उत्तर वैदिक काल में एक
आख्यान मिलता है जिसमें शिष्यों के साथ अध्ययनलीन ऋषि के आश्रम में उन के सामने ही
उनकी स्त्री के साथ यौन अपराध घटित होता है। सबसे आदरणीय स्थान पर सबसे आदरणीय जन
के संरक्षण में रह रही स्त्री वह आधार है जिसके साथ की गयी हिंसा सबसे अधिक कष्ट
देगी – यह है मानसिकता! स्त्री के स्वयं के कष्ट का आततायी के लिये कोई मायने
नहीं। आश्रम की सबसे प्रतिष्ठित स्त्री या तो पाल्य पशुओं की तरह है या भोग्या। ऐसी
घटनाओं के पश्चात पुरुष के द्वारा भयभीत पुरुष ने ‘स्त्री हित’ विवाह संस्था को नियमबद्ध
किया। जिस तरह से कृषि भूमि किसान के लिये वैसे ही गृहस्थ के लिये उसकी पत्नी –
एकाधिकार, सम्पत्ति।
........
सुदूर दक्षिण की लंका
में एक अन्य काल में संसार में सबसे मूर्धन्य माने जाने वाले महातापस, महाज्ञानी, महापराक्रमी
और महावैदिक राक्षस रावण की राजसभा है। रावण सीता के अंगों का कामलोलुप वर्णन करता
है और कहता है – सा मे न शय्यामारोढुमिच्छ्त्यलसमागिनी, वह अलसगामिनी मेरी सेज पर
सवार नहीं होना चाहती। आगे कहता है कि भामिनी ने एक संवत्सर का समय माँगा है लेकिन
मैं तो कामपीड़ा से थक गया हूँ और इधर राम सेना ले आ धमका है। रावण अपनी सुरक्षा को
लेकर दुविधा में है – कपिनैकेन कृतं न: कदनं महत्। एक ही कपि ने इतना विनाश कर
डाला, सभी आयेंगे तो क्या होगा?
आततायी इतना भयभीत है कि राजसभा की बैठक बुलाई गई है, कुम्भकर्ण को जगा दिया गया है। कुम्भकर्ण पहले खरी खोटी सुनाता है लेकिन अंत में आश्वासन देता है – रमस्व कामं पिव चाग्र्यवारुणीं ...रामे गमिते यमक्षयं...सीता वशगा भविष्यति- मौज करो, दारू पियो, राम को मैं मार दूँगा तब सीता तुम्हारे अधीन हो ही जायेगी। ‘धर्मी’ कुम्भकर्ण के लिये भी सीता की अपनी इच्छा का कोई मोल नहीं, वह भोग्या भर है।
आततायी इतना भयभीत है कि राजसभा की बैठक बुलाई गई है, कुम्भकर्ण को जगा दिया गया है। कुम्भकर्ण पहले खरी खोटी सुनाता है लेकिन अंत में आश्वासन देता है – रमस्व कामं पिव चाग्र्यवारुणीं ...रामे गमिते यमक्षयं...सीता वशगा भविष्यति- मौज करो, दारू पियो, राम को मैं मार दूँगा तब सीता तुम्हारे अधीन हो ही जायेगी। ‘धर्मी’ कुम्भकर्ण के लिये भी सीता की अपनी इच्छा का कोई मोल नहीं, वह भोग्या भर है।
महापार्श्व
सलाह देता है:
बलात्कुक्कुटवृत्तेन वर्तस्व सुमहाबल
आक्रम्य सीतां वैदेहीं तथा भुंक्ष्व रमस्व च।
आक्रम्य सीतां वैदेहीं तथा भुंक्ष्व रमस्व च।
हे ‘सु’महाबल! सीता के साथ वैसे ही बलात्कार करो जैसे
मुर्गा [मुर्गी के साथ] करता है। ‘विदेह’ सुता सीता के साथ आक्रामक हो उसका भोग करो, उससे रमण करो।
महापार्श्व वह पुरुष है
जिसके लिये महाबल की सार्थकता बलात्कार द्वारा अपनी भोगेच्छा पूरी करने में है।
बर्बर बल की जो मानसिकता पुरुष को आक्रांता बनाती है, उसका यहाँ नग्न चित्रण है। विदेहसुता
सीता जो कि दैहिकता से परे है, उसका भी कोई सम्मान नहीं! देवी और भोग्या की दो चरम
सीमाओं पर चित्रित स्त्री को अन्तत: भोग्या ही होना है।
बलात उठा ले आने के
पश्चात भी रावण बलात्कार करने से घबरा रहा है। क्यों?
