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रविवार, 23 दिसंबर 2012

PIL of 'We, the people'

लड़की की आँखों को देखिये, चेहरे के भाव और देह की भंगिमा देखिये। यह ऐतिहासिक चित्र है। 
यह है स्त्री! केयरिंग, निर्भय और अपने अधिकारों के प्रति सचेत। 
~तुम्हें नमन है~

खटखटाहटों पर कोई उत्तर न मिले तो भी अकेले हाँक पारना न छोड़ो!’

सब ओर से चुप्पियों से साक्षात होने के पश्चात मैं सर्वोच्च न्यायालय हेतु जनहित याचिका को स्वयं ड्राफ्ट कर रहा हूँ। 

यह पूरे देश में, हर राज्य में कम से कम एक, त्वरित गति न्यायपीठों (Fast Track Courts) की स्थापना हेतु न्यायिक आदेश देने के लिये है। ऐसे न्यायपीठ उन सभी नये पुराने अपराधों की सुनवाई करेंगे जिनमें बलात्कार स्वयंसिद्ध है। ये न्यायालय ऐसी घटनाओं को स्वयं संज्ञान में भी लेते हुये कार्यवाही सुनिश्चित करेंगे। 

यह अंग्रेजी में हैं क्यों कि हमारे न्यायिक तंत्र की भाषा अंग्रेजी है। यह समय भाषा विवाद में पड़ने का नहीं है। युद्ध के समय शस्त्रास्त्र महत्त्वपूर्ण होते हैं न कि उनके खोल और ढाँचे।

यदि आप इस याचिका में कुछ संशोधन चाहें या कुछ जोड़ना चाहें तो अवश्य बतायें। आधी जनसंख्या को सुनिश्चित और लघु समय सीमा में न्याय (justice) मिलना चाहिये। पूरा संविधान पढ़ने की आवश्यकता नहीं, प्रस्तावना (preamble) ही पर्याप्त है।

All my knocking has gone unheard. I begin to draft PIL myself. You may send me suggestions or if you are a lawyer, you may draft it on my behalf who like you, is a tiny part of the people. But I have no money and I am convinced that this issue is beyond the realms of money.
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Hon'ble Chief Justice of India 

I, a common citizen of Republic of India, constitute 'the people' which has given the constitution to itself. I have proclaimed myself in the preamble to the constitution and today I am before you in the supreme temple of justice asking for the justice.

All I could do was to read the preamble. I can understand only one word JUSTICE in the present context, though I can't express it eloquently. I have a firm belief that this understanding is universal and with this understanding I am before you demanding justice for half of 'the people'. 

I am before you for better half of the people which also is mother in lineage of earth, the mother.

I am before you for that half which ensures continuity of life carrying the future of the people in her womb.

I am before you pleading that she does not delay in deliverance of life but justice has always been a delayed affair for the crimes committed against her just for the fact that she carries organs to bring life on the earth.
 
I am before you to proclaim that these crimes are against the life and I know that in the pages following the preamble it is written that life is a fundamental right.

I am before you for that fundamental right and when I say fundamental, I just know the fundamental beyond technicalities.
 
I am before you for I know that you understand me.
 
I am before you to be my pleader to plead on my behalf with yourself and pronounce that justice must be delivered in a fixed time frame and with all the precision, correctness and effectiveness it deserves for it links to the mother who delivers timely, effectively, precisely to ensure continuity of life and continuity of 'We the people'.... 

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यह केवल प्रारम्भ भर है। मैं लिखता जाऊँगा और 2013 के प्रारम्भ से पूर्व ही सम्पूर्ण सार्वजनिक कर दूँगा। तब तक आप अपने सुझाव भेज सकते हैं। 

ये कड़ियाँ भी द्रष्टव्य हैं:
बलात्कार, धर्म और भय 
सभी ब्लॉगरों से एक अपील 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

बलात्कार, धर्म और भय

उत्तर वैदिक काल में एक आख्यान मिलता है जिसमें शिष्यों के साथ अध्ययनलीन ऋषि के आश्रम में उन के सामने ही उनकी स्त्री के साथ यौन अपराध घटित होता है। सबसे आदरणीय स्थान पर सबसे आदरणीय जन के संरक्षण में रह रही स्त्री वह आधार है जिसके साथ की गयी हिंसा सबसे अधिक कष्ट देगी – यह है मानसिकता! स्त्री के स्वयं के कष्ट का आततायी के लिये कोई मायने नहीं। आश्रम की सबसे प्रतिष्ठित स्त्री या तो पाल्य पशुओं की तरह है या भोग्या। ऐसी घटनाओं के पश्चात पुरुष के द्वारा भयभीत पुरुष ने ‘स्त्री हित’ विवाह संस्था को नियमबद्ध किया। जिस तरह से कृषि भूमि किसान के लिये वैसे ही गृहस्थ के लिये उसकी पत्नी – एकाधिकार, सम्पत्ति।
........

सुदूर दक्षिण की लंका में एक अन्य काल में संसार में सबसे मूर्धन्य माने जाने वाले महातापस, महाज्ञानी, महापराक्रमी और महावैदिक राक्षस रावण की राजसभा है। रावण सीता के अंगों का कामलोलुप वर्णन करता है और कहता है – सा मे न शय्यामारोढुमिच्छ्त्यलसमागिनी, वह अलसगामिनी मेरी सेज पर सवार नहीं होना चाहती। आगे कहता है कि भामिनी ने एक संवत्सर का समय माँगा है लेकिन मैं तो कामपीड़ा से थक गया हूँ और इधर राम सेना ले आ धमका है। रावण अपनी सुरक्षा को लेकर दुविधा में है – कपिनैकेन कृतं न: कदनं महत्। एक ही कपि ने इतना विनाश कर डाला, सभी आयेंगे तो क्या होगा?
आततायी इतना भयभीत है कि राजसभा की बैठक बुलाई गई है, कुम्भकर्ण को जगा दिया गया है। कुम्भकर्ण पहले खरी खोटी सुनाता है लेकिन अंत में आश्वासन देता है – रमस्व कामं पिव चाग्र्यवारुणीं ...रामे गमिते यमक्षयं...सीता वशगा भविष्यति- मौज करो, दारू पियो, राम को मैं मार दूँगा तब सीता तुम्हारे अधीन हो ही जायेगी। ‘धर्मी’ कुम्भकर्ण के लिये भी सीता की अपनी इच्छा का कोई मोल नहीं, वह भोग्या भर है।     
 महापार्श्व सलाह देता है:
बलात्कुक्कुटवृत्तेन वर्तस्व सुमहाबल
आक्रम्य सीतां वैदेहीं तथा भुंक्ष्व रमस्व च।

