काल, परिवेश, सभ्यता, संस्कृति के अंतर से सौन्दर्य के प्रतिमान और मानक परिवर्तित होते हैं। एक ही काल की दो भिन्न संस्कृतियों में इनमें अंतर होता है। हमलावर बाबर को क्या लोग, क्या प्रकृति; हिन्दुस्तान में सब बदसूरत ही लगे थे!
मनोविज्ञान में देखने और दिखाने की इस प्रवृति को ‘अहम्’ के बोध से भी जोड़कर देखा जाता है। सामाजिक संबंधों की पद्धति का अंग बनकर और अन्य लोगों से अन्योन्यक्रिया व संप्रेषण करते हुए मनुष्य अपने को परिवेश से अलग करता है, अपनी शारीरिक तथा मानसिक अवस्थाओं, क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं के कर्ता के रूप में अपनी एक छवि बनाता है और दूसरों के अहम् के मुकाबले में खड़े, किंतु साथ ही उनसे अभिन्नतः जुड़े हुए अपने अहम् (‘आत्म’, ‘स्व’) के रूप में सामने आता है।
मनुष्य द्वारा अपने अहम् का बोध या अपने आत्म की चेतना व्यक्तित्व-निर्माण की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है, जो शैशवावस्था में आरंभ होती है। आत्मचेतना के विकास की प्रक्रिया ‘अहम्’ के एक आधारभूत और निश्चित बिंब के निर्माण के साथ पूरी होती है, जिसमें मनुष्य अपने बारे में विचारों और अन्य व्यक्तियों के प्रति अपने रवैयों के बारे में एक अपेक्षाकृत स्थिर और सचेतन मानसिक निर्मिति बना लेता है। इसके संज्ञानमूलक घटकों में मनुष्य का अपने प्रति, यानि अपनी योग्यताओं, शक्ल-सूरत, सामाजिक महत्त्व, आदि से संबंधित मूल्यांकन शामिल होते हैं। जैसे कि यदि किसी मनुष्य का लालन-पालन जीवन के भौतिक पक्ष को ही सब-कुछ माननेवाले परिवार में हो रहा है तो यह बहुत संभव है कि वह अपने छैल-छबीले रूप को ही जो उसके अनुसार उसके महंगे, फ़ेशनेबुल कपड़ो का परिणाम है, को ही अपनी आत्म-धारणा में सर्वोच्च महत्त्व देगा। ‘अहम्’ के व्यवहारमूलक घटक में अपने को समझने, अन्य व्यक्तियों से सहानुभूति तथा आदर पाने, अपना दर्जा बढ़ाने की इच्छा अथवा, इसके विपरीत, आड में रहने, मूल्यांकन तथा आलोचना से बचने, अपनी कमियां छिपाने, आदि की इच्छा शामिल रहती हैं।
अहम् के बिंब के दो पक्ष हुआ करते हैं, एक ‘वास्तविक अहम्’ जिसमें मनुष्य अपनी आत्मधारणा को यथार्थ वस्तुगत आलोचना के साथ परिपक्व करता है और अपने बारे में एक वास्तविक छवि बनाता है और उसकी बेहतरी के प्रयास रचता है। दूसरा ‘कल्पित अहम्’ भी होता है, यानि वह अपने को किस रूप में देखना चाहता है, उसके आधार पर वह अपनी सक्रियता को क्रियाबद्ध करना चाहता है। यदि यह नहीं हो पाता है, जो कि अक्सर ही हुआ करता है, तो फिर वह इस ‘कल्पित अहम्’ की धारणा के अनुसार अपनी दिखावटी छवि रचने और प्रस्तुत करने को प्रवृत्त रहता है।
बाद में ब्लॉग पर व्यक्तित्व के ऊपर विस्तार से एक श्रृंखला शुरू करने का भी विचार है, तब इस पर विस्तार से और भी सामग्री प्रस्तुत करने की संभावना बनेगी। बातें कई और भी हैं. अभी इस पर इतना ही, इनसे काफ़ी इशारे मिल सकते हैं।
अब कुछ बातें अन्य कला माध्यमों में नायक/नायिका के चरित्रों को आदर्श रचने की प्रवृत्ति पर। इन्हें वही मनुष्य रच रहा है जिसकी कुछ प्रवृत्तियों की बात हम ऊपर कर चुके हैं। उसी को आगे बढ़ाते हैं। सिने, साहित्य या कला माध्यम अंततोगत्वा अपने आपको अभिव्यक्त करने के, अपने आपको दूसरों में विस्तार देने के, अपनी सामाजिक उपयोगिता साबित करने और इसी ज़रिए एक सामाजिक मूल्य पैदा करने की प्रक्रियाएं मात्र हैं जिससे कि अंततः एक व्यक्तिगत संतुष्टि, एक सामाजिक संतुष्टि, या अभी के दौर में जो अधिक देखा जा रहा है, श्रेष्ठता बोध की तुष्टि और भौतिक पूंजी प्राप्त की जा सकती है।
आगे बढ़ते हैं, अब प्रश्न यह उठता है कि व्यक्ति ऐसा करना ही क्यों चाहता है, यानि कि अपने आपको अभिव्यक्त ही क्यूं करना चाहता है?
