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मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

दामिनी और दमन के बीच...

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वे सारे मूल्य जिन पर पश्चिम को श्रेष्ठता का गर्व था, आज ध्वस्त हो गये हैं...इस सरकार ने शासन का नैतिक अधिकार खो दिया है। भारत स्वतंत्र है...


वेब मिलर, एक अमेरिकी रिपोर्टर

[1930 में शांतिपूर्ण नमक सत्याग्रहियों पर बज रही लाठियों पर रिपोर्टिंग करते हुये] 

 

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एक अकेले वेब मिलर के चन्द वाक्यों ने समूचे संसार में व्रिटिश सत्ता को कटघरे में खड़ा कर दिया। 82 वर्षों के बाद ब्रिटिश राज के बनाये राजपथ पर वही हुआ, उससे कई गुनी बर्बरता के साथ हुआ, बार बार हुआ और मीडिया के तमाम शोरगुल में कहीं भी वेब मिलर सा ईमानदार तेज नहीं दिखा।

यह समय सम्वेदनाओं के कुन्द होते जाने का समय है, त्वरा का है जहाँ घटनायें चलचित्र सी आती हैं और बस यूँ ही चली जाती हैं। हमारे पास मीमांसा के लिये समय नहीं है लेकिन व्यर्थ के अपलापों के लिये पर्याप्त समय है।

क्रीतदास बौद्धिक वर्ग अपने अपने एजेंडों के बुलबुलों में बन्दी है। हर वाक्य निवेश पर भविष्य में होने वाली आय की गणना सा नपा तुला होता है।

अर्थहीनता में वे ब्लॉग जगत की चालू और अबूझ टिप्पणियों को भी मात करते हैं!

शब्दों से अधिक मौन मुखर हैं। चुप्पियाँ पढ़ी जा सकती हैं और शोर भी! बलात्कार के भी प्रकार हो गये हैं। बहुत से प्रश्न उठाये गये:

  • गुजरात, छत्तीसगढ़, मणिपुर, कश्मीर ... के बलात्कारों पर आन्दोलन क्यों नहीं?
  • दलित पर बलात्कार पर आन्दोलन क्यों नहीं?
  • इसी समय क्यों?
  • क्या आन्दोलनकारी स्वयं यौन अपराधों में लिप्त नहीं?
  •  

 

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गर्म रजाइयों में सिकुड़े टी वी देखते, गाँव में अलाव तापते, ब्लोवर से गर्म किये कमरे में किसी आओ फाओ पावलो की पुस्तक बाँच निर्वाण प्राप्त करते, किसी फर्जी मुद्दे पर मानवाधिकार का पर्चा पढ़ते ... हर किस्म के फर्जी वैचारिक फौजदारों ने स्वत: स्फूर्त नेतृत्त्वविहीन और निहायत ही नैष्ठिक ईमानदार आन्दोलन को कटघरे में खड़ा किया और वमन किये, किये जा रहे हैं।

वे भूल रहे हैं कि दिल्ली न तो कोलकाता की तरह आमार भालो बांगला है, न तो चेन्नई की तरह मद्रासी और न मुम्बई की तरह जय महाराष्ट्र! शरणार्थियों की दिल्ली इस देश का प्रतीक है। दिल्ली का अपना कोई नहीं और दिल्ली सबकी है।

वे भूल रहे हैं कि पीड़िता सुदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश की है। वे भूल रहे हैं कि लड़की उन सपनों के देश से है जिसमें सपनों की कीमत खेती की जमीन बेंच कर चुकाई जाती है।

वे भूल रहे हैं कि आन्दोलन में चेहरों का बहुलांश उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मणिपुर से भी था। वह आन्दोलन समूचे भारत का था, पूरे देश के युवाओं के उन सपनों का था जिनमें वे अपना भविष्य देखते हैं और जिसे सत्ता के प्रहरियों ने अपने बूटों तले रौंद दिया। 

विभिन्न क्षेत्रों के नेताओं ने बहुत 'सेफ' खेला। कोई समर्थन में आगे आया तो उसे अवसरवादी का खिताब दे दिया। अरुन्धतियों, थापरों, लाल बुझक्कड़ियों, सनातनियों, तबलीगियों, संघियों और बहुजनियों को किसने रोका था इस आन्दोलन में सम्मिलित होने से? ठंड ने, पानी की तोपों ने या बर्बर बेतों के भय ने या निहित स्वार्थों ने? यह शोध का विषय है।
यदि रामदेव ने आने की घोषणा की और आया भी तो इन सबको भी अलग अलग ही सही, एक समय ही अपने समर्थकों को ले दिल्ली पहुँचना था। सोचिये कि क्या स्थिति होती!