हे ‘सु’महाबल! सीता के साथ वैसे ही बलात्कार करो जैसे मुर्गा [मुर्गी के साथ] करता है। ‘विदेह’ सुता सीता के साथ आक्रामक हो उसका भोग करो, उससे रमण करो।
महापार्श्व वह पुरुष है जिसके लिये महाबल की सार्थकता बलात्कार द्वारा अपनी भोगेच्छा पूरी करने में है। बर्बर बल की जो मानसिकता पुरुष को आक्रांता बनाती है, उसका यहाँ नग्न चित्रण है। विदेहसुता सीता जो कि दैहिकता से परे है, उसका भी कोई सम्मान नहीं! देवी और भोग्या की दो चरम सीमाओं पर चित्रित स्त्री को अन्तत: भोग्या ही होना है।
बलात उठा ले आने के पश्चात भी रावण बलात्कार करने से घबरा रहा है। क्यों? 
वह स्वयं बताता है कि पुंजिकस्थला नामक अप्सरा को नग्न कर बलात्कार (मया भुक्ता कृता विवसना तत:)  करने पर ब्रह्मा ने मुझे शाप दिया था – अद्यप्रभृति यामन्यां बलान्नारीं गमिष्यसि, तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशय:।
यदि आज के पश्चात तुमने किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया तो इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। रावण बलात्कार की उस परिणति से डरा हुआ है जिसमें उसके जीवन का ही नाश हो जायेगा। अपनी जान तो बहुत प्यारी है और जीवन नहीं रहेगा तो भोग कैसे हो पायेगा? इसलिये एक वर्ष रुकने को तैयार है। सीता तो भोग्या भर है, पा लेगा उसके बाद!
सदा बलात्कारी रावण को धर्म या शुभेच्छा ने नहीं रोका, निज जीवन के भय ने बलात्कार करने से रोका।
........

एक और काल में स्थान है सबसे गौरवमय भीष्म, द्रोण, विदुर, कृप और द्वैपायन जैसे महात्माओं द्वारा संरक्षित सबसे प्रतिष्ठित कुरुवंश की राजसभा। यहाँ भी स्त्री को दाँव पर लगाते हुये धर्मराज युधिष्ठिर उसके सौन्दर्य का जो वर्णन करते हैं, वह अद्भुत है। लगता है जैसे पेटी खोल द्यूतक्रीड़ा में कोई रत्न दिखाया जा रहा हो!  वह द्रौपदी जो शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया और रूपेण श्रीसमानया है, जो सभी चरों और अनुचरों की सुविधाओं का ध्यान रखती है, सबसे बाद में सोती है और सबसे पहले उठ जाती है, रानी होने पर भी श्रमी है, जिसके ललाट पर स्वेदबिन्दु वैसे ही शोभा पाते हैं जैसे मल्लिका पुष्प की पंखुड़ियों पर जलबिन्दु आभाति पद्मवद्वक्त्रं सस्वेदं मल्लिकेव च; ऐसी सर्वगुणी द्रौपदी को दाँव पर लगाता हुआ पुरुष धर्म एक बार भी नहीं सोचता और न उसे सभा में बैठे धुरन्धर रोकते हैं!
धर्म ने भाइयों और स्वयं को हारने के बाद पत्नी द्रौपदी को भी जुये में हार दिया है और सभा में उस दासी को लाने को दुर्योधन कहता है। विदुर की रोक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह एक पुरुष द्वारा दूसरे पुरुष को चरम कष्ट देने का उद्योग है, स्त्री तो बस स्त्री है! क्या हुआ जो वह एकवस्त्रा अधोनीवी रोदमाना रजस्वला है, घसीट ले आओ! हिंसा में स्त्री का जो मातृ रूप है न, वह भी आदर नहीं जगाता। माँ बनने की प्राकृतिक व्यवस्था में वह ऋतुमती है, ऐसी स्थिति में है जो सबसे आदरणीय है लेकिन ...
उसे घसीट कर लाने को घर में घुसा दु:शासन भी धर्म की बात करता है – धर्मेण लब्धासि सभां परैहि! वह कुरु रनिवास की ओर भागती है तो उसके उन्हीं नीलाभा लिये दीर्घ केशों को पकड़ कर घसीट लेता है जिन्हें एक रत्न की विशेषता के तौर पर धर्मराज ने दाँव लगाते गिनाया था।  सभा में द्रौपदी प्रश्न करती है – राजा ने पहले स्वयं को हारा या मुझे? स्वयं को हारे हुये का मुझ पर क्या अधिकार? वह भी धर्म की मर्यादा की दुहाई देती है और सब चुप रहते हैं, भीष्म सूक्ष्म गति कह कर बला टाल देते हैं।
धर्म के तमाम तर्कों को किनारे करते हुये कर्ण कहता है:
एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहित: कुरुनन्दन, इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता।
अस्या: सभामानयनं न चित्रमिति मे मति: एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता॥

