शाबास रिज़्वी दम्पति! शाबास टीम पीपली!!
ऐब्सर्डिटी को निर्मम भाव से दिखाने के लिए धन्यवाद। हिन्दुस्तान के रोज़ रोज़ मरते गाँवों की व्यथा के प्रति एक व्यक्ति भी सम्वेदनशील हुआ हो तो फिल्म सफल है। स्पष्ट है फिल्म सफल है।
रानी का डण्डा 1, 2 लिखने वाला टीम पीपली को नमन करता है। संतोष हुआ कि 'वह' अकेला नहीं है।
संजीव तिवारी का यह लेख भी पढ़ने योग्य है।
पुनश्च:
दो प्रकरण बहुत जमे। क़स्बाई अखबार का संवाददाता जो कि एकमात्र सम्वेदनशील मीडियामैन (इंडियन अंग्रेजन मीडियावाली के हिसाब से ग़लत धन्धे में) है, विस्फोट में मारा जाता है। लाश से झाँकते जले हुए हाथ में पहना हुआ कड़ा उस त्रासदी को बयाँ कर जाता है जो एक मीडिया वाले की निरर्थक मौत से उपजती है। उसका मरना 'न्यूज' नहीं बनता।
दूसरा - जब कैमरा हिलते हुए गाँव के भूदृश्य से तेज़ी से डेवलप होते मॉडर्न शहर के भूदृश्य तक आता है। भारत और इंडिया का कंट्रास्ट उभर आता है। और अंत में कथानायक मज़दूर रूप में दिखता है जो समाचारों में मर चुका है, घर वालों के लिए मर चुका है। मुआवजा ग़ायब है और एक किसान ग़ायब है अपने खेतों से लेकिन अपने ही देश में अजनबी ग़ुम हो जी रहा है। ग़ुमशुदा की तलाश तक ग़ायब है। कैसी विकट त्रासदी!