शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

तीसरा भाग ,उत्तरार्द्ध: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से भी..(लंठ महाचर्चा)

... लेंठड़े की बातों में एक अजीब सी लय थी। उसकी आवाज भी ऐसी थी जैसे तबले को साधते साधते बजवइया मुग्ध होकर धीमी धीमी लय में बजाने लगा हो। उसके स्वर के उतार और चढ़ाव में एक सम्मोहन था। पुस्तकालय में उपस्थित जन धीरे धीरे सम्मोहित से बाहर आने लगे। कुछ ही देर में सभी गुनगुनी धूप में उसे चारो तरफ से घेर कर बैठ गए - बेंच पर, लॉन में, सीढ़ियों पर, जमीन पर ... । लेंठड़ा अपनी ओर लोगों के इस आकर्षण से मुग्ध हो गया था। स्पष्टत: वह भी इस दुनिया के इतने विभिन्न तत्त्वों की उपस्थिति से सम्मोहित था।
 इतना ज्ञान ! वह भूल गया कि क्या करने आया था और अभी कुछ देर पहले शब्दों और साहित्य की बातें करने की कोशिश सी कर रहा था।
 गणितज्ञ उसे हैरानी से देख रहा था लेकिन लेंठड़े की दृष्टि एक वैज्ञानिक पर जमी थी जो साहित्य में भी रुचि रखता था। लेंठड़े को यह बड़ी अजीब बात लगी कि शब्द और साहित्य पर वैज्ञानिक से बात की जाय। उसे लगा कि इस अद्भुत सभ्यता की जड़ों और उसके सनातन प्रश्नों के बारे में वैज्ञानिक से बात की जाय। आखिर शब्द, साहित्य वगैरह के प्रश्न तो इस सभ्यता के अस्तित्त्व से ही जुड़े थे। क्या था निचोड़ इस सभ्यता के सनातन प्रश्नों का ?
 एक क्षण को उसने अपने पंजे कड़कड़ाए और फिर उस वैज्ञानिक की ओर दृष्टि कर शुरू हो गया...

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पहला भाग - पूर्वार्द्ध


.....और अब उत्तरार्द्ध.......

