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बुधवार, 19 दिसंबर 2012

बलात्कार, धर्म और भय

उत्तर वैदिक काल में एक आख्यान मिलता है जिसमें शिष्यों के साथ अध्ययनलीन ऋषि के आश्रम में उन के सामने ही उनकी स्त्री के साथ यौन अपराध घटित होता है। सबसे आदरणीय स्थान पर सबसे आदरणीय जन के संरक्षण में रह रही स्त्री वह आधार है जिसके साथ की गयी हिंसा सबसे अधिक कष्ट देगी – यह है मानसिकता! स्त्री के स्वयं के कष्ट का आततायी के लिये कोई मायने नहीं। आश्रम की सबसे प्रतिष्ठित स्त्री या तो पाल्य पशुओं की तरह है या भोग्या। ऐसी घटनाओं के पश्चात पुरुष के द्वारा भयभीत पुरुष ने ‘स्त्री हित’ विवाह संस्था को नियमबद्ध किया। जिस तरह से कृषि भूमि किसान के लिये वैसे ही गृहस्थ के लिये उसकी पत्नी – एकाधिकार, सम्पत्ति।
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सुदूर दक्षिण की लंका में एक अन्य काल में संसार में सबसे मूर्धन्य माने जाने वाले महातापस, महाज्ञानी, महापराक्रमी और महावैदिक राक्षस रावण की राजसभा है। रावण सीता के अंगों का कामलोलुप वर्णन करता है और कहता है – सा मे न शय्यामारोढुमिच्छ्त्यलसमागिनी, वह अलसगामिनी मेरी सेज पर सवार नहीं होना चाहती। आगे कहता है कि भामिनी ने एक संवत्सर का समय माँगा है लेकिन मैं तो कामपीड़ा से थक गया हूँ और इधर राम सेना ले आ धमका है। रावण अपनी सुरक्षा को लेकर दुविधा में है – कपिनैकेन कृतं न: कदनं महत्। एक ही कपि ने इतना विनाश कर डाला, सभी आयेंगे तो क्या होगा?
आततायी इतना भयभीत है कि राजसभा की बैठक बुलाई गई है, कुम्भकर्ण को जगा दिया गया है। कुम्भकर्ण पहले खरी खोटी सुनाता है लेकिन अंत में आश्वासन देता है – रमस्व कामं पिव चाग्र्यवारुणीं ...रामे गमिते यमक्षयं...सीता वशगा भविष्यति- मौज करो, दारू पियो, राम को मैं मार दूँगा तब सीता तुम्हारे अधीन हो ही जायेगी। ‘धर्मी’ कुम्भकर्ण के लिये भी सीता की अपनी इच्छा का कोई मोल नहीं, वह भोग्या भर है।     
 महापार्श्व सलाह देता है:
बलात्कुक्कुटवृत्तेन वर्तस्व सुमहाबल
आक्रम्य सीतां वैदेहीं तथा भुंक्ष्व रमस्व च।

हे ‘सु’महाबल! सीता के साथ वैसे ही बलात्कार करो जैसे मुर्गा [मुर्गी के साथ] करता है। ‘विदेह’ सुता सीता के साथ आक्रामक हो उसका भोग करो, उससे रमण करो।
महापार्श्व वह पुरुष है जिसके लिये महाबल की सार्थकता बलात्कार द्वारा अपनी भोगेच्छा पूरी करने में है। बर्बर बल की जो मानसिकता पुरुष को आक्रांता बनाती है, उसका यहाँ नग्न चित्रण है। विदेहसुता सीता जो कि दैहिकता से परे है, उसका भी कोई सम्मान नहीं! देवी और भोग्या की दो चरम सीमाओं पर चित्रित स्त्री को अन्तत: भोग्या ही होना है।
बलात उठा ले आने के पश्चात भी रावण बलात्कार करने से घबरा रहा है। क्यों? 
वह स्वयं बताता है कि पुंजिकस्थला नामक अप्सरा को नग्न कर बलात्कार (मया भुक्ता कृता विवसना तत:)  करने पर ब्रह्मा ने मुझे शाप दिया था – अद्यप्रभृति यामन्यां बलान्नारीं गमिष्यसि, तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशय:।
यदि आज के पश्चात तुमने किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया तो इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। रावण बलात्कार की उस परिणति से डरा हुआ है जिसमें उसके जीवन का ही नाश हो जायेगा। अपनी जान तो बहुत प्यारी है और जीवन नहीं रहेगा तो भोग कैसे हो पायेगा? इसलिये एक वर्ष रुकने को तैयार है। सीता तो भोग्या भर है, पा लेगा उसके बाद!