मनुष्य जब भी अपने परिवेश के साथ अंतर्क्रियाओं में कुछ नया (यह हो सकता है कि व्यक्तिगत तौर पर उसके लिए नया हो) अनुभव करता है (आत्मपरक सामान्य था विशिष्ट अनुभव), यह नया पन इसमें भी हो सकता है कि इन्हीं अंतर्क्रियाओं में वह यह महसूस करता है कि वर्तमान में कुछ ठीक नहीं है, इसे और बेहतर तरीक़े से किया जा सकता है (यथार्थ का चित्रण तथा बेहतरी के विकल्पों की तलाश कीआवश्यकता और इस हेतु सुझाव), या जब वह तय कर लेता है कि वर्तमान में कुछ निश्चित खराबियां हैं और उन्हें कुछ निश्चित तरीक़ो से ही ठीक किया जा सकता है (यथार्थ की विकृतियों का निरूपण एवं विश्लेषण और निश्चित विकल्पों का प्रस्तुतिकरण), तो मनुष्य के लिए यह आवश्यकता पैदा होती है कि वह इसे, अपने द्वारा अनुभूत किए हुए को औरों के साथ बांटे, दूसरों को बताए, यानि इसे अभिव्यक्तकरे।
यथार्थ से असंतुष्टि, नवीन रचने को प्रेरित करती है। नवीन रचने के लिए मनुष्य एक महत्त्वपूर्ण मानसिक उपागम ‘कल्पना’ का सहारा लेता है, जिसके ज़रिए वह यथार्थ के उपलब्ध संज्ञान की सीमाओं में ही, कुछ निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लिए यथार्थ में विभिन्नबदलावों की कल्पना करता है, योजना बनाता है। यदि इस प्रक्रिया का विषय मानसिक सामग्री है, तो जाहिरा तौर पर इसके परिणाम मानसिक यानि वैचारिक ही होते हैं, जिन्हें वह भाषा के जरिए, बोल कर या लिखकर या अन्य कला माध्यमों के ज़रिए अभिव्यक्त करता है।
यानि कि कला माध्यमों में व्याक्ति यथार्थ की विकृतियों का निरूपण करता है, उन्हें सही किए जाने की आवश्यकता महसूस करता, करवाता है और फिर वैकल्पिक कल्पनाएं प्रस्तुत करता है। ग़लत को सही करवाने के लिए, कमियों को दूर करवाने के लिए, चरित्रों कोबुनता है और उनकी अंतर्क्रियाओं के ज़रिए एक कथा का वितान रचता है जिनमें वह उसकी कल्पना के आदर्श चरित्रों के ज़रिए यथार्थ मेंकुछ आदर्श बदलावों का आख्यान प्रस्तुत करता है।
यहां आदर्शों का चुनाव किए जाने की बात परिदृश्य पर उभरती है। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति अपने अनुभव, अपने ज्ञान और समझ, अपने दृष्टिकोणों, अपनी मान्यताओं और आस्थाओं के दायरे में ही, उनके हिसाब से ही अपनी कल्पना में आदर्श के चुनाव और उसकी प्रस्तुति की प्रक्रिया को संपन्न कर सकता है।
यथास्थिति में बड़े परिवर्तनों की आकांक्षाओं से विरत व्यक्ति, यथास्थिति में ही उपलब्ध और उसके दृष्टिकोणों से मेल खाते आदर्श चरित्र के मानदंड़ों को ही, अपनी रचना में प्रस्तुत किए जाने वाले आदर्श चरित्रों पर आरोपित करता है। उसके सही लगने के, सौन्दर्यबोधके, आदर्शों के मानंदड़, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसके परिवेश पर ही, यानि कि उसके सामाजिक यथार्थ पर ही निर्भर हुआ करते हैं।