  मानव के सांस्कृतिक विकास के साथ हमारे आदि चिन्तकों, ऋषि-मुनियों ने अनेक ``सुनहले नियम´´ बनाये थे... .... `` समस्त प्राणियों के साथ समान व्यवहार करो´´ (आत्मवत सर्वभूतेष समाचरेत), ``धन/सम्पदा संग्रह कदापि न करो´´, ``मा गृध: कस्य स्वदधनम्´´ किन्तु आदमी ने इन  सभी सीखों को आज ताख  पर रख दिया है। वह निरन्तर आत्मकेिन्द्रत, स्वार्थी बनता जा रहा है, वह तेजी से भाव प्रवणता, चेतना, और संवेदना को तिलांजलि दे रहा है। वह फिर से अपनी उसी ``जैवीय´´ अस्मिता  के वशीभूत होता जा रहा है। या फिर ``बुद्धिजीविता´´ का ही यह सम्भवत: उभय उत्पाद है कि उसका संवेदना स्रोत सूख रहा है। जबकि पशु पक्षियों में बुद्धि रहित नैसर्गिक  संवेदना के उदाहरण आज भी हैं। पशु पक्षी आज भी अपने कई व्यवहार प्रतिरूपों में `` स्वजॉति रक्षा´´,  ''वात्सल्य ´´ का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस तरह क्या ``बुद्धि´´ और ``संवेदना´´ परस्पर विरोधी भाव तो नहीं हैं? आज का बुद्धिमान मानव कितना संवेदनाहीन हो गया है।
    आज यह आम (समूह) अनुभूति है कि मानव का सुख चैन उससे छिन गया है। उसे शान्ति नहीं है। जापान में ``हाराकिरी´´ (आत्मघात) की घटनायें विश्व में सबसे उपर हैं। संस्कृति  और सभ्यता के स्तर पर आज के जापान की पूरी दुनिया में कोई सानी  नहीं है। पश्चिम के सांस्कृतिक रंग, ढंग में डूबे अनेक जन ``शान्ति´´ की तलाश में भारत की कितनी गहवर गुफा-कन्दराओं, प्राचीन शहरों जैसे बनारस की धूल फांकते नजर आते हैं। `बुद्धिमान´ मानव की यह दशा आखिर क्यों है। अन्य पशु सहचरों से अलग-थलग होने पर अब उसे क्या चाहिए-कैसी मरीचिका में भटक रहा है वह। कभी कभी तो लगता है, प्रकृति उसे सजा दे रही है, प्रकृति देवी का बदला (नेमेसिस) है यह। मानव द्वारा प्रकृति के निरन्तर प्रतिरोध/प्रतिकार का प्रतिशोध है यह। प्रकृति के आगे आज भी कितना बौना है मानव और उसकी तथाकथित संस्कृति या सभ्यता। एक प्रतिप्रश्न यहाँ फिर उभरता है कि अगर मानव का सांस्कृतिक विकास प्रकृति की ही कोई गुप्त योजना है तो फिर वह बदले पर क्यों उतर आयी हैं।
    आज यह स्पष्ट हो चला है कि मानव मात्र के लिए स्वयं मानव के सांस्कृतिक विकास ने कई नये संकटों को जन्म दे दिया है। पशुओं की दुनिया में ``जनसंख्या विस्फोट´´ का महासंकट नहीं है। क्योंकि उनकी संख्या कुदरती तौर पर नियमित नियंत्रित होती रहती है- वहाँ कमजोर का गुजारा नहीं है। सन्तति प्रवाह के लिए वहाँ बला की शक्ति-स्फूर्ति चाहिए। पर हमारी सांस्कृतिक दुनिया में, कमजोर भी बादशाह बने बैठे हैं- कमजोरों की संख्या बढ़ाते जा रहे हैं- यहाँ सबका गुजर बसर है- जीवनदायिनी औषधियों ने उन सभी को जीवन दान दे दिया है जो अन्यथा काल कवलित होते। किन्तु क्या अकेले मानव के मामले में प्रकृति शारीरिक शक्तियों के बजाय केवल ``बुद्धि´´ का वरण कर रही है। यानि केवल बुद्धिमान जियें शेष काल कवलित हो जायें। केवल बुद्धिमान जीवित रहें भले ही जीवन भर दवायें खाते रहें।
    इन दृष्टान्तों से तो ऐसा ही लगता है कि मानव भले ही आज सर्वजेता होने का दम्भ पाल बैठा है, वह आज भी प्रकृति के हाथों की कठपुतली भर ही है... ... वह निमित्त मात्र ही है। निमित्त मात्रम भव सव्यसाची। प्रकृति जो चाहेंगी वहीं होगा (प्रकृतिस्त्वाम नियोक्ष्यति) ....... शायद इन्हीं ``सच्चाईयों´´ के आभास से हमारे ऋषि मुनियों ने मानव को कई सीखें दी ... ... उनके अनुसार सब कुछ नियोजित है, सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसाकि होना नियत था/है, अत: मानव को अपने सुख शान्ति के लिए 'नियतिवादी´´ होना होगा ... ... जो कुछ जैसा है, वैसा ही स्वीकारना होगा ... ...``सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेऊ मुनि नाथ, हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश सब विधि हाथ (सुख दुखे समाकृत्वा लाभा लाभौ जया जय: ... ...)
   दरअसल विज्ञान हमें सत्य का दर्शन तो कराता है पर कोई ``आदर्श जीवन दर्शन´´ प्रस्तावित नहीं करता। मानव का आध्यात्मिक विकास, विज्ञान के इस एकांगी पहलू की ही भरपायी करता है। आज का विज्ञान जितना समृद्ध है और निरन्तर समृद्ध हो रहा है, उससे कुछ कम  समृद्ध हमारा आध्यात्म चिन्तन नहीं है। मानव के अन्तिम अभीष्ट के महाप्रश्न को तय करने में विज्ञान और आध्यात्म दोनों के शरण में जाना होगा। मानव के जैवीय-सांस्कृतिक विकास में ऐसे अनेक क्षण आये हैं जब हमारे महामनीषियों ने ऐसे ही महाप्रश्नों का जवाब खोजा है- ``युधिष्ठिर - यक्ष संवाद´´, ``नचिकेता-यम´ संवाद´´ आदि अनेक कथा-दृष्टान्त इसके साक्ष्य हैं।
 मानव के अन्तिम अभीष्ट की यह खोजपूर्ण यात्रा अभी थमी नहीं है... ...।