रायसीना का महामुनीम हो या जनपथ सनपथ की महारानी - या तो बिलों से बाहर आते या दिल्ली इतिहास में एक बार पुन: दर्ज हो जाती जबकि सारे मतभेद भुला कर देश ने अपनी नई पौध, अपने युवाओं का साथ दिया, उनके साथ लाठियाँ और गोले खाये और जन संसद ने तमाम लालफीताशाहों और वायसरायी जमात की संसद को धता बताते हुये निर्णय लिया दिया। तब ये बकवासें और 'हमारी भी बेटियाँ हैं' के छ्ल सम्वाद नहीं चल रहे होते।  

चूक गये बौद्धिक और अब झेंप मिटाने को अहिंसक गालियाँ बक रहे हैं।     

'दामिनी' का न्याय उस बलात्कार पीड़ित दलित कन्या का भी न्याय होगा जिसे रक्षक पुलिस वाले भी नहीं छोड़ते, उस वनवासिनी का भी न्याय होगा जिसके यौनांगों में ... और उन मणिपुरी स्त्रियों का भी जिन्हों ने विवस्त्र हो प्रदर्शन किये।

अत्याचार का घड़ा जब भर जाता है तब उफान आता है और उस समय उफान के रंग, नैन नक्श नहीं देखे जाते, उसका लाभ लिया जाता है लेकिन जीते जी नोच खाने वाले महाभोजी तो बस तमाशाई हैं, घड़ा फोड़ने की कोशिश पर स्वयं जल जाने का जो भय है!

एक और अलग तरह का तबका है जो चरित्र और नैतिकता प्रमाण पत्रों के संकलन का शौकीन है। उनके लिये मैं अपना यह फेसबुक स्टेटस पर्याप्त समझता हूँ:

क्षमा कीजिये मैं आप से सहमत नहीं:
- जब युवा अत्याचार और अपराध के विरुद्ध खड़ा होता है और आप उससे नैतिकता प्रमाण पत्र माँगते हैं।
- जब भयानक ठंड में पानी की धार और लाठियाँ खाने को आप रोमांच की चाह पूर्ति मानते हैं।
- जब आप यह कहते हैं कि सब को यानि 100% आन्दोलनकारियों को अहिंसक होना चाहिये। ऐसा संत होना चाहिये जिसकी स्थिति प्राप्त कर आप अपने ड्राइंग रूम में बैठे टी वी देख रहे हैं।
- जब आप षड़यंत्रों को जानते हुये भी आँखें मूँदे यह प्रलाप करते हैं कि बलात्कारी वहशियों और आन्दोलनकारियों में कोई अंतर नहीं।
- जब आप उनमें दिशाहीनता और अभिव्यक्ति की कमी पाते हैं लेकिन उसे दिशा या स्वर देने के स्थान पर मखौल उड़ाते सभ्य गालियाँ बकते हैं।
- ....
ऐसी असहमति की स्थिति में मैं हर उस गुंडे के साथ सहानुभूति प्रकट करता हूँ जो आप के बौद्धिक पिछवाड़े जब तब लात लगा आप की निकल आयी बत्तीसी को सराहता अपना स्वार्थ साध चल देता है। यकीन मानिये कि उसमें और आप में कोई अंतर नहीं। मौका मिलने पर आप भी वही करते हैं।
इसलिये मेरी सहानुभूति आप के भी साथ है।

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भावुक प्रकृति के पुरुष कैसे पीछे रह सकते हैं? उन्हें अपने पुरुष होने पर या अपने पौरुष पर ही शर्म आने लगी है। यह बहुत ही घातक प्रवृत्ति है क्यों कि यह पलायन की राह मुकम्मल करती है। सुविधाजीविता के तर्कों को सुतर्क बनाती है। उनसे मैं यही कहूँगा कि यूँ पुरुषत्त्व पर लज्जित होने का विलाप बन्द कीजिये। याद रखिये कि यदि इस समाज को पितृसत्तात्मक कहा जाता है, पुरुषवादी कहा जाता है तो इसका एक पक्ष यह भी है कि जैसा भी है इसमें आप का ही अधिक चलता है। यह जो कूड़ा कचरा है न, उसमें भी आप का ही योगदान अधिक है।
ऐसे लज्जित हो पलायन वाली गली मत पकड़िये। डटिये, खड़े होइये, अपनी मेधा और शारीरिक शक्ति का उपयोग कर कूड़ा साफ करने की राह प्रशस्त कीजिये।
जब आप लज्जित होने की बात करते हैं तो उन हजारो पुरुषों का अपमान कर रहे होते हैं जिन्हों ने दिसम्बर में ही 'थम कदम ताल' के दमन तले स्वयं को कुचले जाने देकर जनवरी की राजपथ परेडों का रंग भी आगे आने वाले समय के लिये फीका कर दिया।
आप उन स्त्रियों का भी अपमान कर रहे होते हैं जो पुरुषों पर भरोसा कर उनसे कन्धे से कन्धा मिला कर लड़ीं और लड़ रही हैं। उनका सम्मान बढ़े, ऐसा कोई काम कीजिये। बन्द कीजिये यह बकरूदन!

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जो भी राजपथ पर घटित हुआ, वह बहुत बुरा हुआ और उसके दूरगामी परिणाम होंगे। मध्यवर्ग को कोसने वालों! यह वर्ग इस देश की रीढ़ है। परिवर्तन की कोई भी बयार यहीं से आती है और यह 'सुविधाभोगी' वर्ग ही इस राष्ट्र को थामे हुये है, इसे गालियाँ देना बन्द कर आप इसके सद्प्रयासों को सहारा दीजिये। यदि यह वर्ग टूटा तो न तो विश्वविद्यालय की अकादमिक दुकान चलने वाली है और न शेयर मार्केट की दलाली।

नैराश्य के समूह सम्मोहन से निकलिये, जो भी कर सकते हैं, कीजिये। सत्ता के केन्द्र से निकलती सर्वनाशी पानी की तोप और रासायनिक युद्ध के हथियार 'एक्सपायर्ड आँसू के गोले' का अगला शिकार आप भी हो सकते हैं। निज स्वार्थ के लिये ही सही, कुछ कीजिये। प्लीज!