वह स्वयं बताता है कि पुंजिकस्थला नामक अप्सरा को नग्न कर बलात्कार (मया भुक्ता कृता विवसना तत:) करने पर ब्रह्मा ने मुझे शाप दिया था – अद्यप्रभृति यामन्यां बलान्नारीं गमिष्यसि, तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशय:।
वह स्वयं बताता है कि पुंजिकस्थला नामक अप्सरा को नग्न कर बलात्कार (मया भुक्ता कृता विवसना तत:) करने पर ब्रह्मा ने मुझे शाप दिया था – अद्यप्रभृति यामन्यां बलान्नारीं गमिष्यसि, तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशय:।
यदि आज के पश्चात तुमने
किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया तो इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े
हो जायेंगे। रावण बलात्कार की उस परिणति से डरा हुआ है जिसमें उसके जीवन का ही नाश
हो जायेगा। अपनी जान तो बहुत प्यारी है और जीवन नहीं रहेगा तो भोग कैसे हो पायेगा?
इसलिये एक वर्ष रुकने को तैयार है। सीता तो भोग्या भर है, पा लेगा उसके बाद!
सदा बलात्कारी रावण को
धर्म या शुभेच्छा ने नहीं रोका, निज जीवन के भय ने बलात्कार करने से रोका।
........
एक और काल में स्थान है
सबसे गौरवमय भीष्म, द्रोण, विदुर, कृप और द्वैपायन जैसे महात्माओं द्वारा संरक्षित
सबसे प्रतिष्ठित कुरुवंश की राजसभा। यहाँ भी स्त्री को दाँव पर लगाते हुये धर्मराज युधिष्ठिर
उसके सौन्दर्य का जो वर्णन करते हैं, वह अद्भुत है। लगता है जैसे पेटी खोल द्यूतक्रीड़ा
में कोई रत्न दिखाया जा रहा हो! वह
द्रौपदी जो शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया और रूपेण श्रीसमानया है,
जो सभी चरों और अनुचरों की सुविधाओं का ध्यान रखती है, सबसे बाद में सोती है और
सबसे पहले उठ जाती है, रानी होने पर भी श्रमी है, जिसके ललाट पर स्वेदबिन्दु वैसे
ही शोभा पाते हैं जैसे मल्लिका पुष्प की पंखुड़ियों पर जलबिन्दु आभाति पद्मवद्वक्त्रं
सस्वेदं मल्लिकेव च; ऐसी सर्वगुणी द्रौपदी को दाँव पर लगाता हुआ पुरुष धर्म
एक बार भी नहीं सोचता और न उसे सभा में बैठे धुरन्धर रोकते हैं!
धर्म ने भाइयों और
स्वयं को हारने के बाद पत्नी द्रौपदी को भी जुये में हार दिया है और सभा में उस
दासी को लाने को दुर्योधन कहता है। विदुर की रोक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह एक
पुरुष द्वारा दूसरे पुरुष को चरम कष्ट देने का उद्योग है, स्त्री तो बस स्त्री है!
क्या हुआ जो वह एकवस्त्रा अधोनीवी रोदमाना रजस्वला है, घसीट ले आओ! हिंसा में
स्त्री का जो मातृ रूप है न, वह भी आदर नहीं जगाता। माँ बनने की प्राकृतिक व्यवस्था
में वह ऋतुमती है, ऐसी स्थिति में है जो सबसे आदरणीय है लेकिन ...
उसे घसीट कर लाने को घर
में घुसा दु:शासन भी धर्म की बात करता है – धर्मेण लब्धासि सभां परैहि!
वह कुरु रनिवास की ओर भागती है तो उसके उन्हीं नीलाभा लिये दीर्घ केशों को पकड़ कर
घसीट लेता है जिन्हें एक रत्न की विशेषता के तौर पर धर्मराज ने दाँव लगाते गिनाया
था। सभा में द्रौपदी प्रश्न करती है –
राजा ने पहले स्वयं को हारा या मुझे? स्वयं को हारे हुये का मुझ पर क्या अधिकार?