मनुष्य का सौन्दर्य बोध (सौन्दर्य को इस तरह से भी देखा जा सकता है, कि यह चीज़ों का सही तरीक़े से, सलीके से, व्यवस्थित होना ही है, जो उसे प्रिय लगते हैं, किसी तरह की अप्रिय प्रतिक्रिया नहीं जगाते) सब कुछ सही देखना चाहता है, सही करना चाहता है, सही के साथ होना चाहता है। यह इसलिए कि अपने विकास क्रम में इसकी चेतना और इसे श्रम-प्रक्रियाओं के ज़रिए भौतिक रूप से किए जाने की संभावनाएं और क्षमताएं मनुष्य में ही विकसित हुई हैं। वह कर सकता है, इसीलिए चीज़ों को अपने उपयोग की बनाना, सही करना चाहता है और करता है।
एक और बात, मनुष्य अक्सर अपने अभावों, अप्राप्यों, असुरक्षाओं, आदि कमियों के बीच (जिनके कि विकल्प भी यथार्थ में मौजूद होते हैं, जो किसी और के पास हैं, पर वह जिनसे वंचित है) उनकी पूर्ति की आकांक्षाओं में कल्पनाओं में रहता है। (इसे इस तरह भी देखा जासकता है कि किसी अन्य के पास उपस्थिति ही किसी में उसकी वंचना, अभाव पैदा करती है) वह इन्हें पाने के स्वप्नों में रहता है। अब यह भी होता है कि ये सभी जहां है, वे व्यक्ति, उनका चरित्र अवचेतन-चेतन रूप से उसके मस्तिष्क में आदर्शों के मानदंड़ के रूप में स्थापित होता रहता है (इसी से यह भी समझा जा सकता है कि क्यों प्रभुत्वशाली शासक, साधनसंपन्न वर्गों के दृष्टिकोण और मानदंड आम चेतना का हिस्साबनते जाते हैं)।
तो इसलिए जब व्यक्ति रचता है, तो वह इन्हीं मानदंड़ो से निदेशित हो रहा होता है। कथा या सिनेमा की उसकी नायिका सुंदर देहयष्टि की मालिक होने के साथ-साथ उन चारित्रिक गुणों से भी संपन्न होती है जिन्हें वह उचित और बेहतर समझता है। सुंदर देहयष्टि के मानक भी समय के साथ इसीलिए बदलते रहते हैं, क्योंकि परिवेश में उपलब्ध मानक भी बदलते रहते हैं। कभी का मांसलता प्रधान स्वाभाविक देहसौंदर्य अभी छरहरी सुगठित काया के अंदर ढूंढा जाता है। पहले की नायिकाओं के स्वभावों तथा चरित्रों का मूल स्वभाव भी अब वैसा नहीं रह गया है। इसी तरह नायक के आदर्श चरित्र का गठन भी किया जाता है और इसके मानदंड़ भी परिवर्तित होते रहे हैं। वह सर्वगुणसंपन्नता और उत्तम चरित्र से लैस होकर, यथार्थ की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष करता है, विजयी होता है। कुलमिलाकर वह अपने रचे में आदर्श और सौंदर्य का एक काल्पनिक संसार रचना चाहता है जो उसे वास्तविकता में उपलब्ध नहीं है और जिसे पाना उसकी मुक्तिकामी आकांक्षाओं और स्वप्नों से नाभिनालबद्ध है।
श्रेष्ठ आदर्शों का, श्रेष्ठ मूल्यों का, श्रेष्ठ चरित्रों का चित्रण हर सृजनधर्मा व्यक्ति की अभिव्यक्तियों के मूल में होता है और जाहिरा-तौर पर इनके मानदंड उसके दृष्टिकोणों, उसकी मान्यताओं, उसकी आकांक्षाओं तथा स्वप्नों पर निर्भर किया करते हैं।
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सम्वाद और बहस को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उनसे अनुमति लेने के बाद उनका उत्तर सार्वजनिक कर रहा हूँ। इस विषय में आप सब के विचार क्या हैं?