जिसे ड्यूड, र् यूड, यो, या, मोबाइल, गजेट, जिंसिया पीढ़ी बता आप होपलेस करार देते रहे हैं, उसने अपना प्रदर्शन कर दिया, अब आप की बारी है। शांति के इस समय को व्यर्थ न जाने दीजिये। लोहा गर्म है, चोट कीजिये!

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 अमेरिकी मार्टिन लूथर का यह भाषण आज भारत के लिये उपयोगी है, उठिये! उत्तिष्ठ भारत!
We cannot walk alone.
And as we walk, we must make the pledge that we shall march ahead. We cannot turn back.,,, No, no, we are not satisfied, and we will not be satisfied until justice rolls down like waters and righteousness like a mighty stream.... Let us not wallow in the valley of despair.
I say to you today, my friends, that in spite of the difficulties and frustrations of the moment,
I still have a dream...
I have a dream that one day this nation will rise up and live out the true meaning of its creed... I have a dream that one day ... the heat of injustice and oppression, will be transformed into an oasis of freedom and justice.
I have a dream today.
I have a dream that one day every valley shall be exalted, every hill and mountain shall be made low, the rough places will be made plain, and the crooked places will be made straight... This is our hope... With this faith we will be able to hew out of the mountain of despair a stone of hope. With this faith we will be able to transform the jangling discords of our nation into a beautiful symphony of brotherhood. With this faith we will be able to work together, to pray together, to struggle together, to go to jail together, to stand up for freedom together…

रविवार, 23 दिसंबर 2012

PIL of 'We, the people'

लड़की की आँखों को देखिये, चेहरे के भाव और देह की भंगिमा देखिये। यह ऐतिहासिक चित्र है। 
यह है स्त्री! केयरिंग, निर्भय और अपने अधिकारों के प्रति सचेत। 
~तुम्हें नमन है~

खटखटाहटों पर कोई उत्तर न मिले तो भी अकेले हाँक पारना न छोड़ो!’

सब ओर से चुप्पियों से साक्षात होने के पश्चात मैं सर्वोच्च न्यायालय हेतु जनहित याचिका को स्वयं ड्राफ्ट कर रहा हूँ। 

यह पूरे देश में, हर राज्य में कम से कम एक, त्वरित गति न्यायपीठों (Fast Track Courts) की स्थापना हेतु न्यायिक आदेश देने के लिये है। ऐसे न्यायपीठ उन सभी नये पुराने अपराधों की सुनवाई करेंगे जिनमें बलात्कार स्वयंसिद्ध है। ये न्यायालय ऐसी घटनाओं को स्वयं संज्ञान में भी लेते हुये कार्यवाही सुनिश्चित करेंगे। 

यह अंग्रेजी में हैं क्यों कि हमारे न्यायिक तंत्र की भाषा अंग्रेजी है। यह समय भाषा विवाद में पड़ने का नहीं है। युद्ध के समय शस्त्रास्त्र महत्त्वपूर्ण होते हैं न कि उनके खोल और ढाँचे।

यदि आप इस याचिका में कुछ संशोधन चाहें या कुछ जोड़ना चाहें तो अवश्य बतायें। आधी जनसंख्या को सुनिश्चित और लघु समय सीमा में न्याय (justice) मिलना चाहिये। पूरा संविधान पढ़ने की आवश्यकता नहीं, प्रस्तावना (preamble) ही पर्याप्त है।

All my knocking has gone unheard. I begin to draft PIL myself. You may send me suggestions or if you are a lawyer, you may draft it on my behalf who like you, is a tiny part of the people. But I have no money and I am convinced that this issue is beyond the realms of money.
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Hon'ble Chief Justice of India 

I, a common citizen of Republic of India, constitute 'the people' which has given the constitution to itself. I have proclaimed myself in the preamble to the constitution and today I am before you in the supreme temple of justice asking for the justice.

All I could do was to read the preamble. I can understand only one word JUSTICE in the present context, though I can't express it eloquently. I have a firm belief that this understanding is universal and with this understanding I am before you demanding justice for half of 'the people'. 

I am before you for better half of the people which also is mother in lineage of earth, the mother.

I am before you for that half which ensures continuity of life carrying the future of the people in her womb.

I am before you pleading that she does not delay in deliverance of life but justice has always been a delayed affair for the crimes committed against her just for the fact that she carries organs to bring life on the earth.
 
I am before you to proclaim that these crimes are against the life and I know that in the pages following the preamble it is written that life is a fundamental right.

I am before you for that fundamental right and when I say fundamental, I just know the fundamental beyond technicalities.
 
I am before you for I know that you understand me.
 
I am before you to be my pleader to plead on my behalf with yourself and pronounce that justice must be delivered in a fixed time frame and with all the precision, correctness and effectiveness it deserves for it links to the mother who delivers timely, effectively, precisely to ensure continuity of life and continuity of 'We the people'.... 