वह भी धर्म की मर्यादा की दुहाई देती है और सब चुप रहते हैं, भीष्म सूक्ष्म गति कह
कर बला टाल देते हैं।
धर्म के तमाम तर्कों को
किनारे करते हुये कर्ण कहता है:
एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहित: कुरुनन्दन, इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति
विनिश्चिता।
अस्या: सभामानयनं न चित्रमिति मे मति: एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता॥
देवों ने स्त्री के लिये केवल एक पति का विधान किया है लेकिन यह द्रौपदी तो ‘अनेकवशगा’ है इसलिये यह निश्चित ही कुलटा है। इसे इस सभा में पूर्ण वस्त्र पहने या एक वस्त्र में लाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यदि इसे यहाँ ‘विवस्त्र’ नंगी कर दिया जाय तो भी मेरे मत में अन्यथा नहीं।
अस्या: सभामानयनं न चित्रमिति मे मति: एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता॥
देवों ने स्त्री के लिये केवल एक पति का विधान किया है लेकिन यह द्रौपदी तो ‘अनेकवशगा’ है इसलिये यह निश्चित ही कुलटा है। इसे इस सभा में पूर्ण वस्त्र पहने या एक वस्त्र में लाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यदि इसे यहाँ ‘विवस्त्र’ नंगी कर दिया जाय तो भी मेरे मत में अन्यथा नहीं।
यह है कुरुवंश की सभा! आज
की खाप पंचायतों के तर्क और कर्म याद आये कि नहीं? जो विवाह संस्था स्त्री से अधिक
पुरुष के हित के लिये बनाई गई, वह विवाह जिसे उस युग के धर्ममूर्ति वेदव्यास ने
स्वयं मान्यता दी कि द्रौपदी पाँच पांडवों की पत्नी है; उसे अपनी लिप्सा की पूर्ति
के लिये देवसम्मत न बता और उसी तर्क के आधार पर पुन: स्त्री को कुलटा तय कर और
उसके पश्चात उसे नंगी करने का भी औचित्य सिद्ध कर दिया गया और सभी धर्मी चुप रहे!
क्यों कि सभी पुरुष थे
और रनिवास की कुलीन स्त्रियों के लिये सभा में आना निषिद्ध था। द्रौपदी तो दासी हो
गई थी इसलिये उसका क्या मान सम्मान? सभा में नंगी भी लाई जाय तो क्या बुराई?
भीष्म अपनी व्यथा कहते
हैं:
बलवांस्तु यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुष:
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहित: परै:।
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहित: परै:।
बली की बात ही धर्म है।
निर्बल द्वारा कहे गये सर्वोच्च धर्म की भी कोई मान्यता नहीं। कटु सत्य, सँभाला
हुआ गोपन नग्न हो जाता है। पाशव बल की समर्थक है यह उक्ति! नपुंसक समाज इसे
दुहराने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।
तमाम बेहूदगियों के
पश्चात भय के कारण ही अब तक आनन्द मनाता अन्धा धृतराष्ट्र द्रौपदी को वरदान के
प्रलोभन देता है। क्या है वह भय? वह भय है भीम की सर्वनाशी प्रतिज्ञाओं का और:
ततो राज्ञो धृतराष्ट्रस्य गेहे गोमायुरुच्चैव् र्याहरदग्निहोत्रे, तं रासभा:
प्रत्याभाषंत राजंसमंतत: पक्षिणश्चैव रौद्रा:।
अग्निहोत्र धुँआ धुँआ
हो गया है। अचानक गधे चीत्कारने लगे हैं। पक्षी रौद्र शोर मचाने लगे हैं... अन्धे
राष्ट्र की श्रवण शक्ति तेज है। वह आने वाले सर्वनाश की आहट पा रहा है। भयभीत हो
गया है।
धर्म ने नहीं, भय ने
उसे प्रलोभन द्वारा आगत संकट को टालने का मार्ग सुझाया है।
*****
ये तीन दृष्टांत दिल्ली
में हुये बर्बर बलात्कार के सन्दर्भ में सामयिक हैं। हम सब में रावण बैठा हुआ है। आप
में से कितने द्रौपदी को लेकर उसी मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं जिससे कर्ण, कौरव,
पांडव या कुरुवृद्ध थे? कितने जन स्त्री को देवी या भोग्या से परे एक व्यक्ति के
रूप में उसके सारे गुणों और दोषों के साथ सहज मन से स्वीकार पाते हैं?
यह राष्ट्र
अन्धा धृतराष्ट्र है जिसने ‘कलह’ के भय से
महाभारत सी विराट सचाई से भी आँखें मूँदी हुई हैं। हर लड़की, हर स्त्री चीरहरण को
तैयार माल यानि द्रौपदी है। बीसवीं सदी के एक कवि ने कुछ यूँ कहा था:
हर सत्य का युधिष्ठिर बैठा है मौन पहने,
ये पार्थ भीम सारे आये हैं जुल्म सहने
आँसू हैं चीर जैसे, हर स्त्री द्रौपदी है, यह
बीसवीं सदी है।
चाहे ईसा पूर्व की सदी
हो या बाद की, धर्म, भय और दंड की स्थितियाँ यथावत रही हैं, रहेंगी। पशुबल केवल
पाशव दंड के भय से ही नियंत्रण में आता है। जब मैं धर्म की बात कर रहा हूँ तो
हिन्दू, सिख, जैन आदि की नहीं उसकी बात कर रहा हूँ जो सभ्य मानव के लिये धारणीय
है। आज कितने लोग इस धर्म की शिक्षा अपनी संतानों को देते हैं?