दो भिन्न संस्कृतियाँ जब एक दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तो उनकी टकराहट और सम्मिश्रण से नयी अवधारणाये भी विकसित होती हैं लेकिन एक बात तय है – मनोरंजन के दृश्य, श्रव्य माध्यमों, गीतों, कथाओं आदि सब में नायक नायिका प्राय: सुन्दर ही होते हैं। नायक वीर धीरोदात्त होता है तो नायिका ऐसी कि जिससे प्रकृति के मनोरम उपमान गढ़े गये प्रतीत होते हैं। वास्तविक जीवन में साधारण रूप वाली लैला जब पर्दे पर उतारी जाती है तो अप्रतिम सुन्दरी होती है! इस सोच की एंटी थिसिस के रूप में मैं बनमानुष सरीखे महाकुरूप और लंठ बाऊ की कथा लिख रहा हूँ लेकिन उसे भी चारित्रिक रूप से पतित नहीं कर रहा। इसके क्या कारण हो सकते हैं?
हिन्दी ब्लॉग जगत में एक जन ‘समय’ नाम से मनोविज्ञान आधारित विश्लेषण मंच की आपूर्ति करते हैं। वाद विवाद से परे रह कर इनके ब्लॉग 'समयके साये में' को एक जिज्ञासु और विद्यार्थी की तरह मैं पढ़ता रहता हूँ। यदा कदा ई मेल सम्वाद भी होते रहे हैं। इनकी एक पोस्ट 'चारित्रिक गुणों के सम्बन्ध' पढ़ कर निज मन में उमड़ते सौन्दर्य विषयक प्रश्न का मनोवैज्ञानिक पक्ष जानने की उत्सुकता हुई और मैंने उन्हें यह मेल लिखा:
आप के ब्लॉग आलेख पढ़ता रहता हूँ और पसन्द करता हूँ, भले उपस्थिति का पता न चले। चरित्र पर ताजे आलेख से एक विचार आया। सिने, काव्य और अन्य अभिव्यक्ति माध्यमों में नायक/नायिका अक्सर चरित्र और काया दोनों पक्षों से सुन्दर दिखाये जाते हैं। दिखाने और देखने की इस इंसानी चाहत के पीछे जाने कितने आयाम छिपे हैं। उनके मनोवैज्ञानिक पक्ष पर प्रकाश डालते कुछ लिखेंगे क्या?
उनका यह उत्तर आया:
....
आपने एक सुझाव पेश किया है, अच्छा लगा। इस पक्ष की गंभीरता से विस्तृत विवेचना तो फिर कभी हो जाएगी, अभी इस पर आपके चिंतन के लिए हम भी प्रत्युत्तर में सिर्फ़ कुछ सुझाव पेश किए दे रहे हैं। जरूरी लगे तो संवाद आगे भी बढ़ाया जा सकता है।
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पहले दिखाने और देखने की इस चाहत पर। इसके पीछे के आयामों पर कुछ विवरणात्मक भावप्रधान साहित्यिक सा लिखने की हमारी सीमाएं हैं, हम तो सिर्फ़ कुछ नीरस विचारात्मक सुझाव ही पेश कर सकते हैं।
मनुष्य का अस्तित्व उसके सामाजिक सार से ही है। यानि कि उसके अस्तित्व की सारी सक्रियता समाज के साथ अंतर्गुथित है। वह दूसरों के साथ अपनी अंतर्क्रियाओं में अपने को सामाजिकतः उपयोगी साबित करने और इसमें बेहतर सिद्ध करने की कवायदों में रहता है। वह औरों के सामने अपने को व्यक्तिगत तौर पर भी, सौन्दर्य और सामूहिक मूल्यों के मामलों में भी बेहतर साबित करना चाहता है। उसकी महत्त्वांकाक्षाएं, अपने सामाजिक महत्त्व को विस्तार देने में फलीभूत होती हैं। यही दिखाने के पीछे का महत्त्वपूर्ण आयाम है, वह बेहतर बनने, होने की कोशिश करता है। नहीं हो पा रहा है तो बेहतर दिखने की कोशिश करता है, इसके लिए वह आदर्शों को सिर्फ़ ओढ़ता-बिछाता है और उनका प्रदर्शन करने लगता है।मनोविज्ञान में देखने और दिखाने की इस प्रवृति को ‘अहम्’ के बोध से भी जोड़कर देखा जाता है। सामाजिक संबंधों की पद्धति का अंग बनकर और अन्य लोगों से अन्योन्यक्रिया व संप्रेषण करते हुए मनुष्य अपने को परिवेश से अलग करता है, अपनी शारीरिक तथा मानसिक अवस्थाओं, क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं के कर्ता के रूप में अपनी एक छवि बनाता है और दूसरों के अहम् के मुकाबले में खड़े, किंतु साथ ही उनसे अभिन्नतः जुड़े हुए अपने अहम् (‘आत्म’, ‘स्व’) के रूप में सामने आता है।
