... लेंठड़ा सनातन पात्र से बाहर आ चलते चलते थक गया था। सुस्ताने के लिए वह जहाँ छाये में रुका, वह जगह पुस्तकालय भवन कहलाती थी। भवन का द्वार बन्द था लेकिन उसके बाहर बहुतेरे अद्भुत प्राणी टहल रहे थे। अपना परिचय देने के लिए और उनकी प्रतीक्षा को फलदाई बनाने के लिए लेंठड़े ने यह प्रवचन दिया था। स्पष्ट है कि मैं भी उन अद्भुत प्राणियों की भीड़ में सम्मिलित था। बहुत सी बातें समझ में नहीं आईं। जो आईं उन्हें किसी तरह यहाँ दे रहा हूँ। एक बात तो एकदम समझ में नहीं आई - लेंठड़ा अपने को 'हम' में शामिल कर बात कर रहा था। कहाँ केंकड़ा, कहाँ मनुष्य !
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(10) काल:सार्वकालिक परम्परा: भ्रमित परंतु जागृत मन की
शब्द क्यों आवश्यक हैं? हमने शब्द क्यों गढ़े? समूह में रहने और सम्बन्धों के ढीले स्वरूप में प्रारम्भ होने से संवाद की आवश्यकता आन पड़ी और उत्तरोत्तर अनिवार्यता बनती गई। मुँह की बिचकाहट, चेहरे की लाली, भौहों और नाक की सिकुड़न, हाथों की हरकतें, आँखों के आँसू, देह की तमाम हरकतें... अपनी बात कहने और दूसरे तक पहुँचाने में जब अपर्याप्त लगने लगीं तो वाणी का 'विकसित होना' प्रारम्भ हुआ। बात और वाणी एक नहीं हैं। अगर हम किसी को आँख मारें और वह हँस दे तो यह भी एक बात हुई। सरल युग में सम्भवत: ऐसे ही कुछ से संवाद होता होगा और बहुत कुछ समझ भी लिया जाता होगा - सरलता के कारण, साथ। बात को जब वाणी का यान मिला तो वह भाग चली। उसे लगा कि अब वह श्रृंगार कर सकती है, चल सकती है, दौड़ सकती है, बढ़ सकती है, घट सकती है, छिपी रह सकती है, चुपके से अन्धेरे में फुसफुसा सकती है... उसने अपने हर 'लगाव' को बढ़ाना, बझाना और लगाना शुरू किया। इस लगावट के वाहक बने शब्द।
ध्वनि के मूल टुकड़ों को अक्षरों से अभिव्यक्त किया गया। अक्षरों से बने शब्द। ध्वनियों को शब्दों से पहचाना जाने लगा और फिर मानव मस्तिष्क की अभिव्यक्ति सरिताएँ बह चलीं। मन के हर भाव, परिवेश के हर जुड़ाव और अस्तित्त्व से जुड़ा सब कुछ शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त हो चला। सहूलियत बढ़ी, मानव इतना आदी हो गया कि भूल ही गया, शब्दों के पहले भी कुछ था, कुछ होता था और वह कुछ महत्त्वपूर्ण था। शब्दों की महत्ता के साथ ही उन्हें सहेजने की चिंताएँ भी आ जुड़ीं और शुरुआत हुई वाचिक परम्परा की। एक बार फिर आस पास फैली नित्य ध्वनियों की पड़ताल हुई और सामने आए लय, मात्राएँ, उच्चारण में विराम, यति, गति, ताल ... संगीत ने आकार लिया और शब्द सुरक्षित हो चले ग्राम गीतों में, ऋचाओं में, गाथाओं में, कथाओं में।
सम्भवत: विवादों ने शब्दों को यथावत सार्वकालिक सुरक्षित रखने की आवश्यकता को जन्म दिया। इस परम्परा के साथ ही आए चारण, पुरोहित, अभिचार.. जाने क्या क्या। हम अभी उस पर बात नही करेंगे। ...