देवों ने स्त्री के लिये केवल एक पति का विधान किया है लेकिन यह द्रौपदी तो ‘अनेकवशगा’ है इसलिये यह निश्चित ही कुलटा है। इसे इस सभा में पूर्ण वस्त्र पहने या एक वस्त्र में लाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यदि इसे यहाँ ‘विवस्त्र’ नंगी कर दिया जाय तो भी मेरे मत में अन्यथा नहीं।
यह है कुरुवंश की सभा! आज की खाप पंचायतों के तर्क और कर्म याद आये कि नहीं? जो विवाह संस्था स्त्री से अधिक पुरुष के हित के लिये बनाई गई, वह विवाह जिसे उस युग के धर्ममूर्ति वेदव्यास ने स्वयं मान्यता दी कि द्रौपदी पाँच पांडवों की पत्नी है; उसे अपनी लिप्सा की पूर्ति के लिये देवसम्मत न बता और उसी तर्क के आधार पर पुन: स्त्री को कुलटा तय कर और उसके पश्चात उसे नंगी करने का भी औचित्य सिद्ध कर दिया गया और सभी धर्मी चुप रहे!
क्यों कि सभी पुरुष थे और रनिवास की कुलीन स्त्रियों के लिये सभा में आना निषिद्ध था। द्रौपदी तो दासी हो गई थी इसलिये उसका क्या मान सम्मान? सभा में नंगी भी लाई जाय तो क्या बुराई?
भीष्म अपनी व्यथा कहते हैं:
बलवांस्तु यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुष:
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहित: परै:।
बली की बात ही धर्म है। निर्बल द्वारा कहे गये सर्वोच्च धर्म की भी कोई मान्यता नहीं। कटु सत्य, सँभाला हुआ गोपन नग्न हो जाता है। पाशव बल की समर्थक है यह उक्ति! नपुंसक समाज इसे दुहराने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।
तमाम बेहूदगियों के पश्चात भय के कारण ही अब तक आनन्द मनाता अन्धा धृतराष्ट्र द्रौपदी को वरदान के प्रलोभन देता है। क्या है वह भय? वह भय है भीम की सर्वनाशी प्रतिज्ञाओं का और:
ततो राज्ञो धृतराष्ट्रस्य गेहे गोमायुरुच्चैव् र्याहरदग्निहोत्रे, तं रासभा: प्रत्याभाषंत राजंसमंतत: पक्षिणश्चैव रौद्रा:।
अग्निहोत्र धुँआ धुँआ हो गया है। अचानक गधे चीत्कारने लगे हैं। पक्षी रौद्र शोर मचाने लगे हैं... अन्धे राष्ट्र की श्रवण शक्ति तेज है। वह आने वाले सर्वनाश की आहट पा रहा है। भयभीत हो गया है।
धर्म ने नहीं, भय ने उसे प्रलोभन द्वारा आगत संकट को टालने का मार्ग सुझाया है।
*****
ये तीन दृष्टांत दिल्ली में हुये बर्बर बलात्कार के सन्दर्भ में सामयिक हैं। हम सब में रावण बैठा हुआ है। आप में से कितने द्रौपदी को लेकर उसी मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं जिससे कर्ण, कौरव, पांडव या कुरुवृद्ध थे? कितने जन स्त्री को देवी या भोग्या से परे एक व्यक्ति के रूप में उसके सारे गुणों और दोषों के साथ सहज मन से स्वीकार पाते हैं?
 यह राष्ट्र अन्धा  धृतराष्ट्र है जिसने ‘कलह’ के भय से महाभारत सी विराट सचाई से भी आँखें मूँदी हुई हैं। हर लड़की, हर स्त्री चीरहरण को तैयार माल यानि द्रौपदी है। बीसवीं सदी के एक कवि ने कुछ यूँ कहा था:
हर सत्य का युधिष्ठिर बैठा है मौन पहने,
ये पार्थ भीम सारे आये हैं जुल्म सहने
आँसू हैं चीर जैसे, हर स्त्री द्रौपदी है, यह बीसवीं सदी है।    
चाहे ईसा पूर्व की सदी हो या बाद की, धर्म, भय और दंड की स्थितियाँ यथावत रही हैं, रहेंगी। पशुबल केवल पाशव दंड के भय से ही नियंत्रण में आता है। जब मैं धर्म की बात कर रहा हूँ तो हिन्दू, सिख, जैन आदि की नहीं उसकी बात कर रहा हूँ जो सभ्य मानव के लिये धारणीय है। आज कितने लोग इस धर्म की शिक्षा अपनी संतानों को देते हैं?
इतिहास साक्षी है कि स्त्री ने अपने लिये कभी संहितायें नहीं गढ़ीं और न धर्म के नियम बनाये। वह माता पुरुष के बनाये धर्म मार्ग पर चलती हुयी भी लांछित, अपमानित और प्रताड़ित होती रही।
स्थिति शोचनीय है। हो हल्ला चन्द दिनों में थम जायेगा। दिल्ली की स्पिरिट जवाँ हो पुन: अपने धन्धे में लग जायेगी लेकिन उस लड़की का क्या होगा?
मैंने पुलिस वालों से भी बातें की हैं। उनका कहना भी यही है कि यदि ट्रायल तेज हो और अल्पतम समय में अपराधी दंडित हों तो अपराधी सहमेंगे। ऐसी घटनायें निश्चित ही कम होंगी। होता यह है कि ढेरों जटिलताओं और लम्बे समय के कारण या तो अपराधी छूट जाते हैं या बिना दंडित हुये ही परलोक सिधार जाते हैं या दंडित होने की स्थिति में भी उसका भयावह पक्ष एकदम तनु हो चुका होता है जो कोई मिसाल नहीं बन पाता। विधि में संशोधन कर ऐसे अपराध के लिये मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये लेकिन तब तक न्याय प्रक्रिया को त्वरित करने से कौन रोक रहा है?
घटना दिल्ली में हुई है, संभ्रांत वर्ग के साथ हुई है इसलिये हो हल्ला और दबाव के कारण हो सकता है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित हो जाय और त्वरित न्याय मिले लेकिन दूर दराज के गाँवों, जंगलों और कस्बों में ऐसी घटनाओं की पीड़ितायें तो तब भी पिसती रहेंगी!
क्यों नहीं एक नीतिगत निर्णय ले ऐसे अपराधों के लिये देश भर में स्थायी फास्ट ट्रैक न्यायपीठ नहीं बनाये जाते? इसके लिये तो संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं!
माननीय सर्वोच्च न्यायालय का घोष वाक्य है – यतो धर्मस्ततो जय:। यह भी महाभारत से लिया गया है। जय संहिता यानि महाभारत ही साक्षी है – भय के बिना धर्म में बुद्धि रत नहीं होती और समय पर नियंत्रण और दंड के अभाव में पूरा समाज महाविनाश की ओर अग्रसर होता है। आज दंड के भय की आवश्यकता है, कोई सुन रहा है?                