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यह केवल प्रारम्भ भर है। मैं लिखता जाऊँगा और 2013 के प्रारम्भ से पूर्व ही सम्पूर्ण सार्वजनिक कर दूँगा। तब तक आप अपने सुझाव भेज सकते हैं। 

ये कड़ियाँ भी द्रष्टव्य हैं:
बलात्कार, धर्म और भय 
सभी ब्लॉगरों से एक अपील 

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

सभी ब्लॉगरों से एक अपील

आज शीत अयनांत है। उत्तरी गोलार्द्ध में आज सूर्य अपने दक्षिणी झुकाव के चरम पर होगा। यह वार्षिक घटना जीवन प्रतीक ऊष्मा का नया सन्देश ले कर आती है – अब दिन बड़े होने लगेंगे, धरती को ऊष्मा और प्रकाश अधिक मिलने लगेंगे। संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं में इस दिन को मनाया जाता रहा है। भारत में भी इस दिन से नये संवत्सर सत्र प्रारम्भ होते थे जो कि कृषि से भी सम्बन्धित थे।
इस दिन एक राष्ट्र के रूप में हम सभी भीतर तक हिले हुये हैं। राजधानी दिल्ली में हुई बर्बर बलात्कार की घटना ने हमें उस चरम तक आन्दोलित कर दिया है कि जाने अनजाने हमारे भीतर की प्रतिहिंसा भी स्वर पा रही है, वही प्रतिहिंसा जिसके जघन्यतम रूप से हम साक्षी हैं। यह समय चिंतन, मनन और ‘ऐक्शन’ का है न कि कुछ दिन उबलने के पश्चात ठंडे हो जाने का। पिछले आलेख में मैंने इंगित किया था कि हिंसा सनातन रही है। साथ ही यह भी सच है कि प्रतिरोध भी सनातन रहा है। संघर्ष सनातन रहा है। अब हमारे ऊपर है कि हम साक्षी हो आमोद प्रमोद में लगे रहें, बड़ा दिन और नववर्ष मनायें या कुछ ऐसा सार्थक करें जो स्थायी परिवर्तन ला सके।
बीते दिन निराशा के रहे हैं। मैंने तंत्र में जिनसे भी बात की है उनसे छवि बहुत निराशाजनक ही उभर कर सामने आयी है। मेरे प्रश्न, मेरी बातें बहुत ही केन्द्रित रहीं, मैं वहीं केन्द्रित हुआ जिन्हें तत्काल साध्य माना:
·      न्याय और दंड प्रक्रिया तेज हो। बलात्कार सम्बन्धित विधिक प्रावधानों और प्रक्रिया का बहुत दुरुपयोग भी हुआ है और होता रहा है। इसलिये मैं केवल उसी पर केन्द्रित हुआ जहाँ प्रथम दृष्ट्या ही हिंसा और अपराध सिद्ध हों
·      न्याय व्यवस्था जनता के बीच विश्वास खो चुकी है। पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका का भय निषेधात्मक है जिससे शरीफ और सभ्य लोग डरते हैं न कि अपराधी। इस वास्तविकता और छवि को तोड़ने के लिये, सज्जनों में विश्वास स्थापित करने के लिये और ऐसे बलात्कार जैसे  जघन्यतम अपराध की स्थिति में त्वरित निर्णय और दंड सुनिश्चित करने के लिये व्यवस्था बने।
·      ऐसे मामलों के लिये समूचे देश में (केवल दिल्ली में नहीं) फास्ट ट्रैक न्यायालय स्थापित हों। हर राज्य में कम से कम एक ऐसी पीठ हो। यह सत्य है कि दिल्ली से भी जघन्यतम अपराध लोगों के ध्यान तक में नहीं आते और पीड़िताओं एवं उनके परिवार का जीवन पर्यंत उत्पीड़न और शोषण चलता रहता है। संसाधनों के अभाव में निर्धन और दुर्बल वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हैं।
·      न्यायपीठ के लिये धन, जन और संसाधन आवश्यक होते हैं। इन सबसे ऊपर इच्छाशक्ति का होना अनिवार्य है जो कि नहीं है। परिणाम यह होता है कि कार्यपालिका मात्र वी आई पी या बहुत ही हाइलाइट हो गये मामलों में ही न्यायपालिका के पास फास्ट ट्रैक के लिये अनुरोध करती है और तदनुकूल व्यवस्था करती है। ध्यान रहे कि न्यायपालिका उस पर निर्भर है।
·      अब बचती है विधायिका यानि हमारी संसद जो इस सम्बन्ध में क़ानून बना सकती है। संसद के बारे में कुछ न कहना ही ठीक है। आप लोगों ने बहसें देखी ही होंगी। वे सभी जाने किससे कार्यवाही की माँग कर रहे थे? जाने कौन उन्हें क़ानून बनाने से रोक रहा है? सीधी बात यह है कि वे कुछ नहीं करने वाले। हमने चुना ही ऐसे लोगों को है। हम भी दोषी हैं। छोड़िये इसे, विषयांतर हो जायेगा।
·      ले दे के एक ही आस बचती है – सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका। एक बार और दुहरा दूँ – केवल दिल्ली के लिये नहीं, पूरे देश के लिये। यदि वहाँ से कोई आदेश आता है तो कार्यपालिका और विधायिका दोनों बाध्य हो जायेंगे। अब प्रश्न यह उठता है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे? सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान में तो लिया नहीं!  
जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग के कारण ही सर्वोच्च न्यायालय में कुछ ऐसे नियम या चलन हैं जो कि निर्धन और संसाधनहीनों के विरुद्ध जाते हैं:  
(1)  याचिका का प्रस्तुतिकरण एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड ही कर सकता है (उनका शुल्क कम से कम पचास हजार)
(2)  यदि याचिका सुनवाई हेतु स्वीकृत होती है तो कोई आवश्यक नहीं कि जिस बेंच ने स्वीकृत किया वही सुनवाई करे।
(3)  याचिका पर बहस केवल सीनियर एडवोकेट कर सकता है (प्रति सुनवाई शुल्क कम से कम लाख रुपये तो बनता ही है)
बिल्ली के गले घंटी कौन बाँधे?
·           अपारम्परिक तरीके जैसे इंटरनेट पिटीशन, फेसबुक, ब्लॉग आदि केवल अप्रत्यक्ष दबाव का काम कर सकते हैं। वैसे भी इन्हें सुनता देखता कौन है? चन्द अलग तरह के नशेड़ी ही जिनमें बहुलता वास्तविकता से पलायन कर सुरक्षित बकबक करने वालों की ही है।
मैं निराश हो गया हूँ। यदि आप में से किसी को मेरे द्वारा उल्लिखित बातों में कोई त्रुटि दिखती है तो मुझे ठीक करें। यदि दूसरे प्रभावी रास्ते हैं तो बतायें।
इस बार कुछ करना ही होगा।
कल एक मित्र ने बाऊ कथा की अगली कड़ी के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि सहम रहा हूँ क्यों कि आगे बहुत ही वीभत्स हिंसा है। बीत युग के एक यथार्थ को कल्पना द्वारा बुनने की रचनात्मक चुनौती से तो निपट लूँगा  लेकिन वर्तमान के यथार्थ का क्या?
अपनी एक पुरानी नज़्म याद आ रही है:
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उतर गया उफक से सूरज उफ उफ करते
उमसा दिन बीता बाँचते चीखते अक्षर
लिखूँ क्या इस शाम को नज़्म कोई
जो दे दिल को सुकूँ और समा को आराम
चलता रहेगा खुदी का खुदमुख्तार चक्कर
चढ़े कभी उतरे, अजीयत धिक चीख धिक।
कालिखों की राह में दौड़ते नूर के टुकड़े
बहसियाने रंग बिरंगे चमकते बुझते
उनके साथ हूँ जो रुके टिमटिमाते सुनते
चिल्ल पों में फुसफुसाते आगे सरकते
गोया कि हैं अभिशप्त पीछे छूटने को
इनका काम बस आह भरना औ' सरकना।
हकीकत है कि मैं भी घबराता हूँ
छूट जाने से फिर फिर डर जाता हूँ
करूँ क्या जो नाकाफी बस अच्छे काम
करूँ क्या जो दिखती है रंगों में कालिख
करूँ क्या जो लगते हैं फलसफे नालिश -
बुतों, बुतशिकन, साकार, निराकार से
करूँ क्या जो नज़र जाती है रह रह भीतर -
मसाइल हैं बाहरी और सुलहें अन्दरूनी
करूँ क्या जो ख्वाहिशें जुम्बिशें अग़लात।
करूँ क्या कि उनके पास हैं सजायें- 
उन ग़ुनाहों की जो न हुये, न किये गये 
करूँ क्या जो लिख जाते हैं इलजाम- 
इसके पहले कि आब-ए-चश्म सूखें 
करूँ क्या जो खोयें शब्द चीखें अर्थ अपना
मेरी जुबाँ से बस उनके कान तक जाने में?
करूँ क्या कि आशिक बदल देते हैं रोजनामचा- 
भूलता जाता हूँ रोज मैं नाम अपना।