वाचिक परम्पराएँ अपने उद्देश्य में तो सफल रहीं लेकिन कहीं आम जन जीवन से कटती चली गईं। ऐसे में निठ्ठल्ले, आलसी लेकिन जीवन को सरल बनाने को आतुर किसी पुरोहित ने लिपि का आविष्कार कर डाला और फिर तो जैसे क्रांति ही हो गई। लिपि से अक्षर, अक्षर से शब्द, शब्द से ध्वनि-उच्चारण, ध्वनि से पुन: शब्द, शब्द से अक्षर, अक्षर से लिपि और लिपि से प्रतिलिपि.. आलसी का आविष्कार बड़े काम का निकला !
बेकाबू सभ्यता अपनी जनसंख्या बढ़ाऊ कामुकता के साथ बढ़ती चली गई। बीच बीच में विराम और विनाश भी आए लेकिन शब्दों ने पुनर्निर्माण सुनिश्चित कर दिया था। शब्द महत्त्वपूर्ण होते चले गए, लिपि में लिपट आदमी की संतान को ज्ञान, विज्ञान के ककहरे सिखाते पढ़ाते रहे। तमाम अभिव्यक्तियों में जो श्रेष्ठ था उसे साहित्य कहा गया। शब्द शिक्षक भी थे जो साहित्य की कक्षा में मास्साब की भूमिका निभा रहे थे। साहित्य को यह गौरव इसलिए हासिल हुआ कि वह अभिव्यक्ति का शीर्ष था। शीर्ष पर होना बहुत रिस्की होता है। लिहाजा साहित्य की खूब जाँच पड़ताल और ठुकाई हुई। एक जमाने का साहित्य दूसरे जमाने का गँवारू गलबाजा कहलाया और इसके उलट भी बहुत कुछ हुआ लेकिन साहित्य नामधारी शीर्षस्थ बना रहा ...
और ऐसे ही सीखते पढ़ते हम पहुँच गए आज के जमाने में।
आज । संक्रमण का दौर। शब्द पर संकट सा आन पड़ा है। संवाद के लिए अब शीर्षस्थ श्रेणी के मनुष्यों को लगता है कि शब्द गौण हो चले हैं। उनकी आवश्यकता तो है लेकिन बस ऐसे ही .. । उन्हें शब्द बोझ लगने लगे हैं। क्यों? क्यों कि विकल्प सामने दिख रहे हैं। ऐसे विकल्प जो अभी आकार नहीं ले पाए हैं लेकिन कोहरे में घूमती छाया सी झाँक पड़ताल कर रहे हैं। आदमी की फितरत है नवीनता की तलाश। और शब्द तो बहुत पुराने हैं। हटाओ इन्हें ! शब्दों के प्रति इस दुराव ने बेचारे साहित्य को एक बार फिर ठुकाई पिटाई के हथौड़े तले ला दिया है। हथौड़े उनके बाएँ हाथों में हैं जिनके दाहिने हाथ कम्प्यूटर के की बोर्ड पर जम कर टाइप करने में लगे हैं। उन्हें शब्द षड़यंत्रकारी लग रहे हैं क्यों कि शब्द साहित्य के समानार्थी रूप में रूढ़ हो चुके हैं। साहित्य के मानदण्डों ने इन क्रांतिकारियों को अभिव्यक्ति से रोके रखा । मानदण्डों की खैर नहीं, साहित्य की खैर नहीं, शब्दों की खैर नहीं - अब की बोर्ड हाथ में है। बेचारे साहित्य रसिक इस स्थिति पर हाहाकार कर रहे हैं।