इतिहास साक्षी है कि
स्त्री ने अपने लिये कभी संहितायें नहीं गढ़ीं और न धर्म के नियम बनाये। वह माता
पुरुष के बनाये धर्म मार्ग पर चलती हुयी भी लांछित, अपमानित और प्रताड़ित होती रही।
स्थिति शोचनीय है। हो
हल्ला चन्द दिनों में थम जायेगा। दिल्ली की स्पिरिट जवाँ हो पुन: अपने धन्धे में
लग जायेगी लेकिन उस लड़की का क्या होगा?
मैंने पुलिस वालों से
भी बातें की हैं। उनका कहना भी यही है कि यदि ट्रायल तेज हो और अल्पतम समय में अपराधी
दंडित हों तो अपराधी सहमेंगे। ऐसी घटनायें निश्चित ही कम होंगी। होता यह है कि
ढेरों जटिलताओं और लम्बे समय के कारण या तो अपराधी छूट जाते हैं या बिना दंडित
हुये ही परलोक सिधार जाते हैं या दंडित होने की स्थिति में भी उसका भयावह पक्ष
एकदम तनु हो चुका होता है जो कोई मिसाल नहीं बन पाता। विधि में संशोधन कर ऐसे
अपराध के लिये मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये लेकिन तब तक न्याय प्रक्रिया को
त्वरित करने से कौन रोक रहा है?
घटना दिल्ली में हुई
है, संभ्रांत वर्ग के साथ हुई है इसलिये हो हल्ला और दबाव के कारण हो सकता है कि
फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित हो जाय और त्वरित न्याय मिले लेकिन दूर दराज के गाँवों,
जंगलों और कस्बों में ऐसी घटनाओं की पीड़ितायें तो तब भी पिसती रहेंगी!
क्यों नहीं एक नीतिगत
निर्णय ले ऐसे अपराधों के लिये देश भर में स्थायी फास्ट ट्रैक न्यायपीठ नहीं बनाये
जाते? इसके लिये तो संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं!
माननीय सर्वोच्च
न्यायालय का घोष वाक्य है – यतो धर्मस्ततो जय:। यह भी महाभारत से लिया गया है। जय
संहिता यानि महाभारत ही साक्षी है – भय के बिना धर्म में बुद्धि रत नहीं होती और समय
पर नियंत्रण और दंड के अभाव में पूरा समाज महाविनाश की ओर अग्रसर होता है। आज दंड
के भय की आवश्यकता है, कोई सुन रहा है?
http://mohallalive.com/2012/12/19/facebook-status-against-delhi-gang-rape/
जवाब देंहटाएंफेसबुक पर राजेंद्र यादव का स्टैटस
रेप की सज़ा ज्यादा से ज्यादा दस साल की होनी चाहिए। कैपिटल पनिशमेंट या पेनिस रिमूवल-कास्त्रेसन तो कभी नहीं। हमें समझना चाहिए कि रेप ‘स्पर ऑफ द मोमेंट’ में होनेवाला एक व्यभिचार है। इसमें कोई सोची-समझी रणनीति नहीं काम करती है। दस साल के कारावास में दोषी को सुधारने की भरपूर कोशिश की जा सकती है। आप क्या कहेंगे?
राजेंद्र यादव के इस एफबी स्टैटस पर सौ से अधिक लोगों ने प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। दो प्रतिक्रियाएं हम यहां शेयर कर रहे हैं…
♦ खुर्शीद अनवर
एक मानसिक रोगी और जीवन भर की कुंठा का शिकार, जिसको हर औरत में सिर्फ जिस्म दिखता है। जो मानता है है कि बलात्कार एक क्षणिक प्रक्रिया है, उसको नमन भी करने वाले हैं। मेरे दफ्तर में अब हंस पत्रिका कभी नहीं आएगी। ऐसे ज़लील को क्या कहा जाये। सांप्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ बोलने से कोई सेक्युलर नहीं होता। आज भी याद है कि सचिन तेंदुलकर ने कहा था कि हरभजन ने मंकी नहीं मां की कहा था। वह भी माफ किया गया और राजेंद्र तुमको भी लोगों ने माफ किया, मगर तुम्हारा इतिहास काले हर्फों में लिखा जाएगा।
♦ स्वर्णकांता
राजेंद्र यादव जी, रेप ‘स्पर ऑफ द मोमेंट’ में होनेवाला एक व्यभिचार मात्र नहीं है, बल्कि यह सोची-समझी रणनीति ही है। एक स्त्री को मनुष्यता के स्तर पर अपनी आजादी हासिल करने, अपना हक आगे बढ़कर लेने के दुस्साहस के लिए सबक सिखाने की रणनीति। सामंती मानसिकता के पुरुषों की रणनीति। मगर, किसी स्त्री के साथ हुए बलात्कार को उसके इज्जत का या जीने-मरने का प्रश्न नहीं बनाया जा सकता। यहां एक गंभीर अपराध हुआ है, जिसकी गंभीर सजा मिलनी चाहिए। किसी की इज्जत नहीं गयी, क्योंकि मैं नहीं मानती कि एक स्त्री की इज्जत उसके स्तन और जांघों और योनि से ही जुड़ी हुई है।