15 टिप्‍पणियां:

  1. दरअसल विज्ञान हमें सत्य का दर्शन तो कराता है पर कोई ``आदर्श जीवन दर्शन´´ प्रस्तावित नहीं करता। मानव का आध्याित्मक विकास, विज्ञान के इस एकांगी पहलू की ही भरपायी करता है....................................सही कहा आपनें.

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  2. स्वयम कि खोज को इंगित करता सुन्दर आलेख |

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  3. धर्म(आगे मैं संप्रदाय शब्द उपयोग करुँगी )और दर्शन आरम्भ से ही अंतःसंबद्ध रहे हैं. हर संप्रदाय के गठन के पीछे उसके प्रतिपादक का अपना दर्शन होता ही है. जनसामान्य के लिए दर्शन के उन शाखाओं का अध्ययन और उसे व्यवहार में उतारना कठिन होता है जो भावरहित और सापेक्ष हो ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि हमारी कंडिशनिंग ऐसे की गई है की हमे सीधे आदर्शवाद की तरफ मोड़ा गया है, और किसी अन्य विचारधारा का अध्ययन निंदा योग्य समझा गया है. दर्शन की एक परिभाषा है कि "दर्शनशास्त्र, विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों का तार्किक अध्ययन है"...वैसे इसे और विस्तार आगे दिया जा सकता है, परन्तु हम इतना ही लेकर चले तब ...आस्था हमें बने बनाए नियमो में बांधती है जिसमे परिवर्तन की इजाजत हमें उन नियमों के नियंताओं से नही मिलती...इसलिए, कहा जा सकता है की जीवन यापन के लिए अपने जीवन की सार्थकता और अपनी सामाजिक सापेक्षता के सही ज्ञान के लिए दर्शन का अध्ययन और ज्ञान की विभिन्न प्रविधियों और उनकी प्रामाणिकता का तार्किक विश्लेषण करना जरुरी होता है..इसे धर्म से जोड़ के देखा जाना सामान्य लोगों के लिए सही हो सकता है पर एक स्तर के बाद इसकी आवश्यकता नही रह जाती.

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  4. मानव के जैवीय-सांस्कृतिक विकास में ऐसे अनेक क्षण आये हैं जब हमारे महामनीषियों ने ऐसे ही महाप्रश्नों का जवाब खोजा है- ``युधिष्ठिर - यक्ष संवाद´´, ``नचिकेता-यम´ संवाद´´ आदि अनेक कथा-दृष्टान्त इसके साक्ष्य हैं..........सौ प्रतिशत सहमत.

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  5. अच्छी जुगलबंदी चल रही है अरविंद मिश्र जी की गिरिजेश जी की :)

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  6. दरअसल विज्ञान हमें सत्य का दर्शन तो कराता है पर कोई ``आदर्श जीवन दर्शन´´ प्रस्तावित नहीं करता।
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    सुकरात के सिलॉजिज्म का प्रयोग करें - समाधान भी मिलेंगे और आदर्श भी बुने जा सकेंगे वैज्ञानिक तरीके से!

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  7. @ हमे सीधे आदर्शवाद की तरफ मोड़ा गया है, और किसी अन्य विचारधारा का अध्ययन निंदा योग्य समझा गया है.