लेकिन दोनों वर्ग अनजान हैं कि यह तो बस रूटीन जाँच पड़ताल और ठुकाई है। अब विराट समय का रूटीन तुच्छ मनुष्यों के रूटीन से तो कदम मिला चल नहीं सकता लिहाजा भारी कंफ्यूजन है। दोनों को यह मान लेना ही श्रेयस्कर है कि चाहे रूप जैसा भी हो जाय, शीर्ष पर साहित्य ही रहेगा। या यूँ कह लें कि जो भी शीर्षस्थ होता है वह साहित्य कहलाता है। साहित्य और शब्दों के विरोधी असल में परिपाटी विरोधी भर हैं और इसलिए साहित्य समर्थकों को उनको गम्भीरता से लेना होगा। लेकिन साथ ही साहित्य और प्रतिक्रिया में शब्द विरोधी का भी बाना धारण किए क्रांतिकारियों को यह हमेशा याद रखना होगा कि साहित्य तो सत्त्व है। जो सत्त्व के पक्ष में हैं वे कुछ भी हों अभिव्यक्ति के विरोधी नहीं हो सकते। दोनों पक्षों में से कोई भी नहीं कह सकता - अलविदा साहित्य या अलविदा शब्द। यह बहुत फुसफुसी बात होगी। ...( जारी)
इस पर कल हम डिटेल में कमेन्ट करेंगे..... पढ़ लिया है पूरा....
जवाब देंहटाएंतब तक के आप मेरी पोस्ट देखिये...
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www.lekhnee.blogspot.com
शब्द विच्छेदन तो गजब का लिखे हैं महराज।
जवाब देंहटाएंयानि कि वो तमाम शायर और कवि जो नैंनों से बात करने और आंचल के लहराने से मन में हलचल मच जाने की बात करते थे सही थे :)
साहित्य तो सत्त्व है। जो सत्त्व के पक्ष में हैं वे कुछ भी हों अभिव्यक्ति के विरोधी नहीं हो सकते।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ। बात को बहुत करीने से रखा है।
ठुकाई की अगली कड़ी में कौन सी कील ज्यादा दमदारी से ठोकी जाएगी, उसे देखने की उत्सुकता है।
जवाब देंहटाएंपढ़ते जा रहे हैं..अगली कड़ियां पढ़कर इक्कठे बात करेंगे. :)
जवाब देंहटाएंजारी रहिये..
शब्द और वाणी के परस्पर सम्बन्ध की सरस साहित्यिक भाषा ...अब तक साहित्य को नीरस ही समझा जाता रहा है न ..विशेषकर शब्द, व्याकरण आदि के सन्दर्भ में ....!!
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी रचना।
जवाब देंहटाएंइसमें का शक है ...कि चर्चा नहीं ...महाचर्चा है.....आपके आलेख में साहित्य और शब्दों का दंगल अविस्मरनीय दीखाई पड़ता है...आपने कहा कि जो भी शीर्षस्थ होता है वह साहित्य कहलाता है....शीर्ष में किसी भी साहित्य को पहुंचाने का जिम्मा जनमानस पर है और जनमानस की समझ साहित्य के प्रति कितनी होगी यह तो सोचने वाली बात है.....तो बात फिर घूम फिर कर वही हुई कि शीर्ष का स्थान कूड़ा करकट भी पा सकता है....साहित्य कहला सकता है....
जवाब देंहटाएंआप भी न...चक्कर घिन्नी बना कर रख देते हैं सबको....
अगली कड़ी का इंतज़ार है...
अगली ठुकाई की कड़ी देखने के इंतजार में.....!
जवाब देंहटाएं"...जो सत्त्व के पक्ष में हैं वे कुछ भी हों अभिव्यक्ति के विरोधी नहीं हो सकते। .." ! बिलकुल । इसे थाम रहा हूँ, और मैं भी अगली प्रविष्टि तक विराम ले रहा हूँ ।
जवाब देंहटाएंबात मे दम है।
जवाब देंहटाएंशब्द पहले आये या साहित्य पहले आया या दोनों समान्तर आये शब्द से साहित्य बना या साहित्य से शब्द मिले ??