गुरुवार, 10 मई 2012

साधु स्त्रियों! - 1

तुम वह आग हो जिसे छूते ही सारे दोष स्वाहा हो जायेंगे।“ – पिताजी

“गन्दगी मिट्टी की दीवार से चिपक सकती है, पॉलिश किये हुये संगमरमर से नहीं।“ – विवेकानन्द

विवेकानन्द और पिताजी में कुछ खास पटरी कभी नहीं रही जब कि विवेकानन्द किशोरावस्था में मेरे हीरो रहे। इंजीनियरिंग करते करते मैं विवेकानन्द सम्पूर्ण पढ़ चुका था, पिताजी कहते ही रह गये – महापुरुष हैं लेकिन मुझे नहीं जमते। वह पंजाब की धरती के स्वामी रामतीर्थ की बातें करते। इन दो व्यक्तियों की ऊपर दी गई संस्कार कसौटियों पर मेरे कैशोर्य और यौवन कसे गये। पिताजी ने घर में टी वी नहीं लगने दिया (विवाह हुआ तो श्रीमती जी के साथ टी वी हमारे घर आया)। रेडियो पर भी खासा प्रतिबन्ध था और मैंने टेपरिकॉर्डर कैसे खरीदा, यह कहानी तो बता ही चुका हूँ।

इतने पारम्परिक पिताजी का मित्र जैसा उन्मुक्त भाव भी रहा। आज भी उतने बोल्ड पिता बहुत कम होते होंगे। “दूर कोई गाये”, “जरा सी आहट होती है”, “होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा”, “तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा”  जैसे गीतों के बारे में उन्हों ने स्वय़ं बताया। ये गीत जब भी ‘अनुशासित रेडियो श्रवण सेशन’ में आते, मुझे फोर्सफुल्ली सुनने पड़ते। इस दौरान कई ऐसे गीत भी आते जिन्हें पिताजी रिकमेंड करते। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की लत उन्हों ने ही लगायी।

बारहवीं में आया तो पिताजी ने किशोरावस्था में पहली बार जिनसे सामना होता है, उनके बारे में बताया। एकांत अध्ययन और यौन संयम की महत्ता बताई। स्वप्नदोष तक की चर्चा कर डाली! अंग्रेजी हिन्दी कवियों और महापुरुषों के व्यक्तिगत जीवन की चर्चा करते और साथ ही सौन्दर्य आकर्षण के साथ जुड़ी बहकाने वाली प्रवृत्तियों के बारे में भी बताते। एकाधिक बार ऐसा हुआ कि पिता पुत्र साथ साथ जा रहे हैं और कोई सुन्दर लड़की दिखी तो दोनों उसे देख एक दूसरे को देखे और मुस्कुरा उठे। इंजीनियरिंग करने जाने के बाद तो यह स्थिति हो गई कि वह चर्चा करने लगे – फला लड़की बहुत ही तेज, सुन्दर और सुशील है। उसके पिता अगर मेरे यहाँ आयें तो तुरंत तुम्हारे विवाह को तैयार हो जाऊँ।

उनके हर काम से सुन्दरता टपकती है। खाट बुनने से लेकर रस्सी के विभिन्न गाँठों तक वह सब जानते हैं और बहुत ही सलीके से करते हैं। सूर्योदय के पहले ही दुआर साफ हो जाता है, एक भी मोथा या खर नहीं दिखते। धोती पहनते समय उनकी तन्मयता दर्शनीय होती है। घर में कहीं भी गिलास या कप इधर उधर नहीं दिख सकते। कभी सुन्दर रही मेरी लिखावट खासी बिगड़ चुकी है लेकिन आज भी जब वह लिखते हैं तो उनकी डायरी के पन्नों पर अक्षर सुगढ़ दिखते हैं। कई बार उनकी डायरी मैं चोरी से पढ़ता और अगले दिन ही वह जान जाते।
 पहले ऐसे ही पूछते – किसी ने मेरा बस्ता खोला था क्या (कई बार किसी और काम से अम्मा खुलवाती थीं)? अगर अम्मा नहीं कहतीं तो सब को छोड़ सीधे मुझसे पूछते – तुमने डायरी पढ़ी क्या? मेरे हाँ कहने पर कहते – दूसरों की डायरी पढ़ना अच्छी बात नहीं है। थोड़े और बड़े हो जाओगे तो स्वयं तुम्हें पढ़ने को कहूँगा। मेरे मरने के बाद चुने हुये अंशों को छपवा देना (आजकल वह अपनी डायरियों के स्वाध्याय में लगे हैं। छपने, छपाने और छापने की मेरी योग्यताओं पर उन्हें सन्देह है L)। इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद उन्हों ने बताया कि कैसे गाँठ की पहचान और बस्ते में पारायण पुस्तकों और डायरी की क्रमविभिन्नता से वह जान जाते थे कि किसी ने बस्ता खोला था!
     
पिताजी ने पढ़ने से कभी नहीं रोका। कर्नल रंजीत और गुलशन नन्दा के लिखे उपन्यास, वाल्मीकि की रामायण, सनत्सुजातीयदर्शन, मनु स्मृति, संभोग से समाधि की ओर, द वेस्टलैंड, फ्रेंच रिवोल्यूशन, गीता रहस्य, प्रेमचन्द, केशवचन्द्र, अंग्रेजी की कवितायें, मुंशी के उपन्यास आदि आदि को समेटे हमारे घर की ‘टेम्परेरी लाइब्रेरी’ विचित्र और समृद्ध थी। कुछ ऐसा वैसा पढ़ते देखते तो टोकते – अभी यह सब मत पढ़ो, बस!... पिताजी खासे हिंसक भी थे लेकिन मुझे नहीं याद आता कि कभी पढ़ने के कारण मार पड़ी हो - चौपाटी पर रजनीश की कुंडलिनी जागरण के प्रयोगों वाली सचित्र पुस्तक को पढ़ते ‘पकड़ा’ गया होऊँ या खलील की पैगम्बर को पढते, कभी जोर की डाँट तक नहीं पड़ी। 