सदा बलात्कारी रावण को धर्म या शुभेच्छा ने नहीं रोका, निज जीवन के भय ने बलात्कार करने से रोका।
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एक और काल में स्थान है सबसे गौरवमय भीष्म, द्रोण, विदुर, कृप और द्वैपायन जैसे महात्माओं द्वारा संरक्षित सबसे प्रतिष्ठित कुरुवंश की राजसभा। यहाँ भी स्त्री को दाँव पर लगाते हुये धर्मराज युधिष्ठिर उसके सौन्दर्य का जो वर्णन करते हैं, वह अद्भुत है। लगता है जैसे पेटी खोल द्यूतक्रीड़ा में कोई रत्न दिखाया जा रहा हो!  वह द्रौपदी जो शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया और रूपेण श्रीसमानया है, जो सभी चरों और अनुचरों की सुविधाओं का ध्यान रखती है, सबसे बाद में सोती है और सबसे पहले उठ जाती है, रानी होने पर भी श्रमी है, जिसके ललाट पर स्वेदबिन्दु वैसे ही शोभा पाते हैं जैसे मल्लिका पुष्प की पंखुड़ियों पर जलबिन्दु आभाति पद्मवद्वक्त्रं सस्वेदं मल्लिकेव च; ऐसी सर्वगुणी द्रौपदी को दाँव पर लगाता हुआ पुरुष धर्म एक बार भी नहीं सोचता और न उसे सभा में बैठे धुरन्धर रोकते हैं!
धर्म ने भाइयों और स्वयं को हारने के बाद पत्नी द्रौपदी को भी जुये में हार दिया है और सभा में उस दासी को लाने को दुर्योधन कहता है। विदुर की रोक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह एक पुरुष द्वारा दूसरे पुरुष को चरम कष्ट देने का उद्योग है, स्त्री तो बस स्त्री है! क्या हुआ जो वह एकवस्त्रा अधोनीवी रोदमाना रजस्वला है, घसीट ले आओ! हिंसा में स्त्री का जो मातृ रूप है न, वह भी आदर नहीं जगाता। माँ बनने की प्राकृतिक व्यवस्था में वह ऋतुमती है, ऐसी स्थिति में है जो सबसे आदरणीय है लेकिन ...
उसे घसीट कर लाने को घर में घुसा दु:शासन भी धर्म की बात करता है – धर्मेण लब्धासि सभां परैहि! वह कुरु रनिवास की ओर भागती है तो उसके उन्हीं नीलाभा लिये दीर्घ केशों को पकड़ कर घसीट लेता है जिन्हें एक रत्न की विशेषता के तौर पर धर्मराज ने दाँव लगाते गिनाया था।  सभा में द्रौपदी प्रश्न करती है – राजा ने पहले स्वयं को हारा या मुझे? स्वयं को हारे हुये का मुझ पर क्या अधिकार? वह भी धर्म की मर्यादा की दुहाई देती है और सब चुप रहते हैं, भीष्म सूक्ष्म गति कह कर बला टाल देते हैं।
धर्म के तमाम तर्कों को किनारे करते हुये कर्ण कहता है:
एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहित: कुरुनन्दन, इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता।
अस्या: सभामानयनं न चित्रमिति मे मति: एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता॥

देवों ने स्त्री के लिये केवल एक पति का विधान किया है लेकिन यह द्रौपदी तो ‘अनेकवशगा’ है इसलिये यह निश्चित ही कुलटा है। इसे इस सभा में पूर्ण वस्त्र पहने या एक वस्त्र में लाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यदि इसे यहाँ ‘विवस्त्र’ नंगी कर दिया जाय तो भी मेरे मत में अन्यथा नहीं।
यह है कुरुवंश की सभा! आज की खाप पंचायतों के तर्क और कर्म याद आये कि नहीं? जो विवाह संस्था स्त्री से अधिक पुरुष के हित के लिये बनाई गई, वह विवाह जिसे उस युग के धर्ममूर्ति वेदव्यास ने स्वयं मान्यता दी कि द्रौपदी पाँच पांडवों की पत्नी है; उसे अपनी लिप्सा की पूर्ति के लिये देवसम्मत न बता और उसी तर्क के आधार पर पुन: स्त्री को कुलटा तय कर और उसके पश्चात उसे नंगी करने का भी औचित्य सिद्ध कर दिया गया और सभी धर्मी चुप रहे!
क्यों कि सभी पुरुष थे और रनिवास की कुलीन स्त्रियों के लिये सभा में आना निषिद्ध था। द्रौपदी तो दासी हो गई थी इसलिये उसका क्या मान सम्मान? सभा में नंगी भी लाई जाय तो क्या बुराई?