जवाब देंहटाएंनिशब्द , शब्द क्यूँ हुए ?? जब शब्द निशब्द होते हैं क्या तब साहित्य नहीं होता
निशब्द शब्दों को शब्दों ना दो
निशब्द शब्दों की निःशब्दता मे
मौन नहीं मुखरता होती हैं
संडे की सुबह भजिया खाकर आपका लेख पढा ..बहुत से लोग इसी तर्ह भरे पेट साहित्य का आस्वादन करते हैं जबकि साहित्य की ज़रूरत उन लोगों को भी है जिनके पेट खाली हैं । हथौड़े उनके हाथों में है जो हथौड़े से भेजा बाहर निकालने में लगे हैं क्योंकि वे हम लोगों के भेजे से डरते है उन्हे लगता है कि यह भेजा ज़रूरत से ज़्यादा सोचता है इसलिये वे गीत रचते हैं ..." गोली मार भेजे में भेजा शोर करता है " यह उसी रोमन परम्परा का विकास है जो मनुश्य के विचार का विरोधी है । आप लिखते रहिये .. यह दस्तक ज़रूरी दस्तक है ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट ने इलाहाबाद मे होली पर आयोजित होने वाली महालंठ सम्मेलन की याद दिला दिया।
जवाब देंहटाएंआप ठुकाई जारी रखें हमारा सिर हाजिर है :)
जवाब देंहटाएंशब्दस्पेस में साहित्य की हेजे़मनी से थोड़ी बहुत रीएडजस्टमेंट जरूरी थी हो रही है... इसी तरह की एक एडजस्टमेंट तब करनी पड़ी थी जब वाचिक शब्द की जगह लिखित शब्द ने उपस्थिति दर्ज की थी।
रही बाच चर्चाओं की तो कई बार तो केवल आलस्य की कीमत चुकाते हैं शब्द :)
परिभाषा कौन तय करता है? जो रुचे उसे मलाई नाम दिया जाये और जो न रुचे उसे माठा?!
जवाब देंहटाएंसमय आता है - जब शब्दों की इफरात हो जाती है। फिर भी उनको मानक समझा जाता है। फलाने अखबार में था, फलाने बुद्धिमान ने कहा के अन्दाज में कोट होने लगते हैं। उनके पीछे न दम होता है, न मनन। तब जरूरी है शब्दों का अवमूल्यन।
मेरे जैसे, जो मीडिया/साहित्यकार को कोसते हैं, उनके मन में यही है। अनुभव हमने भी लिया है। और लिखे का खोखलापन/दोगलापन बहुत देखा है। तभी निकलता है यह प्रलाप मित्र! अन्यथा जो शुभ है उसे कौन न नमन करेगा। बाबा तुलसीदास के लिखे को कौन मूर्ख सरका पायेगा!
और यह भी मालुम है कि शब्द जिसे रोजी-रोटी-वैभव देते हैं; वे तो समर्थ हैं। कौन सुनता है साइडलाइन का कहा! :)
कुछ ऐसी चीजें हैं जिनपर संकट अक्सर दीखता है पर वो समाप्त नहीं होते... ये संक्रमण का काल सदियों चलता रहता है. इस काल में ये चीजें नया रूप धारण करती रहती हैं. पर कभी विलुप्त नहीं होती... शायद शब्द भी उनमें से ही एक है.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंविवादों ने ही नही, प्रशस्तिगान की आवश्यकता ने भी शब्दों के सामर्थ्य को मान्यता दी है ।
और.. माध्यम चाहे जो भी हो, शब्द कभी नहीं मरेंगे ! शिलालेख से भोजपत्र, और भोजपत्र से कागज़ तक आने में शब्दों को इसी सँक्रमण से गुज़रना पड़ा है, जैसे आज कागज़ से उठ कर वह कीबोर्ड पर कब्ज़ा करने में लगा है ।
इसकी कमेन्ट्री में शब्दों का खिलँदरापन, प्रस्तुति के अँदाज़-ए-बयाँ को बाँधने वाला बना रहा है ।
आगे आगे देखिये लिखतो हो क्या ?