सिर्फ बड़ी-बड़ी बौद्धिक बातें करने से ही कोई महान नहीं होता है। राजेंद्र यादव भी 'बड़े क्षेपक का एक छोटा प्रकरण' भर हैं। ये वही लोग हैं जो स्त्री को हर हाल में 'भोग्या' के रूप में ही देखते हैं और इस मान्यता को कुटिलता से सत्यापित और स्थापित भी करते हैं।
हटाएंसादर
ललित
राजेन्द्र यादव प्रकरण पर असलियत यहाँ आपको दिख सकती है. जो दरअसल फ्रैंक हुजुर राजेन्द्र यादव के नाम से उनका फेसबुक प्रोफाईल चला रहा हैं - https://www.facebook.com/avinash.das.9404/posts/110313039138388
हटाएंhttps://www.facebook.com/rajendra.yadav.52459
हटाएंRajendra Yadav मेरे वाल पे जो भी लिखा जा रहा है वो मेरी सहमति और स्वीकृति से लिखा या पोस्ट किया जा रहा है। हर एक पोस्ट की जानकारी मुझे है। जिन सज्जन को किसी तरह की शंका है तो सीधे मेरे से बात करे। 09810622144- इस उम्र में मैं अपने दोस्तों सहायकों की मदद से सोशल मीडिया में मौजूदगी दर्ज करने की कोशिश करता हूँ। फ्रैंक की सहायता भी कभी कभी लेता रहा हूँ लेकिन हंस दफ्तर में अपने अकाउंट को मैं अपने दफ्तर सहायक के मदद से मोनिटर करता हूँ और स्टेटस भी लिखता हूँ। जिस स्टेटस को यहाँ फेसबुक दोस्तों के साथ साझा किया गया है वो मेरे ही विचार है। आप लोग सीधे बात कर सकते है।
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मायावी प्रकरण है। खुलासे की प्रतीक्षा करनी होगी। यह मान कर चलें कि यह वो वाले रजिन्नर नहीं हैं?
जी बिलकुल. मायावी प्रकरण ही है.
हटाएंदण्डात् प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा, नोद्विग्नश्चरते धर्मं नोद्विग्नश्चरते क्रियाम्।
जवाब देंहटाएंएक एक बात से सहमत हूँ, भावना से भी! हंस की चाल चलाने वाले कौवों के ज़िक्र के बिना शायद यह आलेख अधूरा ही रहता।
दण्डात् प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा, नोद्विग्नश्चरते धर्मं नोद्विग्नश्चरते क्रियाम्।
जवाब देंहटाएं[पिछली टिप्पणी शायद उड़ गयी]
रामायण हो या महाभारत आततायियोँ के सर्वनाश का कारण नारी का अपमान ही रहा है.वही भोग्या मानने की मानसिकता ने ही नाश को न्योता है.
जवाब देंहटाएंधर्मभीरूता,पापभीरूता सदाचरण का एक प्रमुख घटक तो है ही. निश्चित ही भय के बिना धर्मबुद्धि प्रवृत नही होती.
त्वरित न्यायपूर्ण दंड व्यवस्था और उसका भय ही उचित उपाय है.
भय बिन रोय न प्रीति, सबको भोला मानकर बैठे रहने से अपराध बढ़ेंगे और किस ओर बढ़ेंगे, समझ न आयेगा।
जवाब देंहटाएंलगातार रो रही हूँ आपकी पोस्ट पढ़ कर ।
जवाब देंहटाएंस्त्री हूँ, माँ हूँ । इस भय को ले कर भारत के हर स्त्री जीती है । उम्र बढ़ गयी है - तो "खतरे" की रेंज से बाहर हो गयी हूँ, लेकिन इसी देश में उस उम्र में भी जी हूँ न ?विदेशों का नहीं पता - लेकिन यहाँ - हाँ । यह दर्द हर स्त्री का है, यह भय हर एक का ।
किसी के बच्चे को कोई मेडिकल प्रोब्लम हैं- मुंबई जाना है । पिता के पास छुट्टी न हो - माँ अपने बेटे को लेकर नहीं जा सकती इस देश के महानगरों में - दर्द है, डर है :( :( :( । होटल में अकेली कैसे रहूंगी - बिना पति के संरक्षण के ? किसी ने कुछ कर दिया तो सब क्या कहेंगे - अकेली गयी ही क्यों थी होटल में रहने ? क्या हुआ जो बच्चा इलाज के बिना मर गया, माँ नहीं जा सकती उसे लेकर अकेले बड़े शहर । :( क्या हुआ जो खुद मर मर कर जी रही हो, पति मारता पीटता हो, बाहर निकली तो अनेक भेड़ीये हैं । घर में तो एक ही है न ?
