गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

प्रिंटर की धूल और मोटी रोटियाँ ...

प्रिंट लेने को प्रिंटर ऑन करता हूँ और पाता हूँ कि उस पर धूल नहीं है ....अचानक मन में हथौड़ा बजता है- अम्माँ गाँव वापस चली गईं!
मायके से श्रीमती जी का आना उस धूल को साफ कर गया है जिसे देख मैं उनको याद करता था। अजीब धूल ! होना एक याद, न होना दूसरी याद। यादें धूलधुसरित होती हैं, मुई फिर झाड़  पोंछ कर खड़ी हो जाती हैं।
कैसा है यह आलस जो धूल को खुद साफ नहीं करने देता? यादों से प्रेम है इसे ..धूल की एलर्जी जो न गुल खिला दे। रोग भी कमबख्त मुझे कैसा लगा !
मैं शुद्ध हिन्दुस्तानी बेटा - माँ और पत्नी के बीच अपनी चाह को बाँटता! चाह बँट भी सकती है क्या? धुत्त !
लेकिन आज जो प्रिंटर पर धूल नहीं, अम्माँ याद आ रही हैं।
.. पिताजी डाइनिंग टेबल पर बैठे हैं और अम्माँ रसोई से आवाज लगा रही हैं। पिताजी के उपर रची जाती कविता को अधूरा छोड़ टेबल पर आता हूँ तो खाना लगा ही नहीं है !
अम्माँ ई का?
बइठ, रोटिया सेरा जाइ एहिसे पहिलही बोला देहनी हें (बैठो, पहले ही परोस कर रख देने से रोटी ठंडी हो जाती, इसलिए पहले ही बुला लिया IMG0087Aहै)।
बैठता हूँ और फिर याद आती है आवाज, "टेबल पर आ जाइए, खाना लगा दिया है।"
पत्नी को रोटी ठंडी हो जाने की चिंता नहीं, अपना काम खत्म करने की चिन्ता है। ... यह तुलना मैं क्यों करता हूँ ?
अम्माँ! तुमने प्रवाह भंग कर दिया। अब पिताजी के उपर रची जाती कविता अधूरी ही रह जाएगी! सम्भवत: मुझे तुम पर पहले लिखना था। सगुन अच्छा रहता।
अम्माँ, रोटिया मोट मोट काहें बनवले हे (अम्माँ, रोटियाँ मोटी क्यों बनाई हैं?)
अरे बाबू बना देहनी हे गोनवरे गोनवरे जल्दी से (बेटा, जल्दी से मोटी मोटी बना दिया है।)
.. यह जल्दी क्यों अम्माँ? गठिया की बिमारी के कारण तुमने गाँव पर रसोई घर खुद 'डिजाइन' कर दुबारा बनवाया और यहाँ गैस चूल्हे को प्लेटफॉर्म से उतारने नहीं देती ! बहू आएगी तो जाने कौन सी गड़बड़ी मिले! कल पुर्जे की चीज !
लेकिन तुम्हारी शरीर के कल पुर्जे तो उम्र की घिसान झेल रहे हैं। रोटी बनाने के लिए कितनी देर खड़ी रह पाओगी ? क्यों मैं तुम्हें रोक नहीं पाता? रोटियाँ तो बाहर से भी आ सकती हैं। लेकिन पिताजी तन्दूरी रोटी चबा नहीं पाएँगे और वह लालच तुम्हारे
हाथ की रोटियाँ खाने का ! भावुकता, स्वार्थी !...
..अम्माँ क्या वाकई यही बात थी रोटी मोटी बनाने के पीछे !
पहले दिन खिलाते हुए तुमने रोटियाँ गिनी थीं। मैंने दो के बाद ना कर दिया था।
अम्माँ, खेत में फावड़ा थोड़े चलाना। ऑफिस में दिन भर बैठना ! आजकल हजार बिमारियाँ हो जाती हैं। कम खाना, सुखी रहना।
दूसरे दिन से ही रोटियाँ मोटी होने लगी थीं। मैं समझ गया था लेकिन पूछा नहीं। आज क्यों पूछ बैठा? वह पहले वाली बात मिस कर गया था न !
..कमाल है तुमने कुछ नहीं कहा और मैंने सब सुन लिया !
श्रीमती जी तीसरी तक तो खिला देती हैं लेकिन सब्जी के लालच में चौथी माँग बैठो तो टोकारी ! .. आज कल 'भोंय भाँय' बन्द है, फिर से ... हुस्स।
... बाबू! हेत्तत देंहि, एतना बड़हन दिन। कइसे एतना कम खइले से चली? (बेटा! इतनी बड़ी शरीर, इतना बड़ा दिन! इतना कम खाने से कैसे चलेगा?)। अधिक या भारी काम हो तो पौने छ: फुटा बेटा माँ को 'दुब्बर अब्बर' दिखने लगता है। खिलाना हो तो वही
शरीर ऊँची और पहलवान दिखने लगती है - खुराक अधिक चाहिए ! धन्य अम्माँ, यह कौन सा पैमाना है? 
अम्माँ, पेट खराब हो जाला (अम्माँ, पेट खराब हो जाता है।)
चूरन ले आइल बानीं - हर्रे, मंगरइल, अजवाइन, काला नमक..... खुदे बनवले बानी। रोज राति के एक चम्मच फाँकि लेहल कर, सब ठीक हो जाई (चूरन ले आई हूँ। ... खुद बनाया है। रोज रात को सोते समय एक चम्मच फाँक लिया करो। सब ठीक हो
जाएगा।)
रोटियाँ या तो मोटी खानी पड़ेंगी या अधिक संख्या में - भले चूरन खा कर पचानी पड़ें। 
... रात में रोटियाँ कम खाइए। पेट ठीक रहेगा।
दो स्नेह। निठल्ला मैं - कितने टाइप के और कितने सारे स्नेह का बोझ सँभालता हूँ! विपरीत स्नेह !!
.. श्रीमती जी अम्माँ से मोबाइल पर बात कर रही हैं। सास की हिदायतों पर हूँ हाँ कर रही हैं ।
साफ हो चुकी धूल की अंगुलियों के निशान प्रिंटर पर जोहते मैं पतली रोटियों के पुकार की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ..