अन्य मामलों में अलबत्ता पिटाई तक कर डालते! पिटाई करने के बाद वह रोते और शेखर के पिता की तरह ‘सुलह’ करते। अम्मा के साथ ऐसा नहीं था। उनकी मार शत्रु जैसी जान पड़ती – शेखर की माँ की ही तरह। पतित होने, बहकने के जाने कितने प्रलोभनी अवसर आये लेकिन मैं सुरक्षित रहा। अब इसमें विवेकानन्द का योगदान था या पिताजी का या दोनों का, नहीं पता।

मेरी कोई सगी बहन नहीं है लेकिन चचेरी, मौसेरी बहनें पिताजी की सरपरस्ती में हमलोगों के साथ रहती पढ़ती रहीं। एकाधिक बार ऐसा भी हुआ कि किसी सम्बन्धी के लड़के भी साथ में रहे। पट्टीदारी की मेरी एक बुआ के बारे में अम्मा ने कभी बताया कि कैसे पिताजी उनकी आगे पढ़ने की इच्छा को प्रोत्साहित करते रहे, उन्हें पढ़ाते भी रहे और बाद में पत्र लिख लिख गाइड करते रहे। वह बुआ हमारे गाँव की स्त्रियों में पहली बी ए पास बनीं। 
     
मेरा विवाह हुआ तो यौन सम्बन्ध और संयम दोनों पर पिताजी ने प्रकाश डाला। जब शाम को हमलोग नीचे बैठे रहते और नवब्याहता छत पर अकेली होती तो पिताजी मुझे ऊपर भेज देते – अकेली ऊब रही होगी! पिताजी ने ‘बोरियत’ शब्द बहुत बाद में सीखा।  
इस पिता ने तो गर्भावस्था के दौरान यौन सावधानियों तक पर बात कर डाली!
   
पिता पुत्र का यह सम्बन्ध आज भी कायम है और मैं अपने मन के इस प्रश्न से सहम जाता हूँ कि क्या आज के बोल्ड, तेज और उन्मुक्त दौर में मेरा अपने बच्चों के साथ ऐसा सम्बन्ध है?...

...आप लोग सोच रहे होंगे कि इस भूमिका का शीर्षक से क्या सम्बन्ध? सम्बन्ध है जो कि अगली कड़ी में पता चलेगा। हम मध्यमवर्गीय प्रगतिशील कहीं अपने पुरनियों की तुलना में पिछ्ड़ तो नहीं रहे हैं – विशेषकर संतान को पालने पोसने और संस्कारित करने के मामले में? तेजी से बदलते संसार से उनका तारतम्य बैठ सके, इसमें हम कितना योगदान कर पा रहे हैं? क्या आजकल के स्मार्ट बच्चे वाकई स्वयं समर्थ हैं? क्या उन्हें हमारे निर्देशन की आवश्यकता नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं तो हम अन्धों को स्वयं दिशाओं का ज्ञान नहीं या हम स्वयं ही कंफ्यूज हैं?

इसके पहले कि वे नासूर बन जायँ, शुरुआत में ही नई चुनौतियों और समस्याओं को सामने आकर हम कितनी बार आगे बढ़ने से रोक पा रहे हैं? क्या हम अपने बच्चों को अग्रसक्रिय हो ऐसे तमाम ‘सामान्य, सामाजिक एवं प्राकृतिक अवसरों और खतरों’ से आगाह करा रहे हैं जो अपरिहार्य हैं? (जारी)                    

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

ब्लॉगर की अम्माँ गोंइठी दे।

फाग महोत्सव में अब तक:
(1) बसन तन पियर सजल हर छन
(2) आचारज जी
(3) युगनद्ध-3: आ रही होली
(4) जोगीरा सरssरsर – 1

(5) पुरानी डायरी से - 14: मस्ती के बोल अबोल ही रह गए
(6) आभासी संसार का होलिका दहन 
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 होलिका दहन के सामान जुटाने हेतु दूसरों के मचान, झोंपड़ी, चौकी, दरवाजे पर पड़ी लकड़ी, पतहर, यहाँ तक कि फर्नीचर भी सहेज देने की पुरानी परिपाटी अब समाप्तप्राय हो रही है। लोग इस अवसर पर वैमनस्य भी साधते रहे हैं। 
इसके साथ ही एक परम्परा रही है - गोंइठी जुटाने के लिए भिक्षाटन जैसी। गोंइठी कहते हैं छोटे उपले को। पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ भागों में इसे चिपरी भी कहते हैं। 
नवयुवक गोलबन्दी कर हर दरवाजे पर जा जा कर कबीरा के साथ एक विशिष्ट शैली का गान भी करते थे जिसमें गृहिणियों से होलिका दहन के ईंधन हेतु गोइंठी की माँग की जाती थी। इस गान में 'गोंइठी दे' टेक का प्रयोग होता था। लयात्मक होते हुए भी कई लोगों द्वारा समूह गायन होने के कारण इसमें बहुत छूट भी ले ली जाती थी। जाति और समाज बहिष्कृत लोगों के यहाँ इस 'भिक्षा' के लिए नहीं जाया जाता था। किसी का घर छूट जाता था तो वह बुरा मान जाता था। 
.. समय ने करवट बदली और कई कारणों से, जिसमें अश्लीलता सम्भवत: मुख्य कारण रही होगी, यह माँगना धीरे धीरे कम होता गया। आज यह प्रथा लुप्त प्राय हो चली है। 
 लेकिन कभी इस अवसर का उपयोग पढ़े लिखे 'सुसंस्कृत ग्रामीण लंठ जन' लोगों के मनोरंजन के लिए भी करते थे। गाँव समाज से जुड़ी बहुत सी समस्याओं और बातों को जोड़ कर गान बनाते और घर घर सुनाते। इन गीतों  में बहुत चुटीला व्यंग्य़ होता था। 
मेरे क्षेत्र के एक गाँव चितामन चक (चक चिंतामणि) में एक अध्यापक ऐसे ही थे जिनके मुँह से कभी कुछ बन्दिशें मैंने सुनी थीं। आभासी संसार के इस फाग महोत्सव में आज की मेरी प्रस्तुति उन्हें श्रद्धांजलि है, एक प्रयत्न है कि आप  को उसकी झलक दिखा सकूँ और यह भी बता सकूँ कि होलिकोत्सव बस लुहेड़ों का उच्छृंखल प्रदर्शन नहीं था, उसमें लोकरंजन और लोक-अभिव्यक्ति के तत्त्व भी थे।  क्या पता किसी गाँव गिराम में आज भी हों !
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 तुमको लगाएँ दाल का गुलाल
जल गइ बजरिया फागुन की आग
महँगा बुखार महँगा इलाज
अब की हम फूँके शरदी बखार 
राउल की अम्माँ गोंइठी दे।