हम सब - हम ब्लोगर भी, सभी - इसी व्यवस्था के भाग हैं । नारीवादी बनने वाले भी, मानव वादी बनने वाले भी और पुरुषवादी बनने वाले भी । इस ही ब्लॉग जगत में - जो हमारे समाज का प्रतिनिधि आइना है - (जो बाकी समाज से कहीं बेहतर होना चाहिए क्योंकि यहाँ कम से कम सब पढ़े लिखे तो हैं न ?) मगर इस प्रबुद्ध ब्लॉग जगत में भी यही एटीट्यूड देखती आई हूँ । अत्यंत गूढ़ ग्यानी माने जाने वाले जन भी स्त्रियों को अलग (नीचे) नज़रिए से देखते दिखे । अपने परिवार की स्त्रियों को मान और प्रेम देते हुए भी (जो अपने आप में बहुत महानता का द्योतक है हमारे देश की मानसिकता को देखते हुए - इस देश में तो वह भी नहीं पाया जाता) दूसरी स्त्रियों को - जो जानी पहचानी नहीं हैं, सिर्फ "स्त्री" हैं - उनके लिए एक हिकारत का भाव जब इस पढ़े लिखे "प्रबुद्ध" वर्ग में है - तो बाकी अनपढ़ लोगों से क्या आशा रखी जाए ।
contd ...
जवाब देंहटाएंअभी आपने जो टिप उद्धृत की - वह चकित नहीं करती । इसी "महान" बनने की इच्छा में ये "मानवाधिकार" के रक्षक यह सब कहते करते ही रहे हैं । उन पर तो नहीं गुजरी न ? तो उनके लिए बड़ा आसान है न क्षमा करना ? जिस पर गुजरी है उससे पूछो न कि सजा क्या होनी चाहिए ? दुखद यह है कि क़ानून बनाने वाले कभी सजा का प्रावधान करने से पहले उस जुर्म के "विक्टिम्स" जो पहले हो चुके हों - उससे सम्मति नहीं करते । क़ानून बनाने वाला हमेशा शक्तिशाली होता है - वह क्या जाने भुक्तभोगी का दर्द ?उसे तो अपने महान होने का गुमान है और बस :( ...... भोगे कोई और , और क्षमा करे कोई और ?यह कैसा न्याय है ?हमारे धर्म के जो ग्रन्थ आपने कहे - इनमे स्त्री के प्रति जो विचारधारा दिखती है - यह इस "महान" धर्म के बारे में क्या बताती है ?
युधिष्ठिर और भीष्म के चरित्रों से मुझे सख्त चिढ है , और शायद हर स्त्री को होगी ।
राम - जो अपनी स्त्री के प्रेम में इतना बड़ा युद्ध कर गए, उनके चरित्र पर नारीविरोध के छींटे डालने से भी नहीं चुके हमारे महान ग्रंथकार । उन पर भी सीता की अग्नि परिक्षा और परित्याग जैसे लांछन मढ़ दिए । ग्रंथों में "क्षेपक" की बातें करने वाले यह नहीं मानते कि ये मूर्खतापूर्ण किंवदंतियाँ भी क्षेपक हैं । पता नहीं जंगल में सीता के नाम पर रोते बिलखते तड़पने वाले राम के लिए इस मूर्ख समाज ने ये लांछन स्वीकार कर कैसे लिए ?? लेकिन हम वही समाज हैं न - जो हर सुनी सुनाई मान लेते हैं ?लेकिन उस "रावण" के ब्राह्मणत्व और ज्ञान के रक्षकों को राम को बदनाम करना था न ? कैसे करते ?
जानती हूँ कि आप यह दर्द महसूस कर पा रहे हैं । क्योंकि आपके लिए स्त्री एक शरीर भर नहीं, जीवन का खम्बा है । लेकिन बस, दो दिन हंगामा होगा, फिर न्यूज़ वालों को नया विषय मिल जाएगा और यह भुला दिया जाएगा । हम ब्लोगर्स को भी नया विषय मिल जाएगा जिस पर हम पोस्ट लिखेंगे । हम सब अपने अपने जीवन की आपाधापी में इतने उलझे रहते हैं, किसे समय है किसी अनजान आँख के आंसू याद रखने का ?
