शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

समय के साये में ...सौन्दर्य सोच

काल, परिवेश, सभ्यता, संस्कृति के अंतर से सौन्दर्य के प्रतिमान और मानक परिवर्तित होते हैं। एक ही काल की दो भिन्न संस्कृतियों में इनमें अंतर होता है। हमलावर बाबर को क्या लोग, क्या प्रकृति; हिन्दुस्तान में सब बदसूरत ही लगे थे!
दो भिन्न संस्कृतियाँ जब एक दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तो उनकी टकराहट और सम्मिश्रण से नयी अवधारणाये भी विकसित होती हैं लेकिन एक बात तय है – मनोरंजन के दृश्य, श्रव्य माध्यमों, गीतों, कथाओं आदि सब में नायक नायिका प्राय: सुन्दर ही होते हैं। नायक वीर धीरोदात्त होता है तो नायिका ऐसी कि जिससे प्रकृति के मनोरम उपमान गढ़े गये प्रतीत होते हैं। वास्तविक जीवन में साधारण रूप वाली लैला जब पर्दे पर उतारी जाती है तो अप्रतिम सुन्दरी होती है! इस सोच की एंटी थिसिस के रूप में मैं बनमानुष सरीखे महाकुरूप और लंठ बाऊ की कथा लिख रहा हूँ लेकिन उसे भी चारित्रिक रूप से पतित नहीं कर रहा। इसके क्या कारण हो सकते हैं?  

हिन्दी ब्लॉग जगत में एक जन ‘समय’ नाम से मनोविज्ञान आधारित विश्लेषण मंच की आपूर्ति करते हैं। वाद विवाद से परे रह कर इनके ब्लॉग 'समयके साये में' को एक जिज्ञासु और विद्यार्थी की तरह मैं पढ़ता रहता हूँ। यदा कदा ई मेल सम्वाद भी होते रहे हैं। इनकी एक पोस्ट 'चारित्रिक गुणों के सम्बन्ध' पढ़ कर निज मन में उमड़ते सौन्दर्य विषयक प्रश्न का मनोवैज्ञानिक पक्ष जानने की उत्सुकता हुई और मैंने उन्हें यह मेल लिखा:

आप के ब्लॉग आलेख पढ़ता रहता हूँ और पसन्द करता हूँ, भले उपस्थिति का पता न चले। चरित्र पर ताजे आलेख से एक विचार आया। सिने, काव्य और अन्य अभिव्यक्ति माध्यमों में नायक/नायिका अक्सर चरित्र और काया दोनों पक्षों से सुन्दर दिखाये जाते हैं। दिखाने और देखने की इस इंसानी चाहत के पीछे जाने कितने आयाम छिपे हैं। उनके मनोवैज्ञानिक पक्ष पर प्रकाश डालते कुछ लिखेंगे क्या?  

उनका यह उत्तर आया:

.... 
आपने एक सुझाव पेश किया है, अच्छा लगा। इस पक्ष की गंभीरता से विस्तृत विवेचना तो फिर कभी हो जाएगी, अभी इस पर आपके चिंतन के लिए हम भी प्रत्युत्तर में सिर्फ़ कुछ सुझाव पेश किए दे रहे हैं। जरूरी लगे तो संवाद आगे भी बढ़ाया जा सकता है।