आज नहिं जाना पास नहिं जाना
कोठरी के भीतर बड़ा मेहमाना
घट गइ आग सीने में
अरे सीने में भठ्ठी में
हमको चिकन तन्दूरी बनाना
चिद्दू की चाची गोंइठी दे।

बोले मराठी हिन्दी न(?) आती
जल गई जुबाँ अँगरेजी में
अँगरेजी में गाली मराठी में गाली
हिन्दी हो गइ ग़रीब की लाली
आँसू चढ़े बटलोई में
मनमोहना अब गोंइठी दे।

दो कदम आए एक कदम जाए
करांति की खातिर कौमनिस्ट बुलाए
अरुणाँचल भी आए लद्दाख भी आए
ग़ायब मिठाई चीनी में ।
हुजूर की कमाई जी जी में
सुलगे सिपहिया बरफीली में
एंटी की लुंगी में गोंइठी दे।

बिस्तर पे खाना बिस्तर पे पाना
सारा अखबार बस कूड़े में जाना
गैस है खत्तम और खाना बनाना
खाना चढ़ाया चूल्हे पे ।
लकड़ी न लाए बस टिपियाए
झोंक दूँ कम्पू चूल्हे में
ब्लॉगर की अम्माँ गोंइठी दे। 

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लद्दाख और अरुणांचल में  रोज़मर्रा सी हो चुकी घुसपैठों के मद्देनज़र पसरा हुआ सन्नाटा डराता है। . . .
इस पोस्ट को लिखते समय मुझे भारत के रक्षा मंत्री  का नाम नेट पर ढूँढना पड़ा :(  
जब मैं मराठी और हिन्दी की गुथ्थी सुलझाने के लिए अंग्रेजी का अखबार पढ़ रहा होता हूँ , उस समय  मेरे कान सन्नाटे में  सीमा से आती मंडारिन की फुसफुसाहट सुनते हैं । अपने बच्चे की साथ खेलने की माँग पर मैं मुँह बा देता हूँ - आवाज़ नहीं निकलती ।  भाषाओं ने मुझे मूक बना दिया है ..  

 कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को कृषि मंत्री तक पहुँचा दे? - चूल्हे जलाने हैं। 
 कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को गृहमंत्री तक पहुँचा दे ? - क़ानूनी रवायतों के चिथड़े जलाने हैं।
 कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को प्रधानमंत्री तक पहुँचा दे ? - भारत माता की सूज गई आँखों को सेंकना है।
 कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को रक्षामंत्री तक पहुँचा दे ? -भारत की सीमाओं पर होलिकाएँ सजानी हैं। 
 कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को ब्लॉगर तक पहुँचा दे ? - टिप्पणियों के भर्ते के लिए पोस्ट का 'बेगुन' भूनना है।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

आभासी संसार का होलिका दहन

जो आ रही है वह ब्लॉगरी प्रारम्भ करने के बाद की मेरी पहली होली होगी। छोटे समयांतराल में ही मैंने हिन्दी ब्लॉगरी को समृद्ध होते देखा है - एक से बढ़ कर एक नगीने जुड़ते रहे हैं। इस आभासी संसार में उत्सव भी तो होने चाहिए। होली आ रही है, क्यों न यहाँ भी मनाएँ ?
आप को पता ही होगा कि होलिका दहन के दिन शरीर में उबटन लगा कर उसकी झिल्ली (छुड़ाया हुआ भाग) होलिका के साथ जला दी जाती है।मंगल कामना रहती है कि घर के हर सदस्य के सारे दु:ख दर्द भस्म हो जाँय।
.. ब्लॉगरी को घर परिवार मानने से कई वस्तुनिष्ठ लोगों को आपत्ति हो सकती है लेकिन फागुन बयार शास्त्रीयता की परवाह ही कहाँ करती है ! जैसे घर के सदस्यों में होता है, मन में ढेर सारा अवसाद का कूड़ा इकठ्ठा हो गया है। कतिपय चर्चाएँ,टिप्पणियाँ और लेख आप के लिए कष्टकारी रहे होंगे। दिख ही रहा है कि बात अब न्यायालय के द्वार पहुँचाने की हो रही है। ऐसे में एक निवेदन है - उन लोगों से जो स्वार्थ वश भद्दी चर्चाएँ, लेख और टिप्पणियाँ करते, लिखते रहे हैं और उनसे भी जो इन सबसे सुलगते रहे हैं, कष्ट पाते रहे हैं - सारे छ्ल, अमंगल, दुर्वाद, कष्ट, क्रोध, आभासी संसार की होलिका में जला दें। उल्लास की नई हवा बह चले। 
पुन: आपसी संवाद की बसंती बयार बह चले।
इस पुनीत कर्म के लिए एक ई मेल पता सृजित किया गया है:
स्पैम से बचने के लिए चित्र में दिखाया गया है। आप को टाइप करना पड़ेगा। 
अपने सारे छ्ल, अमंगल, दुर्वाद, कष्ट, क्रोध इस पते पर भेज दें। उन्हें भेजने के साथ ही उनसे मुक्त हो जाँय। बढ़िया हो  कि जिनसे कष्ट है और जिन्हें कष्ट दिया है, उन्हें मेल, फोन द्वारा - "बुरा न मानो" कह कर हँस हँसा लें।
होलिका दहन के दिन इस आभासी संसार की आभासी होली जलेगी जिसमें सारी नकारात्मक बातों, भावनाओं को भस्म कर दिया जाएगा। कृपया गालियों को होलिका दहन  के दिन चौराहे पर गाने के लिए बचा कर रखें, उन्हें मेल न करें।
मेरे कविता ब्लॉग पर फाग महोत्सव जारी है। शुरुआत यहाँ से है, आगे भी रचनाएँ हैं और जारी भी रहेंगीं  आनन्द उठाते रहें - लेख, कविता, फाग गीत, बन्दिशों का भी और टिप्पणियों का भी। 