और शायद यह "केस" न भी भुलाया जाए - तो यह एक केस जो चर्चा में आया - इसके लिए एक फ़ास्ट ट्रेक सुनवाई हो जायेगी - क्योंकि सभी अपराधी आखिर गरीब तबके से हैं - तो उनके पास पैसा नहीं है कि वे इस किस्से को दबा सकें । राम जेठमलानी जैसे वकील पुलिस कमिश्नर को हटाने की मांग करते हैं । और खुद वकील ही ऐसे अपराधियों को डिफेंड करते हैं, यदि अपराधी धनवान हो तो । पुलिस कमिश्नर क्या करेगा ? कोई बड़ा आदमी बलात्कारी होता - तो केस दब जाता, कोई बड़ा वकील उसे बचा लेता, न्यूज़ वालों को भी अपना मुआवजा मिल जाता और सब चुप ।
और बाकी "केस" ???? बहुत दुखद है कि यहाँ स्त्री सिर्फ एक शरीर है, सिर्फ एक केस है :( :(
इस देश में जो न्यूज़ में आ जाए उसका दर्द बड़ा और बाकी सब का गौण है । दूसरी बलात्कार पीड़ीताओं के नाम याद हैं किसी को ? किसी को शाइनी की नौकरानी याद है ? अरुणा शान्बाघ को टिप्पणी करने वाले वंदना शान्बाघ लिखते हैं .... और ये वे "केस" हैं जो चर्चित हुए - जो चर्चित न हुए उनका क्या ?
हम महिला भ्रूण ह्त्या की बुराई करते हैं, और यह बुराई है भी । लेकिन क्या इस घुटन में सांसें लेती माँ का मन यह न चाहेगा कि जिस संसार में वह जी रही है उसमे उसकी बेटी सांस न ले ??
सहमत हूँ आपसे. और एक-दो लेखकों का क्या कहें मुझे तो इनकी पूरी बिरादरी ही दोहरे चरित्र की लगती है. क्षमा, अगर किसी का दिल दुखा हो तो.
जवाब देंहटाएंमुक्ति जी - "सहमत हूँ" शायद आपने मुझसे कहा ?
हटाएं:(
दिल दुखाया ? अब दिल दुखने की कोई कसर ही नहीं बची है । उस बच्ची के दर्द ने जिस दिल को नहीं दुखाया हो, वह आपकी बात से क्या दुखेगा ? और जिसका दिल पहले ही उस दर्द में पूरा डूबा हो, उस पर आपकी बात का और क्या घाव हो पायेगा ?
आप मुझसे सहमत हैं, मैं आपसे । यह दर्द मैं और आप अधिक करीब से महसूस कर पा रही हैं, कि हम "स्त्री" हैं । किन्तु सब पुरुष ऐसे नहीं होते, सब लेखक भी ऐसे नहीं होते ।
इन क्रूर व्यभिशारी अमानुषों ने सम्पूर्ण पुरुष वर्ग को ही कटघरे में ला दिया है - जो दुखद है । वह लड़का जो अपनी उस दोस्त को बचाते हुए घायल हुआ - वह भी तो पुरुष ही था न ?
काश किसी दिन ऐसा हो कि स्त्री को सदा अपने स्त्री होने की याद न रखनी पड़े ? लेकिन वह दिन मुझे तो कहीं नज़र नहीं आ रहा । :( शीला दीक्षित जी प्रश्न करती हैं कि लडकियां रात में बाहर जाती ही क्यों हैं ? पुलिस बल उनके घर के आगे एकत्र प्रदर्शन कारियों को तितर बितर करने के लिए पर दिसंबर की ठण्ड में पानी की तेज़ बौछारें मारती है । इन लेजिस्लेचर और इन एग्ज़िक्युतिव से हम न्याय की उम्मीद रख सकते हैं क्या ?
बहुत बहुत उदास हूँ । हर ब्लॉग पर इस विषय पर पोस्ट पढ़ती हूँ, समझ रही हूँ कि यह उनके मन के दर्द से फूटी कविता है, फिर भी भीतर से क्रोध उमड़ता है । हर एक अपनी पोस्ट लिख रहा है - लेकिन कोई भी एकजुट हो कर हम ब्लोगर समाज की और से किसी पेटीशन आदि की पहल नहीं करता ।
मैं भी नहीं । कायर हूँ, शुरुआत नहीं कर पा रही । पोस्ट भी नहीं लिख पा रही ।
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गिरिजेश जी - यदि आप यहाँ किसी पेटीशन का लिंक देंगे तो , शायद , उस पर कम से कम ब्लोगर समाज के माध्यम से कोई हस्ताक्षर अभियान चलाया जा सके ?
शायद - कह नहीं सकती । सबके अपने इशुज़ हैं, फिर भी, शायद इतने अहम् मुद्दे पर हम अपने अपने मुद्दों को अलग रख कर एक हो सकें ?