..अजवाइन, काला नमक, हरड़ और मँगरैल के डिब्बे अम्माँ के साथ ही चले गए हैं। 
.. गाँव , इस समय पिताजी की 'और रोटियों की माँग' को ठुकराया जा रहा होगा ...



31 टिप्‍पणियां:

  1. बेटे के प्रति माँ के स्नेह की कौनो बराबरी नहीं भाई -भावुक कर दिया आपकी इस पोस्ट ने ......

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  2. .
    .
    .
    "मैं शुद्ध हिन्दुस्तानी बेटा - माँ और पत्नी के बीच अपनी चाह को बाँटता! चाह बँट भी सकती है क्या? धुत्त !"

    ऐसा क्यों करते हो गिरिजेश जी ?
    रूला कर ही मानते हो आप तो !

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  3. maa aur patni ke sneh ke beech ki ptli roi aur moti roti bahut hi man ko bha gai sukshmta se adhyyn kr likha gya aalekh .
    abhar

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  4. धन्य अम्माँ, यह कौन सा पैमाना है? -माँ की ममता के पैमाने को कौन जान पाया है भाई-जाने क्यूँ पढ़ते पढ़्ते भावुक हो गया.

    बरसात


    उस रोज

    मैं बरसात में भीग

    घर लौटा

    भाई ने डॉटा

    ’क्यूँ छतरी लेकर नहीं जाते?’

    बहन ने फटकारा

    ’क्यूँ कुछ देर कहीं रुक नहीं जाते’

    पिता जी गुस्साये

    ’बीमार पड़कर ही समझोगे’

    माँ!! मेरे बाल सुखाते हुए

    धीरे से बोली

    ’ये मुई बरसात’


    -समीर लाल ’समीर’
    -एक अंग्रेजी वाक्यांश से प्रभावित-

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  5. स्तब्ध हूँ..
    डूब और पार वाले वीरेन्द्र जैन की शैली याद आ गई..

    माँओं को बैसाख की भर दुपहरिया लुकारी फेंकते खेत में कुदाल चलाने से ज्यादा श्रमसाध्य लगता है छ: घंटा कॉलेज और दो घंटा होमवर्क/कोचिंग..