शनिवार, 30 जनवरी 2010

... गई भैंस गड्ढे में

नगरपालिका, जल संस्थान वगैरह के गड्ढों को मैं इस देश की छाती के नासूर मानता हूँ। ये गड्ढे भारत के प्रशासन को चलाते लोगों की सम्वेदनहीनता के मवाद सँजोते हैं और गन्धाते रहते हैं। ये गड्ढे आम नागरिक की सहिष्णुता और कष्टसह्य प्रकृति को उजागर करते हैं। हमारे उन्नत राष्ट्र होने की गाड़ी इन्हीं में फँसी पड़ी है।
ये हैं इसलिए हैं - बँगलों में चाँदी के तम्बू तले बाँसुरी बजाते कृष्ण कन्हैया; भयानक ठंड में पॉलीथीन के आशियाने में ठिठुरते मजदूर; राशन की लाइन में खाँसते बुजुर्ग; खेलने पढ़ने की उमर में घरों में काम करती लड़कियाँ;  चन्द रुपयो की नौकरी में शोषित होते हमारे जवान; आत्महत्या करते किसान ..... भारत की यह जैव विविधता इन गड्ढों की बदौलत अक्षुण्ण है।
वेतन की स्केल से कैसे भी न नापी जा सकने वाली समृद्धि की ऊँचाई इन गड्ढों की गहराई से अपनी उठान लेती है।
गड्ढे बताते हैं कि हम कितने भ्रष्ट हैं।
मेरा पड़ोसी गड्ढा मेरे तमाम प्रयासों जैसे नेट शिकायत, पत्र, रजिस्टर्ड पत्र, टेलीफोन, फॉलोअप के बावजूद पिछले आठ महीनों से वैसे ही है। इस देश में अगर व्यक्ति जागरूक है तो या तो वह आत्महत्या कर लेगा या हत्या कर देगा । और कोई रास्ता भी नहीं है। मैं इस कथन द्वारा अपनी जागरूकता को लगाम लगाता रहता हूँ। ... All is well, All is well … लेकिन आज मेरी आशंका सचाई में बदल गई। उस बिना चैम्बर के खुले सीवर मैन होल में एक भैंस गिर गई। जिन मजदूरों को हम जागरूक लोग रस्टिक कहते हैं, उन लोगों ने बिना किसी अपील के स्वत: आ कर प्रयास कर भैंस को बाहर निकाला। नीचे चित्रों में देखिए । ऐसा उन लोगों ने इसलिए किया कि वे लोग 'विशिष्ट श्रेणी के आम' नागरिक हैं - पर दु:ख कातर। संतोष हुआ कि  पॉलीथीन के आशियाने में ठिठुरते बिहारी मजदूरों में संवेदना जीवित है।
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हिंसक प्रसन्नता भी हुई कि जो अहिर मेरे तमाम बार कहने पर भी अपनी भैंसों को खुले छोड़ मेरे पौधों का नाश करता रहा, उसे आज सबक मिला। नहीं, वह गरीब नहीं है - बाइस लाख की जमीन में भैंसियाना खोले हुए है बड़े साहब का जिनके बँगले में चाँदी के तम्बू तले बाँसुरी बजाते हैं कृष्ण कन्हैया। कन्हैया जी को भोग के लिए शुद्ध दूध दधि चाहिए।
हाथी के दाँत नहीं अब हजारो हाथियों के संगमरमरी बुतों की शक्ल में हजारो करोड़ पानी में बहाए जाते हैं लेकिन एक सीवर के मैनहोल को ढकने के लिए धन नहीं है।तंत्र नहीं है। जन नहीं हैं। सीवरों के मैनहोल ढक्कन कागजों में लग कर दीमकों द्वारा खाए जा चुके हैं। इन सीवरों का पानी कहीं नहीं जाता, इन धनपशुओं के भगवान को स्नान कराने के लिए प्रयुक्त होता है।   
.. क्या होता अगर उस गड्ढे में कोई मनु संतान गिर गई होती ! जो किसी की हँसती बिटिया होती, किसी का लाल होता !!
क्या इस समय मैं ऐसे पोस्ट लिख रहा होता ? थाने के चक्कर लगा रहा होता या हॉस्पिटल में पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा होता। मुझमें कहीं अभी संवेदना जीवित है लेकिन उन हरामखोर मक्कारों का क्या करें जिनके मुर्दाघरों में मवाद पल रहा है  ...

सोमवार, 29 जून 2009

हमहूँ नामी हो गइलीं

वफादारी सीखनी हो तो कोई पेंड़ पौधों से सीखे। सर्वहारा 'कनैल' पर लेख क्या लिखा, नामी हो गया।

महीनों से मेहनत करते रहे लेकिन किसी अखबार ने नहीं पूछा । 'बरियार' और 'कनैल' पर लिखते ही दोनों ने जाने क्या गुल खिलाया कि 'अमर उजाला' ने अभी इस बच्चे से ब्लॉग के लेख को जगह दे डाली। स्कैन नीचे लगा हुआ है, यह 25/06/09 के अंक में छपा था।


जरा सोचिए, थोड़ी सी संवेदना दिखाने पर ऐसा हो सकता है तो इन पेंड़, पौधों और वनस्पतियों की अगर आप सही देखभाल और पोषण करेंगे तो परिणाम कितने सुखद होंगे!