सोचता रह गया कि उट्ठे गुनाह आली
रंग चमके बहसें हुईं बजी ताली पर ताली
पकने लगे तन्दूर-ए-जश्न दिलों के मुर्ग
मुझे बदबू लगे उन्हें खुशबू हवाली
धुयें निकलते हैं सुनहरी चिमनियों से
फुँक रहे मसवरे, प्रार्थनायें और सदायें।
रोज एक उतरता है दूसरा चढ़ता है
जाने ये तख्त शैतानी है या खुदाई 
उनके पास है आतिश-ए-इक़बाली
उनके पास है तेज रफ्तार गाड़ी
अपने पास अबस अश्फाक का पानी
चिरकुट पोंछ्ने को राहों से कालिख
जानूँ नहीं न जानने कि जुस्तजू
वे जो हैं वे हैं ज़िन्दा या मुर्दा
ग़ुम हूँ कि मेरे दामन में छिपे कहीं भीतर
ढेरो सामान बुझाने को पोंछने को   
न दिखा ऐसे में पीरो पयम्बर से जलवे
सनम! फनाई को हैं काफी बस ग़म काफिराना।

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शब्दार्थ: 
उफक - क्षितिज; समा - समय; अजीयत - यंत्रणा; बुतशिकन - मूर्तिभंजक; अग़लात - ग़लतियाँ; आली - भव्य, सखी; इक़बाल - सौभाग्य; अबस - व्यर्थ; अश्फाक - कृपा, अनुग्रह; फनाई- विनाश, भक्त का परमात्मा में लीन होना 