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पहले दिखाने और देखने की इस चाहत पर। इसके पीछे के आयामों पर कुछ विवरणात्मक भावप्रधान साहित्यिक सा लिखने की हमारी सीमाएं हैं, हम तो सिर्फ़ कुछ नीरस विचारात्मक सुझाव ही पेश कर सकते हैं।
मनुष्य का अस्तित्व उसके सामाजिक सार से ही है। यानि कि उसके अस्तित्व की सारी सक्रियता समाज के साथ अंतर्गुथित है। वह दूसरों के साथ अपनी अंतर्क्रियाओं में अपने को सामाजिकतः उपयोगी साबित करने और इसमें बेहतर सिद्ध करने की कवायदों में रहता है। वह औरों के सामने अपने को व्यक्तिगत तौर पर भी, सौन्दर्य और सामूहिक मूल्यों के मामलों में भी बेहतर साबित करना चाहता है। उसकी महत्त्वांकाक्षाएं, अपने सामाजिक महत्त्व को विस्तार देने में फलीभूत होती हैं। यही दिखाने के पीछे का महत्त्वपूर्ण आयाम है, वह बेहतर बनने, होने की कोशिश करता है। नहीं हो पा रहा है तो बेहतर दिखने की कोशिश करता है, इसके लिए वह आदर्शों को सिर्फ़ ओढ़ता-बिछाता है और उनका प्रदर्शन करने लगता है।
मनोविज्ञान में देखने और दिखाने की इस प्रवृति को अहम्के बोध से भी जोड़कर देखा जाता है। सामाजिक संबंधों की पद्धति का अंग बनकर और अन्य लोगों से अन्योन्यक्रिया व संप्रेषण करते हुए मनुष्य अपने को परिवेश से अलग करता है, अपनी शारीरिक तथा मानसिक अवस्थाओं, क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं के कर्ता के रूप में अपनी एक छवि बनाता है और दूसरों के अहम् के मुकाबले में खड़े, किंतु साथ ही उनसे अभिन्नतः जुड़े हुए अपने अहम् (आत्म’, ‘स्व’) के रूप में सामने आता है।
मनुष्य द्वारा अपने अहम् का बोध या अपने आत्म की चेतना व्यक्तित्व-निर्माण की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है, जो शैशवावस्था में आरंभ होती है। आत्मचेतना के विकास की प्रक्रिया अहम्के एक आधारभूत और निश्चित बिंब के निर्माण के साथ पूरी होती है, जिसमें मनुष्य अपने बारे में विचारों और अन्य व्यक्तियों के प्रति अपने रवैयों के बारे में एक अपेक्षाकृत स्थिर और सचेतन मानसिक निर्मिति बना लेता है। इसके संज्ञानमूलक घटकों में मनुष्य का अपने प्रति, यानि अपनी योग्यताओं, शक्ल-सूरत, सामाजिक महत्त्व, आदि से संबंधित मूल्यांकन शामिल होते हैं। जैसे कि यदि किसी मनुष्य का लालन-पालन जीवन के भौतिक पक्ष को ही सब-कुछ माननेवाले परिवार में हो रहा है तो यह बहुत संभव है कि वह अपने छैल-छबीले रूप को ही जो उसके अनुसार उसके महंगे, फ़ेशनेबुल कपड़ो का परिणाम है, को ही अपनी आत्म-धारणा में सर्वोच्च महत्त्व देगा। अहम्के व्यवहारमूलक घटक में अपने को समझने, अन्य व्यक्तियों से सहानुभूति तथा आदर पाने, अपना दर्जा बढ़ाने की इच्छा अथवा, इसके विपरीत, आड में रहने, मूल्यांकन तथा आलोचना से बचने, अपनी कमियां छिपाने, आदि की इच्छा शामिल रहती हैं।
अहम् के बिंब के दो पक्ष हुआ करते हैं, एक वास्तविक अहम्जिसमें मनुष्य अपनी आत्मधारणा को यथार्थ वस्तुगत आलोचना के साथ परिपक्व करता है और अपने बारे में एक वास्तविक छवि बनाता है और उसकी बेहतरी के प्रयास रचता है। दूसरा कल्पित अहम्भी होता है, यानि वह अपने को किस रूप में देखना चाहता है, उसके आधार पर वह अपनी सक्रियता को क्रियाबद्ध करना चाहता है। यदि यह नहीं हो पाता है, जो कि अक्सर ही हुआ करता है, तो फिर वह इस कल्पित अहम्की धारणा के अनुसार अपनी दिखावटी छवि रचने और प्रस्तुत करने को प्रवृत्त रहता है। 