जवाब देंहटाएंहूंंंंंंंंं ध्यान से पढ़ना प्ढ़ेगा, बाद में आता हूं
जवाब देंहटाएंराव साहब !
जवाब देंहटाएं' अलबिदा ब्लोगिंग ' के माहौल में आपकी पोस्ट बड़ी प्रासंगिक
बन पडी है | सही कहा आपने --- '' ... अलविदा साहित्य या अलविदा
शब्द। यह बहुत फुसफुसी बात होगी।''
लालित्य का गजब का समावेश है आपकी शैली में |
शब्दों के लुप्त या पुनर्जीवित होने की प्रक्रिया कई स्तरों पर होती है |
सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थियाँ भी उत्तरदायी होतीं है |
इस ओर भी संकेत होना चाहिए था ..
आप साहित्य की सर्वोच्चता बताते आये है पर क्या यह आदर्श के
बजाय व्यावहारिक सच्चाई में भी दिखा है ? जो '' शीर्षस्थ होता है वह
साहित्य कहलाता है। ''--- यह कितना सच है ?
सम्प्रेषण रहेगा, माध्यम बदलते रहेंगे. संस्थापित माध्यम की दाल-रोटी के परजीवियों को कोई भी परिवर्तन चुभेगा, चुभता रहे. विकास कब रुका है? किसके रोके रुकेगा? तमसो मा ज्योतिर्गमय कल भी सत्य था और कल भी रहेगा और "सत्यमेव जयते" तो हम सब जानते ही हैं.
जवाब देंहटाएं@ अमरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, क्यों? आप समझ गए होंगे।
आज तक अभिव्यक्ति का चरम या शीर्ष क्या कहलाता रहा है - बताइए यदि वह साहित्य नहीं है तो क्या है?
यह प्रवचन लेंठड़े का है जिसकी परम्परा भ्रमित पर्ंतु जागृत मन की है। विमर्श, बहस ... खुलेआम निमंत्रित हैं।
जहाँ तक मैंने उसे समझा है - उसकी चाहना है कि दीवारें टूटें और कोष्टों में बन्द प्रकाश पुञ्ज फैल जाँय - चकाचौंध ! देखो, हिन्दी में तारागण कम हैं लेकिन उनका प्रकाशपुञ्ज ...!
हम जो लिखते पढ़ते है उसीसे हमारे मस्तिष्क का विकास होता है ओर चीजो को दुनिया को देखने बूझने की हमारी इन्द्रिया उस वक़्त ओर हालात के साथ हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती है .... लिखा हुआ जो समाज को एक संवेदन शील दृष्टि दे ओर उन अनुभवों को बाँट कर इसे बेहतर बनाने को दे उसे ही साहित्य कहते है.प्रेमचंद की "मन्त्र " ......ओर हामीद का चिमटा हो...या भाग्तिचरण वर्मा की वसीयत हो...या भीष्म साहनी का "तमस " क्या वे शब्द कौशल से भरी रचनाये है ...उनमे लेखक की विद्ता कही से भी काहानी का मूल तत्व नष्ट नहीं करती ..... पर बचपन में पढ़ी ये रचनाये आज भी दिमाग के एक कोने में जिन्दा है .ताज़ा है ...यदि एक व्यक्ति पूरी उम्र एक गाँव में अपने .घेर में गुजार दे .ओर मोबाइल ...ए टी एम् .ओर नेट को खारिज कर दे तो ये उसकी अज्ञानता है.....टेक्नोलोजी की नहीं.....