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आप सबसे एक अपील है। हर वर्ष नववर्ष पर आप लोग कविता, कहानियाँ, प्रेमगीत, शुभकामना सन्देश,  लेख आदि लिखते हैं। इस बार एक जनवरी को बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कारों के विरुद्ध जिनमें कि अपराध स्वयंसिद्ध है; पीड़िताओं के हित में, उनके परिवारों के हित में, समस्त स्त्री जाति और स्वयं के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें।
यह ध्यान रहे कि बहकें नहीं। नये क़ानून के लिये अलग से माँग हो सकती है लेकिन सामूहिक रूप से एक ही दिन एक बहुत ही साध्य माँग हर ओर से उठेगी तो उसका प्रभाव और इतिहास कुछ और होगा। एक ब्लॉगर के तौर पर सार्थकता होगी कि एक हो हमने ऐसी माँग उठाई!
कम से कम एक मामले में तो हम कह सकें कि भारत देश में अन्धेर नहीं है!

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

बलात्कार, धर्म और भय

उत्तर वैदिक काल में एक आख्यान मिलता है जिसमें शिष्यों के साथ अध्ययनलीन ऋषि के आश्रम में उन के सामने ही उनकी स्त्री के साथ यौन अपराध घटित होता है। सबसे आदरणीय स्थान पर सबसे आदरणीय जन के संरक्षण में रह रही स्त्री वह आधार है जिसके साथ की गयी हिंसा सबसे अधिक कष्ट देगी – यह है मानसिकता! स्त्री के स्वयं के कष्ट का आततायी के लिये कोई मायने नहीं। आश्रम की सबसे प्रतिष्ठित स्त्री या तो पाल्य पशुओं की तरह है या भोग्या। ऐसी घटनाओं के पश्चात पुरुष के द्वारा भयभीत पुरुष ने ‘स्त्री हित’ विवाह संस्था को नियमबद्ध किया। जिस तरह से कृषि भूमि किसान के लिये वैसे ही गृहस्थ के लिये उसकी पत्नी – एकाधिकार, सम्पत्ति।
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सुदूर दक्षिण की लंका में एक अन्य काल में संसार में सबसे मूर्धन्य माने जाने वाले महातापस, महाज्ञानी, महापराक्रमी और महावैदिक राक्षस रावण की राजसभा है। रावण सीता के अंगों का कामलोलुप वर्णन करता है और कहता है – सा मे न शय्यामारोढुमिच्छ्त्यलसमागिनी, वह अलसगामिनी मेरी सेज पर सवार नहीं होना चाहती। आगे कहता है कि भामिनी ने एक संवत्सर का समय माँगा है लेकिन मैं तो कामपीड़ा से थक गया हूँ और इधर राम सेना ले आ धमका है। रावण अपनी सुरक्षा को लेकर दुविधा में है – कपिनैकेन कृतं न: कदनं महत्। एक ही कपि ने इतना विनाश कर डाला, सभी आयेंगे तो क्या होगा?
आततायी इतना भयभीत है कि राजसभा की बैठक बुलाई गई है, कुम्भकर्ण को जगा दिया गया है। कुम्भकर्ण पहले खरी खोटी सुनाता है लेकिन अंत में आश्वासन देता है – रमस्व कामं पिव चाग्र्यवारुणीं ...रामे गमिते यमक्षयं...सीता वशगा भविष्यति- मौज करो, दारू पियो, राम को मैं मार दूँगा तब सीता तुम्हारे अधीन हो ही जायेगी। ‘धर्मी’ कुम्भकर्ण के लिये भी सीता की अपनी इच्छा का कोई मोल नहीं, वह भोग्या भर है।     
 महापार्श्व सलाह देता है:
बलात्कुक्कुटवृत्तेन वर्तस्व सुमहाबल
आक्रम्य सीतां वैदेहीं तथा भुंक्ष्व रमस्व च।