बाद में ब्लॉग पर व्यक्तित्व के ऊपर विस्तार से एक श्रृंखला शुरू करने का भी विचार है, तब इस पर विस्तार से और भी सामग्री प्रस्तुत करने की संभावना बनेगी। बातें कई और भी हैं. अभी इस पर इतना ही, इनसे काफ़ी इशारे मिल सकते हैं।
अब कुछ बातें अन्य कला माध्यमों में नायक/नायिका के चरित्रों को आदर्श रचने की प्रवृत्ति पर। इन्हें वही मनुष्य रच रहा है जिसकी कुछ प्रवृत्तियों की बात हम ऊपर कर चुके हैं। उसी को आगे बढ़ाते हैं।  सिने, साहित्य या कला माध्यम अंततोगत्वा अपने आपको अभिव्यक्त करने के, अपने आपको दूसरों में विस्तार देने केअपनी सामाजिक उपयोगिता साबित करने और इसी ज़रिए एक सामाजिक मूल्य पैदा करने की प्रक्रियाएं मात्र हैं जिससे कि अंततः एक व्यक्तिगत संतुष्टि, एक सामाजिक संतुष्टि, या अभी के दौर में जो अधिक देखा जा रहा हैश्रेष्ठता बोध की तुष्टि और भौतिक पूंजी प्राप्त की जा सकती है।
आगे बढ़ते हैं, अब प्रश्न यह उठता है कि व्यक्ति ऐसा करना ही क्यों चाहता है, यानि कि अपने आपको अभिव्यक्त ही क्यूं करना चाहता है?
मनुष्य जब भी अपने परिवेश के साथ अंतर्क्रियाओं में कुछ नया (यह हो सकता है कि व्यक्तिगत तौर पर उसके लिए नया हो) अनुभव करता है (आत्मपरक सामान्य था विशिष्ट अनुभव), यह नया पन इसमें भी हो सकता है कि इन्हीं अंतर्क्रियाओं में वह यह महसूस करता है कि वर्तमान में कुछ ठीक नहीं हैइसे और बेहतर तरीक़े से किया जा सकता है (यथार्थ का चित्रण तथा बेहतरी के विकल्पों की तलाश कीआवश्यकता और इस हेतु सुझाव), या जब वह तय कर लेता है कि वर्तमान में कुछ निश्चित खराबियां हैं और उन्हें कुछ निश्चित तरीक़ो से ही ठीक किया जा सकता है (यथार्थ की विकृतियों का निरूपण एवं विश्लेषण और निश्चित विकल्पों का प्रस्तुतिकरण)तो मनुष्य के लिए यह आवश्यकता पैदा होती है कि वह इसे, अपने द्वारा अनुभूत किए हुए को औरों के साथ बांटे, दूसरों को बताए, यानि इसे अभिव्यक्तकरे।
यथार्थ से असंतुष्टि, नवीन रचने को प्रेरित करती है। नवीन रचने के लिए मनुष्य एक महत्त्वपूर्ण मानसिक उपागम ‘कल्पनाका सहारा लेता हैजिसके ज़रिए वह यथार्थ के उपलब्ध संज्ञान की सीमाओं में हीकुछ निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लिए यथार्थ में विभिन्नबदलावों की कल्पना करता है, योजना बनाता है। यदि इस प्रक्रिया का विषय मानसिक सामग्री है, तो जाहिरा तौर पर इसके परिणाम मानसिक यानि वैचारिक ही होते हैंजिन्हें वह भाषा के जरिए, बोल कर या लिखकर या अन्य कला माध्यमों के ज़रिए अभिव्यक्त करता है।
यानि कि कला माध्यमों में व्याक्ति यथार्थ की विकृतियों का निरूपण करता हैउन्हें सही किए जाने की आवश्यकता महसूस करता, करवाता है और फिर वैकल्पिक कल्पनाएं प्रस्तुत करता है। ग़लत को सही करवाने के लिए, कमियों को दूर करवाने के लिए, चरित्रों कोबुनता है और उनकी अंतर्क्रियाओं के ज़रिए एक कथा का वितान रचता है जिनमें वह उसकी कल्पना के आदर्श चरित्रों के ज़रिए यथार्थ मेंकुछ आदर्श बदलावों का आख्यान प्रस्तुत करता है।
यहां आदर्शों का चुनाव किए जाने की बात परिदृश्य पर उभरती है। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति अपने अनुभव, अपने ज्ञान और समझ, अपने दृष्टिकोणों, अपनी मान्यताओं और आस्थाओं के दायरे में ही, उनके हिसाब से ही अपनी कल्पना में आदर्श के चुनाव और उसकी प्रस्तुति की प्रक्रिया को संपन्न कर सकता है।