तो चलिए एक पौधा रोपते हैं और उसे जिलाते हैं।

सोमवार, 8 जून 2009

लाज और झिझक छोड़ें




जून का पहला सप्ताह बीत गया लेकिन गड्ढा प्रतियोगिता पर कोई प्रविष्टि प्राप्त नहीं हुई। 

आप सभी नर नारी झिझक और लाज  छोड़ें और प्रविष्टियाँ मुझे ई मेल girijeshrao@gmail.com करें। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि उनमें बिना किसी परिवर्तन किए तुरंत निर्णायक मंडल: (1) समीर जी (उड़न तश्तरी) (2) ताऊ रामपुरिया जी (3)अजित वडनेरकर जी को भेज दूँगा। 

जून का महीना बारिश के पहले का है। इसी समय कागज पर दिखाने के लिए निगम वगैरह कुछ काम कराते हैं जिनका प्रथम कदम गड्ढा खोदना और अन्तिम कदम खोद कर छोड़ देना होता है।

झेलते हैं हम आप। ब्लॉग से कुछ परिवर्तन हो न हो लेकिन सोए को जगाने और बहरे को सुनाने का सामान तो जुटेगा ही। लिहाजा जन जागरण के हित में अपनी प्रविष्टियाँ भेजें। 

शुक्रवार, 5 जून 2009

कड़वी ‘करी’ (भाग – 2)

पूर्ववर्ती कड़ी कड़वी ‘करी’(भाग – 1) से आगे . .

माइग्रेशन के तार सभ्यता के विकास से जुड़े हुए हैं। बड़ा अजीब है कि आधुनिक सभ्यता को विकास का लांचिंग झटका भी एक अलग ढंग के माइग्रेशन से ही मिला। यह लुटेरे यूरोपियन्स का माइग्रेशन था, जिनका दंश एशिया, अफ्रीका, अमेरिका, आस्ट्रेलिया सभी ने झेला। यूरोप इनका शोषण और विनाश कर के समृद्ध हुआ। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में मानव सभ्यता में आपसी जान पहचान ही नहीं बढ़ी बल्कि एक सार्वभौमिक विश्व सभ्यता की नींव भी पड़ी जिसने विकसित होते होते कमोबेश ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि आज विश्व के किसी कोने का मनुष्य कहीं भी किसी भी समाज से जुड़ने, जीने खाने और फलने फूलने के स्वप्न ही नहीं देख सकता है बल्कि उन्हें साकार भी कर सकता है।

यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें हर सभ्य, शिक्षित और समर्थ मनुष्य अपनी सम्भावनाओं के विकास और उनकी तार्किक परिणति के लिए जिस वातावरण को भी उपयुक्त पाए, उसे अपना सकता है और उसके द्वारा अपनाया जा सकता है। जब हम सभ्यता को इस कोण से देखते हैं तो पाते हैं कि मानव मानव में रूढहो चुकी विभिन्न सीमाओं को तोड़ने और एक विश्व मानव के विकास में इसने बहुत ही योगदान दिया है।

बहुत ही प्रगतिशील देन है यह। भारतीय छात्रों के आस्ट्रेलिया प्रयाण को इसी देन के प्रकाश में देखना होगा। मानव स्वतंत्र है अपने स्व के विकास के लिए। समूची धरा उसकी अपनी है।इस मानव का माइग्रेशन पूर्ववर्ती यूरोपियन माइग्रेशन से इसलिए एकदम उलट है इसलिए कि यह सभ्यता-संवाद और सम्मिलन के द्वारा एक इकाई और समूह दोनों का विकास और कल्याण करता है न कि एक के विकास के लिए समूह का विध्वंश। ।

जो लोग इस का विरोध कर रहे हैं, हिंसा फैला रहे हैं वे समूचे मानव वंश की इस बहुत ही मूल्यवान उपलब्धि को समाप्त करने पर तुले हुए हैं। यही कारण है कि चाहे देश के भीतर बिहारियों या उत्तर प्रदेश वालों का उत्पीड़न हो या विदेश में सिख या दक्षिण भारतीयों छात्रों का उत्पीड़न, यह न केवल निन्दनीय है बल्कि बहुत ही कड़ाई से समाप्त करने योग्य है। हमारी सरकारें दोनों सीमाओं पर विफल हुई हैं। दु:ख यही है और चिंता का कारण भी।

जब तक समूचा विश्व राष्ट्रहीन और सीमाहीन नहीं हो जाता (और ऐसा होने में बहुत समय लगेगा) तब तक सभ्य सरकारों का यह दायित्त्व बनता है कि इस तरह की प्रवृत्तियों को पनपने ही न दें, उन्हें फलने फूलने देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इनके समर्थक और तर्क पुरुष इन्हें जायज ठहराने, पर्दा डालने या अतिवादिता से आँख चुराने के लिए बहुत से कारण ढूढ़ लेंगें – जैसे भूमिपुत्रों का असंतोष, रोज़गार के अवसरों की कमी, असुरक्षा की भावना आदि आदि।

यदि कोई माइग्रेण्ट उस धरा के नियम कानून को मान रहा है और सभ्य तरीके से रह रहा है तो उसे खँरोच भी नहीं आनी चाहिए। अब यह सरकारों को देखना है कि रोजगार के पर्याप्त अवसर हों या कोई किसी से अपने को असुरक्षित न समझे।

मानव के अन्दर की प्रतिक्रियावादी और ह्रासशील शक्तियाँ समाहार और उदात्तीकरण के लिए अनवरत संस्कार की धारा की चाहना रखती हैं। शिक्षा और तंत्र के द्वारा सभ्य समाज की सरकारें ऐसा वर्षों से कर रही हैं। परिवर्तन की यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही धीमी होती है और परिणाम के बीज बहुत ही नाज़ुक। उन्हें जरा भी विपरीत वातावरण मिले तो वे अंकुरित ही नहीं होते। वर्षों की साधना एक छोटी सी दुर्घटना से मटियामेट हो जाती है। यहाँ तो दुर्घटना नहीं जातीय घृणा पूरी चेतना के साथ विनाश ताण्डव कर रही है। परिणाम सामने हैं।

भारत और आस्ट्रेलिया दोनों सरकारें मानवता के गुनहगार हैं, इनकी जितनी निन्दा हो कम है ।

भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अपने को विकसित करना चाहिए क्यों कि यह मानव समाज के दूसरे सबसे बड़े समुदाय के आत्मसम्मान की बात है। इसका पतित होना या निर्बल होना सभ्यता के विकास में एक बहुत बड़ा रोड़ा है। भले भारतीय छात्र नागरिकता छोड़ने पर ही आमादा हों, भारत के नागरिकों और भारत सरकार को डँट कर उनके समर्थन में सामने आना चाहिए क्यों कि यह सार्वभौम मानव सभ्यता का मुद्दा है, केवल दो देशों या उनके चन्द नागरिकों का नहीं।