कल कई लोगों सुनने को मिला। बलत्कार के मुकदमे की सुनवाई फास्ट ट्रेक कोर्ट में हो। लेकिन क्यों? एक कसाब के खिलाफ मुकदमा जल्दी जल्दी सुप्रीमकोर्ट पहुँचता है और फिर उस की सजा का निष्पादन भी कर दिया जाता है। लेकिन यह न्याय किसे मिला? उस आदमी का क्या जिसे दिसंबर 1978 में नौकरी से निकाला था। जिस का मुकदमा अभी भी लेबरकोर्ट की सीढ़ी नहीं लांघ पाया है। उस की सेवानिवृ्ति की उम्र निकल चुकी है। उस के पोते अब जवान होने लगे हैं। जज कहता है वह उस का मुकदमा नहीं सुनेगा क्यों कि एक और मुकदमे में उस के वकील ने कहा कि जज को न कानून का ज्ञान है और न उसे समझना चाहता है जो वकील उसे बताता है।
जवाब देंहटाएंक्यो नहीं सभी के लिए न्याय की बात सोची जाती है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हर अपराधिक मुकदमा छह माह में निर्णीत हो जाए? दो बरस होते होते अंतिम न्यायालय भी अपना निर्णय कर दे। सवा अरब लोगों का देश यह नहीं कर सकता तो समझ लीजिए उस देश में न्याय नहीं है। यहाँ न्याय सिर्फ पैसे वालो को मिलता है या उन के लिए न्याय में देरी की जाती है। दस आदमी की रोटी एक डकार जाता है अदालत के न्याय करते करते दस आदमी प्राण त्याग देते हैं। क्या न्याय रोटी से पहले की जरूरत नहीं?
एक तरह के पीड़ित वर्ग के पक्ष में वातावरण तैयार करने का अर्थ यह नहीं है कि दूसरे मामलों से सहानुभूति नहीं। बस यह कहना है कि बलात्कार जघन्यतम अपराध है और ऐसी सामूहिक हिंसा का साथ तो इसे और वीभत्स बनाता है।
हटाएंस्त्री गर्भ धारण करती है, मानवता की निरंतरता सुनिश्चित करती है; इसलिये उस पर इस तरह का आक्रमण न केवल एक व्यक्ति के तौर पर वीभत्स है बल्कि समूची मानवता के प्रति सबसे बड़ा अपराध है। जहाँ न्याय व्यवस्था इतनी सुस्त है वहाँ कम से कम ऐसे मामलों के लिये जब कि प्रथम दृष्टया ही अपराध प्रमाणित हो जाता हो, पीड़िता का समूचा जीवन अभिशप्त हो जाता हो, फास्ट ट्रैक न्यायपीठ समूचे भारत में स्थापित होने चाहिये। त्वरित न्याय की ओर यह पहला पग हो सकता है।
जहाँ तक मुझे लगता है, ऐसे न्यायपीठों के लिये सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करनी होगी क्यों कि विधायिका स्वयं तो कुछ करने से रही! क्या आप इस पक्ष पर कुछ प्रकाश डालेंगे?
इन सब बातों से मुद्दा dilute होता है ।
हटाएंएक आदमी - जिसकी नौकरी (अन्यायपूर्ण तरीके से भी) छीन ली गयी हो - वह और कुछ कर के गुज़र बसर कर सकता है ।
और
एक रेप विक्टिम जिसकी आंतें रोड से बाहर खींच ली गयी हो - जिसका ज़िंदा रह पान मुश्किल हो - और रह भी जाए तो साधारण जीवन जीना तो खैर मुमकिन है ही नहीं
- क्या दोनों केस एक ही स्तर पर देखना न्यायपूर्ण है ?
अगर हर मामले में न्याय व्यवस्था ढीली और सुस्त है तो उसे हर मामले में चुस्त बनाने का प्रयास हो लेकिन आरंभ कहीं से तो करना ही पड़ेगा, फिर यहीं से क्यों नहीं? पीड़िता का कष्ट हरा नहीं जा सकता, अतीत के दुष्कर्म को धोया नहीं जा सकता लेकिन न्याय दिलाने का प्रयास हो, इंसानियत का सम्मान हो, यही आकांक्षा है।
हटाएंबहुत ही सारगर्भित आलेख.. कई सारी नई चीजें पता चलीं...
जवाब देंहटाएंक़ानून, फांसी, फास्ट-ट्रैक कोर्ट सब ठीक है पर जब तक समाज की मानसिकता में बदलाव नहीं आएगा ऐसे काण्ड होते ही रहेंगे... ये बलात्कारी उसी समाज में पैदा होते हैं जिसमें उनकी छेड़छाड़ जैसी गंदी हरकतों को यह कह कर टाल दिया जाता है कि जवान लड़का है.. इस उम्र में गलतियाँ हो ही जाती हैं..
फांसी ही अन्तिम रास्ता है. निश्चित ही दण्ड का भय आवश्यक है. रामायण महाभारत से रिफरेन्स की क्या आवश्यकता है !
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