यथास्थिति में बड़े परिवर्तनों की आकांक्षाओं से विरत व्यक्ति, यथास्थिति में ही उपलब्ध और उसके दृष्टिकोणों से मेल खाते आदर्श चरित्र के मानदंड़ों को हीअपनी रचना में प्रस्तुत किए जाने वाले आदर्श चरित्रों पर आरोपित करता है। उसके सही लगने के, सौन्दर्यबोधके, आदर्शों के मानंदड़प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसके परिवेश पर ही, यानि कि उसके सामाजिक यथार्थ पर ही निर्भर हुआ करते हैं।
मनुष्य का सौन्दर्य बोध (सौन्दर्य को इस तरह से भी देखा जा सकता है, कि यह चीज़ों का सही तरीक़े से, सलीके सेव्यवस्थित होना ही है, जो उसे प्रिय लगते हैं, किसी तरह की अप्रिय प्रतिक्रिया नहीं जगाते) सब कुछ सही देखना चाहता है, सही करना चाहता है, सही के साथ होना चाहता है। यह इसलिए कि अपने विकास क्रम में इसकी चेतना और इसे श्रम-प्रक्रियाओं के ज़रिए भौतिक रूप से किए जाने की संभावनाएं और क्षमताएं मनुष्य में ही विकसित हुई हैं। वह कर सकता है, इसीलिए चीज़ों को अपने उपयोग की बनानासही करना चाहता है और करता है।
एक और बात, मनुष्य अक्सर अपने अभावों, अप्राप्योंअसुरक्षाओंआदि कमियों के बीच (जिनके कि विकल्प भी यथार्थ में मौजूद होते हैं, जो किसी और के पास हैं, पर वह जिनसे वंचित है) उनकी पूर्ति की आकांक्षाओं में कल्पनाओं में रहता है।  (इसे इस तरह भी देखा जासकता है कि किसी अन्य के पास उपस्थिति ही किसी में उसकी वंचनाअभाव पैदा करती है) वह इन्हें पाने के स्वप्नों में रहता है। अब यह भी होता है कि ये सभी जहां हैवे व्यक्ति, उनका चरित्र अवचेतन-चेतन रूप से उसके मस्तिष्क में आदर्शों के मानदंड़ के रूप में स्थापित होता रहता है (इसी से यह भी समझा जा सकता है कि क्यों प्रभुत्वशाली शासकसाधनसंपन्न वर्गों के दृष्टिकोण और मानदंड आम चेतना का हिस्साबनते जाते हैं)।
तो इसलिए जब व्यक्ति रचता हैतो वह इन्हीं मानदंड़ो से निदेशित हो रहा होता है। कथा या सिनेमा की उसकी नायिका सुंदर देहयष्टि की मालिक होने के साथ-साथ उन चारित्रिक गुणों से भी संपन्न होती है जिन्हें वह उचित और बेहतर समझता है। सुंदर देहयष्टि के मानक भी समय के साथ इसीलिए बदलते रहते हैं, क्योंकि परिवेश में उपलब्ध मानक भी बदलते रहते हैं। कभी का मांसलता प्रधान स्वाभाविक देहसौंदर्य अभी छरहरी सुगठित काया के अंदर ढूंढा जाता है। पहले की नायिकाओं के स्वभावों तथा चरित्रों का मूल स्वभाव भी अब वैसा नहीं रह गया है। इसी तरह नायक के आदर्श चरित्र का गठन भी किया जाता है और इसके मानदंड़ भी परिवर्तित होते रहे हैं। वह सर्वगुणसंपन्नता और उत्तम चरित्र से लैस होकर, यथार्थ की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष करता है, विजयी होता है। कुलमिलाकर वह अपने रचे में आदर्श और सौंदर्य का एक काल्पनिक संसार रचना चाहता है जो उसे वास्तविकता में उपलब्ध नहीं है और जिसे पाना उसकी मुक्तिकामी आकांक्षाओं और स्वप्नों से नाभिनालबद्ध है।
श्रेष्ठ आदर्शों का, श्रेष्ठ मूल्यों का, श्रेष्ठ चरित्रों का चित्रण हर सृजनधर्मा व्यक्ति की अभिव्यक्तियों के मूल में होता है और जाहिरा-तौर पर इनके मानदंड उसके दृष्टिकोणों, उसकी मान्यताओं, उसकी आकांक्षाओं तथा स्वप्नों पर निर्भर किया करते हैं।
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काफ़ी हुआ। अभी इतना ही। पता नहीं आपके यथेष्ट दायरे में यह है या नहीं, अथवा इसका अतिक्रमण कर गया है।
बाकी यदि आप आगे संवाद बढ़ाए तो।
आप स्वस्थ और सानंद होंगे,
सस्नेह
समय