जवाब देंहटाएंआपके श्रेष्ट लेखो में से एक है
एक शब्द में कहूं तो जबर्दस्त !कुछ स्फुट विचार खास आपके लिए और उनके लिये भी ! आदि हुन्करणों के ध्वन्यात्मक बोध ने शब्दों का और लिपियों का रूपाकार तय किया होगा ! शिकार के समय के हुन्करणों और कुछ उन गहन क्षणों के अकस्मात से निर्गमित /निःसृत हुन्करण ......मगर शायद हम आज भी इन कुछ आदि हुन्करणों का सटीक लिप्यान्तरन नहीं कर पाए है और इसी आकुलता ने अनहद नाद और शब्द ब्रह्म के विशेषणों को उपजाया होगा जो हमारी अभिव्यक्ति की विवशता की अकथ कहानी ही दुहराए जाते हैं !
जवाब देंहटाएंवैज्ञानिक सत्य है की मात्र ९ फीसदी संचार ही वाचिक संवाद के खेमे में है और ऐसा ही कुछ मुद्रित साहित्य में भी है -इसलिए ही कृति की श्रेष्ठता को व्यक्ति की श्रेष्ठता के परिप्रेक्षय में देखने की विज्ञ जन मनाही करते हैं - आभासी दुनिया तो इस मायने में निहायत ही फालतू चीज है मगर मजे की बात यह है की यहाँ पर हो रहे संवादों से ही व्यक्तियों की कटेगरी निर्धारित हो जा रही है -लोग नीच और घृणित की कोटि में रख दिए जा रहे हैं -जबकि उनका ९१ फीसदी संवाद धरा का धरा ही रह गया है !यहाँ फुसलाना आसान है गिरिजेश भाई!!!
@@रचना की बात से मेरा संवाद अनुमोदित होता है या उनकी बात मेरे कथन से अनुमोदित होती है ! क्या लगता है आपको ?
जवाब देंहटाएंविद्वत मण्डली का उत्साह देखकर दंग हो मैं अभी लेंठड़े के पास गया तो उसकी मुस्कान रहस्यमय लगी। .. मतलब कि अभी बहुत कुछ बाकी है।
जवाब देंहटाएं..प्रशंसा के लिए उस अतिउन्नत सभ्यता के वासी ने आप सभी का आभार व्यक्त किया है।
साथ ही शरद जी,मसिजीवी,ज्ञान जी, अभिषेक जी, डाक्टर द्वय, अमरेन्द्र जी, स्मार्ट भैया को विचार मंथन हेतु नियमित रूप से प्रस्तुत रहने का अनुरोध किया है। अदा जी से भी आश्रम की महंथी से थोड़ा समय निकालने का अनुरोध किया है।
समीर जी से अनुरोध किया है कि बात करते चलें। इकठ्ठा कर के रखने से बातों के बहुत भारी हो जाने का खतरा है जिसका बोझ शब्द नहीं उठा पाएँगे।..
.. अरविन्द मिश्र जी को विषय को 'रिच' करने के लिए उसने अपने रुमाल का उपहार भेजा है जिसे मैंने उन्हें वायरलेस द्वारा पठा दिया है ..जाने क्यों उसने अभिषेक जी से यह पूछ्ने को कहा कि 2+2=4 क्यों होते हैं? .. ऐसे ही हिमांशु जी से कविताई की फरमाइश की है - सोहर राग पर। ऐसा कोई राग होता है क्या?
... रचना जी के लिए उसने कहा कि अभी उसे एक हजार साल पहले का प्रवचन याद नहीं आ रहा। ..
मैं सोच रहा हूँ कि मुझे आप लोगों और लेंठड़े के बीच से अब हट जाना चाहिए...
लंठ चर्चा गजब ढा रही है।
जवाब देंहटाएंचलाते रहिए।
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छोटी सी गल्ती जो बडे़-बडे़ ब्लॉगर करते हैं।
क्या अंतरिक्ष में झण्डे गाड़ेगा इसरो का यह मिशन?