    चार-एक साल हो गये घर से निकले, लेकिन आज तक लौटने पर माँ के मुँह से पहली बात- केतना दुबरा गईल बाटSS.. गाले कS हाड़-हाड़ लउकता.. हस्टलवा में खाये-पिये क नाई देलें कुल का??

    माँ-बहन-बीवी-बेटी.. कितने किरदारों को एक साथ सरलता से निभा ले जाती है नारी.. और हम पुरुष केवल पत्नी-माँ-बहन के बीच चाह का इक्विटेबल डिस्ट्रिब्यूशन करने में धर्मसंकट महसूसते रह जाते हैं..

    अंतत: अच्छा किया आखिरी लाइनें डालकर.. बड़ी एकतरफा पोस्ट हुए जा रही थी। अब शायद मलिकाइन माफ़ कर दें..पता चला सुबह उठकर चाय भी खुद बनानी पड़ रह रही है..

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  6. '' पर ममता राखै महतारी ''
    ....... मिसिर जी शब्द मेरे भी हैं .

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  7. ''जी '' और '' शब्द '' के बीच में
    '' के '' छूट गया है ...
    ............ क्षमाप्रार्थी हूँ ,,,

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  8. हई देख तो ..!!
    माने पोस्ट जभे बनी ..जब कांदा-रोवा होई..
    माँ खातिर बेटा दुबरावले लगबे करी हो.. और जोरू-महतारी में कौन बात के कैम्पीतिसन ??? इ तो वोही भईल... एगो आम, एगो अमरुद..
    हामरो बेटा आइल बा..लोग-बाग़ सब कहता ..मोट-सोट हो गईल बा...
    माकिर हमरा आँखी में कौची घुसल बा. :)
    अरे महराज ..मन भीज गइल ई पोस्टवा पढ़ी के ...माई के याद आवता...हमहूँ जब भी गइनी...एके बात ...हमरी बेटी कतना मेहनत करता, कतना दुबरा गइल बा...जब कि सब दोस्त सब लात मारे पीछे और बोलेलन 'what have you done to your fig....moti ???'
    सुपट लेखन...!!!

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  9. कुछ नहीं कहूंगा...

    कहना बहुत मुश्किल जो है...


    बहुत अच्‍छा लगा...

    मन तो भारी हुआ लेकिन लगा मन की बात हो रही है....

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  10. ठेठ भारतीय बेटे की प्रविष्टि ....वही ...मां और पत्नी के बीच झूलती ....
    इस स्नेह को कैसे दो रेखाओं में विभाजित किया है ....माँ का स्नेह अपने बेटे के प्रति अलग सा तो पिता यानी अपने पति के प्रति भी अलग ...सच ही दुनिया का कोई रिश्ता माँ की बराबरी नहीं कर सकता ...!!

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  11. भावनाओ से लबरेज रचना. अम्मा तो अम्मा है ---

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  12. बहुत भावुक कर देने वाली रचना। क्रिसमस पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएं एवं बधाई।

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  13. "दुब्बर अब्बर" पे देर तक मुस्कुराता रहा....

    कमाल है ना दुनिया की हर माँ ये बेटे की थाल में ज्यादा परोसना कैसे जानती है...इतना ज्यादा कि थाल से आधे से ज्यादा निकाल देने के बाद भी बचा हुआ भोजन हमेशा आपके डोज से ज्यादा ही होता है।

    श्रीमति जी ने पढ़ा ये पोस्ट कि नहीं?

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  14. झकास ठेले है जी ......सेंटीयाना एक अच्छी आदत है इससे आत्मा की सर्विस होती रहती है ......मां अजीब शै होती है .मौका मिलने पर आज भी ..रोटी पे एक्स्ट्रा घी रख देती है ..

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  15. वाह! सबकुछ आँखों के सामने तैर गया। रोज ही घटित होता सा। इस साल माघमेला में माँ नहीं आ रही हैं। बहुत कुछ मिस करूंगा।

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  16. हर मां की उँगलियों के पोरों में एक मौलिक स्वाद रच सकने में कामयाब मसालों का अपना माप होता है और उसकी पूर्णता बेटे को खिलाने पर ही होती है.वो हर रोज़ या मौका मिलने पर ये प्रदर्शन कर पाने की कल्पना में ही दिन शुरू करती है.ये बात मैं इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि माओं का एक ही संसार होता है,पिताओं का भूगोल भिन्न होता है.
    पोस्ट में इस बात को कितनी आत्मीयता से और अपने ऊपर लेकर कह गए आप! मानते हैं.