सम्वाद और बहस को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उनसे अनुमति लेने के बाद उनका उत्तर सार्वजनिक कर रहा हूँ। इस विषय में आप सब के विचार क्या हैं?        

सोमवार, 30 जनवरी 2012

मंगल उवाच।



देखो! यह चूहा मर चुका है। इससे डरना मूर्खता है।
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कॉकरोच मटर की फली के कीड़े जैसा ही जीव है। यूँ हाय तौबा मचाने और भागने की आवश्यकता नहीं। फर्निचर से चोट लग सकती है।
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जल्दी में था। भीगा तौलिया बिस्तर पर रख दिया तो कौन सा पाप कर दिया? मैचिंग कलर के लिये बीस दुकानों पर तुम्हारे साथ घूमते मैं कभी झुँझलाया?
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जब मैं लिखता हूँ या मयूजिक सुनता हूँ तो सवाल पूछने पर ऊ हूँ टाइप ही जवाब दे सकता हूँ, समझ जाना चाहिये। मुँह फुला कर चल देने का क्या तुक? मैं मल्टी टास्कर नहीं हूँ बाबा कि एक साथ सब्जी, दाल, भात और कढ़ी पका सकूँ और बीच बीच में सीरियल में साड़ियों का चलन भी दिमाग में बिठा सकूँ। यकीन नहीं होता तो सीरियल राइटर से ही पूछ लो। वह भी बीवी से ऐसे ही त्रस्त होता होगा।
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देखो! फिल्म में कुछ अटपटा लगेगा तो मैं कमेंट करूँगा ही। जहाँ अच्छा होता है, वहाँ तो मैं भी चुप देखता हूँ।
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टी वी पर एक साथ तीन फिल्में मैं देख सकता हूँ। यह मेरा मल्टीटास्किंग है। तुम्हें न पसन्द हो तो वो दूसरा टी वी है ना!
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दोनों डार्क कलर तो थे – एक उसमें का तो दूसरा इसमें का। अब डार्क ब्लू और लाइट ब्लैक का अंतर नहीं दिखा तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? किसी ने तो पैंट की मोहरी उठा कर नहीं देखा! रंग के ऐसे बारीक फर्क तुम्हें ही दिखते हैं। उफ्फ!
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सिर के पके बाल उखाड़ो नहीं, कैंची से कुतर दिया करो दो तीन दिन पर। मुझे कलर सलर नहीं करना।
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तुम भी खर्राटे लेती हो। कहो तो रिकॉर्ड कर सुना दूँ।
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ऐसे नहीं। एक महीने तुम सब्जी लाओ और एक महीने मैं। खर्च बराबर न हुआ तो कहना। मोल तोल करना तुम्हारी हॉबी है, सीधे क्यों नहीं कह देती? कम से कम टाइम खोटा करने का दुख तो नहीं होगा।
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मोबाइल में डाटा फ्री है। फोन नहीं लगता तो यह नेटवर्क का दोष है। मैं हमेशा इंटरनेट पर नहीं जमा रहता यार! ऑफिस में ढेरों काम हैं जिनके लिये मुझे सेलरी मिलती है।
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देखो वह बस एक कुलीग भर है। उसका हसबेंड मुझसे बहुत स्मार्ट है। वे दोनों हैप्पी हैं। फोन पर हँस कर बात करने का मतलब यह नहीं कि कोई खिचड़ी पक रही है।
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वहाँ से निकलना था तो साफ साफ कह देती! कामवाली काम करके जा चुकी थी, मुझे पता था सो कह दिया।
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अरे यार! सबके बच्चे तुम्हारे बच्चों के एज ग्रुप में ही हैं। कोई उनसे इतना बड़ा नहीं कि यूँ कहने वाली बात हो। वैसे भी उमर अधिक होना कोई नवाँ अचम्भा तो नहीं! आठवीं तो तुम हो ही।
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 घड़ी एकदम सही चल रही है। तुम तैयार हो रही थी।
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जो काम मुझे करना हो, बता दिया करो। मैं अनुमान लगाने में भोदूँ हूँ। नहीं होता तो तुमसे ....
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अरे मजाक किया मैंने! इतना भी नहीं समझती!
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प्रेरणा: The most eligible bachelor श्री श्री अभिषेकानन्द NY के गुगल शेयर 