हे ‘सु’महाबल! सीता के साथ वैसे ही बलात्कार करो जैसे मुर्गा [मुर्गी के साथ] करता है। ‘विदेह’ सुता सीता के साथ आक्रामक हो उसका भोग करो, उससे रमण करो।
महापार्श्व वह पुरुष है जिसके लिये महाबल की सार्थकता बलात्कार द्वारा अपनी भोगेच्छा पूरी करने में है। बर्बर बल की जो मानसिकता पुरुष को आक्रांता बनाती है, उसका यहाँ नग्न चित्रण है। विदेहसुता सीता जो कि दैहिकता से परे है, उसका भी कोई सम्मान नहीं! देवी और भोग्या की दो चरम सीमाओं पर चित्रित स्त्री को अन्तत: भोग्या ही होना है।
बलात उठा ले आने के पश्चात भी रावण बलात्कार करने से घबरा रहा है। क्यों? 
वह स्वयं बताता है कि पुंजिकस्थला नामक अप्सरा को नग्न कर बलात्कार (मया भुक्ता कृता विवसना तत:)  करने पर ब्रह्मा ने मुझे शाप दिया था – अद्यप्रभृति यामन्यां बलान्नारीं गमिष्यसि, तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशय:।
यदि आज के पश्चात तुमने किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया तो इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। रावण बलात्कार की उस परिणति से डरा हुआ है जिसमें उसके जीवन का ही नाश हो जायेगा। अपनी जान तो बहुत प्यारी है और जीवन नहीं रहेगा तो भोग कैसे हो पायेगा? इसलिये एक वर्ष रुकने को तैयार है। सीता तो भोग्या भर है, पा लेगा उसके बाद!
सदा बलात्कारी रावण को धर्म या शुभेच्छा ने नहीं रोका, निज जीवन के भय ने बलात्कार करने से रोका।
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एक और काल में स्थान है सबसे गौरवमय भीष्म, द्रोण, विदुर, कृप और द्वैपायन जैसे महात्माओं द्वारा संरक्षित सबसे प्रतिष्ठित कुरुवंश की राजसभा। यहाँ भी स्त्री को दाँव पर लगाते हुये धर्मराज युधिष्ठिर उसके सौन्दर्य का जो वर्णन करते हैं, वह अद्भुत है। लगता है जैसे पेटी खोल द्यूतक्रीड़ा में कोई रत्न दिखाया जा रहा हो!  वह द्रौपदी जो शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया और रूपेण श्रीसमानया है, जो सभी चरों और अनुचरों की सुविधाओं का ध्यान रखती है, सबसे बाद में सोती है और सबसे पहले उठ जाती है, रानी होने पर भी श्रमी है, जिसके ललाट पर स्वेदबिन्दु वैसे ही शोभा पाते हैं जैसे मल्लिका पुष्प की पंखुड़ियों पर जलबिन्दु आभाति पद्मवद्वक्त्रं सस्वेदं मल्लिकेव च; ऐसी सर्वगुणी द्रौपदी को दाँव पर लगाता हुआ पुरुष धर्म एक बार भी नहीं सोचता और न उसे सभा में बैठे धुरन्धर रोकते हैं!
धर्म ने भाइयों और स्वयं को हारने के बाद पत्नी द्रौपदी को भी जुये में हार दिया है और सभा में उस दासी को लाने को दुर्योधन कहता है। विदुर की रोक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह एक पुरुष द्वारा दूसरे पुरुष को चरम कष्ट देने का उद्योग है, स्त्री तो बस स्त्री है! क्या हुआ जो वह एकवस्त्रा अधोनीवी रोदमाना रजस्वला है, घसीट ले आओ! हिंसा में स्त्री का जो मातृ रूप है न, वह भी आदर नहीं जगाता। माँ बनने की प्राकृतिक व्यवस्था में वह ऋतुमती है, ऐसी स्थिति में है जो सबसे आदरणीय है लेकिन ...
उसे घसीट कर लाने को घर में घुसा दु:शासन भी धर्म की बात करता है – धर्मेण लब्धासि सभां परैहि! वह कुरु रनिवास की ओर भागती है तो उसके उन्हीं नीलाभा लिये दीर्घ केशों को पकड़ कर घसीट लेता है जिन्हें एक रत्न की विशेषता के तौर पर धर्मराज ने दाँव लगाते गिनाया था।  सभा में द्रौपदी प्रश्न करती है – राजा ने पहले स्वयं को हारा या मुझे? स्वयं को हारे हुये का मुझ पर क्या अधिकार? वह भी धर्म की मर्यादा की दुहाई देती है और सब चुप रहते हैं, भीष्म सूक्ष्म गति कह कर बला टाल देते हैं।
धर्म के तमाम तर्कों को किनारे करते हुये कर्ण कहता है:
एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहित: कुरुनन्दन, इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता।
अस्या: सभामानयनं न चित्रमिति मे मति: एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता॥

