या बनती है। सात पहिये वार हैं और छ: अरे ऋतुयें, आधा नभ क्षितिज की सीमा वाला अर्धवृत्त मंडल है।  
... अर्धचेतन सी स्थिति में प्रश्न उभरा है – वर्ष के बचे 5 दिन क्या पितरों को समर्पित थे? पंचपादी पितर?
कोई उत्तर नहीं।  
saptamatrikaमहाध्यान में दीर्घतमा का स्वर ही प्रखर है, आचार्यों के स्वर जैसे उनके शिष्यों द्वारा दुहराव है। अग्नि, सूर्य, वायु, वाकादि देवों की स्तुति करते ऋषि आह्लादित हैं। आराधना में संवत्सर कालचक्र भी देवता हो गये हैं:

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संख्यायें, नक्षत्र, तारागण, अहोरात्र ... जाने कितने आयामों में मैं प्रार्थना स्वर के साथ घूम आया हूँ। निर्झरिणी उतरी है – तुम्हीं पूषन, तुम्हीं प्रजापति, इन्द्र तुम्हीं, विष्णु तुम्हीं, पर्जन्य तुम्हीं, मित्र तुम्हीं, वरुण तुम्हीं, सम्पूर्ण देव, तुम्हीं अश्विन, विश्वे देवा:!
एक ही है। एकम् सद्विप्रा: वहुधा वदन्ति।
कालचक्र की उद्धत दुर्धर्ष गड़गड़ाहट है और तेज भागता मैं देख रहा हूँ -  
vamana_turns_trivikramaबेबीलोन, माया, मिस्र, आर्य, शक, मग, अरब, नाग, किन्नर, शाबर, सौर, बौद्ध सब, सब सूर्योपासक।
यज्ञ के बलि यूप से बँधा पशु सूर्यरूपी प्रजापति है, वराह है जो बलि लेता है और स्वयं बलि भी होता है। भरतखंड जम्बूद्वीप में वैदिक बलियूप सौर, शाक्त और तांत्रिक मतों के लिये सौरगति प्रेक्षण का छाया यंत्र हो गया है तो बौद्धों के लिये कीर्ति स्तम्भ।
वेधशाला मन्दिरों के बाहर गड़ा अरुणस्तम्भ हो या गरुड़स्तम्भ या चक्रस्तम्भ, सभी छायायंत्र हैं। अपने तीन पगों से समूची धरती को मापने वाला वैष्णव देव वामन त्रिविक्रम भी सूर्य है।...     
...ध्यान टूट गया है। दिशायें लुप्त हैं। कितने दिन बीत गये?
एलिस ने मुस्कुराते हुये उत्तर दिया है – 14।
“तो, शरद विषुव बीते एक पक्ष हो गया?”
“हाँ, एक पक्ष में तुमने तो विश्वरूप दर्शन कर लिया। कृष्णा जी की कृपा है तुम पर।“
“विदिशा कितनी दूर है अभी?”
आचार्य शरण ने उत्तर दिया है – बस पहुँच गये। रास्ते में ऐरण में वाराह अवतार के दर्शन करेंगे। Vishnu_temple_at_Eran,_Madhya_Pradesh
पुरानी पुस्तक से टूट कर गिरते शब्दों को सँभालते एलिस के हाथ थम गये हैं – वाराह अवतार?
“हाँ एलिस! यहाँ वाराह मनुष्य देह में न होकर मूल देह के साथ हैं और भूदेवी का उद्धार कर रहे हैं।“
आचार्य ने मेरी ओर देख कर कहा है – यहाँ गरुड़ स्तम्भ भी है। सूर्य मन्दिर के रहस्य को सुलझाने के लिये जैसे विष्णु को जानना होगा वैसे ही सारथी अरुण के स्तम्भ को सुलझाने के पहले उसके भाई गरुड़ के स्तम्भ को जानना होगा।
Eran-saurabh_saxenaआचार्य ने संकेत किया है – देखो! वाराह के गले की मेखला। यह मेखला अयनवृत्त के उन 27 नक्षत्रों को दर्शाती है जिनसे होकर सूर्य, चन्द्र और ग्रहादि चलते दिखाई देते हैं। वाराह उदित होते सूर्य का प्रतीक है जो सहज दर्शनीय सर्वपोषक सर्वप्रमुख आकाशीय पिंड है। जो पृथ्वी को अंधकार से उबारता है। 
Eran-1009_saurabh_saxenaमेरा ध्यान दोनों स्तम्भों पर है। एक का घेरा चतुर्भुज से अष्टभुज और अष्टभुज से षोडषभुज कर दिया गया है। मैं अंकगणित लगा रहा हूँ:
चार दिशायें – 4, चतुर्भुज विष्णु
चार दिशायें+चार कोण (ईशान, नैऋत्य, वायव्य और आग्नेय) – 8, अष्टभुजा भवानी
इसके आगे?
भक्ति से ज्योतिष विद्या की ओर। पूर्ण वृत्त = 360 अंश
360/16 = 22.5
पृथ्वी का अक्ष पर झुकाव – 23.5 अंश यानि मात्र एक अंश का अंतर है। स्तम्भ पर सूर्य के प्रकाश और छाया के भाग देख कर स्थान के अक्षांश का प्रयोग करते हुये अयनान्त और विषुव के बारे में भविष्यवाणी और गणनायें की जा सकती हैं। कोणार्क का अरुण स्तम्भ भी षोडषभुज है। चतुष्कोणीय आधार के ऊपर अष्टदल कमल और ऊपर सोलह पंखुड़ियाँ। कोणीय दिशाओं में हाथी पर सवार दोपीछे सिंह।
स्तम्भ के पास यहाँ भी सिंह है। मन्दिर वास्तु की सिंहद्वार अवधारणा का क्या रहस्य है?...
मैंने सिर घुमाया है। एलिस मुग्ध सी वाराह को निहारे जा रही हैं – अवश्य मूर्तिकला का कोई अनुपात दिख गया होगा!
प्रो. शरण ने पुकारा है – दोनों यहाँ आओ! प्रतिमा और स्तम्भ के दिशाओं से सम्बन्ध समझा दूँ।
“तुम जाओ, मैं इस पुस्तक के पन्नों को व्यवस्थित कर के आती हूँ।“
(जारी)