भीष्म अपनी व्यथा कहते हैं:
बलवांस्तु यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुष:
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहित: परै:।
बली की बात ही धर्म है। निर्बल द्वारा कहे गये सर्वोच्च धर्म की भी कोई मान्यता नहीं। कटु सत्य, सँभाला हुआ गोपन नग्न हो जाता है। पाशव बल की समर्थक है यह उक्ति! नपुंसक समाज इसे दुहराने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।
तमाम बेहूदगियों के पश्चात भय के कारण ही अब तक आनन्द मनाता अन्धा धृतराष्ट्र द्रौपदी को वरदान के प्रलोभन देता है। क्या है वह भय? वह भय है भीम की सर्वनाशी प्रतिज्ञाओं का और:
ततो राज्ञो धृतराष्ट्रस्य गेहे गोमायुरुच्चैव् र्याहरदग्निहोत्रे, तं रासभा: प्रत्याभाषंत राजंसमंतत: पक्षिणश्चैव रौद्रा:।
अग्निहोत्र धुँआ धुँआ हो गया है। अचानक गधे चीत्कारने लगे हैं। पक्षी रौद्र शोर मचाने लगे हैं... अन्धे राष्ट्र की श्रवण शक्ति तेज है। वह आने वाले सर्वनाश की आहट पा रहा है। भयभीत हो गया है।
धर्म ने नहीं, भय ने उसे प्रलोभन द्वारा आगत संकट को टालने का मार्ग सुझाया है।
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ये तीन दृष्टांत दिल्ली में हुये बर्बर बलात्कार के सन्दर्भ में सामयिक हैं। हम सब में रावण बैठा हुआ है। आप में से कितने द्रौपदी को लेकर उसी मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं जिससे कर्ण, कौरव, पांडव या कुरुवृद्ध थे? कितने जन स्त्री को देवी या भोग्या से परे एक व्यक्ति के रूप में उसके सारे गुणों और दोषों के साथ सहज मन से स्वीकार पाते हैं?
 यह राष्ट्र अन्धा  धृतराष्ट्र है जिसने ‘कलह’ के भय से महाभारत सी विराट सचाई से भी आँखें मूँदी हुई हैं। हर लड़की, हर स्त्री चीरहरण को तैयार माल यानि द्रौपदी है। बीसवीं सदी के एक कवि ने कुछ यूँ कहा था:
हर सत्य का युधिष्ठिर बैठा है मौन पहने,
ये पार्थ भीम सारे आये हैं जुल्म सहने
आँसू हैं चीर जैसे, हर स्त्री द्रौपदी है, यह बीसवीं सदी है।    
चाहे ईसा पूर्व की सदी हो या बाद की, धर्म, भय और दंड की स्थितियाँ यथावत रही हैं, रहेंगी। पशुबल केवल पाशव दंड के भय से ही नियंत्रण में आता है। जब मैं धर्म की बात कर रहा हूँ तो हिन्दू, सिख, जैन आदि की नहीं उसकी बात कर रहा हूँ जो सभ्य मानव के लिये धारणीय है। आज कितने लोग इस धर्म की शिक्षा अपनी संतानों को देते हैं?
इतिहास साक्षी है कि स्त्री ने अपने लिये कभी संहितायें नहीं गढ़ीं और न धर्म के नियम बनाये। वह माता पुरुष के बनाये धर्म मार्ग पर चलती हुयी भी लांछित, अपमानित और प्रताड़ित होती रही।
स्थिति शोचनीय है। हो हल्ला चन्द दिनों में थम जायेगा। दिल्ली की स्पिरिट जवाँ हो पुन: अपने धन्धे में लग जायेगी लेकिन उस लड़की का क्या होगा?
मैंने पुलिस वालों से भी बातें की हैं। उनका कहना भी यही है कि यदि ट्रायल तेज हो और अल्पतम समय में अपराधी दंडित हों तो अपराधी सहमेंगे। ऐसी घटनायें निश्चित ही कम होंगी। होता यह है कि ढेरों जटिलताओं और लम्बे समय के कारण या तो अपराधी छूट जाते हैं या बिना दंडित हुये ही परलोक सिधार जाते हैं या दंडित होने की स्थिति में भी उसका भयावह पक्ष एकदम तनु हो चुका होता है जो कोई मिसाल नहीं बन पाता। विधि में संशोधन कर ऐसे अपराध के लिये मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये लेकिन तब तक न्याय प्रक्रिया को त्वरित करने से कौन रोक रहा है?
घटना दिल्ली में हुई है, संभ्रांत वर्ग के साथ हुई है इसलिये हो हल्ला और दबाव के कारण हो सकता है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित हो जाय और त्वरित न्याय मिले लेकिन दूर दराज के गाँवों, जंगलों और कस्बों में ऐसी घटनाओं की पीड़ितायें तो तब भी पिसती रहेंगी!
क्यों नहीं एक नीतिगत निर्णय ले ऐसे अपराधों के लिये देश भर में स्थायी फास्ट ट्रैक न्यायपीठ नहीं बनाये जाते? इसके लिये तो संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं!
माननीय सर्वोच्च न्यायालय का घोष वाक्य है – यतो धर्मस्ततो जय:। यह भी महाभारत से लिया गया है। जय संहिता यानि महाभारत ही साक्षी है – भय के बिना धर्म में बुद्धि रत नहीं होती और समय पर नियंत्रण और दंड के अभाव में पूरा समाज महाविनाश की ओर अग्रसर होता है। आज दंड के भय की आवश्यकता है, कोई सुन रहा है?