    मुझे नहीं पता 'हमें' कौन हैं लेकिन आधुनिक युग में ऐसा घोर साम्प्रदायिक कठमुल्लों के साथ हो सकता है। सोचने समझने वाला आदमी तो अध्ययन से नहीं भागता।

    धर्म और सम्प्रदाय का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। धर्म तो यही कहता है - आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:।
    हाँ, सामान्य जन की सोच को परिष्कृत करने का दायित्त्व भी 'विशिष्ट' जन पर है।

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  8. इस पोस्ट को मार्क करके रखा था ताकि फुरसत से संडे के दिन पढूंगा।
    आज इसका रस लिया। बढिया।

    बाउ पढने का मन है। अब इंतजार लंबा हो रहा है।

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  9. मिश्रा जी ने बखूबी तरीके से अपनी वैचारिक हलचल सामने रख दी है। उनकी समझ की कई चीज़ें साफ़ हुईं।

    उनकी दार्शनिक भूख़ जोरों पर नज़र आती है।

    @गिरिजेश राव
    आपने आलसी के चिट्ठे को यह बेहतरीन तेवर प्रदान किए हैं। अच्छा लगा।

    आपकी टिप्पणी पर:
    इस ‘हमें’ में शायद हम सभी शामिल हैं। खासकर सोचने-समझने वाले अध्ययन कर सकने वाले लोग। बाकियों को यह अवसर कहां उपलब्ध।

    यह हमारी ही कमजोरी हो सकती है कि हम अपने-अपने अनुकूलन के साथ हर चीज़ से बावस्ता होते हैं। कई भ्रमों के साथ हो सकते हैं।

    दूसरी बात, कहा क्या गया है या कहा क्या जाता है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह होता है कि किया क्या जाता है। आखिर व्यवहार ही हर विचार की अंतिम कसौटी होता है। यही धर्म के मामले में है।

    आपकी यह बात बड़ी सटीक लगी। ‘हाँ, सामान्य जन की सोच को परिष्कृत करने का दायित्त्व भी 'विशिष्ट' जन पर है।’

    इसीलिए बजाए आधुनिक युग के घोर सांप्रदायिक कठमुल्लों के, इन विशिष्ट जनों का बहकना ज़्यादा खतरनाक होता है। समाज के सापेक्ष, हमेशा से रहा है।

    शुक्रिया।

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  11. पर क्या जब ये सुनहले नियम बने थे तब इनका पालन भी होता था? क्या तब का मानव संवेदनहीन नहीं होता था? ये डाउट बहुत दिनों से है... हर सीनियर बैच कहता है कि जूनियर बैच बेकार है !
    विज्ञान और आध्यात्म या फिर कुछ भी क्षेत्र क्यों ना हो उनमें जो सत्य है वो तो सबमें समान ही होगा ! दोनों (सभी) कनवर्ज तो उसी सत्य पर होंगे !

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  12. फिर वही तेरह टिप्पणियाँ -अशुभ !
    अभिषेक जी ,
    yahaan सुनहले नियमों का पालन नहीं उनके बनाये जाने की आवश्यकता इंगित हुयी है
    और हाँ नियम रहेगें तो कुछ तो पालन करने का आग्रह होगा !

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  13. है क्या यार
    तेरे पास ?
    ब्रह्मराक्षस के कब्जे वाली
    एक बावड़ी ?

    एक घूँट वायदे में
    सम्मोहित
    युद्धग्रस्त हुए जाते हो ...

    मेरे पास तो
    सचमुच की नदियाँ हैं
    नहरें हैं..बाग़ हैं... जन्नत है
    और स्वयं ईश्वर भी

    जो कहता है
    सुहृदं सर्वभूतानाम्
    (सबका समानरूप से
    हितचिन्तक हूँ)

    जो कहता है
    आत्मवत् सर्वभूतेषू
    (सबको अपने जैसा जान)
    ***

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