मनुष्य द्वारा अपने अहम् का बोध या अपने आत्म की चेतना व्यक्तित्व-निर्माण की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है, जो शैशवावस्था में आरंभ होती है। आत्मचेतना के विकास की प्रक्रिया ‘अहम्’ के एक आधारभूत और निश्चित बिंब के निर्माण के साथ पूरी होती है, जिसमें मनुष्य अपने बारे में विचारों और अन्य व्यक्तियों के प्रति अपने रवैयों के बारे में एक अपेक्षाकृत स्थिर और सचेतन मानसिक निर्मिति बना लेता है। इसके संज्ञानमूलक घटकों में मनुष्य का अपने प्रति, यानि अपनी योग्यताओं, शक्ल-सूरत, सामाजिक महत्त्व, आदि से संबंधित मूल्यांकन शामिल होते हैं। जैसे कि यदि किसी मनुष्य का लालन-पालन जीवन के भौतिक पक्ष को ही सब-कुछ माननेवाले परिवार में हो रहा है तो यह बहुत संभव है कि वह अपने छैल-छबीले रूप को ही जो उसके अनुसार उसके महंगे, फ़ेशनेबुल कपड़ो का परिणाम है, को ही अपनी आत्म-धारणा में सर्वोच्च महत्त्व देगा। ‘अहम्’ के व्यवहारमूलक घटक में अपने को समझने, अन्य व्यक्तियों से सहानुभूति तथा आदर पाने, अपना दर्जा बढ़ाने की इच्छा अथवा, इसके विपरीत, आड में रहने, मूल्यांकन तथा आलोचना से बचने, अपनी कमियां छिपाने, आदि की इच्छा शामिल रहती हैं।
अहम् के बिंब के दो पक्ष हुआ करते हैं, एक ‘वास्तविक अहम्’ जिसमें मनुष्य अपनी आत्मधारणा को यथार्थ वस्तुगत आलोचना के साथ परिपक्व करता है और अपने बारे में एक वास्तविक छवि बनाता है और उसकी बेहतरी के प्रयास रचता है। दूसरा ‘कल्पित अहम्’ भी होता है, यानि वह अपने को किस रूप में देखना चाहता है, उसके आधार पर वह अपनी सक्रियता को क्रियाबद्ध करना चाहता है। यदि यह नहीं हो पाता है, जो कि अक्सर ही हुआ करता है, तो फिर वह इस ‘कल्पित अहम्’ की धारणा के अनुसार अपनी दिखावटी छवि रचने और प्रस्तुत करने को प्रवृत्त रहता है।
बाद में ब्लॉग पर व्यक्तित्व के ऊपर विस्तार से एक श्रृंखला शुरू करने का भी विचार है, तब इस पर विस्तार से और भी सामग्री प्रस्तुत करने की संभावना बनेगी। बातें कई और भी हैं. अभी इस पर इतना ही, इनसे काफ़ी इशारे मिल सकते हैं।
अब कुछ बातें अन्य कला माध्यमों में नायक/नायिका के चरित्रों को आदर्श रचने की प्रवृत्ति पर। इन्हें वही मनुष्य रच रहा है जिसकी कुछ प्रवृत्तियों की बात हम ऊपर कर चुके हैं। उसी को आगे बढ़ाते हैं। सिने, साहित्य या कला माध्यम अंततोगत्वा अपने आपको अभिव्यक्त करने के, अपने आपको दूसरों में विस्तार देने के, अपनी सामाजिक उपयोगिता साबित करने और इसी ज़रिए एक सामाजिक मूल्य पैदा करने की प्रक्रियाएं मात्र हैं जिससे कि अंततः एक व्यक्तिगत संतुष्टि, एक सामाजिक संतुष्टि, या अभी के दौर में जो अधिक देखा जा रहा है, श्रेष्ठता बोध की तुष्टि और भौतिक पूंजी प्राप्त की जा सकती है।
आगे बढ़ते हैं, अब प्रश्न यह उठता है कि व्यक्ति ऐसा करना ही क्यों चाहता है, यानि कि अपने आपको अभिव्यक्त ही क्यूं करना चाहता है?