देवों ने स्त्री के लिये केवल एक पति का विधान किया है लेकिन यह द्रौपदी तो ‘अनेकवशगा’ है इसलिये यह निश्चित ही कुलटा है। इसे इस सभा में पूर्ण वस्त्र पहने या एक वस्त्र में लाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यदि इसे यहाँ ‘विवस्त्र’ नंगी कर दिया जाय तो भी मेरे मत में अन्यथा नहीं।
यह है कुरुवंश की सभा! आज की खाप पंचायतों के तर्क और कर्म याद आये कि नहीं? जो विवाह संस्था स्त्री से अधिक पुरुष के हित के लिये बनाई गई, वह विवाह जिसे उस युग के धर्ममूर्ति वेदव्यास ने स्वयं मान्यता दी कि द्रौपदी पाँच पांडवों की पत्नी है; उसे अपनी लिप्सा की पूर्ति के लिये देवसम्मत न बता और उसी तर्क के आधार पर पुन: स्त्री को कुलटा तय कर और उसके पश्चात उसे नंगी करने का भी औचित्य सिद्ध कर दिया गया और सभी धर्मी चुप रहे!
क्यों कि सभी पुरुष थे और रनिवास की कुलीन स्त्रियों के लिये सभा में आना निषिद्ध था। द्रौपदी तो दासी हो गई थी इसलिये उसका क्या मान सम्मान? सभा में नंगी भी लाई जाय तो क्या बुराई?
भीष्म अपनी व्यथा कहते हैं:
बलवांस्तु यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुष:
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहित: परै:।
बली की बात ही धर्म है। निर्बल द्वारा कहे गये सर्वोच्च धर्म की भी कोई मान्यता नहीं। कटु सत्य, सँभाला हुआ गोपन नग्न हो जाता है। पाशव बल की समर्थक है यह उक्ति! नपुंसक समाज इसे दुहराने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।
तमाम बेहूदगियों के पश्चात भय के कारण ही अब तक आनन्द मनाता अन्धा धृतराष्ट्र द्रौपदी को वरदान के प्रलोभन देता है। क्या है वह भय? वह भय है भीम की सर्वनाशी प्रतिज्ञाओं का और:
ततो राज्ञो धृतराष्ट्रस्य गेहे गोमायुरुच्चैव् र्याहरदग्निहोत्रे, तं रासभा: प्रत्याभाषंत राजंसमंतत: पक्षिणश्चैव रौद्रा:।
अग्निहोत्र धुँआ धुँआ हो गया है। अचानक गधे चीत्कारने लगे हैं। पक्षी रौद्र शोर मचाने लगे हैं... अन्धे राष्ट्र की श्रवण शक्ति तेज है। वह आने वाले सर्वनाश की आहट पा रहा है। भयभीत हो गया है।
धर्म ने नहीं, भय ने उसे प्रलोभन द्वारा आगत संकट को टालने का मार्ग सुझाया है।
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ये तीन दृष्टांत दिल्ली में हुये बर्बर बलात्कार के सन्दर्भ में सामयिक हैं। हम सब में रावण बैठा हुआ है। आप में से कितने द्रौपदी को लेकर उसी मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं जिससे कर्ण, कौरव, पांडव या कुरुवृद्ध थे? कितने जन स्त्री को देवी या भोग्या से परे एक व्यक्ति के रूप में उसके सारे गुणों और दोषों के साथ सहज मन से स्वीकार पाते हैं?
 यह राष्ट्र अन्धा  धृतराष्ट्र है जिसने ‘कलह’ के भय से महाभारत सी विराट सचाई से भी आँखें मूँदी हुई हैं। हर लड़की, हर स्त्री चीरहरण को तैयार माल यानि द्रौपदी है। बीसवीं सदी के एक कवि ने कुछ यूँ कहा था:
हर सत्य का युधिष्ठिर बैठा है मौन पहने,
ये पार्थ भीम सारे आये हैं जुल्म सहने
आँसू हैं चीर जैसे, हर स्त्री द्रौपदी है, यह बीसवीं सदी है।    
चाहे ईसा पूर्व की सदी हो या बाद की, धर्म, भय और दंड की स्थितियाँ यथावत रही हैं, रहेंगी। पशुबल केवल पाशव दंड के भय से ही नियंत्रण में आता है। जब मैं धर्म की बात कर रहा हूँ तो हिन्दू, सिख, जैन आदि की नहीं उसकी बात कर रहा हूँ जो सभ्य मानव के लिये धारणीय है। आज कितने लोग इस धर्म की शिक्षा अपनी संतानों को देते हैं?
इतिहास साक्षी है कि स्त्री ने अपने लिये कभी संहितायें नहीं गढ़ीं और न धर्म के नियम बनाये। वह माता पुरुष के बनाये धर्म मार्ग पर चलती हुयी भी लांछित, अपमानित और प्रताड़ित होती रही।
स्थिति शोचनीय है। हो हल्ला चन्द दिनों में थम जायेगा। दिल्ली की स्पिरिट जवाँ हो पुन: अपने धन्धे में लग जायेगी लेकिन उस लड़की का क्या होगा?
मैंने पुलिस वालों से भी बातें की हैं। उनका कहना भी यही है कि यदि ट्रायल तेज हो और अल्पतम समय में अपराधी दंडित हों तो अपराधी सहमेंगे। ऐसी घटनायें निश्चित ही कम होंगी। होता यह है कि ढेरों जटिलताओं और लम्बे समय के कारण या तो अपराधी छूट जाते हैं या बिना दंडित हुये ही परलोक सिधार जाते हैं या दंडित होने की स्थिति में भी उसका भयावह पक्ष एकदम तनु हो चुका होता है जो कोई मिसाल नहीं बन पाता। विधि में संशोधन कर ऐसे अपराध के लिये मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये लेकिन तब तक न्याय प्रक्रिया को त्वरित करने से कौन रोक रहा है?
घटना दिल्ली में हुई है, संभ्रांत वर्ग के साथ हुई है इसलिये हो हल्ला और दबाव के कारण हो सकता है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित हो जाय और त्वरित न्याय मिले लेकिन दूर दराज के गाँवों, जंगलों और कस्बों में ऐसी घटनाओं की पीड़ितायें तो तब भी पिसती रहेंगी!
क्यों नहीं एक नीतिगत निर्णय ले ऐसे अपराधों के लिये देश भर में स्थायी फास्ट ट्रैक न्यायपीठ नहीं बनाये जाते? इसके लिये तो संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं!
माननीय सर्वोच्च न्यायालय का घोष वाक्य है – यतो धर्मस्ततो जय:। यह भी महाभारत से लिया गया है। जय संहिता यानि महाभारत ही साक्षी है – भय के बिना धर्म में बुद्धि रत नहीं होती और समय पर नियंत्रण और दंड के अभाव में पूरा समाज महाविनाश की ओर अग्रसर होता है। आज दंड के भय की आवश्यकता है, कोई सुन रहा है?