शनिवार, 28 जनवरी 2012

वसंत की भटकन

आज वसंत पंचमी है। माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पाँचवी तिथि, विक्रम संवत 2068। भारत की छ: ऋतुओं वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत में वसंत ऋतु सिरमौर मानी गई है। वसंत माने पुराने पत्तों का अंत। यह नवोन्मेष की ऋतु है। ऋतुचक्र और पंचांग के फेर से अंतर पड़ता है लेकिन यह ऋतु नई फुनगियों, अन्न की पकी बालियों, सरसो की पियराई और गालों की लाली की ऋतु है। वसंत कामदेव का पुत्र है। यह मौसम राग का मौसम है। वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि और अंत में होली, ऐसी उत्सवी ऋतु कोई और नहीं।
बाहर पार्क में पेंड़ अभी भी ठूँठे हैं लेकिन चिड़ियों की चहक बढ़ गई है। समीर शीतल है लेकिन ठिठुरन ऊष्म का आभास है। शहर में फूलों का महोत्सव कुछ दिन पहले ही समाप्त हुआ है और मैं सोचता हूँ कि भारत की मनीषा धन्य है! राग ऋतु का प्रारम्भ विद्या की देवी के उत्सव से। ऋतु के भरपूर यौवन में औघड़ वरदानी, महाभोगी, महायोगी शिव के विवाह का उत्सव और अवसान के समय होली जैसा रंग भरा पर्व! रागमयी वृत्तियों पर विद्या की लगाम, भोग के साथ योग की साधना, और अंत तो जैसे होता ही नहीं, उससे उच्छृंखल इनकार होली के होरियान, भदेस, अश्लील सर र र र र ...रामचन्द्र शुक्ल का विरुद्धों का सामंजस्य! सृष्टि ऐसे ही तो चलती रहती है जब तक सदाशिव संहार न कर दें!
आज के दिन महाप्राण निराला की स्मृति स्वाभाविक है। हठपूर्वक अपना जन्मदिन वसंत पंचमी को मनाते थे। उन्हें और उनकी जीवनी पढ़ते लगता है कि सुसंस्कृत भारत अपनी सकल दुर्बलताओं और शक्तियों के साथ सामने आ खड़ा हुआ है। उन्हें अपनी प्रतिभा पर गर्व था और हिन्दी जगत की उपेक्षा का पर्याप्त अनुभव भी। सरस्वती पुत्र ने कभी हिन्दी में बात करना भी बन्द कर दिया था! रागविरागमयी स्वर लहरियों को पश्चिमी संगीत में निबद्ध किया जिन्हें आज तक समझने के न प्रयास हुये और न कोई खास सम्मान मिला।
उन्हें पढ़ते संगीत का अज्ञान अखरता है। बहुत प्रयास किया लेकिन ....। पहाड़ी, भैरवी, भूपाली, देस आदि के स्वर पहचान जाता हूँ। बिथोवन, बाख, विवाल्डी और मोज़ार्ट की रचनाओं को बजते सुन अनुमान लगा लेता हूँ लेकिन बस वहीं समाप्त। निराला की कविताई का सम्मोहन सर्वदा रहेगा। यहाँ तक कि कुछ पहचानने पर उनकी एक कविता को घनघोर रूप से अंग्रेजी कविताओं से गुँथी अपनी अधूरी रचना में स्थान देने से स्वयं को रोक नहीं पाया:

... साइकिल से उतरते हाँफते वह मुस्कुराया था - 
तुम्हें फिल्म बुरी लगी क्या? जिम से फायदा होगा और संगीत के लिये मुझे याद कर कर के दुआयें दोगे मनु!...सही ही कहता था - पॉजेसिव अतनु।
... आंटी के आगे अच्छा बच्चा बना बैठा हूँ। अंकल चौकी पर तकिये का सहारा लिये अधलेटे हैं।
"मॉम! भैरवी सुनाओ न। मनु इसीलिये आया है।"
...सुबह सुबह झूठ! अतनु तुम माँ से भी झूठ बोलते हो?...
मधुर मातृस्वर - 
सुर-नर-मुनि जनमानी, सकल बुधज्ञानी
जगजननी जगदानी, महिषासुर मर्दिनी
भैरवी में कोई खासियत नहीं होती। सुरों में कोई अच्छाई नहीं और न ही हार्मोनियम में कुछ खास। खास तो मनुष्य़ का स्वर होता है। पत्तों से छन कर भीतर आती दिवस की पहली किरणें तन्मय स्वर में भीगती चली गईं और मैं? रवि रश्मियाँ तो हमेशा से मुझे पसन्द रही हैं। तुम, माँ, मन्दिर, पुजारी...उनके साथ जाने कितनी बातें, कितने लोग जुड़े हैं। भावुकता उमड़ पड़ी, स्वरलहरियाँ भीनती गईं। गीत गोविन्द, सॉनेट, पापा का मानस स्वर...सबने जैसे अपने छिपे कोष खोल दिये। तुम्हारा वह अक्सर कहना - मनु! बहुत कुछ समझ में नहीं आता - समझ गया। स्वयं से कहा - उर्मी! अबकी मिलो तो बताऊँगा...आंटी गाती रहीं, मनप्रस्तर पर स्वरलिपियाँ - सर्वदा के लिये सुरक्षित।
भवानी दयानी, महा वाकवानी
ज्वालामुखी चंडी, अमर पददानी
जगजननी जगदानी।
"मनु! तुम्हारे यहाँ गाते बजाते हैं?"
"नहीं...बस अष्टमी के दिन गाँव में कीर्तन होता है।"
"तुमी कानो एस्चो?" आंटी हँसने लगी हैं।
"निराला को जानते हो? हिन्दी कवि?... हमारे बैसवाड़े के थे?"
"मैंने हिन्दी कवितायें उतनी नहीं पढ़ीं।"
"भालो ना... सुनो उनके कुछ शब्द भैरवी में ही।"
अतनु हार्मोनियम पर मुस्कुराया है।
"गृह-गृह पार्वती, सुन्दर-शिव सँवारती
उर-उर आरती, ग़ृह-गृह पार्वती।
उर-उर आरती।" ... आंटी गाती रहीं और संगीत निरक्षर नहाता रहा...