मनुष्य जब भी अपने परिवेश के साथ अंतर्क्रियाओं में कुछ नया (यह हो सकता है कि व्यक्तिगत तौर पर उसके लिए नया हो) अनुभव करता है (आत्मपरक सामान्य था विशिष्ट अनुभव), यह नया पन इसमें भी हो सकता है कि इन्हीं अंतर्क्रियाओं में वह यह महसूस करता है कि वर्तमान में कुछ ठीक नहीं है, इसे और बेहतर तरीक़े से किया जा सकता है (यथार्थ का चित्रण तथा बेहतरी के विकल्पों की तलाश कीआवश्यकता और इस हेतु सुझाव), या जब वह तय कर लेता है कि वर्तमान में कुछ निश्चित खराबियां हैं और उन्हें कुछ निश्चित तरीक़ो से ही ठीक किया जा सकता है (यथार्थ की विकृतियों का निरूपण एवं विश्लेषण और निश्चित विकल्पों का प्रस्तुतिकरण), तो मनुष्य के लिए यह आवश्यकता पैदा होती है कि वह इसे, अपने द्वारा अनुभूत किए हुए को औरों के साथ बांटे, दूसरों को बताए, यानि इसे अभिव्यक्तकरे।
यथार्थ से असंतुष्टि, नवीन रचने को प्रेरित करती है। नवीन रचने के लिए मनुष्य एक महत्त्वपूर्ण मानसिक उपागम ‘कल्पना’ का सहारा लेता है, जिसके ज़रिए वह यथार्थ के उपलब्ध संज्ञान की सीमाओं में ही, कुछ निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लिए यथार्थ में विभिन्नबदलावों की कल्पना करता है, योजना बनाता है। यदि इस प्रक्रिया का विषय मानसिक सामग्री है, तो जाहिरा तौर पर इसके परिणाम मानसिक यानि वैचारिक ही होते हैं, जिन्हें वह भाषा के जरिए, बोल कर या लिखकर या अन्य कला माध्यमों के ज़रिए अभिव्यक्त करता है।
यानि कि कला माध्यमों में व्याक्ति यथार्थ की विकृतियों का निरूपण करता है, उन्हें सही किए जाने की आवश्यकता महसूस करता, करवाता है और फिर वैकल्पिक कल्पनाएं प्रस्तुत करता है। ग़लत को सही करवाने के लिए, कमियों को दूर करवाने के लिए, चरित्रों कोबुनता है और उनकी अंतर्क्रियाओं के ज़रिए एक कथा का वितान रचता है जिनमें वह उसकी कल्पना के आदर्श चरित्रों के ज़रिए यथार्थ मेंकुछ आदर्श बदलावों का आख्यान प्रस्तुत करता है।
यहां आदर्शों का चुनाव किए जाने की बात परिदृश्य पर उभरती है। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति अपने अनुभव, अपने ज्ञान और समझ, अपने दृष्टिकोणों, अपनी मान्यताओं और आस्थाओं के दायरे में ही, उनके हिसाब से ही अपनी कल्पना में आदर्श के चुनाव और उसकी प्रस्तुति की प्रक्रिया को संपन्न कर सकता है।
यथास्थिति में बड़े परिवर्तनों की आकांक्षाओं से विरत व्यक्ति, यथास्थिति में ही उपलब्ध और उसके दृष्टिकोणों से मेल खाते आदर्श चरित्र के मानदंड़ों को ही, अपनी रचना में प्रस्तुत किए जाने वाले आदर्श चरित्रों पर आरोपित करता है। उसके सही लगने के, सौन्दर्यबोधके, आदर्शों के मानंदड़, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसके परिवेश पर ही, यानि कि उसके सामाजिक यथार्थ पर ही निर्भर हुआ करते हैं।