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  17. भईया माई क ममतयी अइसन होथ .छ महीना से माई साथै अहाँ अऊर अब यहिं उमर माँ खाना नाहीं बनई सकतीन मुला भयहु के हाथे इतना बनवावत खियावती अहाँ ,तौनौ घिउ दूध दही की कपड़ा छोट पडई लाग बा . दूसरी और डाक्टर हमार दौडावत अहाँ की परहेज नाहीं करीत .

    भगवान आप पे यी ममत्व क छाँव हमेशा बनये रहैं , इहई प्रार्थना .

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  18. अस महीन बात काहे लिखथ्य। पढै में कष्ट होथ!
    (बहुत मन का लिखा बन्धु!)

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  19. बइठ, रोटिया सेरा जाइ एहिसे पहिलही बोला देहनी हें (बैठो, पहले ही परोस कर रख देने से रोटी ठंडी हो जाती, इसलिए पहले ही बुला लिया है)।
    बैठता हूँ और फिर याद आती है आवाज, "टेबल पर आ जाइए, खाना लगा दिया है।"
    पत्नी को रोटी ठंडी हो जाने की चिंता नहीं, अपना काम खत्म करने की चिन्ता है। ... यह तुलना मैं क्यों करता हूँ ?

    यहाँ थोड़ा अर्थान्यवयन में मेरी सहमती नही है..मुझे लगता है यह अंतर थोड़ा समय सापेक्ष शैलीगत है और हाँ माँ की तुलना तो कर ही नही सकते.किसी से .

    "दूसरे दिन से ही रोटियाँ मोटी होने लगी थीं।"
    आह रे माँ की ममता..!

    गाँव , इस समय पिताजी की 'और रोटियों की माँग' को ठुकराया जा रहा होगा ...

    राव साहब ! इतनी भावनात्मक प्रस्तुति....!

    टिक्कर(मोटी रोटियां) खाने का मेरा भी जी है.......

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  20. bahut der se is beshkeemti post ko dekh paa raha hoon.....(pc bimar hai in dino)


    aankhein purnam hain........

    maai re maai
    tor gunvaa hum kaise gaain!

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  21. मैं शिरीष से सहमत हूँ.
    लेकिन अर्थान्यवन होता है. सहमती नहीं सहमति होता है.
    श्रीश से अच्छा शिरीष लगता है न !

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  22. @बेनामी

    टाइपिंग की कुछ गलतियों की ये सजा दोगे कि नाम ही बदल दोगे दोस्त...!
    मायने भी बदलोगे मेरा और नाम भी...बहुत नाइंसाफ़ी है..आलसी के चिट्ठे पर द्रुत गति से रूपांतरण कार्य...!

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  23. मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
    मुद्दतों माँ ने नहीं धोया पल्लू अपना....

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  24. तीन बार रोंगटे खड़े हुए और टिपण्णीयाँ पढ़ते आँखे नाम हो ही गयीं. आज ही घर से लौटा हूँ. शाम को टिपियाता हूँ इस पर. अभी इतना ही !

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  25. भाई हजारों यादें घूम रही हैं दिमाग में ! आपकी पोस्ट पढ़कर कल तो ऐसे ही चुप निकल गया. माँ के बारे में क्या कहा जाय. घर पर टमाटर, अमरुद (थोड़े कच्चे से) नहीं आते. और तिल के लड्डू भी नहीं बनते अब. देखते ही माँ की आँखें नम हो जाती हैं... बेटा होता तो खाता.
    इटारसी के आस-पास बैग में चार्जर टटोल रहा था तो एक पोलीथिन में कुछ तिल के लड्डू मिले... और कुछ आंवला. पता है मैं रखते देखकर चिल्लाता. जब-तब दूर तक साथ छोड़ने
    आई, माँ का चेहरा याद आता है. देख लेना... क्या सच में बाहर जाना जरूरी है. पुणे से फ़ोन करते हो तो लगता है यहीं कहीं हो ! और मोटा ना हो जाने के डर से कम खाने पर... छोडिये फिर कभी. लिख नहीं पाऊंगा ज्यादा इस पर.

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