बचपन के संस्कार। पीत वस्त्र, पीत पुष्प, पीत मिष्ठान्न और पीत तिलक -  वर दे! वीणावादिनी वर दे। स्वयं से पूछ रहा हूँ – किस तरह का नास्तिक है रे तू!
“आप लोग जाइये। मैं बाहर खड़ा हूँ।“
“आक्रोश है, इसका अर्थ है कि मानते हो?”
“कुछ भी कहो मैं मन्दिर में नहीं जाऊँगा।“
आनन्द अच्छा गाता है -  
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर, जगमग जग कर दे।
श्मशान के ऊपर वसंत राग।
“कहाँ हो आनन्द? आज वसंत पंचमी है। सुनने का मन कर रहा है।”

“ हलो! ... सुप्रभातम सर!”
“जग गये क्या? वसंत पंचमी की शुभकामनायें।“
“हाँ, जग ही रहा हूँ। ... वाह! आप ने अच्छी याद दिलाई।“
“मुझे आप के स्वर में ‘वर दे’  की रिकॉर्डिंग चाहिये।“
“हा, हा, हा... अभी तक याद है। अवश्य, अवश्य ... किसी न किसी बहाने यह सम्पर्क बना रहना चाहिये।“
“गीत याद भी है या भूल गये?”
“अरे नहीं यार! याद है ...भूलेगा तो 'रागविराग' पड़ी है घर में। देख लेंगे। श्रीमती जी हिन्दी से एम ए कर रही हैं।
“... गा कर भेजिये न! जल्दी से दिन में ही... चाय पीने के बाद का पहला काम।“
“हा, हा, हा.... मानव मन विचित्र होता है।“
“कैसे रिकॉर्ड करेंगे? मोबाइल पर तो एक मिनट की सीमा होती है।“
“अरे नहीं। कर लेंगे।“
“मैं इंतज़ार कर रहा हूँ।“... 

..."रिकॉर्ड तो कर लिया लेकिन वह बात नहीं आ पाई। आप सामने बैठे होते तो शायद वह बात आ जाती!" 
मन ही मन बड़बड़ाया हूँ - वह युग पुन: कहाँ आयेगा आनन्द! अब देखिये न, उस समय भी आप आप ही कहते थे लेकिन  अब के आप में वह आप कहाँ? जो बीत गई सो बीत गई। 

लीजिये सुनिये, आनन्द ने भेजा है।


 मेरे लिये वसंत स्मृतियों का आनन्द है। वसंत पंचमी, श्रावणी ... कैसे कैसे पर्व! वर्तमान के किनारे भूत में जीता मैं।
देख रहा हूँ कि आने वाली 14 फरवरी को समूचा संसार बढ़िया जायेगा। फूलों की बात के लिये दिन की प्रतीक्षा क्यों करनी? पंचमी हो, श्रावणी हो या वैलेंटाइन डे या कोई भी सामान्य सा दिन! 
... फूल खिलते रहेंगे। सड़कों पर पसीने टपकते रहेंगे। जगमग जग कोठियाँ तनती रहेंगी। भूख मरोड़ती रहेगी। मालों के आगे सड़क के डिवाइडरों पर नाइट शिफ्ट की बस्तियाँ भी बसती रहेंगी। चूल्हे के नाम पर सड़क के आवारा ईंटों से घिरी आग जलती रहेगी। जिनके कैलेंडर से होली दिवाली के अलावा सभी त्यौहार ग़ायब होंगे। वे दो भी इसलिये कि फुरसत का बहाना मिलता है और देसी ठर्रे की बाढ़ में बहा देने को जिन्दगी का राग भी...
...और एक जीवधारी ऐसे ही भटकता रहेगा।

वर दे! वीणावादिनी वर दे!