मनुष्य का सौन्दर्य बोध (सौन्दर्य को इस तरह से भी देखा जा सकता है, कि यह चीज़ों का सही तरीक़े से, सलीके से, व्यवस्थित होना ही है, जो उसे प्रिय लगते हैं, किसी तरह की अप्रिय प्रतिक्रिया नहीं जगाते) सब कुछ सही देखना चाहता है, सही करना चाहता है, सही के साथ होना चाहता है। यह इसलिए कि अपने विकास क्रम में इसकी चेतना और इसे श्रम-प्रक्रियाओं के ज़रिए भौतिक रूप से किए जाने की संभावनाएं और क्षमताएं मनुष्य में ही विकसित हुई हैं। वह कर सकता है, इसीलिए चीज़ों को अपने उपयोग की बनाना, सही करना चाहता है और करता है।
एक और बात, मनुष्य अक्सर अपने अभावों, अप्राप्यों, असुरक्षाओं, आदि कमियों के बीच (जिनके कि विकल्प भी यथार्थ में मौजूद होते हैं, जो किसी और के पास हैं, पर वह जिनसे वंचित है) उनकी पूर्ति की आकांक्षाओं में कल्पनाओं में रहता है। (इसे इस तरह भी देखा जासकता है कि किसी अन्य के पास उपस्थिति ही किसी में उसकी वंचना, अभाव पैदा करती है) वह इन्हें पाने के स्वप्नों में रहता है। अब यह भी होता है कि ये सभी जहां है, वे व्यक्ति, उनका चरित्र अवचेतन-चेतन रूप से उसके मस्तिष्क में आदर्शों के मानदंड़ के रूप में स्थापित होता रहता है (इसी से यह भी समझा जा सकता है कि क्यों प्रभुत्वशाली शासक, साधनसंपन्न वर्गों के दृष्टिकोण और मानदंड आम चेतना का हिस्साबनते जाते हैं)।
तो इसलिए जब व्यक्ति रचता है, तो वह इन्हीं मानदंड़ो से निदेशित हो रहा होता है। कथा या सिनेमा की उसकी नायिका सुंदर देहयष्टि की मालिक होने के साथ-साथ उन चारित्रिक गुणों से भी संपन्न होती है जिन्हें वह उचित और बेहतर समझता है। सुंदर देहयष्टि के मानक भी समय के साथ इसीलिए बदलते रहते हैं, क्योंकि परिवेश में उपलब्ध मानक भी बदलते रहते हैं। कभी का मांसलता प्रधान स्वाभाविक देहसौंदर्य अभी छरहरी सुगठित काया के अंदर ढूंढा जाता है। पहले की नायिकाओं के स्वभावों तथा चरित्रों का मूल स्वभाव भी अब वैसा नहीं रह गया है। इसी तरह नायक के आदर्श चरित्र का गठन भी किया जाता है और इसके मानदंड़ भी परिवर्तित होते रहे हैं। वह सर्वगुणसंपन्नता और उत्तम चरित्र से लैस होकर, यथार्थ की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष करता है, विजयी होता है। कुलमिलाकर वह अपने रचे में आदर्श और सौंदर्य का एक काल्पनिक संसार रचना चाहता है जो उसे वास्तविकता में उपलब्ध नहीं है और जिसे पाना उसकी मुक्तिकामी आकांक्षाओं और स्वप्नों से नाभिनालबद्ध है।
श्रेष्ठ आदर्शों का, श्रेष्ठ मूल्यों का, श्रेष्ठ चरित्रों का चित्रण हर सृजनधर्मा व्यक्ति की अभिव्यक्तियों के मूल में होता है और जाहिरा-तौर पर इनके मानदंड उसके दृष्टिकोणों, उसकी मान्यताओं, उसकी आकांक्षाओं तथा स्वप्नों पर निर्भर किया करते हैं।
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काफ़ी हुआ। अभी इतना ही। पता नहीं आपके यथेष्ट दायरे में यह है या नहीं, अथवा इसका अतिक्रमण कर गया है।
बाकी यदि आप आगे संवाद बढ़ाए तो।
आप स्वस्थ और सानंद होंगे,
सस्नेह
समय
बाकी यदि आप आगे संवाद बढ़ाए तो।
आप स्वस्थ और सानंद होंगे,
सस्नेह
समय